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Friday, April 9, 2021

भरम गति टारे नहीं टरी

 


फिल्म अभि‍नेता अक्षय कुमार को कोविड होने की खबर सुनकर डब्बू पहलवान चौंक पड़े. डब्बू को बीते साल पहली लहर में उस वक्त कोरोना ने पकड़ा था, जब डोनाल्ड ट्रंप बगैर मास्क के घूम रहे थे. पहलवान को लगता था कि उनकी लोहा-लाट मांसपेशि‍यों और कसरती हड्डियों के सामने वायरस क्या टिकेगा? लेकिन कोविड से उबरने के बाद, डब्बू ने मोच उतारने की अपनी दुकान से यह ऐलान कर दिया अगर बगैर मास्क वाला आस-पास भी दिखा तो हड्डी तोड़कर ही जोड़ी जाएगी.

अक्षय कुमार को लेकर पहलवान की हैरत लाजिमी है. डब्बू भाई उन करोड़ों लोगों का हिस्सा हैं जो महामारी की शुरुआती लहरों में आशावादी पूर्वाग्रह (ऑप्टि‍मिज्म बायस) का शि‍कार होकर वायरस को न्योत बैठे थे. तब तक बहुत-से लोग यह सोच रहे थे उन्हें कोविड नहीं हो सकता लेकिन अक्षय कुमार के संक्रमित होने तक भारत कोविड से मारों की सूची में दुनिया में तीसरे नंबर पहुंचा चुका था. 

इसके बाद भी महामारी की और ज्यादा विकराल दूसरी लहर आ गई!

कैसे ?

डब्बू पहलवान तो सतर्क हो गए थे लेकिन सितंबर आते-आते लाखों लोग सामूहिक तौर पर उस अति आत्मविश्वास का शि‍कार हो गए जिसका नेतृत्व खुद सरकार कर रही थी. सरकारों ने लॉकडाउन लगाने और उठाने को कोविड संक्रमण घटने-बढऩे से जोड़ दिया जबकि प्रत्यक्ष रूप से लॉकडाउन लगने से कोविड संक्रमण थमने का कोई ठोस रिश्ता आज तक तय नहीं हो पाया.

यहां से भारत की कोविड नीति एक बड़े मनोविकार की चपेट में आ गई जिसे एक्स्पोनेंशि‍यल ग्रोथ बायस कहते हैं. हम समझते हैं कि बढ़त रैखि‍क है जबकि‍ रोज होने वाली बढ़त अनंत हो सकती है. आबादी,  चक्रवृद्धि ब्याज, बैक्टीरिया, महामारियां इसी तरह से बढ़ती हैं.

कहते हैं एक बादशाह से किसी व्यापारी ने अनोखे इनाम की मांग की. उसने कहा कि वह चावल का एक दाना चाहता है लेकिन शर्त यह कि शतरंज के हर खाने में इससे पहले खाने से दोगुने दाने रखे जाएं...64वें खाने का हिसाब आने तक पूरी रियासत में उगाया गया चावल कम पड़ गया!

कितना अनाज हुआ होगा इसका हि‍साब आप लगाइए...हम तो यह बताते हैं कि वैक्सीन उत्सव के बीच इस जनवरी में सरकार को तीसरे सीरो सर्वे की रिपोर्ट मिल चुकी थी. यह सर्वेक्षण कुल आबादी में संक्रमण की वैज्ञानिक पड़ताल है. मई-जून 2020 के बीच हुए पहले सीरो सर्वे में भारत में एक फीसद से कम आबादी संक्रमित थी. दूसरे सर्वे में (अगस्त-सितंबर 2020) 6.6 फीसद लोगों तक संक्रमण पहुंच गया था और इस फरवरी में जब सरकार के मुखि‍या चुनावी रैलियों में हुंकार रहे थे जब 21.7 फीसद आबादी तक यानी कि हर पांचवें भारतीय तक संक्रमण पहुंच चुका था. संक्रमण में मई से फरवरी तक, यह 21 गुना बढ़त थी यानी अनंत (एक्स्पोनेंशि‍यल) ग्रोथ.

यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिल्वानिया के शोधकर्ताओं (हैपलॉन, ट्रग और मिलरजून 2020) ने पाया कि कई देशों में सरकारें तीन बड़े सामूहिक भ्रम का शि‍कार हुई हैं.

सरकारों ने प्रत्यक्ष हानि (आइडेंटिफियबिल विक्टि‍म इफेक्ट) को रोकने की कामयाबी का ढोल पीटने के चक्कर में लंबे नुक्सानों को नजरअंदाज कर दिया. मौतें कम करने पर जोर इतना अधि‍क रहा कि जैसे ही मृत्यु दर घटी, सब ठीक मान लिया गया.

कोविड से निबटने की रणनीतियां प्रजेंट बायस का शि‍कार भी हुईं. कोविड के सक्रिय केस कम होने का इतना प्रचार हुआ कि जांच ही रुक गई. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में प्रवासी मजदूरों से संक्रमण फैलने की जांच किए बगैर भारत की मजबूत प्रतिरोधक क्षमता का जिंदाबाद किया जाने लगा.

कोविड घटने के प्रचार के बजाए संक्रमि‍तों की आवाजाही पर नजर रखने और टीकाकरण को उसी ताकत से लागू करना चाहिए था जैसे लॉकडाउन लगा था. अलबत्ता लॉकडाउन उठने के साथ पूरी व्यवस्था ही कोविड खत्म होने के महाभ्रम (बैंडवैगन इफेक्ट) का शि‍कार हो गई तभी तो बीते सितंबर में जब दुनिया में दूसरी लहर आ रही थी तब देश के नेता अपने आचरण से बेफिक्र होने लगे थे और मेले, रैलियों, बारातों के बीच लोग मास्क उतारकर कोविड को विदाई देने लगे.

सनद रहे कि भारत में कोविड से मौतें और सक्रिय केस कम (आंकड़े संदिग्ध) हुए थे, संक्रमण नहीं लेकिन लॉकडाउन हटने को कोविड पर जीत समझ लिया गया और सरकार भी वैक्सीन राष्ट्रवाद का बिगुल फूंकती हुई चुनाव के दौरे पर निगल गई.

सभी मनोभ्रम बुरे नहीं होते. सामूहिक अनुभव (एवेलेबिलिटी बायस) तजुर्बे के आधार पर खतरे को समय से पहले भांपने की ताकत देता है. इसी की मदद से कोरिया, ताईवान जैसे कई देशों ने सार्स की विभीषि‍का से मिली नसीहतों को सहेजते हुए खुद को कोविड से बचा लिया.

अलबत्ता, भारत जहां केवल बीते कुछ माह में 1.65 लाख मौतें हुईं थीं, वहां लोग और सरकार मिलकर संक्रमितों की दैनिक संख्या एक लाख रिकॉर्ड (4 अप्रैल 2021) पर ले आए. इस बार भी कोई मसीहा बचाने नहीं आया, हम खुद के ही हाथों फिर ठगे गए.

Friday, January 8, 2021

एक और अवसर

 


यह जो आपदा में अवसर नाम का मुहावरा है न, इसका मुलम्मा चाहे बिल्कुल उतर चुका हो लेकिन फिर भी आपदाओं को सलाम कि वे अवसर बनाने की ड‍्यूटी से नहीं चूकतीं.

आपको वैक्सीन कब तक मिलेगी और किस कीमत पर यह इस पर निर्भर होगा कि भारत का कल्याणकारी राज्य कितना कामयाब है? वेलफेयर स्टेट के लिए यह दूसरा मौका है. पहला अवसर बुरी तरह गंवाया गया था जब लाखों प्रवासी मजदूर पैदल गिरते-पड़ते घर पहुंचे थे और स्कीमों-संसाधनों से लंदी-फंदी सरकार इस त्रासदी को केवल ताकती रह गई थी.

विज्ञान और फार्मा उद्योग अपना काम कर चुके हैं. ताजा इतिहास में दुनिया का सबसे बड़ा सामूहिक वैक्सिनेशन या स्वास्थ्य परियोजना शुरू हो रही है. सवाल दो हैं कि एक, अधिकांश लोगों को आसानी से वैक्सीन कब तक मिलेगी और दूसरा, किस कीमत पर?

इनके जवाब के लिए हमें वैक्सीन राष्ट्रवाद से बाहर निकल कर वास्तविकता को समझना जरूरी है, ताकि वैक्सीन पाने की बेताबी को संभालते हुए हम यह जान सकें कि भारत कब तक सुरक्षित होकर आर्थिक मुख्यधारा में लौट सकेगा.

क्रेडिट सुइस के अध्ययन के मुताबिक, भारत को करीब 1.66 अरब खुराकों की जरूरत है.

विज्ञान और उद्योग ने वैक्सीन प्रोजेक्ट पूरा कर लिया है. भारत में करीब 2.4 अरब खुराकें बनाने की क्षमता है. इसके अलावा सिरिंज, वॉयल, गॉज आदि की क्षमता भी पर्याप्त है. पांच कंपनियां (अरबिंदो फार्मा, भारत बायोटेक, सीरम इंस्टीट्यूट, कैडिला और बायोलॉजिकल ई) इसका उत्पादन शुरू कर चुकी हैं. भारत के पास उत्पादन की क्षमता मांग से ज्यादा है. अतिरिक्त उत्पादन निर्यात के लिए है.

जब पर्याप्त वैक्सीन है तो समस्या क्या? सबसे बड़ी चुनौती वितरण तंत्र की है. जिन वैक्सीनों का प्रयोग भारत में होना है उन्हें 2 से -8 डिग्री पर सुरक्षित किया जाना है. चार कंपनियां, स्नोमैन, गतिकौसर, टीसीआइएल और फ्यूचर सप्लाइ चेन के पास यह कोल्ड स्टोरेज और परिहवन की क्षमता है. लेकिन वे अधिकतम 55 करोड़ खुराकों का वितरण संभाल सकती हैं जो भारत की कुल मांग के आधे से कम है.

यह कंपनियां टीकाकरण के अन्य कार्यक्रमों को सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं. वितरण की क्षमता बढ़ाए जाने की गुंजाइश कम है क्योंकि कोविड के बाद यह क्षमता बेकार हो जाएगी. अगर सब कुछ ठीक चला तो भी इस साल भारत में 40 से 50 करोड़ लोगों तक वैक्सीन पहुंचना मुश्किल होगा.

सरकारी और निजी आकलन बतात है कि वैक्सीन देने (दो खुराक) के लिए सरकारी व निजी स्वास्थ्य नेटवर्क के करीब एक करोड़ कर्मचारियों की जरूरत होगी. यानी नियमित स्वास्थ्य सेवाओं के बीच वैक्सीन के लिए लंबी कतारों की तैयारी कर लीजिए.

टीका लगने के बाद बात खत्म नहीं होती. उसके बाद ऐंटीबॉडी की जांच कोरोना वैक्सीन के शास्त्र का हिस्सा है. यानी फिर पैथोलॉजिकल क्षमताओं की चुनौती से रू--रू होना पड़ेगा.

भारत के मौजूदा वैक्सीन कार्यक्रम बच्चों के लिए हैं और सीमित व क्रमबद्ध ढंग से चलते हैं. यह पहला सामूहिक एडल्ट वैक्सीन कार्यक्रम है जिसमें कीमत और वितरण की चुनौती एक-दूसरे से गुंथी हुई हैं. यदि सरकार बड़े पैमाने पर खुद सस्ती वैक्सीन बांटती है तो वितरण की लागत उसे उठानी होगी. भारी बजट चाहिए यानी सबको वैक्सीन मिलने में लंबा वक्त लगेगा. सब्सिडी के बगैर वितरण लागत सहित दो खुराकों की कीमत करीब 5,000 रुपए तक होगी, हालांकि वितरण तंत्र पर्याप्त नहीं है. यानी कोरोना की संजीवनी उतनी नजदीक नहीं है जितना बताया जा रहा है. 

स्वास्थ्यकर्मियों के बाद वैक्सीन पाने के लिए 50 साल से अधिक उम्र के लोगों के चुनने के पैमाने में पारदर्शिता जरूरी है. वैक्सीन वितरण को भारत केवीआइपी पहलेसे बचाना आसान नहीं होगा. 

 मुमकिन है कि क्षमताओं व संसाधनों की कमी से मुकाबिल सरकार यह कहती सुनी जाए कि सबको वैक्सीन की जरूरत ही नहीं है लेकिन उस दावे पर भरोसा करने से पहले यह जान लीजिएगा कि भारत में कोविड पॉजिटिव का आंकड़ा संक्रमण की सही तस्वीर नहीं दिखाता है. अगस्त से सितंबर के बीच 21 राज्यों के 70 जिलों में हुए सीरो सर्वे के मुताबिक, कोविड संक्रमण, घोषित मामलों से 25 गुना ज्यादा हो सकता है. यानी वैक्सीन की सुरक्षा का कोई विकल्प नहीं है.

भारत की वैक्सीन वितरण योजना को अतिअपेक्षा, राजनीति और लोकलुभावनवाद से बचना होगा. यह कार्यक्रम लंबा और कठिन है. सनद रहे कि केवल 27 करोड़ की आबादी वाला इंडोनेशिया अगले साल मार्च तक अपने 50 फीसद लोगों को टीका लगा पाएगा.

हमें याद रखना चाहिए कि भारत अनोखी व्यवस्थाओं वाला देश है जो कुंभ मेले जैसे बड़े आयोजन तो सफलता से कर लेता है लेकिन लाखों प्रवासी श्रमिकों को घर नहीं पहुंचा पाता या सबको साफ पानी या दवा नहीं दे पाता. इसलिए वैक्सीन मिलने तक 2020 को याद रखने में ही भलाई है.

Friday, November 6, 2020

ध्यान किधर है?

 

भारतीय सीमा में किसी केघुसे होने या न होनेकी उधेड़बुन के बीच जब मंत्री-अफसर हथियारों की खरीद के लिए मॉस्को-दिल्ली एक कर रहे थे अथवा टिकटॉक पर पाबंदी के बाद स्वदेशी नारेबाज चीन की अर्थव्यवस्था के तहस-नहस होने की आकाशवाणी कर रहे थे या कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को चीन के खतरे से डरा रहे थे, उस समय चीन क्या कर रहा था?

यह सवाल विभाजित, बीमार और मंदी के शिकार अमेरिका में नए राष्ट्रपति के सत्तारोहण के बाद होने वाली सभी व्याख्याओं पर हावी होने वाला है.

इतिहासकारों के आचार्य ब्रिटिश इतिहासज्ञ एरिक हॉब्सबॉम ने लिखा था कि हमारा भविष्य सबसे करीबी अतीत से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है, बहुत पुराने इतिहास से नहीं.

कोविड की महामारी और चीन की महाशक्ति संपन्नता ताजा इतिहास की सबसे बड़ी घटनाएं हैं. बीजिंग दुनिया की नई धुरी है. अमेरिकी राष्ट्रपति को भी चीन के आईने में ही पढ़ा जाएगा. इसलिए जानना जरूरी है कि कोविड के बाद हमें कैसा चीन मिलने वाला है. 

मई में जब अमेरिका में कोविड से मौतों का आंकड़ा एक लाख से ऊपर निकल रहा था और भारत में लाखों मजदूर सड़कों पर भटक रहे थे, उस समय चीन सुन त्जु की यह सीख मान चुका था कि दुनिया की सबसे मजबूत तलवार भी नमकीन पानी में जंग पकड़ लेती है.

मई में चीन ने चोला बदल सुधारों की बुनियाद रखते हुए सालाना आर्थिक कार्ययोजना में जीडीपी को नापने का पैमाना बदल दिया. हालांकि मई-जून तक यह दिखने लगा था कि चीन सबसे तेजी से उबरने वाली अर्थव्यवस्था होगी लेकिन अब वह तरक्की की पैमाइश उत्पादन में बढ़ोतरी (मूल्य के आधार पर) से नहीं करेगा.

चीन में जीडीपी की नई नापजोख रोजगार में बढ़ोतरी से होगी. कार्ययोजना के 89 में 31 लक्ष्य रोजगार बढ़ाने या जीविका से संबंधित हैं, जिनमें अगले साल तक ग्रामीण गरीबी को शून्य पर लाने का लक्ष्य शामिल है.

चीन अब छह फीसद ग्रोथ नहीं बल्कि  जनता के लिए छह गारंटियां (रोजगार, बुनियादी जीविका, स्वस्थ प्रतिस्पर्धी बाजार, भोजन और ऊर्जा की आपूर्ति, उत्पादन आपूर्ति तंत्र की मजबूती और स्थानीय सरकारों को ज्यादा ताकत) सुनिश्चित करेगा.

चीन अपने नागरिकों को प्रॉपर्टी, निवास, निजता, अनुबंध, विवाह और तलाक व उत्तराधिकार के नए और स्पष्ट अधिकारों से लैस करने जा रहा है. 1950 से अब तक आठ असफल कोशिशों के बाद इसी जून में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने कानूनी नागरिक अधिकारों की समग्र संहिता को मंजूरी दे दी. यह क्रांतिकारी बदलाव अगले साल 1 जनवरी से लागू होगा.

चीन की विस्मित करने वाली ग्रोथ का रहस्य शंघाई या गुआंग्जू की चमकती इमारतों में नहीं बल्कि किसानों को खुद की खेती करने व उपज बेचने के अधिकार (ऐग्री कम्यून की समाप्ति) और निजी उद्यम बनाने की छूट में छिपा था. आबादी की ताकत के शानदार इस्तेमाल से वह निर्यात का सम्राट और दुनिया की फैक्ट्री बन गया. जीविका, रोजगार और कमाई पर केंद्रित सुधारों का नया दौर घरेलू खपत और मांग बढ़ाकर अर्थव्यवस्था की ताकत में इजाफा करेगा.

चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं गोपनीय नहीं हैं. नए सुधारों की पृष्ठभूमि में विशाल विदेशी मुद्रा भंडार, दुनिया में सबसे बड़ी उत्पादन क्षमताएं, विशाल कंपनियां, आधुनिक तकनीक और जबरदस्त रणनीतिक पेशबंदी मौजूद है. लेकिन उसे पता है कि बेरोजगार और गरीब आबादी सबसे बड़ी कमजोरी है. दुनिया पर राज करने के लिए अपने करोड़ों लोगों की जिंदगी बेहतर करना पहली शर्त है, वरना तकनीक से लैस आबादी का गुस्सा सारा तामझाम ध्वस्त कर देगा.

कोविड के बाद दुनिया को जो अमेरिका मिलेगा वह पहले से कितना फर्क होगा यह कहना मुश्किल है लेकिन जो चीन मिलने वाला है वह पहले से बिल्कुल अलग हो सकता है. अपनी पहली छलांग में चीन ने पूंजीवाद का विटामिन खाया था. अब दूसरी उड़ान के लिए उसे लोकतंत्र के तौर-तरीकों से परहेज नहीं है. नया उदार चीन मंदी के बोझ से घिसटती दुनिया और विभाजित अमेरिका के लिए रोमांचक चुनौती बनने वाला है.

चीन के इस बदलाव में भारत के लिए क्या नसीहत है?
सुन त्जु कहते हैं कि दुश्मन को जानने के लिए पहले अपना दुश्मन बनना पड़ता है यानी अपनी कमजोरियां स्वीकार करनी होती हैं. निर्मम ग्रोथ सब कुछ मानने वाला चीन भी अगर तरक्की की बुनियाद बदल रहा है तो फिर भयानक संकट के बावजूद हमारी सरकार नीतियों, लफ्फाजियों, नारों, प्रचारों का पुराना दही क्यों मथ रही है, जिसमें मक्खन तो दूर महक भी नहीं बची है.
 

इतिहास बड़ी घटनाओं से नहीं बल्किउन पर मानव जाति की प्रतिक्रियाओं से बनता है. महामारी और महायुद्ध बदलाव के सबसे बड़े वाहक रहे हैं. लेकिन बड़े परिवर्तन वहीं हो सकते हैं जहां नेता अगली पीढ़ी की फिक्र करते हैं, अगले चुनाव की नहीं.

सनद रहे कि अब हमारे पास मौके गंवाने का मौका भी नहीं बचा है.

Saturday, October 24, 2020

सबसे बड़ी सेल



गरज भारत सरकार की! मौका मोटी जेब वालों के लिए! माल चुनिंदा और शानदार! मंदी के मौके पर भारी डिस्काउंट.

एक एयरलाइंस, आधा दर्जन एयरपोर्ट, तेल गैस पाइपलाइन, बंदरगाहों पर टर्मिनल, रेलवे स्टेशन, ट्रेनें, हाइवे और रेलवे कॉरिडोर के हिस्से, बिजली ट्रांसमिशन लाइनें... बहुत कुछ बिकने वाला है. अफसरों की समितियां, नीति आयोग की मदद से बेचने के तौर तरीके तय करने में लगी हैं. मुहि नतीजे तक पहुंची तो ताजा इतिहास में सार्वजनिक संपत्तियों का यह सबसे बड़ी बिकवाली होगी.

यह निजीकरण है या संपत्तियों से ज्यादा राजस्व जुटाने (एसेट मॉनेटाइजेशन) की कोशि? यह गुत्थी खोलने से पहले जानना जरूरी है कि यह सेल लगाने की तैयारी 2018-19 के अंतरिम बजट से ही शुरू हो गई थी. राजस्व जीएसटी के बाद से ही घिसट रहा है. विनिवेश विभाग के उत्तराधिकारी दीपम (निवेश और सार्वजनिक संपत्तिप्रबंधन) की देखरेख और कैबिनेट सचिव की अगुआई में सचिवों की समिति ने बीते अप्रैल से इस बिक्री के लिए कंपनियों, जमीनों, भवनों, परियोजनाओं की सूची बनानी शुरू की दी थी.

लॉकडाउन के बाद यह सेल अनिवार्य हो गई है. गहरी और लंबी मंदी के बीच सरकारी खजाना पूरी तरह रीत चुका है. केंद्र के सकल राजस्व में इस साल 4.32 लाख करोड़ रु. का नुक्सान होना है जो इस साल सार्वजनिक उपक्रम विनिवेश लक्ष्य (2.10 लाख करोड़ रु.) का दोगुना है. इस वित्त वर्ष में केंद्र और राज्यों का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 10-12 फीसद होगा. यानी कि दस फीसद की कारात्मक विकास दर पर दस फीसद से ज्यादा का घाटा. बकौल सीएजी, केंद्र सरकार ने अपना कर्ज छिपाया है, इसके बावजूद सकल कर्ज (केंद्र और राज्य) जीडीपी का 85 फीसद होगा. केंद्र इस साल 12 लाख करोड़ रु. का कर्ज (बीते साल से दोगुना) उठाएगा. अगस्त तक के आंकड़े के अनुसार, राज्यों का कर्ज बीते साल 50 फीसद ज्यादा रहा है.

अर्थव्यवस्था और घाटों की जो हालत है उसमें तो बैंक सरकारों को एक सीमा से ज्यादा कर्ज दे सकते हैं और ही सरकारें कर्ज का बोझ उठा सकती हैं, इसलिए अब संपत्तिबेचकर राजस्व जुटाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है.

लौटते हैं, महासेल की तरफ. सूची दिलचस्प है. जैसे कि अगर एयर इंडिया को ग्राहक मिल जाए तो इस उड़ते सफेद हाथी का कर्ज सरकार अपनेसिर ले सकती है. एयरपोर्ट अथॉरिटी पटना और भोपाल सहित चार हवाई अड्डों के लिए निजी भागीदार तलाशेगी. हाइवे अथॉरिटी करीब 10,000 किमी सड़कों को निजी कंपनियों को सौंपना चाहती है. नीति आयोग ने तीन सरकारी बैंकों के निजीकरण की सिफारिश कर दी है.

पावर ग्रिड ट्रांसमिशन लाइनों को बेच कर 20,000 करोड़ रु. (शुरुआती अनुमान) का योगदान करने की तैयारी में है. शिपिंग मंत्रालय 11 बर्थ और एक क्रूज टर्मिनल लेकर बाजार में रहा है जबकि पेट्रोलियम मंत्रालय गेल, इंडियन ऑयल और एचपी की चुनिंदा पाइपलाइनों को निजी क्षेत्र को सौंपना चाहता है. रेलवे 150 यात्री ट्रेनें और 50 स्टेशनों के साथ डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर के लिए भी निजी भागीदार की तलाश करेगी. कोलकाता मेट्रो के बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स सहित हुडको और एनबीसीसी से भी अपनी संपत्तियां बाजार में लाने को कहा गया है.

सरकारी उपक्रमों के विनिवेश को लेकर सरकार बीते पांच साल से तरह-तरह के प्रपंच करती रही है. एक सरकारी कंपनी दूसरी का अधिग्रहण (एलआइसी-आइडीबीआइबैंक) तक कराया गया. हालांकि 2017-18 तक पांच वर्षों में सरकारी कंपनियों की संख्या 234 से बढ़कर 257 हो (सार्वजनिक उपक्रम सर्वे 2018) हो गई. लेकिन यह चलने वाला नहीं है. खुली बिक्री ही आखिरी रास्ता है.

क्या इस महासेल को निजीकरण कहा जाएगा? फिलहाल पूरी प्रक्रिया के लिए एसेट मॉनेटाइजेशन की संज्ञा इस्तेमाल की जा रही है. जो सार्वजनिक उपक्रम विनिवेश का हिस्सा है विरोध हुआ तो सरकार यह कह सकती है कि इन संपत्तियों के मालिकाना अधिकार निजी भागीदारों को नहीं मिलेंगे. इन संपत्तियों को निजी क्षेत्र को टिकाकर अतिरिक्त राजस्व जुटाया जाएगा.

अव्वल तो इस मंदी में ग्राहक हैं ही कहां, अगर गए तो इन्हें खरीदने वाले निवेशक इतने भोंदू नहीं होंगे कि वे निजीकरण से कम पर मान जाएं? मंदी में गले तक धंसी अर्थव्यवस्था के बीच इन संपत्तियों के खरीददारों को तत्काल कोई फायदा नहीं मिलना, इसलिए इन ग्राहकों का हाथ ऊपर रहेगा यानी कि राजनैतिक  विवादों की भरपूर गुंजाइश है.

सरकार यह जोखि क्यों ले रही है? इसलिए कि दुनिया की साख तय करने वाली एजेंसियों यानी मूडीज और स्टैंडर्ड पुअर को पता चलता रहे कि घाटे कम करने की कोशिश जारी है, चाहे इसके लिए अपने नवरत्न भी बेचने पड़ें. बढ़ते घाटे की रोशनी में भारत की साख और टूटने (पहले से न्यूनतम) का खतरा है. अगर ऐसा हुआ तो इन रत्नों को भी ग्राहक मिलने मुश्कि हो जाएंगे.

दिल थाम के बैठिए. भारत सरकार की महासेल की उलटी गिनती शुरू होने वाली है.