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Friday, March 12, 2021

बचाएंगे तो गंवाएंगे !

बैंकों ने होम लोन ब्याज की दर फिर घटा दी. मकान कर्ज के तलबगार खुश हो सकते हैं लेकिन जो कर्ज लेने की हैसियत नहीं रखते उन्हें परेशान करने वाली इससे बड़ी खबर कोई नहीं है.

मंदी से निकलने की जद्दोजहद में भारत दो नए वर्गों में बंट रहा है. एक तरफ हैं चुनिंदा लोग जो कर्ज ले सकते हैं, क्योंकि वे उसे चुका भी सकते हैं और दूसरी तरफ वे लाखों लोग जो कर्ज नहीं लेते या ले नहीं सकते लेकिन बैंकों में बचत रखते हैं, जिस पर ब्याज टूट रहा है.

बॉन्ड बाजार की घुड़की

बीते तीन माह में छह बार (2013 के बाद पहली बार) बॉन्ड बाजार ने सरकार को घुड़की दी और सस्ती ब्याज दर पर कर्ज देने से मना कर दिया. इस घटनाक्रम का हमारी बचत से गहरा रिश्ता है.

सरकार भारतीय कर्ज बाजार की पहली और सबसे बड़ी ग्राहक है. बैंकों में अधि‍कांश बचत सरकार को कर्ज के तौर पर दी जाती है. सरकार जिस दर पर पैसा उठाती है (अभी 6.15 फीसद दस साल का बॉन्ड), हमें कर्ज उससे ऊंची दर पर (कर्ज लेने वाले की साख के आधार पर ब्याज दरों में अंतर) मिलता है जबकि बचत पर ब्याज की दर सरकारी कर्ज पर ब्याज से कम रहती है.

सरकार से वसूला जाने वाला ब्याज उसके कर्ज की मांग से तय होता है. केंद्र सरकार अगले दो साल (यह और अगला) में करीब 25 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लेगी, (राज्य अलग से) जो अब तक का रिकॉर्ड है. यानी बैंकों के पास ज्यादा रिटर्न वाले कर्ज बांटने के लिए कम संसाधन बचेंगे.

मंदी का दबाव है इसलिए बैंकों को सरकार के साथ और कंपनियों को भी सस्ता कर्ज देना है, नतीजतन बचत के ब्याज पर छुरी चल रही है. एफडी पर केवल 4.5 फीसद ब्याज मिल रहा है, अलबत्ता मकान के लिए ऐतिहासिक सस्ती दर पर (औसत 7 फीसद) कर्ज मिल रहा है.

हमने कमाई महंगाई

बैंकों को अपने सबसे बड़े ग्राहक (सरकार) से कम इतना तो ब्याज चाहिए जो महंगाई से ज्यादा हो. पेट्रोल-डीजल, जिंसों की कीमत बढऩे से महंगाई बढ़ती जानी है. दूसरी तरफ, अपनी कमाई का 50 फीसद हिस्सा ब्याज चुकाने पर खर्च कर रही सरकार को नए कर्ज चुकाने के लिए नए टैक्स लगाने होंगे यानी और महंगाई.

महंगाई तो नहीं रुकती लेकिन रिजर्व बैंक को कर्ज पर ब्याज दरें थाम कर रखनी हैं. नतीजतन, बैंक जमा लागत घटाने के लिए बचतों पर ब्याज काट रहे हैं. भारत की 51 फीसद वित्तीय बचतें बैंक (2018 रिजर्व बैंक) में हैं. बचत पर रिटर्न महंगाई से ज्यादा होना चाहिए ताकि जिंदगी जीने की बढ़ती लागत संतुलित हो सके. लेकिन इन पर मिल रहा ब्याज महंगाई से कम है.

जो कर्ज नहीं लेते उनकी मुसीबत दोहरी है. एक तो नौकरियां गईं और पगार घटी और दूसरा जिन बचतों पर निर्भरता बढ़ी उन पर रिटर्न टूट रहा है. लॉकडाउन के दौरान खर्च रुकने से बैंकों में बचत बढ़ी थी लेकिन इस दौरान बचत पर नुक्सान पहले से कहीं ज्यादा हो गया.

बचत करने वालों का एक छोटा हिस्सा जो शेयर बाजार में निवेश कर रहा है बस उसे ही फायदा है. बड़ी आबादी का सहारा यानी तयशुदा (फिक्स्ड) रिटर्न वाले सभी बचत विकल्प बुरी तरह पिट चुके हैं. छोटी बचत स्कीमों में पैसा लंबे समय के लिए रखना होता है, उनमें बैंक जमा जैसी तरलता नहीं है.

भारत में बैंक ग्राहकों का महज 10-12 फीसद हिस्सा ही कर्ज लेता है, शेष तो बचत करते हैं जिनका नुक्सान बढ़ता जा रहा है. बचतों को टैक्स प्रोत्साहन खत्म हो चुके हैं. नए बजट में पेंशन और ईपीएफ योगदान पर भी इनकम टैक्स थोप दिया है.

पुराने लोग कहते थे कि बाजार में केवल दस रुपए का ऊंट बिक रहा है लेकिन क्या उस ऊंट से इतना काम मिल सकेगा कि चारा खि‍लाने के बाद कुछ बच सके. भारत में कर्ज का यही हाल है.

कर्ज सस्ता ही रहेगा लेकिन कैश फ्लो और नियमित कमाई (महंगाई हटाकर) वाले ही इसके ग्राहक होंगे, जो ब्याज भरने के बाद खर्च के लिए कुछ बचा सकें. कंपनियों के लिए यह आदर्श स्थि‍ति है इसलिए शेयर बाजार में बहार है.

मंदी से भारत की वापसी ‘वी’ (V) की शक्ल में नहीं बल्कि बदनाम ‘के’ (K) की शक्ल में हो रही है. बचत, महंगाई, ब्याज और टैक्स के मौजूदा परिदृश्य में आबादी का छोटा सा हिस्सा ही तेजी से आगे बढ़ेगा जबकि K का निचले हिस्से में मौजूद लाखों लोगों के बढ़ती महंगाई और घटती कमाई के बीच मंदी में गहरे धंसने का खतरा है.

तेज ग्रोथ में भी भारत में बचत की दर कम रही है. इनका आकर्षण लौटाने के लि‍ए फिक्स्ड इनकम वाले नए विकल्प जरूरी हैं. सरकारी कर्ज भी कम करना होगा. अर्थव्यवस्था को बचत चाहिए नहीं तो नोट छपेंगे और महंगाई धर दबोचेगी.


Saturday, January 30, 2021

सबसे बड़ी कसौटी

 


अगर आप बजट से तर्कसंगत उम्मीदें नहीं रखते या हकीकतों से गाफिल हैं तो फिर निराश होने की तैयारी रखि‍ए!

क्या कहा वित्त मंत्री बोल चुकी हैं कि यह बजट अभू‍तपूर्व होने वाला है? 

यकीनन इस बजट को अभूतपूर्व ही होना चाहिए, उससे कम पर काम भी नहीं चलेगा क्योंकि भारत 1952 के बाद सबसे बुरी आर्थि‍क हालत में है.

यानी कि बीरबल वाली कहानी के मुताबिक दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी में चंद्रमा से गर्मी मिल जाए या दो मंजिल ऊंची टंगी हांडी पर खि‍चड़ी भी पक जाए लेकिन यह बजट पुराने तौर तरीकों और एक दिन की सुर्खि‍यों से अभूतपूर्व नहीं होगा. कम से कम इस बार तो बजट की पूरी इबारत ही बदलनी होगी क्योंकि इसे दो ही पैमानों कसा जाएगा:

क्या लॉकडाउन में गई नौकरियां बजट के बाद लौटेंगी?

सरकारी कर्मियों के डीए से लेकर लाखों निजी कंपनियों में काटे गए वेतन वापस हो जाएंगे.

ऐसा इसलिए कि भारत की अर्थव्यवस्था की तासीर ही कुछ फर्क है. हमारी अर्थव्यवस्था अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोपीय समुदाय की पांत में खड़ी होती है जहां आधे से ज्यादा जीडीपी (56-57 फीसद) आम लोगों के खपत-खर्च से बनता है. यह प्रतिशत चीन से करीब दोगुना है.

केंद्र सरकार पूरे साल में जि‍तना खर्च (कुल बजट 30 लाख करोड़ रुपए) करती है, उतना खर्च आम लोग केवल दो माह में करते हैं. और करीब से देखें तो देश में होने वाले कुल पूंजी निवेश (जिससे उत्पादन और रोजगार निकलते हैं) में केंद्रीय बजट का हिस्सा केवल 5 फीसद है, इसलिए बजट से कुछ नहीं हो पाता.

केंद्र और राज्य सरकारें साल में कुल 54 लाख करोड़ रुपए खर्च करते हैं जो जीडीपी का 27 फीसद है. यह खर्च भी तब ही संभव है जब लोगों की जेब में पैसे हों और वे खर्च करें. इस खपत से वसूला गया टैक्स सरकारों को मनचाहे खर्च करने का मौका देता है. जो कमी पड़ती है उसके लिए सरकार लोगों की बचत में सेंध लगाती है, यानी बैंकों से कर्ज लेती है.

सरकार ने आत्मनिर्भर पैकेजों के ढोल पीट लिए लेकिन अर्थव्यवस्था उठ नहीं पाई क्योंकि इस मंदी में अर्थव्यवस्था की बुनियादी ताकत यानी आम लोगों की खपत 9.5 फीसद सिकुड़ (बीते साल 5.30 फीसद की बढ़त) गई. कंपनियों के निवेश से लेकर टैक्स और जीडीपी तक सब कुछ इसी अनुपात में गिरा है.

मंदी दूर करने के लिए वित्त मंत्री को तय करना होगा कि पहले वे सरकार का बजट ठीक करना चाहती हैं या आम लोगों का और, यकीन मानिए यह चुनाव बहुत आसान नहीं होने वाला.

भारत में सरकार जितनी बड़ी होती जाती है आम लोगों के बजट उतने ही छोटे होते जाते हैं. मंदी और बेकारी के बीच (सस्ते कच्चे तेल के बावजूद) केंद्र सरकार ने सड़क-पुल बनाने के वास्ते पेट्रोल-डीजल महंगे नहीं किए बल्कि‍ वह अपने दैत्याकार खर्च के लिए हमें निचोड़ रही है. केंद्र का 75 फीसद खर्च (रक्षा, सब्सि‍डी, कर्ज पर ब्याज, वेतन-पेंशन) तो ऐसा है जिस पर कैंची चलाना असंभव है.

मंदी तो आम लोगों का बजट ठीक होने से दूर होगी. यानी कि लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा छोडऩा होगा या पेट्रोल-डीजल सस्ता करना होगा, बड़े पैमाने पर टैक्स घटाना होगा.

लेकिन सतर्क रहिए हालात कुछ ऐसे हैं कि अपने बजट की खातिर सरकार हमारा बजट बिगाड़ सकती है. यानी कि कोरोना या जीएसटी सेस लगाया जा सकता है. ऊंची आय वालों पर इनकम टैक्स और पूंजी लाभ कर दर बढ़ सकती है.

मुसीबत यह है कि सरकार अपने खर्च के जुगाड़ के लिए टैक्स आदि थोपने के बाद भी व्यापक खपत को रियायत नहीं देती. रियायतें कंपनियों को मिलती हैं, जिन्होंने मंदी में दिखा दिया कि वे रियायतों को मुनाफे में बदलती हैं, रोजगार और मांग में नहीं.

याद रहे कि पिछले बजट भी कमजोर नहीं थे इसलिए 2016 में अर्थव्यवस्था गिरी तो गिरती चली गई. भारतीय बजट आंख पर पट्टी बांधे व्यक्ति की तरह चुनिंदा हाथों में पैसा रखते-उठाते रहते हैं, बीते एक साल में यही हुआ है. मदद बेरोजगारों को चाहिए थी और विटामिन कंपनियों को दिया गया. लोगों की जेब में पैसे बचने चाहिए थे तो टैक्स बढ़ाकर पेट्रोल-डीजल खौला दिए गए इसलिए लॉकाडाउन हटने के बाद महंगाई और बेरोजगारी गहरा गए.

बीते एक बरस में मंदी दूर करने की सभी कोशि‍शें हो चुकी हैं. बजट आंकड़े खुली किताब हैं. बड़ी योजनाओं पर खर्च तो दूर, ऐक्ट ऑफ गॉड की शि‍कार केंद्र सरकार के पास राज्यों को टैक्स में हिस्सा देने के संसाधन भी नहीं हैं. इसलिए बजट को केवल अधि‍क से अधि‍क लोगों की आय में सीधी बढ़त पर केंद्रित करना होगा. महामंदी से जंग लोगों को लडऩी है. अगले एक साल में करोड़ों परिवारों का बजट नहीं सुधरा तो मंदी का इलाज तो दूर, संसाधनों की कमी से सरकार के कई अनि‍वार्य खर्च भी संकट में फंस जाएंगे.

Friday, December 25, 2020

हंगामा है यूं बरपा

 


अब से दो साल पहले दिसंबर 2018 में जब गूगल प्रमुख सुंदर पिचाई एकाधिकार के मामले में अमेरिकी कानून निर्माताओं के कठघरे में थे उस दौरान जारी हुए फोटो और वीडियो ने लोगों को चौंका दिया. कांग्रेस की सुनवाई के दौरान पिचाई के पीछे तीसरी पंक्ति में काली टोपी वाले मुच्छड़ रिच अंकल पेनीबैग्स नजर आ रहे थे जो मशहूर मोनोपली गेम के प्रतीक पुरुष हैं. उनकी मौजूदगी किसी फोटोशापीय कला का नमूना नहीं था. अमेरिका के एक वकील ग्रीडी मोनोपली मैन की वेशभूषा में, इस मामले की प्रत्येक सुनवाई में बाकायदा ठीक उस जगह मौजूद रहे थे जहां से वह तस्वीरों का हिस्सा बन सकें और लोगों को बाजार का विद्रूप और एकाधि‍कारवादी चेहरा नजर आता रहे. 

संयोग ही है कि बीते सप्ताह जब विश्व की सबसे बड़ी तकनीकी मोनोपली यानी गूगल और फेसबुक पर अमेरिका में ऐंटीट्रस्ट (प्रतिस्पर्धा खत्म करने) कानून की कार्रवाई शुरू हुई तब उसी दौरान भारत में भी बहुत से लोग सुधारों के फैसलों के पीछे किसी कॉर्पोरेट मुच्छड़ मैन का अक्स देख रहे थे. 

उदारीकरण और मुक्त बाजार ने भारत में सबसे कम समय में सर्वाधि‍क आबादी की गरीबी दूर की है, इसलिए इस पर उठते शक-शुबहे गहरी पड़ताल की मांग करते हैं. 

निजीकरण, निजी भागीदारी, मुक्त बाजार पर शक बेवजह नहीं है. बाजार पर भरोसा दो ही वजह से बनता है. एक, रोजगार यानी कमाई या आय बढ़ने से और दूसरा, उत्पादन का सही मूल्य मिलने से. इन्हीं दोनों वजह से पूंजीवाद को सबसे अधिक सफलता मिली है, इस व््यवस्था में बाजार सबको अवसर देता है और सरकार संकटों के समाधान करती है. बाजार इसके बदले कीमत वसूलता है और सरकार टैक्स. 

बाजारों के सबसे बुरे दिनों का नाम ही मंदी है. नौकरियां खत्म होती हैं. कर्ज डूबने लगते हैं और सरकार से राहत मांगी जाने लगती है. और तब बाजार लोगों का तात्कालिक शत्रु बन जाता है. भारत में भी बाजार इस समय खलनायक है लेकिन दंभ और आत्ममुग्धता में सरकार उसे संकटमोचक बनाकर पेश कर रही है. लोग बुरी तह चिढ़ रहे हैं.

भारत में कंपनियों के रिकॉर्ड मुनाफों के बीच रिकॉर्ड बेरोजगारी है. इसी बीच सरकार ने कंपनियों को नौकरियां लेने की ताकत से (श्रम सुधार) से लैस कर दिया. 

किसानों को आय में बढ़ोतरी के लिए सीधी मदद चाहिए न कि उन्हें उस बाजार के हवाले कर दिया जाए तो खुद मंदी का मारा है.

निजीकरण में कोई खोट नहीं लेकिन चौतरफा बेकारी के बीच जीविका को लेकर डर लाजिमी है. खासतौर पर जब लोग देख रहे हैं कि कुछ निजी कंपनियां बाजारों  पर कब्जा कर रही हैं.

महामंदी और महामारी एक साथ सबसे बड़ी मुसीबत है. महामारी सरकारों की साख पर भारी पड़ती है क्योंकि दुनिया की कोई सरकार महामारियों से निबट नहीं सकती. महामंदी बाजार की साख तोड़ देती है इसलिए दुनिया की तमाम सरकारें कंपनियों को रोजगार बचाने के लिए बजट से पैसे दे रही हैं ताकि बाजार और लोगों के बीच विश्वास को बना रहे. 

मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने 1930 की महामंदी के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को लिखा थाःआपकी चुनौती दोहरी है. मंदी से भी उबारना है और सुधार भी होने हैं जो अर्से से लंबित हैं. मंदी से मुक्ति के लिए तेज और तत्काल नतीजे चाहिए. सुधारों में जल्दबाजी मंदी से उबरने की प्रक्रिया को धीमा कर सकती, जिससे सरकार की नीयत पर शक बढ़ेगा और लोगों का भरोसा टूटेगा.’

सरकार के सलाहकारों पता चले कि प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होता. बीते ढाई दशक में लोगों में आर्थिक सुधारों के फायदों और नुक्सानों की समझ बनी है. मंदी की चोट खाए लोग आय और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी समझ कर सुधार स्वीकार कर पाएंगे. इसके लिए सुधारों का क्रम ठीक करना होगा.

भारत में बाजार और लोगों के रिश्ते बीते दो-तीन साल से काफी बदले हैं. जनवरी 2020 में एडलमैन के मशहूर ग्लोबल ट्रस्ट बैरोमीटर सर्वे ने बताया था कि भारत, दुनिया के उन 28 प्रमुख बाजारों में पहले नंबर पर था जहां सबसे बड़ी संख्या में (74 फीसद) लोग बाजार और पूंजीवाद से निराश हैं. यानी कि कोरोना की विपत्तिसे पहले ही बाजार से लोगों का भरोसा उठने लगा था जिसकी बड़ी वजह आय में कमी और बेकारी थी.

सनद रहे कि अच्छे सुधार बाजार को ताकत देते हैं जबकि खराब सुधार बाजार की पूरी ताकत कुछ हाथों में थमा देते हैं. यह सुनिश्चित करना होगा कि सुधारों के पीछे वाल स्ट्रीट मूवी का प्रसिद्ध गॉर्डन गीको नजर न आए जो कहता था कि लालच के लिए कोई दूसरा बेहतर शब्द नहीं है इसलिए लालच अच्छा है.

भारत के आर्थिक सुधार संवेदनशील मोड़ पर हैं. 2020 बाजार के प्रति गुस्से के साथ बिदा हो रहा है. मुक्त बाजार को खलनायक बनने से रोकना होगा. गुस्साए लोग सरकार तो बदल सकते हैं, बाजार नहीं. मुक्त बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि कोई सरकार कितनी भी बड़ी हो, वह बाजार से मिल रहे अवसरों का विकल्प नहीं हो सकती.

 

Friday, December 18, 2020

बेदम हुए बीमार ...

 


इतिहास के किसी भी काल खंड में, किसी भी सरकार के मातहत यह कल्पना नहीं की गई होगी कि भारत में लोग 90 रुपए लीटर का पेट्रोल खरीदेंगे, जबकि कच्चे तेल कीमत मंदी के कुएं (प्रति बैरल 50 डॉलर से भी कम) में बैठी हो. भयानक मंदी और मांग के सूखे के बीच कंपनियां अगर कीमतें बढ़ाने लगें तो आर्थिक तर्क लड़खड़ा जाते हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन याद आते हैं कि हमारा कुल इतिहास सरकारों की सूझबूझ का लेखा-जोखा है.

मंदी से दुनिया परेशान है लेकिन भारत के इतिहास की सबसे खौफनाक मंदी के नाखूनों में बढ़ती कीमतों का जहर भरा जा रहा है. आर्थिक उत्पादन के आंकड़े मांग की तबाही के सबूत हैं, बेकारी बढ़ रही है और वेतन घट रहे हैं फिर भी खुदरा महंगाई छह माह के सर्वोच्च स्तर पर है. यहां तक कि रिजर्व बैंक को कर्ज सस्ता करने की प्रक्रिया रोकनी पड़ी है.

आखिर कहां से आ रही है महंगाई?

कुछ अजीबोगरीब सुर्खियां! सीमेंट छह महीने में 7 फीसद (दक्षिण भारत में बढ़ोतरी 18 फीसद) महंगा हो चुका है. दो माह में मिल्क पाउडर (पैकेटबंद दूध का आधार का स्रोत) की कीमतें 20 फीसद बढ़ी हैं यानी दूध महंगा होगा. वोडाफोन आइडिया ने फोन दरों में 6 से 8 फीसद की बढ़ोतरी की है. अब अन्य कंपनियों की बारी है. 2020 में चौथी बार मोबाइल फोन सेट की कीमत बढ़ने वाली है. डीजल महंगा होने से ट्रकों के किराए 10-12 फीसद तक बढ़ चुके हैं.

बीते छह महीने में स्टील 30 फीसद, एल्युमिनियम 40 फीसद और तांबा 70 फीसद महंगा हुआ है. खाद्य महंगाई तो थी ही, बुनियादी धातुओं की कीमत और ट्रकों का भाड़ा बढ़ने के कारण फैक्ट्री महंगाई ने बढ़ना शुरू कर दिया है.

मांग की अभूतपूर्व कमी के बीच भी कीमतें इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि...

कंपनियों को अर्थव्यवस्था में ग्रोथ जल्दी लौटने की उम्मीद नहीं है. अब जो बिक रहा है उसे महंगा कर घाटे कम किए जा रहे हैं इसलिए कच्चे माल से लेकर उत्पाद और सेवाओं तक मूल्यवृद्धि का दुष्चक्र बन रहा है

आत्मनिर्भरता जब आएगी तब आएगी लेकिन असंख्य उत्पादों पर इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाकर और आयात में सख्ती से सरकार ने लागत बढ़ा दी है.

सरकार के लिए भी यह महंगाई ही अकेली उम्मीद है. जीएसटी के मासिक संग्रह में दिख रही बढ़ोतरी बिक्री नहीं, कीमतें बढ़ने से आई है क्योंकि अधिकांश उत्पादों पर मूल्यानुसार (एडवैलोरैम) टैक्स लगता है. अप्रैल से अक्तूबर के बीच सभी टैक्सों का संग्रह घटा है जो मांग और आय टूटने का सबूत है. बढ़त केवल पेट्रो उत्पाद पर लगने वाले टैक्स (40 फीसद) में हुई है.

इतनी महंगाई से सरकार का काम नहीं चलेगा. जीएसटी का घाटा पूरा करने के लिए जो कर्ज लिए गए हैं, उन्हें चुकाने के लिए राज्य स्तरीय टैक्स व बिजली-पानी की दरें बढ़ेंगी.

महंगाई खपत खत्म करती है. भारत का 55 फीसद जीडीपी आम लोगों की खपत से आता है जो वर्तमान मूल्यों पर करीब 153 लाख करोड़ रुपए है. क्रिसिल का आकलन है कि अगर खुदरा महंगाई एक फीसद बढ़े तो जीने की लागत 1.53 लाख करोड़ रुपए बढ़ जाती है.

महंगाई गरीबी की दोस्त है, बचत की दुश्मन है. खाद्य महंगाई एक फीसदी बढ़ने से खाने पर खर्च करीब 0.33 लाख करोड़ रुपए बढ़ जाता है. समझना मुश्किल नहीं कि बेरोजगारी और कमाई टूटने के बीच कम आय वाले लोग महंगाई से किस कदर गरीब हो रहे होंगे.

बचत पर भी हम कमा नहीं, गंवा रहे हैं क्योंकि बैंकों में एफडी (मियादी जमा) पर औसत ब्याज दर (4.5-5.5 फीसद) महंगाई दर से करीब दो से ढाई फीसद कम है. सनद रहे कि खुदरा महंगाई दर आठ फीसद के करीब है.

इस बेहद मुश्किल वक्त में जब सरकारें जिंदगी के दर्द कम करने की कोशिश करती हैं तब भारत यह साबित कर रहा है अगर इस समय कच्चे तेल की कीमत 70 डॉलर प्रति बैरल हो जाए तो मौजूदा टैक्स पर पेट्रोल 150 रुपए प्रति लीटर हो जाएगा.

1970 से पहले तक स्टैगफ्लेशन यानी मंदी और महंगाई की जोड़ी आर्थिक संकल्पनाओं से भी बाहर थी क्योंकि कीमतें मांग-आपूर्ति का नतीजा मानी जाती थीं. 1970 के दशक में राजनैतिक कारणों (इज्राएल को अमेरिका के समर्थन पर तेल उत्पादक देशों का बदला) से तेल की आग भड़कने के बाद पहली बार यह स्थापित हुआ कि अगर ईंधन महंगा हो जाए तो मंदी और महंगाई एक साथ भी आ सकती हैं. तब से आज तक स्टैगफ्लेशन की संभावनाओं में ईंधन की कीमत को जरूरी माना गया था. लेकिन भारत यह साबित कर रह रहा है, बेहद सस्ते कच्चे तेल और मजबूत रुपए (सस्ते आयात) के बावजूद भारी टैक्स और आर्थिक कुप्रबंध से मंदी के साथ महंगाई (स्टैगफ्लेशन) की मेजबानी जा सकती है.

पीठ मजबूत रखिए, महामंदी लंबी चलेगी क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था अब  खाद्य, ईंधन, फैक्ट्री और नीतिगत चारों तरह की महंगाई की मेजबानी कर रही है.

 

Friday, October 16, 2020

बूझो तो जानें !


कोरोना की मंदी में कारोबार बंद होने के बाद, गत्ते के बॉक्स बनाने की फैक्ट्री चलाने वाले कपिल ने सरकार के हर ऐलान को धार्मिक एकाग्रता से सुना था. सभी घोषणाओं में कर्ज की नई खिड़कियों, गारंटियों, स्कीमों और कर्ज सस्ता होने के ढोल बज रहे थे. कपि उलझन में पड़ गए.

जिनका कारोबार बंद हो गया है, कर्ज नहीं चुका पा रहे हैं, वे नया कर्ज क्यों लेंगे?

वे नया कर्ज लेना भी चाहें तो बैंक उन पर बकाए के बाद उन्हें नया कर्ज क्यों देंगे? 

अगर किसी तरह बैंक राजी भी हो जाएं तो इस महामंदी में वे किस आधार पर बैंक को पांच गुना टर्नओवर या 18-20 फीसद रिटर्न की गारंटी देंगे जिसके जरिए 12 फीसद ब्याज का बोझ उठाया जा सके.

लंबी मगजमारी के बाद कपिल ने सोचा कि सरकार के हजार आंख-कान और दर्जनों सलाहकार होते हैं. उन्होंने कुछ तो देखा ही होगा. नतीजा एक दो महीने में पता चल जाएगा. इसके बाद कपिल बकाया कर्ज का भुगतान टालने की स्कीम में शामिल होने का रास्ता तलाशने लगे.

कपिल का सामान्य ज्ञान सही साबित हुआ. अक्तूबर आते-आते भारत वह अनोखी अर्थव्यवस्था बन गया जहां प्रोत्साहन पैकेज के बावजूद मंदी गहराती चली रही है. रिजर्व बैंक ने अगस्त में कर्ज की मांग का ताजा आंकड़ा जारी किया, जिसे देखने के बाद ब्याज दर में कमी की प्रक्रिया रोक दी गई क्योंकि कर्ज लेने वाले ही नहीं रहे.

सनद रहे कि भारत के ताजा इतिहास में पहली बार किसी सरकार ने उद्योगों को कर्ज लेने के लिए इतनी स्कीमें, गारंटी या प्रोत्साहन घोषि किए और ब्याज दरें (रेपो रेट) नौ साल के न्यूनतम स्तर पर गई थी लेकिन इसके बावजूद ताजा आंकड़े बताते हैं

अगस्त में बैंक कर्ज की मांग अक्तूबर 2017 के बाद न्यूनतम स्तर (6 फीसद) रही. अगर इस दौरान हुए कर्ज वापसी को मिला लिया जाए तो यह दरअसल एक भी पैसे का नया कर्ज नहीं लिया गया.

उद्योगों को मिलने वाला कर्ज कुल बैंक कर्ज का 83.4 फीसद है. इसकी वृद्धि दर, अगस्त में सालाना आधार पर एक फीसद से नीचे गई. बड़े उद्योगों की कर्ज मांग तो अगस्त में बुरी तरह टूट गई है.

सालाना आधार पर छोटे उद्योगों को कर्ज में भी 1.2 फीसद की नकारात्मक वृद्धि दर रही है. सरकार की गारंटी स्कीम के बावजूद जुलाई के मुकाबले अगस्त में छोटे उद्योगों की ओर से कर्ज की मांग महज 1.1 फीसद बढ़ी जो कतई उत्साहवर्धक नहीं है.

जीडीपी में करीब 55 फीसद हिस्से के साथ सर्विसेज क्षेत्र ने बीते एक दशक में अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा सहारा दिया है. यहीं से मांग और रोजगार आए हैं. यहां कर्ज की मांग 8.6 फीसद टूट गई. एनबीएफसी, भवन निर्माण और व्यापार कर्ज में सबसे ज्यादा गिरावट आई जो जीडीपी आंकड़ों का प्रतिबिम्ब है.

खुदरा कर्ज का हाल ही बुरा है. इसमें करीब 11 फीसद की गिरावट है. सबसे बुरा हाल क्रेडिट कार्ड लोन का है यानी कि लोग बिल्कुल खरीदारी नहीं कर रहे हैं. यह आंकड़े कॉमर्स कंपनियों के दावे की चुगली खाते हैं. नौकरियां जाने और वेतन कटने के बाद बैंकों ने पिछले दिनों में ग्राहकों के क्रेडिट कार्ड पर उधारी सीमा भी कम की है.

कर्ज के आंकड़े एक और महत्वपूर्ण सूचना देते हैं कि साल की पहली तिमाही में सरकार का कर्ज 14.3 फीसद बढ़ा जो 30 माह सर्वोच्च स्तर है. यानी कि बाजार में जो सस्ती पूंजी उपलब्ध थी, वह सरकार के कर्ज कार्यक्रम में हवन हुई है.

भारतीय अर्थव्यवस्था में कर्ज लेने वालों की संख्या (उपभोक्ता और कंपनियां) सीमित है लेकिन इसके बाद भी कर्ज की मांग एक महत्वपूर्ण संकेत मानी जाती है क्योंकि कर्ज बेहतर भविष्य की उम्मीद का पैमाना होता है. उद्योग या उपभोक्ता कर्ज तभी लेते हैं जब उन्हें आगे अपने कारोबार की कमाई से उसे चुका पाने की उम्मीद होती है.

सस्ती ब्याज दर और आत्मनिर्भर पैकेज के बावजूद लॉकडाउन के बाद कंपनियों ने खर्च घटाने, बचत बढ़ाने, नौकिरयां कम करने पर फोकस किया है, निवेश-उत्पादन बढ़ाने पर नहीं. जबकि उपभोक्ता नई खरीद की बजाए बचत बढ़ा (बैंक बचत का ताजा आंकड़ा) रहे हैं ताकि आगे मुसीबत बढ़ने पर सुरक्षा बनी रहे.

रिजर्व बैंक को कहना पड़ा कि इस साल विकास दर शून्य से दस फीसद नीचे रहेगी जो आत्मनिर्भर पैकेज को श्रद्धांजलि जैसा है. सरकारी कर्मचारियों को पैसा देने और विकास खर्च की नई कोशिशें बताती हैं कि सरकार को शायद असफलता की गंध मिल गई है.

गत्ते के बक्से वाले कपिल की पहेली हल हो गई थी. वह इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं. रिजर्व बैंक की प्रेस वार्ता के बाद उन्होंने अपने कारोबारी व्हाट्सऐप ग्रुप पर फ्रांस की महारानी मारी ऐंटोएनेट (18वीं सदी) का किस्सा लिखा है, जिसने रोटी मांगने आए किसानों को केक खाने की सलाह दी थी.

बाकी आप खुद समझदार हैं.