Monday, October 28, 2013

आदतों का अर्थशास्‍त्र


वित्‍तीय बाजारो में ज्‍यादा बेफिक्री ठीक नहीं। यहां सशंकित रहना ही समझदारी है। 2013 के नोबल विजेता फामा, शिलर और  हैनसेन के अनुभवसिद्ध (इंपी‍रिकल) शोध यही साबित करते हैं।

स्‍टाकहोम की नोबल पुरस्‍कार समिति अर्थशास्‍त्र के नोबेल के लिए किसी इतिहासकार या मनोवैज्ञानिक की तलाश में तो यकीनन नहीं थी। अर्थशास्‍त्र के लिए 555 बार पुरस्‍कार दे चुके नोबल वाले 2013 में ऐसे अर्थशास्त्रियों को नवाजना चाहते थे जो दरकती बैंकिंग, कर्ज के जाल फंसती सरकारों और मंदी में डूबती उतराती दुनिया को शोध, सोच और संकल्‍पना के नए सूत्र दे सकें। ले‍किन खोज ऐसे अर्थशास्त्रियों पर जाकर खत्‍म हुई जो कहते हैं कि आम लोगों को शेयर, बांड आदि बाजारों पर ज्‍यादा मगजमारी नहीं करनी चाहिए क्‍यों कि वित्‍तीय बाजारों का मिजाज समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। यूजेन फामा, लार्स पीटर हेनसेन और रॉबर्ट जे शिलर को नोबेल मिलना दिलचस्‍प और प्रतीकात्‍मक है। जीवन के साठ बसंत देख चुके तीनों अमेरिकी विशेषज्ञ अर्थशास्‍त्री कम,  इतिहास और मानव स्‍वभाव के अध्‍येता ज्‍यादा हैं। इन्‍होंने नए सिद्धांत को गढ़ने के बजाय वित्‍तीय बाजारों के इतिहास और मानव मनोविज्ञान को बांचा है और साबित किया है कि निवेशकों के फैसले अक्‍सर तर्क-तथ्‍य पर आधारित नहीं होते। पिछले कुछ वर्ष बाजारों के फेर में बैंकों, सरकारों और निवेशकों की बर्बादी के नाम दर्ज  हैं इस‍लिए गणितीय संकल्‍पनाओं से लंदे फंदे
अर्थशास्‍त्र पर इन अर्थविदों के व्‍यावहारिक अध्‍ययन, भारी पड़े हैं। इस नोबल से यह तथ्‍य भी स्‍थापित हुआ  है कि आर्थिक संकटों को सुलझाने के लिए इतिहास की अच्‍छी समझ बेहद जरुरी है।

चेतावनीभरे लेखन के लिए प्रख्‍यात एचएसबीसी बैंक के अर्थशास्‍त्री स्‍टीफन किंग ने पिछले दिनों कहा था 1907 और 1929 के संकटों के इतिहास से वाकिफ लोग विश्‍व की ताजा वित्‍तीय मुसीबत को आसानी से समझ सकते हैं। 2008 के लीमैन संकट के बाद कई अर्थशास्त्रियों ने इतिहास की मदद लेकर यह मिथ तोडने की कोशिश की है कि आर्थिक संकट अचानक फट पड़ा है। रोम में 33 वीं सदी के अचल संपत्ति संकट से लेकर लगभग हर सदी में उभरने वाले संप्रभु दीवालियेपन और बैंकिंग असफलताओं की रोशनी में यह माना जा रहा है कि आर्थिक नीतियां तय करने में इतिहास सीख लेना अनिवार्य होना चाहिए।  
इतिहास व अर्थशास्‍त्र की इस ताजा जुगलबंदी के मद्देनजर 74 वर्षीय यूजीन फामा का शोध कीमती हो गया है । मूलत: कला स्‍नातक और बाद में एमबीए करने वाले फामा ने बाजारों के लंबे अध्‍ययन के बाद यह सिद्ध किया था कि टमाटरों की तरह शेयर चुनना मूर्खता है। बहुआयामी कारकों के चलते वित्‍तीय बाजार में छोटी अवधि के उतार चढ़ावों को पकड़ना नामुमकिन है इसलिए किसी एक उद्योग पर आधरित निवेश रणनीति ही बेहतर है। फामा का अध्‍ययन साठ के दशक का है लेकिन  पिछले एक दशक में वित्‍तीय जगत फामा से कमोबेश सहमत हो चुका है कि शेयरों बांडों में छोटी अवधि के उतार-चढ़ाव पहेली ही रहेंगे। यही वजह है कि नोबल समिति ने फामा के नाम का ऐलान करते हुए कहा कि आम लोगों को एक एक शेयर के विश्‍लेषण में उलझने की जरुरत नहीं है। बेहतर है कि एक बड़ा पोर्टफोलियो बनाकर निवेश किया जाए।
भेड़ बनना आदमियों का पुराना शगल है और वित्‍तीय बाजार इस शौक को पूरा करने का मौका देते हैं। तुक तर्क से परे निवेश ने ग्लोबल संकटों की मार कई गुना बढ़ा दी है। इसलिए आर्थिक आदतों (बिहैवियरल इकोनॉमिक्)  का अध्‍ययन  अर्थशास्त्र का हिस्सा बनने लगा है। मनगढ़ंत सहमति (फाल्‍स कंसेसस), सामूहिक अज्ञान (प्‍यूरलिस्टिक इग्‍नोरेंस) ताबड़तोड निवेश (मूमेंटम इन्‍वेस्टिंग), पारदर्शिता का भ्रम और सब कुछ ठीक होने की उम्मीद जैसे तमाम मनोविकार (कॉग्निटिव बायस) बाजारों की उठा पटक का आधार हैं। अचरज नहीं कि इस साल के दूसरे नोबल विजेता रॉबर्ट जे शिलर दशकों से वित्‍तीय बाजारों में निवेशकों के व्‍यवहार का ही  अध्‍ययन कर रहे हैं और तेजी के गुब्‍बारों की वास्‍तविकता परख रहे हैं। शिलर का शोध साबित करता है कि शेयरों की कीमतें एक तर्कहीन उत्‍साह से बढ़ती हैं, कंपनियों के लाभांश इस तेजी का आधार नहीं होते। शेयर और हाउसिंग बाजार में तेजी के पिछले मौकों पर उनकी चेतावनियां चर्चा में रही हैं। नोबल समिति ने शिलर को इसलिए चुना है क्‍यों बाजार की इस भेड़चाल ने बैंकों लेकर निवेशकों तक बहुतों को बर्बाद किया है।
ऐसा हरगिज नहीं है गणितीय अर्थशास्‍त्र नोबेल की सूची से बाहर है। तीसरे विजेता पीटर लार्स हैनसेन ऐसे गणितीय मॉडल के जनक हैं जो बाजार में शेयर बांडों की कीमतें आंकने की विभिन्‍न संकल्‍पनाओं को जमीनी आंकड़ो से जोड़ता है और बाजार को तर्कसंगत ढंग से परखने का मौका देता है। परस्‍पर विरोधी कारकों के बीच बाजारों का सच समझने में यह मॉडल निवेशकों के काफी काम आया है। इसलिए बाजारों की घोर अनिश्चितता के बीच हैनसेन की व्‍यावहारिक गणित चमक उठी है।
अर्थशास्‍त्र एक रुखे सूखे और गणितीय विज्ञान की शोहरत रखता है क्‍यों कि इस की संकल्‍पनायें व थ्‍योरी आम लोगों की जिंदगी से मेल नहीं खाती। 2013 के नोबेल के साथ  ऐसे दैनिक अर्थशास्‍त्र को मान्‍यता मिल रही है जो इतिहास की रोशनी में वित्‍तीय व्‍यवहारों के अध्‍ययन पर आधारित है। नोबल समिति ने फामा, शिलर और  हैनसेन के शोध को व्‍यावहारिक और अनुभवसिद्ध (इंपी‍रिकल) यूं ही नहीं कहा, दरअसल यूरोप के कर्ज संकट और ग्‍लोबल वित्‍तीय बाजारों में गहरी चोट खा चुके  लोग बाजार के आधुनिक आर्थिक सोच को लेकर गहरे असमंजस में हैं। उन्‍हें यह समझ नहीं आता कि यह कैसी सूचना आधारित दुनिया है जिसमें असली सूचना ही खो जाती है।  यह कैसी पारदर्शिता है, जिसमें हर धतकरम छिप जाता है। यह कैसी इंटीग्रेटेड दुनिया है जो चेतावनियां नहीं बल्कि आपस में संकट बांटती है।  लोग हैरत में हैं कि ब्‍लॉगों पर बड़बड़ाने वाली, ट्विटर पर चिचियाने वाली और फेसबुकों पर बिछ जाने वाली यह दुनिया हमेशा गलत मौके पर सन्‍नाटा क्‍यों खींच जाती है। फामा, शिलर और हैनसेन के शोध इसी सन्‍नाटे को तोड़ते हैं और दुनिया को चेताते हैं कि वित्‍तीय बाजारो में ज्‍यादा बेफिक्री ठीक नहीं। यहां सशंकित रहना ही समझदारी है। 

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