Monday, December 16, 2013

जनादेश के चैम्पियन


courtesy - Mint 
बहस अब यह नहीं है कि देश के लिए विकास का मॉडल क्‍या है अब तो यह तय होगा कि किस राज्‍य के    विकास का मॉडल पूरे देश के लिए मुफीद है।

राज्‍यों के कामयाब क्षत्रपों को भारत में सत्‍ता का शिखर शायद इसलिए नसीब नहीं हुआ क्‍यों कि पारंपरिक राजनीति एक अमूर्त राष्‍ट्रीय महानायकवाद पर केंद्रित थी जो प्रशासनिक सफलता के रिकार्ड या तजुर्बे को कोई तरजीह नहीं देता था। कद्दावर राजनीतिक नेतृत्‍व की प्रशासनिक कामयाबी को गर्वनेंस व विकास की जमीन पर नापने का कोई प्रचलन नहीं था इसलिए किसी सफलतम मुख्‍यमंत्री के भी प्रधानमंत्री बनने की कोई गारंटी भी नहीं थी। सभी दलों के मुख्‍यमंत्रियों को पिछले दो दशकों के आर्थिक सुधार व मध्‍य वर्ग के उभार का आभारी होना चाहिए जिसने  पहली बार गवर्नेंस व विकास को वोटरों के इंकार व स्‍वीकार का आधार बना दिया और प्रशासनिक प्रदर्शन के सहारे मुख्‍यमंत्रियों को राष्‍ट्रीय नेतृत्‍व की तरफ बढ़ने का मौका दिया। इस नए बदलाव की रोशनी में दिल्‍ली, मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान व छत्‍तीसगढ़ का जनादेश न केवल विकास और गवर्नेंस की राजनीति के नए अर्थ खोलता है और बल्कि संघीय राजनीति के एक नए दौर का संकेत भी देता है।
चारों राज्‍यों का जनादेश, विकास से वोट की थ्‍योरी में दिलचस्‍प मोड़ है। विकास की सियासत का नया मुहावरा चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्‍व में नब्‍बे के दशक के अंत में आंध्र से उठा था। नायडू तो 2004 में कुर्सी से उतर गए लेकिन 1999 से 2003 के बीच राज्‍यों के क्षत्रप पहली बार विकास की राजनीति पर गंभीर
हुए। इस दौरान महाराष्‍ट्र, मध्‍य प्रदेश, दिल्‍ली, राजस्‍थान, गुजरात और उड़ीसा के सत्‍ता बदली, कई दिग्‍गज खेत रहे और नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह, रमन सिंह, शीला दीक्षित, विलासराव देशमुख, वसुंधरा राजे, नवीन पटनायक की नई पीढ़ी ने जातीय राजनीति के पुराने रसायन में निजी निवेश, ग्रोथ और आय में बढ़ोत्‍तरी के तत्व मिलाने शुरु किये। इसी दौर में नए मध्‍यवर्गीय युवा ने खुले बाजार के फायदों की रोशनी में वोट देना शुरु किया और राज्‍यों के बीच विकास की होड़ को समर्थन मिला।
विकास की राजनीति के मद्देनजर ताजा चुनावों का परिप्रेक्ष्‍य अनोखा था।  चुनाव वाले राज्‍य पिछले वर्षों में शानदार विकास दर लेकर आगे आए और अपने अपने विकास मॉडलों के साथ देश के सबसे तेज दौड़ते राज्‍यों में शुमार हुए। देश की आर्थिक ग्रोथ के सबसे बेहतर वर्षों के दौरान दिल्‍ली, मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान और छत्‍तीसढ़ में विकास दर की मीनारे समान रुप से ऊंची उठी थीं। दूसरा पहलू यह भी है कि वोट देते समय जनता पिछले दो दशक की सबसे जिद्दी मंदी, महंगाई व बेकारी से मुकाबिल थी और जनता के गुस्‍से का यह पारा चारों राज्‍यों में समान रुप से गर्म था। अलबत्‍ता एक जैसे हालात बावजूद चुनावों में जनता के स्‍वीकार व इंकार जबर्दस्‍त ढंग से फर्क रहे हैं।
दिल्‍ली में विकास दिखता है ले‍किन जनादेश नकारात्‍मक वोट का अद्भुत चरम था। शानदार पुलों सड़कों से लैस शहरी वोटर ने महंगाई के गुस्‍से और पारदर्शिता की मांग के सामने सब कुछ नकार दिया। ऐसा लगा कि एक निर्मम व तानाशाह सरकार को सबक सिखाया गया है। दिल्‍ली बताया कि पढा लिखा व नगरीय मतदाता मुकाबिल है तो दशक का सबसे शानदार विकास भी वोट की गारंटी नहीं है, वह किसी भी तात्‍कालिक सवाल पर तख्‍त छीन लेगा। शिवराज सिंह ने गुजरात की तरह निजी निवेश के झंडे भले ही न फहराये हों मगर उदार बाजार, लोकलुभावन स्‍कीमों और ग्रामोन्‍मुख अर्थनीति के सहारे न केवल मध्‍य प्रदेश को बिमारु के कलंक से उबारा बल्कि महंगाई व मंदी को लेकर जनता के गुस्‍से को सत्‍ता समर्थक सकारात्‍मक वोट में बदल दिया। ग्रोथ की इस कवायद में  शिवराज ने वोटों की जातीय गणित को भी फिसलने नहीं दिया, जिस पर पकड़ गंवाना अशोक गहलौत की हार की वजह बन गया। गहलौत मध्‍य प्रदेश को ही नमूना बनाते हुए राजस्‍थान को बिमारु के दर्जे से उबार रहे थे लेकिन उदार बाजार और जनलुभावन स्‍कीमों के बावजूद जातीय राजनीति सध नहीं सकी। राजस्‍थान ने बताया कि देश के कुछ हिस्सों में केवल सामाजिक स्‍कीमों, निजी निवेश और ग्रोथ से वोट नहीं मिलते, जातीय गणित की पुरानी सियासत अभी भी प्रासंगिक है। छत्‍तीसगढ़ में सत्‍ता पक्ष के अनुभवी कौशल और बिखरे हुए विपक्ष के बीच मुकाबला था, जिसमें सत्‍ता विरोधी लहर का करतब पूरा नहीं हो सका, हालांकि वोट नकारात्‍मक था।
पिछले जनादेश बताते हैं कि आर्थिक उदारीकरण की छाया में राज्‍यों ने विकास के अलग अलग मॉडल साधने की कोशिश की है, जिनकी चुनावी सफलता-विफलता भी स्‍थापित हो रही है। गुजरात, उड़ीसा, मध्‍य प्रदेश, पंजाब, छत्‍तीसगढ़, महाराष्‍ट्र, बिहार सफल रहे हैं जिनके मुख्‍यमंत्रियों ने अपने राज्‍य की आर्थिक, सामाजिक सूरत को समझने में गहरी मेहनत की है जब कि उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड, कर्नाटक, आंध्र पिछले एक दशक में विकास का फार्मूला ही तय नहीं कर पाए हैं। विपक्षी दल शासित राज्‍यों के मुख्‍यमंत्री ज्‍यादा सफल रहे हैं क्‍यों कि शायद उन्‍हें अपने तरह से विकास के मॉडल गढ़ने की छूट थी। कांग्रेसी मुख्‍यमंत्रियों को यह सुविधा तो नहीं मिली अलबत्‍ता केंद्र की असफलता उनकी हार का जरिया जरुर बन गई। सत्‍ता समर्थक और सत्‍ता विरोधी जनादेश के एक साथ उभार में भी आर्थिक सामाजिक विकास के मॉडलों की चूक व कामयाबी साफ साफ पढ़ी जा सकती है।
राष्‍ट्रीय विकास एक हद के बाद अमूर्त हो जाता है जबकि राज्‍यों के विकास को भौगोलिक सीमा के भीतर ठोस ढंग से महसूस किया जा सकता है, यही वजह है कि विकास की अपेक्षायें राज्‍यों पर केंद्रित हो रही हैं। प्रशासनिक प्रामाणिकता जनादेशों का नया आधार है इसलिए केंद्रीय राजनीति के फलक पर मुख्‍यमंत्रियों के कद पार्टियों के राजनीतिक नेतृत्‍व से होड़ लेने लगे हैं। राष्ट्रीय राजनीति में मुख्‍यमंत्रियों का उभार विकास की चर्चा का मजमून बदल रहा है। आर्थिक विकास की जरुरतों ने संघवाद को नई रोशनी से भर दिया है।  बहस अब यह नहीं है कि देश के लिए विकास का मॉडल क्‍या है अब तो यह तय होगा कि किस राज्‍य के विकास का मॉडल पूरे देश के लिए मुफीद है। 

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