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Friday, April 2, 2021

लौट के फिर न आए ...

 


 हर्ष बुरी तरह निराश है. लॉकडाउन खत्म हुए नौ महीने बीतने को हैं. सरकारी मुखारविंदों से मंदी खत्म होने उद्घोष झर रहे हैं. रैलियां, चुनाव, मेले सब कुछ तो हो रहे हैं, बस उसकी नौकरी नहीं लौट रही.

हर्ष जैसे लोग पहले भी बहुत ज्यादा नहीं थे जिनके पास मासिक पगार वाली ठीक ठाक नौकरी थी. हर्ष जैसे गिनती के लोग टैक्स दे पाते हैं, और अपने खर्च के जरि‍ए कई परिवारों को जीविका देते हैं. कोविड से पहले 2019-20 में वेतनभोगियों की तादाद करीब 8.6 करोड़ थी जो अप्रैल 2020 में घटकर 6.8 करोड़ और जुलाई में घटकर 6.7 करोड़ रह गई (सीएमआईई).

लॉकडाउन खत्म होने के बाद, पहले से कम मजदूरी और कभी भी निकाले जाने के खतरे के तहत असंगठित दिहाड़ी कामगारों को कुछ काम मिलने लगा है, लेकिन संगठित नौकरियों के बाजार में स्थायी मुर्दनी छाई है.

आर्थि‍क मंदी की गर्त से वापसी के सफर में नौकरी पेशा बहुत पीछे क्यों छूटते जा रहे हैं? कोविड के बाद नौकरियां क्यों नहीं लौट रही हैं? इसके‍ लिए कोविड के पहले की तस्वीर देखनी होगी.

भारत में संगठित क्षेत्र के रोजगारों का बाजार पहले से बहुत छोटा है. जिसका दुर्भाग्य कोवि‍ड की आमद से पहले ही जग चुका था.

1,703 प्रमुख और बड़ी कंपनियों की बैलेंस शीट का आकलन (केयर रेटिंग्स, नवंबर 2020) बताता है कि कोविड से पहले 2019-20 में भारत की 60 फीसद कॉर्पोरेट नौकरियां केवल पांच उद्योग या सेवाओं (सूचना तकनीक 20.8, बैंक 18, ऑटोमोबाइल 7.5, हेल्थकेयर 6.4, वित्तीय सेवाएं 6.1 फीसद ) में थीं. इनमें करीब 39 फीसद कॉर्पोरेट रोजगार केवल बैंक और सूचना तकनीक में केंद्रित हैं.

मंदी कोविड से पहले ही आ गई थी इसलिए प्रमुख कंपनियों में नई नियुक्तियों में दो फीसद गिरावट दर्ज की गई. 2018-2019 में प्रमुख कंपनियों ने करीब 2.55 लाख कर्मचारी रखे थे जबकि‍ वित्त वर्ष 2020 में केवल 1.38 लाख नई भर्तियां हुईं.

उपरोक्त पांच उद्योग और सेवाओं के अलावा उपभोक्ता उत्पाद, बीमा, रिटेल, स्टील, भवन निर्माण व रियल एस्टेट, केमिकल और उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेट नौकरियों वाले अन्य प्रमुख क्षेत्र हैं. इनमें केवल बैंक और उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों ने 2018-2019 की तुलना में 2019-20 ज्यादा भर्तियां की. अन्य सभी क्षेत्रों में नए रोजगारों की संख्या घट गई थी.

बैंकिंग-वित्तीय सेवाएं, अचल संपत्ति‍, ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्र लोगों की आय व खपत मांग पर केंद्रित हैं. मंदी के बाद मांग खत्म होने से इनमें नए अवसर बनते नहीं दिख रहे हैं. बैंकिंग में कोविड से पहले तक नए रोजगार बन रहे थे, वहां फंसे हुए कर्ज, सरकारी बैंकों का विलय और निजीकरण रोजगारों की बढ़त पर भारी पड़ने वाला है.

इसके बाद सूचना तकनीक, उपभोक्ता उत्पाद (एफएमसीजी) और स्वास्थ्य सेवाएं बचती हैं जहां कोविड लॉकडाउन के दौरान 'गए' रोजगारों की एक सीमा तक वापसी हो सकती है. हालांकि यहां भी कोविड के बीच नई तकनीक के सहारे श्रम लागत में कटौती के नए रास्ते अपनाए जा रहे हैं इसलिए बड़े पैमाने पर नए रोजगार आने की उम्मीद नहीं दिखती. 

2008-9 की मंदी ने यूरोप और अमेरिका में जो तबाही मचाई थी वही भारत में होता दिख रहा है. उस मंदी के बाद वित्तीय सेवाएं, भवन निर्माण, मैन्युफैक्चरिंग, बिजनेस सर्विसेज, मझोले स्तर के रोजगार बड़े पैमाने पर खत्म हो गए थे. इसलिए ही कोविड के दौरान वहां की सरकारों ने रोजगार बचाने में पूरी ताकत झोंक दी. भारत में भी मझोले स्तर के रोजगार खत्म हुए हैं. 

कोवि‍ड वाला वित्तीय वर्ष बीतते महसूस हो रहा है कि बीते एक साल में जितना आर्थि‍क उत्पादन पूरी तरह खत्म हुआ है उसका अधि‍कांश नुक्सान संगठित क्षेत्र के रोजगारों के खाते में गया है. 

सनद रहे कि कॉर्पोरेट और संगठित नौकरियों की संख्या पहले से बहुत कम थी. कोविड से ऐसे कामगारों कुल तादाद 47 करोड़ थी, जिसमें केवल पांच करोड़ पीएफ (भविष्य निधि‍) और करीब तीन करोड़ कर्मचारी बीमा के तहत हैं.

नौकरियों का अर्थशास्त्र बताता है कि अर्थव्यवस्था मंदी से भले ही उबर जाए पर लंबी बेकारी असंख्य लोगों को रोजगार के लायक नहीं रखती. भारत में बेरोजगारी में 2018 में (एनएसएसओ) ही 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुकी थी. मंदी के बाद यह सूखा अब और लंबा हो रहा है.

कंपनियों को नौकरियां बचाने और बढ़ाने पर बाध्य करने और खाली सरकारी पदों को भरने की दूर, हमारी सरकारें बेरोजगारी पर बात भी नहीं करना चाहतीं. अमेरिकी उप राष्ट्रपति हर्बट हंफ्रे कहते थे कि अगर भूख, गरीबी, खराब सेहत और तबाह जिंदगियां अस्वीकार्य हैं तो बेरोजगारी का कोई न्यूनतम स्तर कैसे स्वीकार हो सकता है! 

बेरोजगारी जीवन का अपमान है, यह राष्ट्रीय शर्म है लेकिन भारत में यह शर्म केवल बेरोजगारों को आती है, सरकारों को नहीं. हम अजीब दौर में हैं, जहां सरकार कारोबारों को फॉर्मल यानी संगठित बनाने की मुहिम में लगी है लेकिन रोजगार बाजार में अस्थायी (असंगठित) नौकरी और कम वेतन अब नया नियम होने वाले हैं.

Friday, March 5, 2021

चमत्कारी राहत


अबक्या घोर मंदी के बावजूद बेरोजगारी रोकी जा सकती है?

क्या अर्थव्यवस्था की आय टूटने के बाद भी आम लोगों की कमाई में नुक्सान सीमित किए जा सकते हैं या कमाई बढ़ाई जा सकती है?

असंभव लगता है लेकिन असंभव है नहीं? 

बेकारी और मंदी के बीच पेट्रोल-डीजल पर टैक्स लगाकर और किस्म-किस्म की महंगाई बढ़ाकर, सरकारें हमें गरीब कर सकती हैं तो महामंदी के बीच सरकारें ही अपनी आबादी को गरीब होने बचा भी सकती हैं. मंदी के बावजूद आम लोगों की कमाई बढ़ाने का यह करिश्मा दुनिया के बड़े हिस्से में हुआ है, वह भी सामूहिक तौर पर.

मैकेंजी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, यह आर्थिक पैमानों किसी चमत्कार से कम नहीं है कि

= 2019 और 2020 की चौथी व दूसरी तिमाही में यूरोप में जीडीपी करीब 14 फीसद सि‍कुड़ गया तब भी रोजगार में गिरावट केवल 3 फीसद रही जबकि लोगों की खर्च योग्य आय (डिस्पोजेबल इनकम) में केवल 5 फीसद की कमी आई

= अमेरिका में तो जीडीपी 10 फीसद टूटा, रोजगार भी टूटे लेकिन लोगों की खर्च योग्य आय 8 फीसद बढ़ गई!

= कोविड के बाद जी-20 देशों ने मंदी और महामारी के शि‍कार लोगों की मदद पर करीब 10 खरब डॉलर खर्च किए, जो 2008 की मंदी में दी गई सरकारी मदद से तीन गुना ज्यादा था और दूसरे विश्व युद्ध के बाद जारी हुए आर्थिक पैकेज यानी मार्शल प्लान से 30 गुना अधि‍क था. अलबत्ता इस पैकेज का बड़ा होना उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि इनके जरिए उभरने वाला एक नया कल्याणकारी राज्य, जो हर तरह से अनोखा था.

= यूरोपीय समुदाय की सरकारों ने करीब 2,342 डॉलर और अमेरिका ने प्रति व्यक्ति 6,752 डॉलर अति‍रिक्त खर्च किए. सरकारों की पूरी सहायता रोजगार बचाने (कुर्जाबेत-जर्मन, शुमेज पार्शिएल-फ्रांस, फर्लो ब्रिटेन, पे-चेक प्रोटेक्शन-अमेरिका) और बेरोजगारों को सीधी मदद पर केंद्रित थी. यूरोप के अधि‍कांश देशों ने इस तरह की मदद पर सामान्य दिनों से ज्यादा खर्च किया.

= सरकारों ने आम लोगों की बचत संरक्षित करने और आवासीय, चि‍कित्सा की लागत को कम करने पर खर्च किया. यूरोप के देशों ने मकान के किराए कम किए, कर्मचारियों को अनिवार्य पेंशन भुगतान (स्वि‍ट्जरलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड) में छूट दी गई या सरकार ने उनके बदले पैसा जमा किया और शि‍क्षा संबंधी खर्चों की लागत घटाई गई.

= सामाजिक अनुबंधों की इस व्यवस्था में निजी क्षेत्र सरकार के साथ था. हालांकि कंपनियों को कारोबार में नुक्सान हुआ, दीवालिया भी हुईं, लेकिन यूरोप और अमेरिका में कंपनियों ने सरकारी प्रोत्साहनों जरिए रोजगारों में कमी को कम से कम रखा और कर्मचारियों के बदले पेंशन व बीमा भुगतानों का बोझ उठाया.

मंदी के बीच रोजगार महफूज रहे तो अमेरिका में 2020 की तीसरी में तिमाही में बचत दर (खर्च योग्य आय के अनुपात में) 16.1 यानी दोगुनी तक बढ़ गई. यूरोप में बचत दर 24.6 फीसद दर्ज की गई.

अब जबकि उपभोक्ताओं की आय भी सुरक्षि‍त है और बचत भी बढ़ चुकी है तो मंदी से उबरने के लिए जिस मांग का इंतजार है वह फूट पडऩे को तैयार है. वैक्सीन मिलने के बाद कारोबार खुलते ही यह ईंधन अर्थव्यवस्थाओं को दौड़ा देगा.

यकीनन अमेरिका और यूरोप की सरकारें बीमारी और मौतें नहीं रोक सकीं, देश की अर्थव्यवस्था को नुक्सान भी नहीं बचा पाईं लेकिन उन्होंने करोड़ों परिवारों को बेकारी-गरीबी की विपत्ति‍ से बचा लिया.

जहां सरकारें ऐक्ट ऑफ गॉड के सहारे टैक्स थोप रही हैं या निजी कंपनियां रोजगार काट कर मुनाफे कूट रही हैं, ये कल्याणकारी राज्य उनके लिए आइना हैं. पूंजीवादी मुल्कों ने इस महामारी में सरकार और समुदाय के बीच अनुबंध यानी सोशल कॉन्ट्रैक्ट जैसा इस्तेमाल किया वह भारत में क्यों नहीं हो सकता था?

सनद रहे कि भारत में कोविड पूर्व की मंदी और बेरोजगारी की वजह से लोगों की खर्च योग्य आय (डि‍स्पोजेबल इनकम) करीब 7.1 फीसद टूट चुकी थी. लॉकडाउन के दौरान भारत के जीडीपी में गिरावट की अनुपात में लोगों की खर्च योग्य आय में गिरावट कहीं ज्यादा रही है.  

भारत में आम परिवारों की करीब 13 लाख करोड़ रुपये की आय मंदी नि‍गल गई (यूबीएस सि‍क्योरिटीज). इसके बाद महंगाई आ धमकी है जो कमाई और बचत खा रही है. 

भारत दुनिया में खपत पर सबसे ज्यादा और दोहरा-तिहरा टैक्स लगाने वाले मुल्कों में है. हम कभी इस टैक्स का हिसाब नहीं मांगते, पलट कर पूछते भी नहीं कि हम उन सेवाओं के लिए सरकार को भी पैसा देते हैं, जिन्हें हम निजी क्षेत्र से खरीदते हैं या सरकार से उन्हें हासिल करने के लिए हम रिश्वतें चढ़ाते हैं. हम कभी फिक्र नहीं करते कि कॉर्पोरेट मुनाफों में बढ़त से रोजगारों और वेतन क्यों नहीं बढ़ते अलबत्ता संकट के वक्त हमें जरूर पूछना चाहिए कि हम पर भारी टैक्स लगाने वाला भारत का भारत का कल्याणकारी राज्य किस चुनावी रैली में खो हो गया है.

 

Saturday, January 30, 2021

सबसे बड़ी कसौटी

 


अगर आप बजट से तर्कसंगत उम्मीदें नहीं रखते या हकीकतों से गाफिल हैं तो फिर निराश होने की तैयारी रखि‍ए!

क्या कहा वित्त मंत्री बोल चुकी हैं कि यह बजट अभू‍तपूर्व होने वाला है? 

यकीनन इस बजट को अभूतपूर्व ही होना चाहिए, उससे कम पर काम भी नहीं चलेगा क्योंकि भारत 1952 के बाद सबसे बुरी आर्थि‍क हालत में है.

यानी कि बीरबल वाली कहानी के मुताबिक दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी में चंद्रमा से गर्मी मिल जाए या दो मंजिल ऊंची टंगी हांडी पर खि‍चड़ी भी पक जाए लेकिन यह बजट पुराने तौर तरीकों और एक दिन की सुर्खि‍यों से अभूतपूर्व नहीं होगा. कम से कम इस बार तो बजट की पूरी इबारत ही बदलनी होगी क्योंकि इसे दो ही पैमानों कसा जाएगा:

क्या लॉकडाउन में गई नौकरियां बजट के बाद लौटेंगी?

सरकारी कर्मियों के डीए से लेकर लाखों निजी कंपनियों में काटे गए वेतन वापस हो जाएंगे.

ऐसा इसलिए कि भारत की अर्थव्यवस्था की तासीर ही कुछ फर्क है. हमारी अर्थव्यवस्था अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोपीय समुदाय की पांत में खड़ी होती है जहां आधे से ज्यादा जीडीपी (56-57 फीसद) आम लोगों के खपत-खर्च से बनता है. यह प्रतिशत चीन से करीब दोगुना है.

केंद्र सरकार पूरे साल में जि‍तना खर्च (कुल बजट 30 लाख करोड़ रुपए) करती है, उतना खर्च आम लोग केवल दो माह में करते हैं. और करीब से देखें तो देश में होने वाले कुल पूंजी निवेश (जिससे उत्पादन और रोजगार निकलते हैं) में केंद्रीय बजट का हिस्सा केवल 5 फीसद है, इसलिए बजट से कुछ नहीं हो पाता.

केंद्र और राज्य सरकारें साल में कुल 54 लाख करोड़ रुपए खर्च करते हैं जो जीडीपी का 27 फीसद है. यह खर्च भी तब ही संभव है जब लोगों की जेब में पैसे हों और वे खर्च करें. इस खपत से वसूला गया टैक्स सरकारों को मनचाहे खर्च करने का मौका देता है. जो कमी पड़ती है उसके लिए सरकार लोगों की बचत में सेंध लगाती है, यानी बैंकों से कर्ज लेती है.

सरकार ने आत्मनिर्भर पैकेजों के ढोल पीट लिए लेकिन अर्थव्यवस्था उठ नहीं पाई क्योंकि इस मंदी में अर्थव्यवस्था की बुनियादी ताकत यानी आम लोगों की खपत 9.5 फीसद सिकुड़ (बीते साल 5.30 फीसद की बढ़त) गई. कंपनियों के निवेश से लेकर टैक्स और जीडीपी तक सब कुछ इसी अनुपात में गिरा है.

मंदी दूर करने के लिए वित्त मंत्री को तय करना होगा कि पहले वे सरकार का बजट ठीक करना चाहती हैं या आम लोगों का और, यकीन मानिए यह चुनाव बहुत आसान नहीं होने वाला.

भारत में सरकार जितनी बड़ी होती जाती है आम लोगों के बजट उतने ही छोटे होते जाते हैं. मंदी और बेकारी के बीच (सस्ते कच्चे तेल के बावजूद) केंद्र सरकार ने सड़क-पुल बनाने के वास्ते पेट्रोल-डीजल महंगे नहीं किए बल्कि‍ वह अपने दैत्याकार खर्च के लिए हमें निचोड़ रही है. केंद्र का 75 फीसद खर्च (रक्षा, सब्सि‍डी, कर्ज पर ब्याज, वेतन-पेंशन) तो ऐसा है जिस पर कैंची चलाना असंभव है.

मंदी तो आम लोगों का बजट ठीक होने से दूर होगी. यानी कि लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा छोडऩा होगा या पेट्रोल-डीजल सस्ता करना होगा, बड़े पैमाने पर टैक्स घटाना होगा.

लेकिन सतर्क रहिए हालात कुछ ऐसे हैं कि अपने बजट की खातिर सरकार हमारा बजट बिगाड़ सकती है. यानी कि कोरोना या जीएसटी सेस लगाया जा सकता है. ऊंची आय वालों पर इनकम टैक्स और पूंजी लाभ कर दर बढ़ सकती है.

मुसीबत यह है कि सरकार अपने खर्च के जुगाड़ के लिए टैक्स आदि थोपने के बाद भी व्यापक खपत को रियायत नहीं देती. रियायतें कंपनियों को मिलती हैं, जिन्होंने मंदी में दिखा दिया कि वे रियायतों को मुनाफे में बदलती हैं, रोजगार और मांग में नहीं.

याद रहे कि पिछले बजट भी कमजोर नहीं थे इसलिए 2016 में अर्थव्यवस्था गिरी तो गिरती चली गई. भारतीय बजट आंख पर पट्टी बांधे व्यक्ति की तरह चुनिंदा हाथों में पैसा रखते-उठाते रहते हैं, बीते एक साल में यही हुआ है. मदद बेरोजगारों को चाहिए थी और विटामिन कंपनियों को दिया गया. लोगों की जेब में पैसे बचने चाहिए थे तो टैक्स बढ़ाकर पेट्रोल-डीजल खौला दिए गए इसलिए लॉकाडाउन हटने के बाद महंगाई और बेरोजगारी गहरा गए.

बीते एक बरस में मंदी दूर करने की सभी कोशि‍शें हो चुकी हैं. बजट आंकड़े खुली किताब हैं. बड़ी योजनाओं पर खर्च तो दूर, ऐक्ट ऑफ गॉड की शि‍कार केंद्र सरकार के पास राज्यों को टैक्स में हिस्सा देने के संसाधन भी नहीं हैं. इसलिए बजट को केवल अधि‍क से अधि‍क लोगों की आय में सीधी बढ़त पर केंद्रित करना होगा. महामंदी से जंग लोगों को लडऩी है. अगले एक साल में करोड़ों परिवारों का बजट नहीं सुधरा तो मंदी का इलाज तो दूर, संसाधनों की कमी से सरकार के कई अनि‍वार्य खर्च भी संकट में फंस जाएंगे.

Friday, December 4, 2020

आंगन सूखा, घर में पानी

 

गोल्ड रश फिल्म में चार्ली चैप्लिन भूख के कारण जूता उबाल कर खाते हैं. उसका एक दृश्य है जिसमें सोने की तलाश में निकले (खनिक) चैप्लिन को बर्फीले बियाबान में एक साइनबोर्ड दिखता है. रास्ता भूल चुके चैप्लिन दौड़ कर उसके पास पहुंचते हैं तो उन्हें पता चलता कि वह दरअसल एक व्यक्तिके कब्र की सूचना है जो बर्फीले तूफान फंस कर मर गया था.

चैप्लिन कहते थे कि जिंदगी करीब से देखने पर त्रासदी है और दूर से देखने पर कॉमेडी. कोविड के बाद भारत में विकास के ताजे आंकड़े भी ऐसे ही हैं. मंदी आधिकारिक (लगातार दो तिमाहियों में नकारात्मक विकास दर) तौर आ चुकी है लेकिन कंपनियों के मुनाफों में ग्रोथ देखते बनती है. गांव-शहर के बाजारों में मांग की अंतहीन अमावस है अलबत्ता शेयर बाजार में चिरंतन धनतेरस जारी है.

जुलाई-सितंबर के दौरान अर्थव्यवस्था में कुछ चेतना लौटती दिखी लेकिन ठीक उसी तिमाही में बेरोजगारी (तिमाही और मासिक) ज्यादा गहरा गई. उसी तिमाही में शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों का मुनाफा (सालाना आधार पर) 129 फीसद बढ़ा जो मंदियों के पिछले भारतीय इतिहास में सबसे ज्यादा है.

मांग के बिना ग्रोथ, मुनाफों के बावजूद भयानक बेकारी! क्या है यह उलटबांसी?

लॉकडाउन ने बड़ी कंपनियों की खूब मदद की. खर्च कम हो गए, कर्ज का भुगतान टाल दिया गया, टैक्स में रियायतें पहले से मिल रही थीं. कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ी (टॉपलाइन) यानी मांग लौटी लेकिन लॉकडाउन में हुई बचत और सरकारी रियायत से मुनाफे फूल गए यानी बॉटमलाइन बेहतर हो गई. रिकॉर्ड बेरोजगारी ने साबित किया कि कॉर्पोरेट मुनाफों और रोजगार के बीच कोई रिश्ता नहीं है.

सीएमआइई के अध्ययन के मुताबिक, कोविड की मार के बावजूद 2020-21 के पहले छह माह में सभी (शेयर बाजार सहित) कंपनियों के मुनाफे करीब 24 फीसद बढ़े अलबत्ता वेतन में बढ़ोतरी नगण्य थी. मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों ने सितंबर की तिमाही मुनाफे में करीब 18 फीसद बढ़त के बदले वेतन में कटौती की. बैंकिंग और सूचना तकनीक कंपनियों के अलावा सभी क्षेत्रों में जून और सितंबर की तिमाही में वेतन 9 और 6 फीसद गिरे.

नतीजतन अक्तूबर में 55 लाख नए बेरोजगार जुड़े. नवंबर में बेकारी दर नई ऊंचाई पर पहुंची. रोजगार मिलने की गति जून के बाद न्यूनतम हो गई. अक्तूबर में गांवों में अस्थायी रोजगार भी कम हुए (सीएमआइई). सनद रहे कि इसी दौरान दो करोड़ मध्य वर्गीय नौकरियां गईं.

भारत में श्रम लागत का हिस्सा है इसलिए कंपनियों ने नौकरियां-वेतन काटकर लागत में दोगुनी तक कमी दर्ज की है, जबकि अन्य देशों में सरकारों की सहायता से कंपनियों को रोजगार बचाए.

कर्मचारी अभागे थे निवेशक नहीं. हर तरह से मंदी के बावजूद इन कृत्रिम मुनाफों ने शेयर बाजारों को रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचाया, अंतरिम लाभांश बांटे गए, कंपनियों ने अपने शेयर वापस (बाइ-बैक) किए और निवेशकों ने खूब मुनाफा कमाया.

खेती ने जीडीपी को पूरी तरह ध्वस्त होने से बचाया है. एग्री कंपनियों के मुनाफे और शेयर मूल्य नए कीर्तिमान बना रहे हैं. निवेशकों पर लक्ष्मी मेहरबान हैं और किसान सड़क पर हैं!

कंपनियां कमा रही हैं तो अगली तीन-चार तिमाहियों में जीडीपी उबरने की उम्मीद क्यों नहीं है? वजह देश के तिहाई रोजगार (11 करोड़) छाटे उद्योगों से आते हैं जो जीडीपी का 29 फीसद (फैक्ट्री उत्पादन में 45 और सर्विसेज में 25 फीसद) का हिस्सा रखते हैं.

आत्मनिर्भर पैकेज ने बताया कि सरकार की गारंटी के बावजूद छोटे उद्योग कर्ज लेने की हिम्मत नहीं जुटा सके. सनद रहे कि भारत में केवल 20 फीसद छोटे उद्योग की पहुंच बैंकों तक है.

तो आगे क्या होगा?

जीडीपी के सबसे बड़े आधार टूट गए हैं. छोटे उद्योगों के उत्पादन (रोजगार) और मध्य वर्ग के लिए संगठित क्षेत्र में नौकरियां में गिरावट के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की रिकवरी बेहद धीमी होगी

बड़ी कंपनियां अकेले मांग को पटरी पर नहीं ला सकतीं इसलिए वे मुनाफे-बचत से अधिग्रहण के जरिए बाजार कब्जाएंगी

नुक्सान भरपाई लिए फैक्ट्री उत्पादों की कीमतें भी बढ़ने लगी हैं, यानी मरियल मांग और टूटती कमाई पर महंगाई का बोझ आ ही गया. इसलिए बाजार में खपत या मांग नहीं है.

चेकस्लोवाकिया के पूर्व राष्ट्रपति और लेखक वाक्लाव हॉवेल ने लिखा था कि यह हास्यबोध ही है जो हालात के बेतुके और विद्रूप आयामों को पढ़ने में हमारी मदद करता है. हम खुद पर और दूसरे पर हंस कर ही वक्त की पैरोडी और परिस्थितियों का व्यंग्य समझ सकते हैं.

अगले 9 से 12 महीनों तक विकास दर को पंख नहीं उगने वाले. अर्थव्यवस्था अपनी विसंगतियों, विद्रूपताओं और परस्पर विरोधी संकेतों से हमें चौकाएगी. गए हुए रोजगारों और वेतन कटौतियों की वापसी के बाद ही ग्रोथ की गिनती शुरू होगी. तभी मौसम में बदलाव महसूस होगा. तब सहना और हंसना हमारे वश में है.