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Monday, November 22, 2010

भ्रष्टाचार का मुक्त बाजार

अर्थार्थ
राजाओं, कलमाडिय़ों, मधु कोड़ाओं और ललित मोदियों के शर्मनाक संसार को देखकर क्या सोच रहे हैं ... यही न कि आर्थिक खुलेपन की हवा भ्रष्टाचार के पुराने इन्फेक्शन को खूब रास आ रही है ? वेदांतो, सत्यमों व तमाम वित्तीय कंपनियों के कुकर्मों में आपको एक आर्थिक अराजकता दिखती होगी। कभी कभी यह कह देने का मन होता होगा कि आर्थिक उदारीकरण ने भारत में भ्रष्टाचार का उदारीकरण कर दिया है !!.... माना कि यह ऊब, खीझ और झुंझलाहट है मगर बेसिर पैर नहीं है। मान भी लीजिये कि हम मुक्त बाजार की विकृतियों को संभाल नहीं पा रहे हैं। रिश्वत, कार्टेल, फर्जी एकाउंटिंग, कारपोरेट फ्रॉड, लॉबीइंग, नीतियों में मनमाना फेरबदल, ठेके, निजीकरण का इस्तेमाल .... उदार बाजार का हर धतकरम भारत में खुलकर खेल रहा है। राजा व कोड़ा जैसे नेताओं की नई पीढ़ी अब राजनीतिक अवसरों में कमाई की संभावनाओं को चार्टर्ड अकाउंटेंट की तरह आंकती है, इसलिए भ्रष्टाजचार भी अब सीधे नीतियों के निर्माण में पैठ गया है। सातवें आठवें दशक के नेता अपराधी गठजोड़ की जगह अब नेता-कंपनी गठजोड़ ले ली है। यह जोड़ी ज्यादा चालाक, आधुनिक, रणनीतिक, बेफिक्र और सुरक्षित है। मुक्त बाजार में ताली दोनों हाथ से बज रही है।
खुलेपन का साथ
मुट्ठी में दुनिया (मोबाइल) लिये घूम रही भारत की एक बड़ी आबादी को मालूम होना चाहिए कि यह सुविधा बहुतों की मुट्ठयां गरम होने के बाद मिली है। सुखराम से राजा तक, दूरसंचार क्षेत्र का उदारीकरण अभूतपूर्व भ्रष्टा्चार से दागदार है। सिर्फ यही क्यों पूंजी बाजार, खनन, अचल संपत्ति व निर्माण, बैंकिंग, वायु परिवहन, सरकारी अनुबंध ... हर क्षेत्र में उदारीकरण के बाद बडे घोटाले दर्ज हुए हैं। उदारीकरण और भ्रष्टाचार रिश्ते की सबसे बड़ी पेचीदगी यही है कि

Monday, August 30, 2010

जागते रहो!

अर्थार्थ
नजर उतारिए सरकार की, बड़ी हिम्मत दिखाई हुजूर ने, वरना तो लोकतंत्र में सरकारें बुनियादी रूप से दब्बू ही होती हैं। बात अगर बड़ी निजी कंपनियों की हो तो फैसले नहीं, समझौते होते हैं। वेदांत के मामले जैसी तुर्शी और तेजी तो बिरले ही दिखती है। नाना प्रकार के दबावों को नकारते हुए सरकार ने जिस तेजी से वेदांत को कानूनी वेदांत पढ़ाया, वह कम से कम भारत के लिए तो नया और अनोखा ही है और इस हिम्मत पर सरकार को विकास और विदेशी निवेश के वकीलों से जो तारीफ मिली, वह और भी महत्वपूर्ण है। इसे भारत में ऐसे सुधारों की शुरुआत मानिए, जिसका वक्त अब आ गया था। जरा खुद से पूछिए कि अब से एक दशक पहले क्या आप भारत में सरकारों से इस तरह की जांबाजी की उम्मीद कर सकते थे। तब तो सरकारें विदेशी निवेश की चिंता में सांस भी आहिस्ता से लेती थीं। वेदांत को सबक सरकारी तंत्र के भीतर सोच बदलने का सुबूत है और यह बदलाव सिर्फ वक्त के साथ नहीं हुआ है, बल्कि इसके पीछे जन अधिकारों के नए पहरुए भी हैं और, माफ कीजिए, दंतेवाड़ा व पलामू भी।
वेदांत से शुरुआत
यूनियन कार्बाइड से लेकर वेदांत तक कंपनियों के कानून से बड़ा होने की ढेरों नजीरें हमारे इर्दगिर्द बिखरी हैं। इसलिए वेदांत पर सख्ती भारत के कानूनी मिजाज से कुछ फर्क नजर आती है। उड़ीसा सरकार तो आज भी मानने को तैयार नहीं है कि नियामगिरी में बॉक्साइट खोद रही वेदांत ने वन अधिकार, वन संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण और आदिवासी अधिकारों के कानूनों को अपनी खदान में दफन कर दिया। अलुमिना रिफाइनरी की क्षमता (एक मिलियन टन से छह मिलियन टन) हवा में नहीं बढ़ जाती, जैसा कि लांजीगढ़ में वेदांत ने बगैर किसी मंजूरी के कर लिया। यह कैसे हो सकता है कि सरकारों को 26 हेक्टेयर वन भूमि पर अवैध कब्जा, पर्यावरण की बर्बादी या आदिवासियों के हकों पर हमला न दिखे। खनन कंपनियां तो वैसे भी अपनी मनमानी के लिए पूरी दुनिया

Tuesday, August 17, 2010

निवाले पर आफत

अर्थार्थ
रोटी या डबल रोटी, जो भी खाते हों, अब उसकी ले-दे मचने वाली है। मुश्किल वक्त में कुदरत भी अपना तकाजा लेकर आ पहुंची है। दुनिया सिर झुकाए वित्तीय संकटों की गुत्थियां खोलने में जुटी थी मगर इसी बीच अनाज बाजार ने पंजे मारने शुरू कर दिए। जमीन के एक बहुत बड़े हिस्से पर इस साल प्रकृति का गुस्सा बरस रहा है। मौसम अपने सबसे डरावने चेहरे के साथ दुनिया की कृषि के सामने खड़ा है। रूस में सूखे, पाकिस्तान में बाढ़, अफगानिस्तान व ऑस्ट्रेलिया में टिड्डी और भारत में असंतुलित वर्षा ने मिलकर जून से अब तक दुनिया में गेहूं की कीमत 50 फीसदी बढ़ा दी है। कई देश अनाज का निर्यात बंद करने लगे हैं जबकि आयात पर निर्भर देशों के व्यापारी वायदा बाजार में हवा भर रहे हैं। महंगाई से तप रहे भारत जैसे मुल्कों के लिए यह बीमारी के बीच अस्पतालों की हड़ताल जैसा है। यहां खेती अस्थिर है, मौसम इस बार भी नखरे दिखा रहा है। खाद्य अर्थव्यवस्था बदहाल है इसलिए अनाज बिकता या बंटता नहीं बल्कि सड़ता है और अंतत: अक्सर आयात की नौबत आती है।
डरावना मौसम
विश्व के कई हिस्सों ने मौसम का ऐसा गुस्सा अरसे बाद देखा है। भारत में लेह से लेकर रूस के एक बड़े हिस्से तक प्रकृति की निर्ममता बिखरी है। दुनिया के तीसरे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक रूस के 27 राज्यों में इमर्जेसी लगी है। यह पूरा इलाका रूस की गेहूं उत्पादक पट्टी है। रूस में पिछले तीस साल का सबसे भयानक सूखा पड़ा है। तापमान 130 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गया है और देश के सात भौगोलिक हिस्सों में जंगल आग का समंदर बने हुए हैं। रूस अपने ताजा इतिहास की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा झेल रहा है। जंगलों के धुएं से मॉस्को सात दिन तक बंद रहा है। इस सूरत में दुनिया को रूस से गेहूं मिलने की उम्मीद नहीं है। मौसम केवल रूस का ही दुश्मन नहीं है। पड़ोसी राज्य यूक्रेन में भी भयानक सूखा है। दुनिया के छठे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक यूक्रेन की काफी फसल पहले ही पाले की भेंट चढ़ चुकी है। पाकिस्तान के भी एक बहुत बड़े हिस्से के लिए रमजान बहुत बुरा बीत रहा है। यहां करीब दस लाख एकड़ की कृषि भूमि ताजा इतिहास की सबसे भयानक बाढ़ में डूब चुकी है। पड़ोसी अफगानिस्तान में गेहूं की फसल का एक बड़ा हिस्सा टिड्डी चाट गई है। टिड्डी का असर ऑस्ट्रेलिया की फसल तक है, जहां करीब 30 लाख टन उपज का नुकसान संभव है। गेहूं बाजार के प्रमुख खिलाड़ी ऑस्ट्रेलिया का पश्चिमी हिस्सा पहले ही सूखे से जूझ रहा है और चीन व कनाडा में बाढ़ की तबाही है। यही वजह है कि अमेरिका के कृषि विभाग ने पूरी दुनिया में गेहूं का उत्पादन करीब ढाई फीसदी घटने का आकलन किया है। अगले साल मार्च तक विश्व के गेहूं भंडार में करीब सात फीसदी की कमी संभव है। दुनिया की आबादी को देखते हुए उत्पादन और भंडार में यह गिरावट संकट से कम नहीं है।
कीमती अनाज
लेनिन ने जिस अनाज को मुद्राओं की मुद्रा कहा था वह रूस के लिए अचानक बहुत कीमती हो चला है। ब्लैक सी से लेकर उत्तरी काकेशस और पश्चिमी कजाखिस्तान तक फैले रूस के विशाल उर्वर इलाके में भयानक सूखे के बाद इस रविवार से दुनिया के बाजार में रूस का गेहूं पहुंचना बंद हो गया है। वोल्गा नदी से सिंचित यह क्षेत्र रूस को दुनिया का प्रमुख अनाज निर्यातक बनाता है। पुतिन की सरकार ने इस साल निर्यात चार करोड़ टन पहुंचाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन अब निर्यात पर चार माह की पाबंदी लग गई है। रूस अपने गेहूं उत्पादन का बीस फीसदी हिस्सा निर्यात करता है। रूस के इस फैसले के बाद उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और यूरोप के बाजारों में अफरा-तफरी फैली है। यूक्रेन भी गेहूं का प्रमुख निर्यातक है जो अगले सप्ताह तक निर्यात पर रोक लगाने वाला है। शिकागो के जिंस एक्सचेंज में गेहूं का वायदा 1973 के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर खुला है। इसे देखते हुए विश्व बैंक को दुनिया के देशों से निर्यात रोकने की होड़ बंद करने का अनुरोध करना पड़ा है। दो साल पहले चावल को लेकर भी इसी तरह की होड़ मची थी और कीमतें रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई थीं। कई प्रमुख उत्पादक देशों में मक्के और जौ की उपज भी घटी है। दुनिया में मक्के का भंडार 13 साल के सबसे निचले स्तर पर बताया जा रहा है। अनाज को लेकर दुनिया में संवेदनशीलता काफी ज्यादा है। इसलिए उत्पादन घटने का आंकड़ा आने के बाद पिछड़े और अगड़े सभी देश अपने भंडार भरने में लग जाते हैं, जिससे बाजार में कीमतें और ऊपर जाती हैं। यानी बाजार में बदहवासी बढ़ रही है।
बहुआयामी मुश्किल
अनाजों के बाजार का संतुलन बड़ा नाजुक है। कुछ ही देशों के बूते दुनिया में मांग व आपूर्ति का पलड़ा संभलता रहता है क्योंकि ज्यादातर देशों की पैदावार उनकी जरूरत भर की होती है। 2007-08 में दुनिया ने अनाज बाजार में जबर्दस्त तेजी का दौर देखा था जो लौटता दिख रहा है। भारत जैसे देशों के लिए तो यह आफत है। एक अरब से ज्यादा आबादी वाले भारत में खेती सिरे से गैर भरोसेमंद हो चली है। भोजन के अंतरराष्ट्रीय बाजार पर भारत की निर्भरता तेजी से बढ़ी है। पिछले कई वर्षो से दुनिया का बाजार भारत को दाल व खाद्य तेल खिला रहा है। गेहूं व चावल के आयात की नौबत अक्सर आती रहती है। बीते ही साल चीनी का भी आयात हुआ है। इसलिए दुनिया के अनाज बाजार का बदलता रंग चिंतित करता है। भारत में पिछले एक दशक में मौसम के रंग बदले हैं। वर्षा का क्षेत्रीय वितरण उलट-पलट रहा है। ताजा मानसून ने उत्तर में पंजाब और हरियाणा के खेतों को बुवाई से पहले ही पानी से भर दिया जबकि पूर्व व मध्य भारत के धान उत्पादक इलाके सूख रहे हैं। भारत में अनाज उत्पादन के आकलन लगातार उलटे पड़ते हैं। खाद्य बाजारों में आ रही महंगाई को भारत पहुंचने तक कोई नहीं रोक सकता। अलबत्ता अगर फसल बिगड़ी तो अनाज को लेकर भारत का बजट भी बिगड़ सकता है।
दुनिया यह मान रही थी कि अगले दो दशक में उसे अपनी अनाज उपज दोगुनी करनी होगी ताकि बढ़ती आबादी का पेट भरा जा सके। हालांकि खेती का यह एजेंडा वित्तीय संकट से निपटने के बाद ही सामने आना था। तब तक दुनिया इस बात से मुतमइन थी कि मांग आपूर्ति में संतुलन बनाने भर की पैदावार होती रहेगी अलबत्ता कुदरत को कुछ और मंजूर था। मौसम के बदले मिजाज ने अब हाथों से तोते उड़ा दिए हैं। बैंकों और वित्तीय कानूनों में उलझी सरकारें अचानक खेतों को लेकर परेशान होने लगी हैं क्योंकि हर जगह बात निवाले की है। .. यकीनन रोटी से ज्यादा बड़ा सवाल और क्या हो सकता है ??
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Monday, August 9, 2010

फजीहत का गोल्ड मेडल

अर्थार्थ
हार पहनने से गला कटते सुना है आपने? ताज सजाने से कोई गंजा भी हो सकता है? चेहरा सजाने कोशिश हुलिया बिगाड़ दे तो ? यकीन नहीं होता तो जरा भारत के इतिहास के सबसे बड़े खेल आयोजन को देखिये , दुनिया के देश जिन आयोजनों की मेजबानी से साख और शान का जलवा दिखाते हैं भारत उन्हीं के कारण जलालत झेल रहा है। ओलंपिक, एशियाड और कॉमनवेल्थ के दर्जे वाले खेल आयोजन पूरे विश्व में हमेशा से फिजूलखर्ची, भ्रष्टाचार व घाटे से दागदार रहे हैं, फिर भी दुनिया के देश यह वजनदार घंटी गले में सिर्फ इसलिए बांधते हैं क्यों कि इससे उनकी शान का दिग-दिगंत में गूंज जाती है और भव्यता की चमक में दाग छिप जाते हैं। भारत ने भी इसी उम्मीद में कॉमनवेल्थ खेलों की मेजबानी का ताज पहना था लेकिन अब पूरी दुनिया भारत के बुनियादी ढांचे, प्रबंधन, तकनीक और सुघड़ता की नहीं बल्कि भ्रष्टाचार, कुप्रबंध और विवादों की नुमाइश देख रही है। चमकने के चक्कर में भारत ने बमुश्किल बनी अंतरराष्ट्रीय साख का कबाड़ा कर लिया है, वह भी भारी निवेश के साथ।
सबसे दुर्लभ जीत
2008 के बीजिंग ओलंपिक के कुछ माह बाद खेल की दुनिया में जो सबसे बड़ी खबर आई थी वह पैसे की थी। बीजिंग ओलंपिक की आयोजन समिति ने बताया कि उसने 146 मिलियन डॉलर (करीब 674 करोड़ रुपये) का मुनाफा कमाया। ... खेल की दुनिया इस दुर्लभ तमगे पर हैरत में पड़ गई। चीन पर भरोसा मुश्किल था मगर अविश्वास का आधार भी नहीं था। चीन ने ओलंपिक व संबंधित 102 परियोजनाओं पर 2.6 बिलियन डॉलर (आधिकारिक आंकड़ा) खर्च किये थे और शोहरत व मुनाफा दोनों कमाया। ओलंपिक परिवार (एशियाड कॉमनवेल्थ आदि) के खेल आयोजनों की दुनिया में यह करिश्मा कम ही या यूं कहें कि शायद दूसरी बार हुआ था। ‘मैकोलंपिक’ (मैकडोनाल्ड प्रायोजित) के नाम से मशहूर 1984 के लास एंजेल्स खेल मुनाफा कमाने वाले पहले ओलंपिक थे। यह इस खेल में निजी कंपनियों का शायद पहला प्रवेश था और इसे आधुनिक ओलंपिक की शुरुआत का खिताब मिला। पिछले कॉमनवेल्थ (मेलबोर्न 2006) खेलों का भी बजट नहीं बिगड़ा था। अलबत्ता बीजिंग या लॉस एंजल्स अपवाद हैं और इनके रिकार्डों पर मजबूत संदेह भी हैं। नियम तो यह है कि बड़े खेल आयोजनों में मेजबान बुरी तरह हारते हैं। यह आयोजन उनकी जेब कायदे से तराश देते हैं।
तयशुदा हार
1976 का मांट्रियल ओलंपिक कनाडा के लिए वित्तीय आफत साबित हुआ थो, तो ग्रीस के ताजे संकट की जड़ें 2004 के एथेंस ओलंपिक की मेजबानी में तलाशी जा रही हैं। दरअसल बीजिंग जब ओलंपिक का ताज सजा रहा था तब मांट्रियल (1976), बार्सिलोना (1992), सिडनी (2000) और एथेंस (2004) ओलंपिक की मेजबानी के दौरान लिए गए कर्जों से (प्रो. जेफ्री जार्विन, तुलान यूनिवर्सिटी) जूझ रहे थे। कुछ हफ्तों के आयोजन पर भारी निवेश, ढेर सारी फिजूलखर्ची और बाद में घाटा इन खेल आयोजनों का शाश्वत सच है, तभी तो 2006 एशियाड के मेजबान कतर के अधिकारी खेलों से परोक्ष फायदों मसलन निवेश, विकास, रोजगार आदि की दुहाई देते हैं। क्यों कि किसी बड़े देश के सिर्फ एक शहर में भारी खर्च सरकारों को मुश्किल में डालता है। दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों को लेकर भी यही तर्कहैं अलबत्ता आंकड़े इन तर्कों को सर के बल खड़ा करते हैं। बैंक ऑफ चाइना ने, बीजिंग खेलों से पहले एक शोध में जानकारी दी थी कि पिछले 60 साल में आयोजित 12 ओलंपिक में नौ के मेजबानों की अर्थव्यवस्थायें खेल मेले के बाद गोता खा गईं। कॉमनवेल्थ खेल, ओलंपिक व एशियाड से छोटे हैं लेकिन भारत के खजाने में यह बड़ा छेद करेंगे। ताजी मंदी के कारण 2012 के ओलंपिक की मेजबानी लंदन के गले में फंस गई है। दरअसल इन खेलों में मेजबान कभी नहीं जीतते। इसलिए ज्यादातर देश यह हार नहीं पहनते हैं और यह खेल कुछ बड़े मुल्कों के बीच घूमते रहते हैं।
और ढेर सारा गुबार
कलमाड़ी और उनकी टीम दागी खेल आयोजकों की विश्व परंपरा के भारतीय वारिस हैं। अकूत पैसा और अनंत भ्रष्टाचार ओलंपिक परिवार के खेलों की पहचान है। मेजबानी हासिल करने से लेकर आयोजन तक धतकरमों का रिकार्ड इन मेलों के साथ साथ चलता है। 2002 के शीतकालीन ओलंपिक की मेजबानी के लिए अमेरिका की साल्ट लेक खेलों को इस तरह दागदार किया कि ओलंपिक महासंघ को अपने कुछ सदस्यों को चलता करना पड़ा, मगर इसके बाद मेजबानी के लिए रिश्वतखोरी रवायत बन गई। सिडनी ओलंपिक के मेजबानों पर भी यही आरोप लगा। रुस से लेकर जापान तक और अमेरिका से चीन (ताजे बीजिंग ओलंपिक से पहले खुले मामले) तक बड़े खेल आयोजनों में भ्रष्टïाचार की दर्जनों कहानियां हैं। इसलिए ओलंपिक व कामनवेल्थ संघ इन दागों से डरने लगे हैं। अब उन्हें मेजबान तलाशने में मुश्किल होती है। खेलों का अपनी गणित है। जबर्दस्त लामबंदी के बावजूद, ब्राजील, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की नाक के नीचे से 2014 का ओलंपिक उठा ले जाता है और ओबामा का गृह नगर शिकागो खिसियाकर रह जाता है।
फिर भी इकरार

पैसे की बर्बादी और भ्रष्टïाचार की मान्य परंपराओं के बावजूद दुनिया के देश के इन खेलों को सिर्फ इसलिए लाते हैं ताकि उनका कॉलर ऊंचा हो सके और दुनिया मेजबान मुल्क का बुनियादी ढांचा, भव्य प्रबंधन, चमकदार वर्तमान और भविष्य की उम्मीदें देख सके। चीन दो साल में दूसरे बड़े (गुआंगजू एशियाड इसी नवंबर में) खेल की मेजबानी करेगा। इन खेलों से हमें दुनिया को यह बताना था भारत शानदार बुनियादी ढांचा बनाता है। तकनीक के हम सूरमा हैं और एक महाशक्ति भव्य आयोजन कर सकती है। यानी केवल साख की सजावट बस? मगर आयोजकों की कृपा से इन खेलों में अपना चेहरा देखकर हम अब लज्जित हैं।
विश्व की खेल प्रबंध कंपनियों के बीच सबसे ताजा मजाक यह है कि अब भारत को ओलंपिक की मेजबानी दिलवायी जा सकती है क्यों कि यहां आप किसी भी कीमत पर कुछ भी बेच सकते हैं, आखिर ऐसे दिलफेंक मेजबान कहां मिलेंगे?? दरअसल शान को शर्मिंदगी में बदलना अगर कोई कला है तो दिल्ली खेलों के आयोजक इसका स्कूल खोल सकते हैं। भारत ट्रैक एंड फील्ड खेलों में कभी कोई ताकत नहीं रहा। हमारे लिए तो यह महंगा खेल छवि प्रबंधन यानी शान और शोहरत का तमगा हासिल करने कोशिश भर था। मगर भारत ने तो कॉमनवेल्थ खेलों से पहले ही एक गोल्ड मेडल जीत लिया है ... फजीहत का गोल्ड मेडल !!!!
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Monday, July 26, 2010

इंस्‍पेक्‍टर राज इंटरनेशनल !

अर्थार्थ
मौसम अचानक बिल्कुल बदल गया है। वित्तीय कारोबार पर कड़े नियमों की धुआंधार बारिश होने वाली है। पूंजी बाजारों में बेलौस और बेपरवाह वानर लीला कर रहे वित्तीय कारोबारियों पर कठोर पहरे की तैयारी हो गई है। बैंक, इन्वेस्टमेंट बैंक, हेज फंड, बांड फंड, म्यूचुअल फंड व इस जाति के सभी प्रतिनिधियों को सख्त पहरे में सांस लेनी होगी। अमेरिका में ताजा पीढ़ी के सबसे कठोर वित्तीय नियमन कानून को राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने दस्तखत से नवाज दिया है। वित्तीय कारोबार पर एक समग्र यूरोपीय सख्ती के लिए यूरोप की सरकारें भी बीते सप्ताह ब्रुसेल्स में सहमत हो चुकी हैं। यूरोप के नामी 91 बैंकों को एक अभूतपूर्व परीक्षा, स्ट्रेस टेस्ट से गुजार कर उनकी कुव्वत परख ली गई है। भारत में नियामकों का नियामक यानी सुपर रेगुलेटर (बजट में घोषित आर्थिक स्थायित्व व विकास परिषद) आने को तैयार है। आपस में झगड़ते भारत के वित्तीय नियामक इसकी राह आसान कर रहे हैं। हर तरफ एक नया इंस्पेक्टर राज तैयार हो रहा है। नौकरशाह नियामकों की फौज हर जगह वित्तीय बाजार व इसके खिलाडि़यों की आठों पहर निगरानी करेगी।
..और फ्यूनरल प्लान भी
आपके अंतिम संस्कार का प्लान क्या है? सवाल बेहूदा हो सकता है, लेकिन ताजा कानून के तहत अमेरिका के वित्तीय कारोबारियों को इसका जवाब देना होगा। बैंकों व वित्तीय कंपनियों से पूछा जाएगा कि यदि संकट में फंस कर बर्बाद हुए तो वे अपनी दुकान किस तरह बंद करना चाहेंगे? 1930 के बाद अमेरिका में वित्तीय कानूनों में सबसे बड़ा बदलाव हो गया है। वॉलस्ट्रीट पर शिकंजा कसने वाला डॉड-फ्रैंक बिल तमाम दहलीजें पार करते हुए बीते सप्ताह लागू हो गया। 2300 पेज का यह भीमकाय कानून अपनी सख्ती और पाबंदियों के लिए दुनिया में नजीर बनेगा। अमेरिका के लोग एफएसओसी, फिनरेग और वोल्कर रूल जैसे नए शब्द सीख रहे हैं। एफएसओसी बोले तो.. फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ओवरसाइट काउंसिल। एक सुपर रेगुलेटर यानी सबसे बड़ा नियामक। यह काउंसिल वित्तीय तंत्र के लिए जोखिम बनने वाली कंपनियों की लगातार पहचान करेगी। मतलब यह कि एफसीओसी ने जिसे घूरा उसका काम पूरा। बेफिक्र और मस्तमौला हेज फंड हों या निवेश बैंक सबके लिए कानून में कड़ी शर्ते हैं। बैंकों को जमा के बीमा पर ज्यादा रकम लगानी होगी ताकि अगर बैंक डूबें तो जमाकर्ता भी न डूब जाएं। वोल्कर रूल तय करेगा कि बैंक कौन से कारोबार और कहां निवेश न करें। 615 ट्रिलियन डॉलर के डेरिवेटिव्स कारोबार को पहली बार लगाम का स्वाद मिलेगा। क्रेडिट रेटिंग, बीमा, ब्रोकर, मॉरगेज, निवेशक आदि सब इस कानून के दायरे में हैं। सबसे अहम यह है कि अमेरिका की सरकार डूबने वाले एआईजी (बीमा कंपनी जिसे अमेरिकी सरकार ने उबारा था) जैसों का पाप अपने सर नहीं लेगी। हर कंपनी अपने अंतिम संस्कार की योजना पहले घोषित करेगी ताकि अगर वह बर्बाद हो तो उसे शांति से विदा किया जा सके। इस कानून पर हस्ताक्षर करते हुए तालियों की गूंज के बीच ओबामा ने कहा अब अमेरिका की जनता वॉलस्ट्रीट की गलतियों का बिल नहीं चुकाएगी। उदारता से पूरी दुनिया को ईर्ष्‍या से भर देने वाला अमेरिकी बाजार अब सख्ती का आदर्श बनेगा।
बैंकों की अग्निपरीक्षा

27 देश, 91 बैंक और एक परीक्षा!! बेचैनी, रोमांच, असमंजस! इस 23 जुलाई को पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में समय मानो ठहर सा गया था। यूरोप के बैंक स्ट्रेस टेस्ट से गुजर रहे थे, यह साबित करने के लिए अगर संकट आया तो कौन सा बैंक बचेगा और कौन निबट जाएगा? पैमाना गोपनीय था अलबत्ता परीक्षा मोटे तौर पर कर्ज का बोझ, जोखिम भरे निवेश का हिसाब-किताब और पूंजी की स्थिति आदि के आधार पर ही हुई। शुक्रवार की रात भारत में जब लोग सोने की तैयारी कर रहे, तब इस परीक्षा का रिजल्ट आया। यूरोप के सात बैंक फेल हो गए। पांच स्पेन के और एक-एक जर्मनी व ग्रीस का। इन्हें अब अपनी सेहत सुधारने के लिए 3.5 बिलियन यूरो जुटाने होंगे, जो आसान नहीं है। फेल का रिपोर्ट कार्ड लेकर निकलने वाले इन बैंकों के साथ वित्तीय बाजार नरमी नहीं बरतेगा। मगर जो बैंक इस आग के दरिया से निकल आए हैं, उनके स्वागत के लिए एक नया सख्त समग्र यूरोपीय नियामक तैयार है। यूरोपीय समुदाय नया वित्तीय दो स्तरीय नियामक ढांचा बना रहा है। वित्तीय बाजार पर दैनिक नियंत्रण देशों के पास होगा, लेकिन व्यापक नियंत्रण एक बड़े यूरोपीय नियामक के हाथ में रहेगा। बैंकों के लिए अभी कई और स्ट्रेस टेस्ट तैयार हो रहे हैं।
नियामकों का नियामक

अमेरिका की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ओवरसाइट काउंसिल, यूरोप की पैन यूरोपियन अथॉरिटी या फिर भारत की प्रस्तावित आर्थिक स्थायित्व व विकास परिषद आदि सब उसी सुपर रेगुलेटर के अलग-अलग नाम रूप हैं, जो अब आ ही पहुंचा है। दरअसल वित्तीय दुनिया में कई नियामक हैं, सो खूब गफलत भी है। अमेरिका में डेरिवेटिव और हेज फंड को लेकर नियामक ठीक उसी तरह उलझते रहे हैं, जैसे कि यूलिप को लेकर भारत में इरडा और सेबी लड़ रहे हैं। घोटालेबाज इस भ्रम पर खेलते हैं। भारत संकट से बाल-बाल बच गया, लेकिन नसीहत के तौर पर सुपर रेगुलेटर न होने की गलती जल्द ही दूर की जा रही है। दरअसल तीसरी दुनिया के लिए सिर्फ नियम कानून चाक चौबंद करने की ही झंझट नहीं है, उन्हें एक और झटके से निबटना होगा। फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि वित्तीय निवेशक इस नए कानूनी माहौल के बाद कैसा व्यवहार करेंगे, लेकिन जब निवेश की आजादी पर दर्जनों पहरे होंगे तो निवेश की आदत में कुछ फर्क तो आएगा ही। ..उभरते बाजारों को इस असर से निबटने की तैयारी भी करनी होगी।
भारत जैसी अधखुली अर्थव्यवस्थाएं तो बचे-खुचे इंस्पेक्टर राज के विदा होने की मन्नत मांग रहीं थीं, मगर यहां तो इंस्पेक्टर राज ताजा अंतरराष्ट्रीय अवतार में वापस लौट आया है। अमेरिका, यूरोप व एशिया के वित्तीय बाजारों की लगाम नए किस्म की ब्यूरोक्रेसी के हाथ आने जा रही है। बाजार के खिलाडि़यों को वित्तीय नौकरशाह या नियामक नौकरशाहों की एक नई पीढ़ी के नाज-नखरे उठाने होंगे। वित्तीय बाजार आजादी पाकर बौरा गया था अब उसे पाबंदियों की पांत में चलना होगा। ..बस एक चूक और पुर्नमूषकोभव !!

Monday, April 12, 2010

सुरक्षित होने के खतरे

अच्छा होना हमेशा अच्छा ही नहीं होता। कम से कम इस निष्ठुर आर्थिक दुनिया का तो यही नियम है। यहां संतुलित और कुछ बेहतर होने की भी अपनी एक कीमत होती है। भारत सहित उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं संकटग्रस्त दुनिया के बीच (तुलनात्मक रूप से) निरापद होने की एक बड़ी कीमत चुकाने वाली हैं। भारत से लेकर कोरिया तक और ब्राजील से लेकर रूस तक विभिन्न अर्थव्यवस्थाएं मंदी से उबरने का कितना उत्सव मना पाएंगी यह तो पता नहीं, लेकिन उनकी चिंता का नया चक्र शुरू हो रहा है। चिंता बड़ी दिलचस्प है... यूरोजोन के निवेश सरोवर सूखने और डालरजोन (अमेरिका) में अनदेखे जोखिम के कारण दुनिया भर के प्रवासी निवेशक भारत जैसे मुल्कों में झुंड बांध कर उतरने लगे हैं। केवल मार्च में ही छह अरब डालर का विदेशी निवेश अकेले भारत के वित्तीय बाजारों में जज्ब हो चुका है। भारत का रुपया, रूस का रूबल, ब्राजील का रिएल, दक्षिण अफ्रीका का रैंड, मेक्सिको का पेसो, मलेशिया का रिंगिट आदि उभरते बाजारों की मुद्राएं, इस विदेशी खुराक से पहलवान हुई जा रही हैं। वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की भरमार और बेवजह ताकत दिखाती घरेलू मुद्राओं के अपने खतरे हैं। ऊपर से डर यह है कि अगर ग्रीस डूबा तो फिर डालरों व यूरो का एक ज्वार इन बाजारों से आकर टकराएगा, जिसे संभालना बड़ा मुश्किल होगा।
ग्रीक ट्रेजडी, डालर कामेडी
डालर की कामेडी बड़ी मजेदार है। डालर खुद खोखला है, लेकिन प्रतिस्पर्धी मुद्रा इतनी मरियल है कि डालर में ताकत दिख रही है। संकट शुरू हुआ था डालर की दुनिया से, लेकिन बन आई यूरो पर। डालर के आसपास भी जोखिमों का घेरा है लेकिन उसकी तुलना में यूरो की स्याही ज्यादा गाढ़ी है, इसलिए बुनियादी रूप से कमजोर होते हुए भी डालर यूरो के मुकाबले मजबूत है। पिछले दो तीन माह में डालर ने अर्से से मजबूत यूरो को पछाड़ दिया है। यूरोजोन में ग्रीक ट्रेजडी किसी भी वक्त घट सकती है। यूरोप के बड़े मुल्क मदद को तैयार नहीं हैं अर्थात भारी कर्ज में दबे पिग्स देशों (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन) में पहला हादसा होने को है। बाजार ने इसे कायदे से सूंघ लिया है। यूरो की सेहत बिगड़ रही है। ग्रीस का डिफाल्टर होना दक्षिण यूरोप के अन्य परेशान हाल देशों की किस्मत भी लिख देगा। पिछले एक सप्ताह में यूरोजोन के बाजार लगातार टूटे हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत उभरते बाजारों में तेजी का त्यौहार है। भारी विदेशी निवेश के सहारे पिछले एक पखवाड़े में उभरते बाजारों की कई मुद्राओं ने अपने एक साल के सर्वोच्च स्तर छू लिये हैं। दुनिया के निवेशकों को यूरो से तो उम्मीद है ही नहीं और डालर पर भी उनका भरोसा सीमित ही है, क्योंकि अमेरिका भी जीडीपी के अनुपात में 10.6 फीसदी के राजकोषीय घाटे (1.56 खरब डालर) पर बैठा है। जापान और ब्रिटेन भी भारी सरकारी कर्ज से हलाकान हैं। इसलिए डालर, येन या पौंड पर ज्यादा लंबे दांव लगाने वाले वाले लोग कम हैं। नतीजतन सबकी उम्मीदें उभरते बाजारों में उभर रहीं है, जहां मंदी का अंधेरा भी छंटने लगा है।
निवेशकों के काफिले
खरबों डालर को समेटे दुनिया की वित्तीय पाइपलाइनें इन नए सितारों की तरफ मुड़ गई हैं। इक्विटी निवेशक, हेज फंड, पेंशन फंड के काफिले भारत समेत पूर्वी एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों में पड़ाव डालने लगे हैं। भारत की स्थिति तो बड़ी दिलचस्प है। मार्च में विदेशी निवेशक इक्विटी में करीब 4 अरब डालर और ऋण बाजार में 2.2 अरब डालर लगा चुके हैं। इससे पहले दिसंबर तक पिछले कैलेंडर साल में 17.64 अरब डालर काविदेशी निवेश आ चुका है। विदेश से सस्ता पैसा लाकर भारत में ब्याज कमाने (आरबिट्रेज) का पूरा कारोबार भी काफी गुलजार है। संकट से उबरने और मंदी दूर करने के लिए दुनिया भर के बैंकों ने ब्याज दरें घटाकर बाजार में धन की नदियां बहा दीं। विश्व के बाजारों में कम ब्याज दर पर भारी पैसा उपलब्ध है, लेकिन निवेश के विकल्प कम हैं। दरअसल दुनिया के निवेशकों को यह अंदाज नहीं था कि अमेरिका का वित्तीय संकट यूरोजोन को तोड़ देगा। वह तो यूरोजोन को निवेश की नई उम्मीद के तौर पर देख रहे थे, लेकिन अमेरिका के साथ यूरोपीय उम्मीद भी बिखर गई। इसलिए पैसे की गठरी उठाए निवेशक भारत जैसे उभरते बाजारों में मंडरा रहे हैं। भारत में मंदी का असर अभी बाकी है, महंगाई है, ऊंचा राजकोषीय घाटा है, फिर भी विदेशी निवेशकों के लिए यह बाजार हर हाल में यूरोजोन से अच्छा है।
अनोखी आफत
उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास इस नए आकर्षण पर इतराने का वक्त नहीं है, क्योंकि चुनौतियां बिल्कुल फर्क हैं। भारत में इस अनोखी आफत ने पैमाने ही बदल दिए हैं। 1990-91 के संकट के बाद भारत में पहली बार चालू खाते का घाटा जीडीपी के अनुपात में तीन फीसदी पर आया है। कोई दूसरा वक्त होता तो इस चिंताजनक घाटे के कारण रुपया जमीन सूंघ रहा होता, लेकिन 280 अरब डालर के जबर्दस्त विदेशी मुद्रा भंडार के कारण उलझनों की गणित तब्दील हो गई है। अब समस्या इन डालरों को संभालने, लगाने और इनकी भरमार के असर से निबटने की है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति भी विदेशी निवेश की इस चमक पर अपनी आशंका जाहिर कर चुकी है। रिजर्व बैंक के लिए इन डालरों को खरीद कर विदेश में निवेश करना घाटे का सौदा है, क्योंकि दुनिया में ब्याज दरें कम हैं। इधर देश में डालर लाने वाले निवेशकों को ऊंचा ब्याज मिलता है। दूसरी तरफ बाजार से डालर खरीदने के बदले छोड़ा जाने वाला रुपया महंगाई की आग भड़का देता है, लेकिन अगर रिजर्व बैंक डालर न खरीदे तो रुपये की ताकत निर्यातकों को निचोड़ देगी। देशी बाजार में इन डालरों को खपाने का विकल्प नहीं है, क्योंकि परियोजनाएं उपलब्ध नहीं हैं। रिजर्व बैंक ने पिछले साल दिसंबर में विदेशी मुद्रा बाजार से किनारा कर लिया था, लेकिन अब चर्चा है कि 45 रुपये पर पहुंचा डालर उसे बाजार में उतरने और डालर खरीदने पर बाध्य कर रहा है।
छप्पर फाड़कर मिलना अच्छा है, मगर उस मिले हुए को सहेजने के लिए दूसरे ठिकाने तो होने ही चाहिए। निवेश के नए स्वर्गो की यही दिक्कत है कि उनके पास इस भेंट को सहेजने के रास्ते जरा कम हैं। नतीजतन विदेशी निवेश की यह अनोखी आमद इनके यहां मुद्रास्फीति से लेकर, अचल संपत्ति की कीमतों में कृत्रिम तेजी और बाजारों में सट्टेबाजी जैसी बुराइयां ला सकती है। ऊपर से यह निवेश डरे हुए व परेशान निवेशकों का है, इसलिए इसके टिकाऊ होने की गारंटी भी जरा कम है। लेकिन इस निवेश पर रोक लगाना और बड़ी चुनौती है। उभरती अर्थव्यवस्थाएं यकीनन शेष दुनिया से बेहतर, सुरक्षित और अच्छी हैं। भविष्य बताएगा कि इन्हें इस बेहतरी का क्या ईनाम मिला, फिलहाल वर्तमान तो यह बता रहा है कि इन्हें निवेश की शरणार्थी समस्या के निबटने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। ..शाख से तोड़े गए फूल ने हंस करके कहा, अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में।
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अन्‍यर्थ के लिए
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Monday, March 29, 2010

भरपूर भंडारों से निकली भूख

भारत इस समय पूरी दुनिया को कई बेजोड़ नसीहतें बांट रहा है। हम दुनिया को सिखा रहे हैं कि भरे हुए गोदामों के बावजूद भूख को कैसे संजोया जाता है। कैसे आठ करोड़ परिवारों (योजना आयोग के मुताबिक गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले परिवार केवल छह करोड़ हैं) को गरीब होने का सर्टीफिकेट यानी बीपीएल कार्ड तो मिल जाता है मगर अनाज नहीं मिलता। करोड़ों की सब्सिडी लुटाकर ऐसी राशन प्रणाली बरसों-बरस कैसे चलाई जा सकती है, जिसे प्रधानमंत्री निराशाजनक कहते हों और सुप्रीम कोर्ट भ्रष्टाचार वितरण प्रणाली ठहराता हो। दरअसल भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था खामियों की एक ग्रंथि बन गई है। आने वाली हर सरकार इस गांठ में असंगतियों का ताजा एडहेसिव उड़ेल देती है। सस्ता अनाज वितरण प्रणाली यानी टीपीडीएस (लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली), बीपीएल-एपीएल, अंत्योदय आदि कई घाटों पर पिछले बीस साल में कई बार डुबकी लगा चुकी है, लेकिन इसका मैल नहीं धुला। गरीबों की रोटी का जुगाड़, महंगाई पर नियंत्रण और अनाज उत्पादन को प्रोत्साहन... यही तो तीन मकसद थे खाद्य सुरक्षा नीति के? इन लक्ष्यों से नीति बार-बार चूकती रही, लेकिन सरकार की नई सूझ तो देखिए वह इसी प्रणाली के जरिए भूखों को खाने की कानूनी गारंटी दिलाने जा रही है।
संकट सिर्फ अभाव से ही नहीं आदतों से भी आता है। केवल मांग-आपूर्ति का रिश्ता बिगड़ने से ही बाजार महंगाई के पंजे नहीं मारने लगता। कभी-कभी सरकारें भी बाजार को बिगाड़ देती हैं। बाजार में अनाज और अनाज के उत्पादों की कीमतें काटने दौड़ रही हैं, लेकिन इस समय भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में 200 लाख टन गेहूं और 240 लाख टन चावल है जो कि खाद्य सुरक्षा के भंडार मानकों का क्रमश: पांच व दोगुना है। सरकार रबी की ताजी खरीद को तैयार है, जबकि पहले खरीदा गया करीब 100 लाख टन अनाज खुले आसमान के नीचे चिडि़यों व चोरों की 'हिफाजत' में है। इस भरे भंडार से महंगाई को कोई डर नहीं लगता, क्योंकि खुले बाजार में सरकारी हस्तक्षेप का कोई मतलब नहीं बचा है और अनाज के बाजार में मांग व आपूर्ति का गणित सटोरियों की उंगलियों पर है। रही बात गरीबों को राशन से सस्ता अनाज बंटने की तो वह न भरपूर भंडार के वक्त मिलता है और न किल्लत के वक्त।
विसंगतियों की खरीद
खाद्य सुरक्षा की बुनियाद ही टेढ़ी हो गई है। समर्थन मूल्य प्रणाली इसलिए बनी थी कि भारी उत्पादन के मौसम में सरकार निर्धारित कीमत पर अनाज खरीदकर एक निश्चित मात्रा में अपने पास रखेगी जो महंगाई के वक्त बाजार में जारी किया जाएगा। इस भंडार से बेहद निर्धनों को सस्ता राशन भी दिया जाएगा। लेकिन यह तो महंगाई समर्थन मूल्य प्रणाली बन गई। इसने अनाज की कीमतों व आपूर्ति का पूरा ढांचा ही बिगाड़ दिया है। सरकारें भंडार में पड़े पिछले अनाज की फिक्र किए बगैर हर साल अनाज खरीदती हैं। अनाज की मांग व आपूर्ति से बेखबर, समर्थन मूल्य बाजार में अनाज की एक न्यूनतम कीमत तय कर देता है। सटोरियों व बाजार को मालूम है कि कुल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा बफर मानकों के तहत सरकार के गोदाम में चला जाएगा, इसलिए अनाज बाजार में हमेशा महंगाई का माहौल रहता है। मौजूदा वर्ष की तरह 1998 व 2002 में भी सरकारी भंडारों में निर्धारित मानकों का कई गुना अनाज जमा था और लाखों टन अनाज बाद में बाहर सड़ा था। अब सरकार अनाज की भारी अनाज खरीद करने वाली है, फिर पिछला भंडार खुले आसमान के नीचे सड़ेगा और सब्सिडी बजट को खोखला करेगी, लेकिन बाजार में अनाज की कीमतें टस से मस नहीं होंगी। रही बात किसानों की तो उन्हें इस समर्थन मूल्य प्रणाली ने कभी आधुनिक नहीं होने दिया। किसान तो बाजार, मांग व आपूर्ति को देखकर नहीं सरकार को देखकर अनाज उगाते हैं। सरकार इस प्रणाली से किसानों की आदत व अपना खजाना बिगाड़ कर बहुत खुश है और उसका आर्थिक सर्वेक्षण पूरे फख्र के साथ इस विशेषता को स्वीकार करता है।
बेअसर बिक्री
सरकार अगर आंख पर पट्टी बांध कर अनाज खरीदती है तो कान पर हाथ रखकर उसे बाजार में बेचती है। हम बात कर रहे हैं अनाज की उस ओपन सेल की जो कि खाद्य सुरक्षा नीति का दूसरा पहलू है। बताया जाता है कि सरकार उपभोक्ताओं को महंगाई के दांतों से बचाने के मकसद से बाजार में अनाज रिलीज करती है। आप जानना चाहेंगे की महंगाई रोकने के लिए अनाज किसे बेचा जा जाता है? आटा बनाने वाली मिलों को। हाल में सरकार ने करीब 1240 रुपये क्विंटल की दर अनाज बेचा, मगर आटा वही बीस रुपये किलो पर मिल रहा है। अनाज दरअसल छोटी मात्रा में खुदरा व्यापारियों या सीधे उपभोक्ताओं को मिलना चाहिए, मगर मिलता है बड़े व्यापारियों को। उस पर तुर्रा यह कि ओपन सेल अक्सर बाजार की कीमत पर और कभी-कभी तो उससे ऊपर कीमत पर होती है, इसलिए व्यापारी भी सरकार का अनाज नहीं खरीदते। निष्कर्ष यह कि अनाज की सरकारी खरीद बाजार तो बिगाड़ देती है, मगर अनाज की सरकारी बिक्री से महंगाई का कुछ नहीं बिगड़ता।
फिर भी गरीब भूखा
अनाज की इतनी भारी खरीद, ऊंची लागत के साथ भंडारों का इंतजाम और राशन प्रणाली का विशाल तंत्र अगर देश के गरीबों को दो जून की सस्ती रोटी दे रहे होते तो इस महंगी कवायद को झेला जा सकता था। लेकिन इस प्रणाली से सिर्फ बर्बादी व भ्रष्टाचार को नया अर्थ मिला है। हकीकत यह है कि देश में गरीबों की तादाद से ज्यादा बीपीएल कार्ड धारक हैं और अनाज फिर भी नहीं बंटता। खाद्य सुरक्षा कानून बना रही सरकार भी यह मान रही है कि देश के जिन इलाकों में राशन प्रणाली होनी चाहिए वहां नहीं है और जहां है, वहां उपभोक्ताओं को इसकी जरूरत नहीं है। ऊपर से गरीब का कोई चेहरा या पहचान नहीं है। सरकार की एक दर्जन स्कीमें और आधा दर्जन आकलन गरीबों की तादाद अलग-अलग बताते हैं। इसलिए गरीबों की गिनती से लेकर आवंटन तक हर जगह खेल है। नतीजा यह कि एक दशक में खाद्य सब्सिडी 9,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 47,000 करोड़ रुपये हो गई है, लेकिन राशन प्रणाली बिखर कर ध्वस्त हो गई।
सरकार इसी ध्वस्त प्रणाली पर खाद्य सुरक्षा की गारंटी का कानून लादना चाहती है। इसमें गरीबों को सस्ता अनाज मिलना उनका कानूनी अधिकार बनाया जाएगा। यह बात अलग है कि गरीबों तक अनाज पहुंचाने की कोई व्यवस्था तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि उनकी सही पहचान व गिनती न हो। हो सकता है सरकार खाद्य कूपन देने या सीधी सब्सिडी की तरफ जाए, लेकिन उस प्रणाली में भी पहचान और मानीटरिंग का एक तंत्र तो चाहिए ही। ऐसा तंत्र अगर होता तो मौजूदा प्रणाली भी चल सकती थी। रही बात समर्थन मूल्य व बाजार में हस्तक्षेप की तो इन नीतियों के मोर्चे पर नीम अंधेरा है। दरअसल जब अनाज के भरपूर भंडार और दुनिया के सबसे बडे़ राशन वितरण तंत्र के जरिए गरीब के पेट में रोटी नहीं डाली जा सकी और महंगाई नहीं थमी तो खाद्य सुरक्षा कानून से बहुत ज्यादा उम्मीद बेमानी है। यह बात अलग है कि भूख से निजात की कानूनी गारंटी की बहस खासी दिलचस्प है।...
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे-बहस यह मुद्दआ।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Monday, March 22, 2010

सरकार जी! क्या हुआ साख को?

सरकार जी !! आपकी साख को अचानक क्या हो गया है? सरकार तो संज्ञा (व्यक्तिवाचक, भाववाचक, जातिवाचक .. आदि ), सर्वनाम, क्रिया, विशेषण सभी कुछ है, इसलिए फिक्र कुछ ज्यादा है। माहौल और ताजे बदलाव बताते हैं कि इस सर्वशक्तिमान सरकार का जलवा, बाजार में कुछ घट रहा है। सरकार के नवरत्न यानी सार्वजनिक उपक्रम कितने भी बेशकीमती क्यों न हों लेकिन उनके पब्लिक इश्यू को बाजार में ग्राहक नहीं मिलते। बाद में साख बचाने के लिए सरकारी वित्तीय संस्थाओं को मोर्चे पर जूझना पड़ता है। भारत भले ही फोन सेवाओं के लिए मलाईदार बाजार हो, लेकिन दूरसंचार क्षेत्र में नया उदारीकरण दुनिया के टेलीकाम दिग्गजों में कोई दिलचस्पी नहीं जगाता। दूरसंचार तकनीकों की थ्री जी यानी तीसरी पीढ़ी की अगवानी के लिए केवल देसी कंपनियां आगे आती हैं और वह भी अनमने ढंग से। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप अर्थात निजी सार्वजनिक भागीदारी का मंत्र किसी को सम्मोहित नहीं करता। पीपीपी के नाम पर सिर्फ कागजी अनुबंध नजर आते हैं, वास्तविक परियोजनाएं नदारद हैं। निजी कंपनियां टेंडर-ठेके लेने में तो इच्छुक हैं, मगर सरकार के साथ मिलकर कुछ बनाने में नहीं। ..याद नहंी पड़ता कि सरकार की इतनी नरम साख पहले कब दिखी थी?
रत्नों के भी ग्राहक नहीं
सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने जब नवरत्नों का आधिकारिक दर्जा दिया था, तब शायद ही उसने इस अंजाम के बारे में सोचा हो। कभी इन रत्नों को खरीदने के लिए निवेशक रुपयों से भरी थैली लिये बाजार में टहलते थे। सार्वजनिकउपक्रमों के शेयरों में निवेश को कमाई में बढ़ोतरी की गारंटी माना जाता था। इनके विनिवेश की चर्चा छिड़ने मात्र से शेयर बाजार बाग-बाग हो जाता था, लेकिन इस बार तो गजब हो गया। एक दो नहीं, बल्कि पांच सरकारी रत्नों के पब्लिक इश्यू शेयर बाजार में ग्राहकों को तरस गए। अंतत: सरकार को जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी जैसे अपने वित्तीय दिग्गजों को मोर्चे पर लगाकर खरीद करानी पड़ी। बात हल्की फुल्की कंपनियों की नहीं, बल्कि देश की सबसे बड़ी ताप बिजली कंपनी एनटीपीसी, पनबिजली कंपनी एनएचपीसी, प्रमुख खनिज कंपनी एनएमडीसी और गांवों में बिजली का नेटवर्क बनाने वाली कंपनी आरईसी जैसे सरकारी जवाहरात की है। सिर्फ आयल इंडिया का इश्यू ही आंशिक सफल हुआ है। ये सरकारी कंपनियां शेयर बाजार की सरताज रही हैं क्योंकि इनके पास सुनिश्चित बाजार, मजबूत बैलेंस शीट अलावा सरकार की साख भी थी। मगर निवेशक तो निजी कंपनियों को ज्यादा भरोसेमंद मान रहे हैं। निजी कंपनियों के पब्लिक इश्यू सफल हो रहे हैं और सरकारी औंधे मुंह गिर रहे हैं। सार्वजनिक उपक्रम सतलुज जल विद्युत निगम का पब्लिक इश्यू टल चुका है, सेल, इंजीनियर्स इंडिया के इश्यू अधर में हैं और इंडियन आयल के पब्लिक इश्यू के बारे में पता नहीं है। .. सरकार जी, आसार अच्छे नहीं हैं। यही हाल रहा तो इन रत्नों के जरिए अगले साल विनिवेश के मद में 40,000 करोड़ रुपये कैसे आएंगे?
थ्री जी! माफ करिए जी
भारत ने अपना थ्री जी बाजार खोला तो दुनिया के दूरसंचार दिग्गजों ने मुंह मोड़ लिया। होती होगी थ्री जी रोमांचक दूरसंचार तकनीक । मिलती होगी इस पर डाटा, वीडियो की जबर्दस्त स्पीड। चलता होगा इस पर मोबाइल टीवी, मगर दुनिया के दूरसंचार दिग्गज यह सब कुछ देने भारत नहीं आ रहे हैं। उन्हें भारत के उभरते दूरसंचार बाजार ने जरा भी नहंी लुभाया। सरकार पिछले दो वर्षो से थ्री जी रत्न छिपाए बैठी थी। कितनी खींचतान, कितनी लामबंदी! कई बार अंतिम मौके पर आवंटन को टाला गया और जब माल बाजार में बिकने आया तो बड़े ग्राहक नदारद। थ्री जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में विदेशी दिग्गजों की अरुचि यह बताती है कि दूरसंचार क्षेत्र में उदारीकरण को लेकर कहीं न कहीं कुछ समस्या जरूर है। किसी को टू जी लाइसेंस के आवंटनों में उठे विवाद डरा रहे हैं तो किसी को स्पेक्ट्रम की किल्लत। तो किसी को लगता है कि पता नहीं कब नियम बदल जाएं। अब थ्री जी वाली नई तकनीक तो आएगी मगर वही देसी खिलाड़ी सेवा देंगे, जिनकी सेवाओं की गुणवत्ता व नेटवर्क की हालत अब सरदर्द बन चुकी है। सरकार जी ! थ्रीजी से न आपको मोटा राजस्व मिलने की उम्मीद है और न हम यानी उपभोक्ताओं को नई प्रतिस्पर्धा।
पीपीपी की पालकी
पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मतलब विकास के लिए निजी क्षेत्र व सरकार की दोस्ती। ..केंद्र से लेकर राज्यों तक उदारीकरण का यह सबसे नया, सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा असफल नारा है। केंद्र करीब दो साल से पीपीपी की दुकान सजाए बैठा है, लेकिन निजी कंपनियां करीब फटकती तक नहीं। केंद्र को देख कर राज्यों ने भी अपनी दुकान सजा ली, मगर वहां भी ठन ठन गोपाल। दिखाने को कंपनियों ने दर्जनों अनुबंध तो कर लिये हैं, मगर उसके बाद आगे कुछ भी नहीं है। सरकार के दस्तावेजों में सिर्फ पीपीपी अनुबंधों का आंकड़ा चमकता है, वास्तविक निवेश की सूचना नदारद है। केंद्र के स्तर पर बिजली और सड़क क्षेत्रों में निजी क्षेत्र से दोस्ती दिखती है, लेकिन वह बहुत सीमित है और पीपीपी नहीं बल्कि टेंडरिंग, बीओटी (बिल्ट ओन आपरेट) जैसे वाणिज्यिक अनुबंधों के बूते है। निजी क्षेत्र अभी पीपीपी का गणित समझ नहीं पाया है। कहीं कानून रोड़ा हैं तो कहीं कानून लागू कराने वाले। नियमों का मकड़जाल इतना कठिन है कि कंपनी को टेंडर लेना आसान दिखता है, मगर सरकार के कंधे से कंधा मिलाना मुश्किल। सरकार जी, बताइए तो कि पीपीपी की पालकी उठाने के लिए निजी क्षेत्र कब आगे आएगा?
सरकार की साख में ऐसी कमी अप्रत्याशित है। उम्मीद तो यह थी कि आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों के बाद निवेशक ज्यादा मुतमइन होकर निवेश के लिए उत्सुक होंगे, लेकिन यहां तो उलटा हो गया है। सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण भी जब इस स्थिति की तरफ इशारा करता है तो यह सोचना पड़ता है कि नौकरशाही की सुस्त रफ्तार, नियमों को लेकर अनिश्चितता, जंग लगे कानून और भ्रष्टाचार की फलती-फूलती संस्कृति ने मिलकर कहीं सरकार नाम के मजबूत ब्रांड लोकप्रियता तो नहीं घटा दी है। सरकार जी! गंभीरता से सोचिए.. यह साख का सवाल है।
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Monday, March 8, 2010

वाह! क्या गुस्सा है?

बजट को सुनकर या पेट्रो व खाद कीमतों में वृद्धि को देखकर आपको नहीं लगता कि सरकार कुछ झुंझलाहट या गुस्से में है। सब्सिडी उसे अचानक अखरने लगी है। महंगाई के बावजूद तेल की कीमतों को बेवजह सस्ता रखना उसे समझ में नहीं आता। मोटा आवंटन पचा कर जरा सा विकास उगलने वाली स्कीमों से उसे अब ऊब सी हो रही है। मानो सरकार अपने लोकलुभावन चेहरे को देखकर चिढ़ रही है। बजट और आर्थिक समीक्षा जैसे दस्तावेज एक उकताहट में तैयार किए गए महसूस होते हैं। यह जिद या ऊब उन नीतियों के खिलाफ है, जो बरसों बरस से सरकारों के कथित मानवीय चेहरे का श्रंगार रही हैं। इसी लोकलुभावन मेकअप का बजट इस बार निर्दयता से कटा है और इस कटौती या सख्ती के राजनीतिक नुकसान का खौफ नदारद है। इधर सालाना आर्थिक समीक्षा, सरकार में संसाधनों की बर्बादियों की अजब दास्तां सुनाती है और विकास के मौजूदा निष्कर्षो से शीर्षासन कराती है। लगता है कि जैसे कि सरकार अपने खर्च के लोकलुभावन वर्तमान से विरक्ति की मुद्रा में है। यह श्मशान वैराग्य है या फिर स्थायी विरक्ति? पता नहीं! ..मगर पूरा माहौल सुधारों के अनोखे एजेंडे की तरफ इशारा करता है। अनोखा इसलिए, क्योंकि सुधार हमेशा किसी नई शुरुआत के लिए ही नहीं होते। पुरानी गलतियों को ठीक करना भी तो सुधार है न?
विरक्ति के सूत्र
सालाना आर्थिक समीक्षा और बजट, सरकार के दो सबसे प्रतिनिधि दस्तावेज हैं। इन दोनों में ही लोकलुभावन नीतियों से विरक्ति के सूत्र बड़े मुखर हैं। अगर बारहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट को भी साथ में जोड़ लिया जाए तो एक त्रयी बनती है और तीनों मिलकर उन समीकरणों को स्पष्ट कर देते हैं, जिनके कारण सरकार को अपने लोकलुभावन मेकअप से चिढ़ हो गई। बड़ी-बड़ी स्कीमें और भीमकाय सब्सिडी !! इन्हीं दो प्रमुख प्रसाधनों ने हमेशा सरकारों के आर्थिक चेहरे का लोकलुभावन श्रंगार किया है और मजा देखिए कि वित्त आयोग व सर्वेक्षण ने इन्हीं दोनों के प्रति सरकार में विरक्ति भर दी है। नतीजे में पिछले एक दशक में सबसे ज्यादा नए कर और खर्च में सबसे कम बढ़ोतरी वाला एक बेहद सख्त बजट सामने आया।
बोरियत वाला जादू
सरकार अपनी स्कीमों के जादू से ऊब सी गई लगती है। लाजिमी भी है। (बकौल सर्वेक्षण) पिछले छह साल में सरकार के कुल खर्च में सामाजिक सेवाओं का हिस्सा 10.46 से बढ़कर 19.46 फीसदी हो गया, लेकिन सामाजिक सेवाओं का चेहरा नहीं बदला। सरकार का अपना विशाल तंत्र ही सामाजिक सेवाओं की बदहाली का आइना लेकर सामने खड़ा है। दुनिया भर के मानव विकास सूचकांक मोटे अक्षरों में लिखते हैं कि भारत के लोग बुनियादी सुविधाओं में श्रीलंका व इंडोनेशिया से भी पीछे हैं। साक्षरता की दर अर्से से 60 फीसदी के आसपास टिकी है। 1000 में से 53 नवजात आज भी मर जाते हैं। 30 फीसदी आबादी को पीने का पानी मयस्सर नहीं। स्कूलों में दाखिले का संयुक्त अनुपात अभी भी 61 फीसदी है। सरकार को दिखता है कि शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास से लेकर कमजोर वर्गो तक स्कीमों से, पिछले छह दशकों में, कोई बड़ा जादू नहीं हुआ। अब इन स्कीमों में भ्रष्टाचार भी आधिकारिक व प्रामाणिक हो चुका है। यह सब देखकर स्कीमों के जादू से ऊब होना स्वाभाविक है। यह बजट इस बदले नजरिए का प्रमाण है। सरकार के चहेते मनरेगा परिवार से लेकर सभी बड़ी स्कीमों काबजट अभूतपूर्व ढंग से छोटा हो गया है।
नहीं सुहाती सब्सिडी
आसानी से भरोसा नहीं होता कि कांग्रेस सब्सिडी से चिढ़ जाएगी। सब्सिडी तो सरकार लोकलुभावन आर्थिक नीतियों का कंठहार है। जो केंद्र से लेकर राज्य तक फैला है और पिछले कुछ वर्षो में लगातार मोटा हुआ है, लेकिन अब सब्सिडी चुभने लगी है। 2002 के बाद पहली बार खाद की कीमत बढ़ी। आर्थिक सर्वेक्षण ने कहा कि सब्सिडी से न तो गरीबों का फायदा हुआ न खेती का और न खजाने का। वित्त आयोग ने तो हर साल सब्सिडी बिल में वृद्धि की सीमा तय कर दी। बात अब इतनी दूर तक चली गई है कि राशन प्रणाली को सीमित कर गरीबों को अनाज के कूपन देने के प्रस्ताव हैं। पेट्रो उत्पादों को सब्सिडी के सहारे सस्ता रखने पर सरकार तैयार नहीं है। सरकार के ये ज्ञान चक्षु सिर्फ खजाने की बीमारी देखकर ही नहीं खुले, बल्कि मोहभंग कहीं भीतर से है क्योंकि तेज विकास और भारी सरकारी खर्च के बाद भी गरीबी नहीं घटी। 37 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा से नीचे है और सरकार के कुछ आकलन तो इसे 50 फीसदी तक बताते हैं। नक्सलवाद जैसी हिंसक और अराजक प्रतिक्रियाएं अब गरीबी उन्मूलन और विकास की स्कीमों की विफलता से जोड़ कर देखी जाने लगी हैं। आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि समावेशी विकास यानी इन्क्लूसिव ग्रोथ के लिए सबसे गरीब बीस फीसदी लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी को मापना चाहिए। यह पैमाना अपनाने पर सरकार को सब्सिडी के नुस्खे का बोदापन नजर आ जाता है। इसलिए लोकलुभावन नीतियों की नायक सब्सिडी अचानक सबसे बड़ी खलनायक हो गई है। खाद और पेट्रो उत्पादों की सब्सिडी पर कतरनी चली है, राशन पर चलने वाली है।
..ढेर सारे किंतु परंतु
यह ऊब उपयोगी, तर्कसंगत और सार्थक है। लेकिन इसके टिकाऊ होने पर यकायक भरोसा नहीं होता। पिछले दशकों में एक से अधिक बार सरकार में सब्सिडी व बेकार के खर्च से विरक्ति जागी है, लेकिन स्कीमों का जादू फिर लौट आया और भारी सब्सिडी से बजटों का श्रंगार होने लगा। पांचवे वेतन आयोग को लागू किए जाने के बाद खर्च पर तलवार चली थी, लेकिन बाद के बजटों में खर्च ने रिकार्ड बनाया। आर्थिक तर्क पीछे चले गए और बजट राजनीतिक फायदे के लिए बने। इसीलिए ही तो सब्सिडी पर लंबी बहसों व अध्ययनों के बाद भी सब कुछ जहां का तहां रहा है। लेकिन इस अतीत के बावजूद यह मुहिम अपने पूर्ववर्तियों से कुछ फर्क है क्योंकि यह खर्च, सब्सिडी और लोकलुभावन स्कीमों को सिर्फ बजट के चश्मे से नहीं, बल्कि समावेशी विकास और सेवाओं की डिलीवरी के चश्मे से भी देखती है, जो एक बदलना हुआ नजरिया है।
सरकार अर्थव्यवस्था से खुश है पर अपने हाल से चिढ़ी हुई है। इसलिए यह बजट अर्थव्यवस्था में सुधार की नहीं, बल्कि सरकार की अपनी व्यवस्था में सुधार की बात करता है। बस मुश्किल सिर्फ इतनी है कि सरकार ने अपने इलाज का बिल, लोगों को भारी महंगाई के बीच थमा दिया। कहना मुश्किल है कि यह बदला हुआ नजरिया सिर्फ कुछ महीनों का वैराग्य है या यह परिवर्तन की सुविचारित तैयारी है। गलतियां सुधारने की मुहिम यदि गंभीर है तो इसका बिल चुकाने में कम कष्ट होगा, लेकिन अगर सरकार स्कीमों व सब्सिडी के खोल में वापस घुस गई तो? .. तो हम मान लेंगे एक बार फिर ठगे गए। फिलहाल तो सरकार की यह झुंझलाहट, ऊब और बेखुदी काबिले गौर है, क्योंकि इससे कुछ न कुछ तो निकलेगा ही..
बेखुदी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।
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Thursday, March 4, 2010

बुरा न मानो बजट है!!

कंपकंपा दिया वित्त मंत्री ने... पता नहीं किस फ्रिज में घोल कर रखा बजट का यह रंग जो पड़ते ही छील गया। दादा की बजट होली झटका जरूर देगी यह तो पता था, लेकिन उनके गुलाल में इतने कांटे होंगे इसका अंदाज नहीं था। तेल वालों से लेकर बाजार वाले तक सब कीमतें बढ़ाने दौड़ पड़े। महंगाई के मौसम और मंदी की कमजोरी के बीच दादा ने अपने खजाने की सेहत सुधारने का बोझ भी हम पर ही रख दिया। उपभोक्ता, उद्योग और आर्थिक विश्लेषक व निवेशक। हर बजट के यही तीन बड़े ग्राहक होते हैं। उपभोक्ता और उद्योग बजट का तात्कालिक असर देखते हैं, क्योंकि यह उनके जीवन या कारोबार पर असर डालता है, जबकि विश्लेषक और निवेशक इसकी बारीकी पढ़ते हैं और भविष्य की गणित लगाते हैं। तीनों के लिए यह बजट दिलचस्प ढंग से रहस्यमय है। महंगाई से बीमार उपभोक्ताओं को इस बजट में नए करों का ठंडा निर्मम रंग डरा रहा है, जबकि उद्योगों को इस बजट में रखे गए विकास के ऊंचे लक्ष्यों पर भरोसा नहीं (चालू साल की तीसरी तिमाही में विकास दर लुढ़क गई है) हो पा रहा है। लेकिन विश्लेषकों और निवेशकों को इसमें राजकोषीय सुधार का एक नक्शा नजर आ रहा है। पर इन सुधारों को लेकर सरकारों का रिकार्ड जरा ऐसा वैसा ही है। यानी कि सबकी मुद्रा, पता नहीं या वक्त बताएगा.. वाली है।
पक्का रंग महंगाई का
यह बजट के पहले ग्राहक की बात है अर्थात उपभोक्ता की। महंगाई के रंग पर बजट वह रसायन डाल रहा है, जिससे खतरा महंगाई के पक्के होने का है। इस बजट में कई ऐसे काम हुए हैं जो प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर महंगाई में ईधन बनेंगे। उत्पाद शुल्क की बढ़ोतरी को सिर्फ दो फीसदी मत मानिए। कंपनियां इसमें अपना मार्जिन जोड़ कर इसे उपभोक्ताओं को सौंपेंगी। इसके बाद फिर इसमें पेट्रो उत्पादों की मूल्य वृद्घि से बढ़ी हुई लागत मिल जाएगी। ब्याज दर में बढ़ोतरी की लागत और बुनियादी ढांचे से जुड़ी सेवाओं की महंगाई भी इसमें शामिल होगी। सिर्फ इतना ही नहीं तमाम तरह की नई सेवाएं जिन पर कर लगा है या कर का दायरा बढ़ा है, उनका असर भी कीमतों पर नजर आएगा। सरकार के भीतरी आंकड़े रबी की फसल से बहुत उम्मीद नहीं जगाते और अगर बजट उसी सख्त रास्ते पर चला जो प्रणब दा ने बनाया है तो साल के बीच में कुछ और सरकारी सेवाएं महंगी हो सकती हैं। ध्यान रखिए यह सब उस 18 फीसदी की महंगाई के ऊपर होगा जो कि पहले मौजूद है। देश के करोड़ों उपभोक्ताओं में आयकर रियायत पाने वाले भाग्यशाली वेतनभोगी बहुत कम हैं और उनमें औसत को होने वाला फायदा 1000 से 1500 रुपये प्रति माह का है। महंगाई का पक्का रंग इस रियायत की रगड़ से नहीं धुलेगा। ..महंगाई से ज्यादा खतरनाक होता है महंगाई बढ़ने का माहौल। क्योंकि ज्यादातर महंगाई माहौल बनने से बढ़ती है। उपभोक्ताओं के मामले में यह बजट महंगाई की अंतरधारणा को तोड़ नहीं पाया है।
तरक्की का त्योहार
बजट के दूसरे ग्राहक यानी उद्योग, दादा के रंग से बाल-बाल बच गए यानी उन पर कुछ ही छींटे आए हैं। दादा उतने सख्त नहीं दिखे जितनी उम्मीद थी। मगर उद्योग इससे बहुत खुश नहीं हो सकते क्योंकि बजट तेज विकास से रिश्ता बनाता नहीं दिखता। महंगाई के कारण मांग घटने का खतरा पहले से है। ऊपर से सरकार के खर्च में जबर्दस्त कटौती बड़ी परियोजनाओं के लिए मांग घटाएगी। दिलचस्प है कि जब वित्त मंत्री बजट भाषण पढ़ रहे थे, ठीक उसी समय इस वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में आर्थिक विकास दर के आंकड़े सरकार की फाइलों से निकल रहे थे। तीसरी तिमाही में जीडीपी की दर घटकर छह फीसदी रह गई है। यानी कि अब अगर सरकार को मौजूदा वित्त वर्ष में 7.2 फीसदी की विकास दर फीसदी का लक्ष्य हासिल करना है तो फिर साल की चौथी तिमाही 8.8 फीसदी की विकास दर वाली होनी चाहिए। यह कुछ मुश्किल दिखता है। अर्थात बजट और तरक्की की गणित गड़बड़ा गई है। उद्योगों का पूरा ताम झाम सिर्फ इस उम्मीद पर कायम है कि अगर अर्थव्यवस्था तेज गति से दौड़ी तो उन्हें खड़े होने का मौका मिल जाएगा। वरना तो फिलहाल मांग, बाजार और माहौल तेज विकास के बहुत माफिक नहीं है। ध्यान रहे जीडीपी के अनुपात में प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च पिछले एक साल में 5.4 से घटकर 2.7 फीसदी रह गया है, जबकि निजी निवेश पिछले दो साल में 16.1 से घटकर 12.7 फीसदी पर आ गया है। इसमें से एक मांग और दूसरा निवेश का पैमाना है। क्या बजट से मांग और निवेश के उत्साह को मजबूती मिलेगी यानी कि नौ फीसदी की तरक्की का त्योहार जल्द मनाया जाएगा? फिलहाल इसका जवाब नहीं है।
उड़ न जाए रंग?
खर्चे में कटौती और सख्त राजकोषीय सुधार इस बजट का सबसे साफ दिखने वाला रंग है। उम्मीद कम थी कि वित्त मंत्री इतनी हिम्मत दिखाएंगे, लेकिन वित्त आयोग की कैंची के सहारे खर्चो को छोटा कर दिया गया। दरअसल यह इसलिए भी हुआ क्योंकि नए वित्त वर्ष से केंद्रीय करों में राज्यों को ज्यादा हिस्सा मिलेगा और इससे केंद्र के खजाने का खेल बिगड़ेगा। लेकिन राजकोषीय सुधारों का अतीत भरोसेमंद नहीं है। बजट आकलन और संशोधित अनुमानों में बहुत फर्क होता है। जब-जब करों से लैस सख्त बजट आए हैं, घाटे ने कम होने में और नखरे दिखाए हैं। दादा के इस दावे पर भरोसा मुश्किल है कि अगले साल सरकार का गैर योजना खर्च केवल चार फीसदी बढ़ेगा जो कि इस साल 16 फीसदी बढ़ा है। वित्त मंत्री सरकार के राजस्व में 15 फीसदी की बढ़ोतरी आंकते हैं जो इस साल केवल 5 फीसदी रही है। खर्च में कम और कमाई में ज्यादा वृद्घि??? भारतीय बजटों को यह गणित कभी रास नहीं आई है। साल के बीच में खर्च बढ़ता है और सारा सुधार हवा हो जाता है। इसलिए घाटे को एक फीसदी से ज्यादा घटाने और कर्ज में बढ़ोतरी रोकने पर तत्काल कोई निष्कर्ष उचित नहीं है। सुधारों के इस रंग का पक्कापन तो वक्त के साथ ही पता चलेगा।
इस बजट के तीन अलग-अलग रंग हैं और तीनों गड्डमड्ड भी हो गए हैं। महंगाई-मांग या खर्च-कमाई, निवेश-विकास या घाटा-सुधार .. एक सूत्र तलाशना मुश्किल है। दरअसल यह कई रंगों से सराबोर पूरी तरह होलियाना बजट है। होली खत्म होने और नहाने धोने के बाद पता चलता है कि कौन सा रंग कितना पक्का था? हम तो चाहेंगे इसका महंगाई वाला रंग जल्दी से जल्दी उतर जाए, जबकि विकास व सुधार वाला रंग और पक्का हो जाए? मगर हमारे आपके चाहने से क्या होता है.. वक्त के पानी में धुलने के बाद ही पता चलेगा है कि कौन सा रंग बचा और कौन सा उड़ गया? अगर अच्छा रंग बचे तो किस्मत और महंगाई बचे तो भी किस्मत। बजट और होली में सब जायज है। ..बुरा न मानो बजट है।
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अन्‍यर्थ के लिए
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Tuesday, February 23, 2010

बीस साल बाद ..!

यहां अब भी बहुत कुछ ऐसा घटता रहता है जो अबूझ, अजब और (आर्थिक) तर्को से परे है। अर्थव्यवस्था की इस इमारत से लाइसेंस परमिट राज का ताला खुले बीस साल बीत चुके हैं। कुछ हिस्सों में उदारीकरण की झक साफ रोशनी भी फैली है, मगर कई अंधेरे कोनों का रहस्य, बीस साल बाद भी खत्म नहीं हुआ है। कोई समझ नहीं पाता आखिर खेतों से हर दूसरे तीसरे साल बुरी खबर ही क्यों आती है। सब्सिडी के जाले साल दर साल घने ही क्यों होते जाते हैं। बढ़ते खर्च का खौफ बीस साल बाद भी वैसे का वैसा है और पेट्रो उत्पादों की कीमतों व बिजली दरों का पूरा तंत्र इतना रहस्यमय क्यों है। दरअसल खेती का हाल, बजट का खर्च और ऊर्जा की नीतियां पिछले बीस साल के सबसे जटिल रहस्य हैं। नए दशक के पहले बजट में इन पुरानी समस्याओं के समाधान की अपेक्षा लाजिमी है। देश यह जरूर जानना चाहेगा कि इन अंधेरों का क्या इलाज है और उत्सुकता यह भी रहेगी कि उदारीकरण की तमाम दुहाई के बावजूद बहुत जरूरी मौकों पर आखिर आर्थिक तर्को की रोशनी यकायक गुल क्यों हो जाती है।
खेती का अपशकुन
खेती पर अपशकुनों का साया बीस साल बाद भी, पहले जितना ही गहरा है। हर दूसरे तीसरे साल खेती में पैदावार गिरने की चीख पुकार उभरती है और महंगाई मंडराने लगती है। बीस साल में खेती के लिए चार कदम (चार फीसदी की वृद्धि दर) चलना भी मुश्किल हो गया है। खेती का अपशकुन कई रहस्यों से जन्मा है। कोई नहीं जानता कि आखिर हर बजट नेता नामधन्य ग्रामीण रोजगार व विकास की स्कीमों को जितना पैसा देते हैं, उसका आधा भी खेती को क्यों नहीं मिलता? हाल के कुछ बजटों में गांव के विकास को मिली बजटीय खुराक, खेती को बजट में हुए आवंटन के मुकाबले सात गुनी तक थी। 1999-2000 के बजट ने ग्रामीण रोजगार व गरीबी उन्मूलन को 8,182 करोड़ रुपये दिए तो खेती व सिंचाई को करीब 4,200 करोड़। लेकिन मार्च में पुराने हो रहे बजट में ग्रामीण विकास को मिलने वाली रकम 72,000 करोड़ रुपये पर पहुंच गई और खेती को मिले केवल 11,000 करोड़। भारत की आर्थिक इमारत में यह सवाल हमेशा तैरता है कि आखिर खेतों से दूर सरकार कौन से गांव विकसित कर रही है और खेती के बिना किन गरीबों को रोजगार दे रही है। वैसे इस इमारत के खेती वाले हिस्से में और भी रहस्यमय दरवाजे हैं। दस साल में खेती को उर्वरक के नाम पर करीब 2,71,736 करोड़ रुपये की सब्सिडी पिलाई जा चुकी है। यानी खेती के पूरे तंत्र के एक अदना से हिस्से के लिए हर साल करीब 27,000 करोड़ रुपये की रकम। मगर पूरी खेती के लिए इसका आधा भी नहीं। सिंचाई, बीजों, शोध, बाजार, बुनियादी ढांचे के लिए चीखती खेती में पिछले बीस साल के दौरान विकास दर करीब छह बार शून्य या शून्य से नीचे गई है, लेकिन सरकार उसे सस्ती खाद चटाती रही है। ..उदारीकरण की रोशनी में खेती और अंधेरी हो गई है।
खर्च का खौफ
यह रास्ता बीस साल पुराना है, मगर उतना ही अबूझ और अनजाना है। क्या आपको याद है कि कांग्रेस ने 1991 में अपने चुनाव घोषणापत्र में बजट के गैर योजना खर्च को दस फीसदी घटाने का वादा किया था ???? बाद में सुधारों वाले एतिहासिक बजट भाषण में मनमोहन सिंह ने यह वादा दोहराया था। तब से आज तक खर्च घटाने की कोशिश करते कई सरकारें, समितियां और रिपोर्टे (खर्च घटाने की रंगराजन समिति की ताजी सिफारिश तक) खर्च हो चुकी हैं। मगर हर वित्त मंत्री खर्च के दरवाजे में झांकने से डरता रहा है, तभी तो पिछले दस साल में केवल राशन, खाद और पेट्रोलियम पर बजट से करीब 5,80,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी बांटी जा चुकी है। इसमें करीब 2.79 लाख करोड़ की सब्सिडी उस राशन प्रणाली पर दी गई, जिसे बीस साल में दो बार बदला गया और फिर भी उसे प्रधानमंत्री ने हाल में निराशाजनक व असफल कहा है। खाद सब्सिडी से उबरने की ताजी जद्दोजहद का भविष्य अभी अंधेरे में है। 91-92 के सुधार बजट में मनमोहन सिंह ने खाद की कीमत बढ़ाते हुए सब्सिडी व खर्च कम करने की बहस शुरू की थी। सरकारी रिपोर्टो और चर्चाओं से गुजरती हुई यह बहस छोटी होती गई और सब्सिडी बड़ी। राजकोषीय घाटा पिछले एक दशक में 5.6 फीसदी से शुरू होकर वापस सात फीसदी (चालू वर्ष में अनुमानित) पर आ गया है और बीस साल बाद भी खर्च का खौफ वित्त मंत्रियों की धड़कन बढ़ा रहा है। ..खर्च के जाले और सब्सिडी के झाड़ झंखाड़ बजट की शोभा बन चुके हैं
ऊर्जा का सस्पेंस
आर्थिक इमारत का यह हिस्सा सबसे खतरनाक और अंधेरा है। यहां से आवाजें भी नहीं आतीं और बहुत कुछ बदल जाता है। बीस साल बीत गए, मगर देश को ऊर्जा नीति की ऊहापोह से छुटकारा नहीं मिला। इस सवाल का जवाब इस इमारत में किसी के पास नहीं है कि तेल मूल्यों को बाजार आधारित करने का कौल कई-कई बार उठाने के बाद भी तेल की कीमतें राजनीति के अंधेरे में ही क्यों तय होती हैं? कमेटी और फार्मूले सब कुछ सियासत के दरवाजे के बाहर ही पड़े रह जाते हैं। यहां सस्पेंस दरअसल तेल नहीं, बल्कि ऊर्जा देने वाली दूसरी चीजों को लेकर भी है। कहीं कोई राज्य कभी बिजली की दर बढ़ा देता है तो कभी कोई मुफ्त बिजली देकर सांता क्लाज हो जाता है। बिजली कीमतें तय करने के लिए उत्पादन लागत नहीं, बल्कि वोटों की लागत का हिसाब लगता है। इसलिए वाहनों के वास्ते सस्ते किए गए डीजल से उद्योगों की मशीने दौड़ती हैं और शापिंग माल चमकते हैं। बिजली उत्पादन का लक्ष्य पंचवर्षीय योजनाओं का सबसे बड़ा मजाक बन गया है। बीस साल बाद अब बिजली क्षेत्र के सुधार आर्थिक चर्चाओं के फैशन से बाहर हैं। .. ऊर्जा नीति का अंधेरा पिछले बीस साल की सबसे रहस्यमय शर्मिदगी है।
उदारीकरण के बीस वर्षो में बहुत कुछ बदला है। बेसिक फोन के कनेक्शन के लिए जुगाड़ लगाने वाले लोग अब मोबाइल फोन से चिढ़ने लगे हैं। स्कूटरों की वेटिंग लिस्ट देखने वाला देश कारों की भीड़ से बेचैन है। बैंक खुद चलकर दरवाजे तक आते हैं और टीवी व फ्रिज कुछ वर्षो में रिटायर हो जाते हैं। नया बजट उदारीकरण के तीसरे दशक का पहला बजट है। इसलिए ... वित्त मंत्री जी .. यह सवाल तो बनता है कि जब कई क्षेत्रों में उजाला हुआ है तो बीस साल बाद भी खेती, खर्च और ऊर्जा जैसे कोने अंधेरे और रहस्यमय क्यों हैं? यह साजिशन है या गैर इरादतन? .. चली तो ठीक थी किरन, मगर कहीं भटक गई, वो मंजिलों के आसपास ही कहीं अटक गई, यह किसका इंतजाम है? कोई हमें जवाब दे? ... विश यू ए हैप्पी बजट!!!!
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Wednesday, February 17, 2010

बजट में जादू है !!

बगैर तली वाले बर्तन में पानी भरने का अपना ही रोमांच है..जादू जैसा? बर्तन में पानी जाता हुआ तो दिखता है मगर अचानक गायब। वित्त मंत्री हर बजट में यह जादू करते हैं। हर बजट में खर्च के कुछ बड़े आंकड़े वित्त मंत्रियों के मुंह से झरते हैं और फिर मेजों की थपथपाहट के बीच लोकसभा की वर्तुलाकार दीवारों में खो जाते हैं। पलट कर कौन पूछता है कि आखिर खर्च की इन चलनियों में कब कितना दूध भरा गया, वह दूध कहां गया और उसे लगातार भरते रहने का क्या तुक था? वित्त मंत्री ने पिछले साल दस लाख करोड़ रुपये का जादू दिखाया था और खर्च के तमाम अंध कूपों में अरबों रुपये डाल दिए थे। इस साल उनका जादू बारह लाख करोड़ रुपये का हो सकता है या शायद और ज्यादा का?
तिलिस्मी सुरंग में अंधे कुएं
खर्च बजट की तिलिस्मी सुरंग है। कोई वित्त मंत्री इसमें आगे नहीं जाता। खो जाने का पूरा खतरा है। खर्च का खेल सिर्फ बड़े आंकड़ों को कायदे से कहने का खेल है। पिछले दस साल में सरकार का खर्च पांच गुना बढ़ा है। 1999-2000 में यह 2 लाख 68 हजार करोड़ रुपये पर था मगर बीते बजट में यह दस लाख करोड़ रुपये हो गया। कभी आपको यह पता चला कि आखिर सरकार ने इतना खर्च कहां किया? बताते तो यह हैं कि पिछले एक दशक के दौरान सरकार अपनी कई बड़ी जिम्मेदारियां निजी क्षेत्र को सौंप कर उदारीकरण के कुंभ में नहा रही है। दरअसल खर्च में पांच गुना वृद्घि को जायज ठहराने के लिए सरकार के पास बहुत तर्क नहीं हैं। यह खर्च कुछ ऐसे अंधे कुओं में जा रहा है, जो गलतियों के कारण खोद दिए गए मगर अब उनमें यह दान डालना अनिवार्य हो गया है। दस साल पहले केंद्र सरकार 88 हजार करोड़ रुपये का ब्याज दे रही थी मगर आज ब्याज भुगतान 2 लाख 25 हजार करोड़ रुपये का है। यानी कि दस लाख करोड़ के खर्च का करीब 22 फीसदी हिस्सा छू मंतर। दूसरा ग्राहक सब्सिडी है। दस साल पहले सब्सिडी थी 22 हजार करोड़ रुपये की और आज है एक लाख 11 हजार करोड़ रुपये की। यानी बजट का करीब 11 फीसदी हिस्सा गायब। ब्याज और सब्सिडी मिलकर सरकार के उदार खर्च का 30-31 फीसदी हिस्सा पी जाते हैं। मगर जादू सिर्फ यही नहंी है और भी कुछ ऐसे तवे हैं जिन पर खर्च का पानी पड़ते ही गायब हो जाता है। तभी तो कुल बजट में करीब सात लाख करोड़ रुपये का खर्च वह है जिसके बारे में खुद सरकार यह मानती है कि इससे अर्थव्यवस्था की सेहत नहीं ठीक होती मगर फिर भी यह रकम अप्रैल से लेकर मार्च तक खर्च की तिलिस्मी सुरंग में गुम हो जाती है। सरकार के मुताबिक उसके बजट का महज 30 से 32 फीसदी हिस्सा ऐसा है जो विकास के काम का है। आइये अब जरा इस काम वाले खर्च की स्थिति देखें।
चलनियों का चक्कर
देश मे करीब 35 करोड़ ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। एक दशक पहले भी इतने ही लोग गरीब थे। (जनसंख्या के अनुपात में कमी के आंकड़े से धोखा न खाइये, गरीबों की वास्तविक संख्या हर पैमाने पर बढ़ी है।) अभी भी दो लाख बस्तियों में कायदे का पेयजल नहीं है। इसे आप पुराना स्यापा मत समझिये, बल्कि यह देखिये कि सरकार ने पिछले एक दशक में सिर्फ गांव में गरीबी मिटाने की स्कीमों पर 78 हजार करोड़ रुपये खर्च किये हैं और गांवों को पीने का पानी देने की योजनाओं पर कुल 36 हजार करोड़। यानी दोनों पर करीब 11 हजार करोड़ रुपये हर साल। ... दरअसल यह कुछ नमूने हैं उन चलनियों के, जिनमें सरकार अपने योजना बजट का दूध भरती है। इन पर गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव जैसे बड़े नाम चिपके हैं, इसलिए सिर्फ नाम दिखते हैं काम नहीं। पिछले एक दशक में गरीबी उन्मूलन की स्कीमों में खर्च को लेकर जितने सवाल उठे हैं, उनमें आवंटन उतना ही बढ़ गया है। स्कीमों का नरेगा मनरेगा परिवार इस समय सरकार के स्कीम बजट का सरदार है। वैसे चाहे वह पढ़ाने लिखाने वाली स्कीमों का कुनबा हो या सेहतमंद बनाने वाली स्कीमों का, यह देखने की सुध किसे है कि 200 के करीब सरकारी स्कीमों की चलनियों में जाने वाला दूध नीचे कौन समेट रहा है? सीएजी से लेकर खुद केंद्रीय मंत्रालयों तक को इनकी सफलता पर शक है। लेकिन हर बजट में वित्त मंत्री इन्हें पैसा देते हैं तालियां बटोरते हैं। बेहद महंगे पैसे के आपराधिक अपव्यय से भरपूर यह स्कीमें सरकारी भ्रष्टाचार का जीवंत इतिहास बन चुकी हैं मगर यही तो इस बजट का रोमांच है।
थैले की करामात
बजट का अर्थ ही है थैला। मगर असल में यह कर्ज का थैला है। सरकार देश में कर्जो की सबसे बड़ी ग्राहक है और सबसे बड़ी कर्जदार भी। वह तो सरकार है इसलिए उसे कर्ज मिलता है नहीं तो शायद इतनी खराब साख के बाद किसी आम आदमी को तो बैंक अपनी सीढि़यां भी न चढ़ने दें। बजट के थैले से स्कीमें निकलती दिखतीं हैं, खर्च के आंकड़े हवा में उड़ते हैं मगर थैले में एक दूसरे छेद से कर्ज घुसता है। इस थैले की करामात यही है कि सरकार हमसे ही कर्ज लेकर हमें ही बहादुरी दिखाती है। सरकार के पास दर्जनों क्रेडिट कार्ड हैं यह बांड, वह ट्रेजरी बिल, यह बचत स्कीम, वह निवेश योजना। पैसा बैंक देते हैं क्योंकि हमसे जमा किये गए पैसे का और वे करें भी क्या? मगर इस थैले का खेल अब बिगड़ गया है। सरकार का कर्ज कुल आर्थिक उत्पादन यानी जीडीपी का आधा हो गया है। अगले साल से सरकार के दरवाजे पर बैंकों के भारी तकाजे आने वाले हैं। यह उन कर्जो के लिए होंगे जो पिछले एक दशक में उठाये गए थे। ऐसी स्थिति में हर वित्त मंत्री अपना सबसे बड़ा मंत्र चलाता है। वह है नोट छापने की मशीन जो रुपये छाप कर घाटा पूरा करने लगती है। कुछ वर्ष पहले तक यह खूब होता रहा है। हमें तो बस यह देखना है कि इस बजट में यह मंतर आजमाया जाएगा या नहीं?
सरकार के खर्च में वृद्घि से ईष्र्या होती है। काश देश के अधिकांश लोगों की आय भी इसी तरह बढ़ती, सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता भी इसी तर्ज पर बढ़ जाती। बुनियादी सुविधायें भी इतनी नहंी तो कम से कम थोड़ी भी बढ़ जातीं, तो मजा आ जाता। लेकिन वहां सब कुछ पहले जैसा है या बेहतरी नगण्य है। इधर बजट में खर्च फूल कर गुब्बारा होता जा रहा है और सरकार का कर्ज बैंकों की जान सुखा रहा है लेकिन इन चिंताओं से फायदा भी क्या है? बजट तो खाली खजाने से खरबों के खर्च का जादू है और जादू में सवालों की जगह कहां होती है? वहां तो सिर्फ तालियों सीटियों की दरकार होती है, इसलिए बजट देखिये या सुनिये मगर गालिब की इस सलाह के साथ कि .. हां, खाइयो मत, फरेब -ए- हस्ती / हरचंद कहें, कि है, नहीं है।
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अन्‍यर्थ के लिए
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Tuesday, January 26, 2010

आपके जमाने का बजट या बाप के?

यह बजट कांग्रेसी समाजवाद पर आधारित होगा या फिर कांग्रेसी बाजारवाद पर। इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि यह बजट प्रणब मुखर्जी का होगा या डा. मनमोहन सिंह का? ..वैसे यह सब छोडि़ए, सीधा सवाल दो टूक सवाल किया जाए कि यह बजट आपके जमाने का होगा या बाप के जमाने का? गणतंत्र का साठ बरस का हो गया है और नई अर्थव्यवस्था बीस बरस की। बहस जायज है कि आने वाला बजट साठ वालों का होगा या बीस वालों का? 1991 सुधारों के साथ बढ़ी पीढ़ी बहुत कुछ सीख कर युवा हो गई है और जबकि दूसरी तरफ गणतंत्र और अर्थतंत्र को संभालने वाले हाथ उम्रदराज हो चले हैं। दो दशक पुराने सुधारों का बहीखाता सामने है तो सियासत के पास भी इन आर्थिक प्रयोगों को लेकर अपने तजुर्बे हैं। इसलिए उलझन भारी है कि दादा यानी प्रणब मुखर्जी किस पीढ़ी के लिए बजट बनाएंगे। अपनी वाली पीढ़ी के लिए या आने वाली पीढ़ी के लिए।
बजट की तासीर और असर
अधिकांश बजट देने वाली कांग्रेस की टकसाल से समाजवादी बजट भी निकले हैं और बाजारवादी भी। बजट का रसायन हमेशा राजस्व, खर्च, घाटे और आर्थिक नीतियों के तत्वों से बनता है, सो इसकी तासीर नहीं बदलती है। अलबत्ता लगभग हर दशक में बजट की केमिस्ट्री और असर जरूर बदले हैं। पचास से साठ के अंत तक बजट अर्थव्यवस्था को सार्वजनिक उपक्रमों की उंगली पकड़ा रहे थे। समाजवाद की फैक्ट्री से निकला आर्थिक चिंतन अर्थव्यवस्था में सरकार को सरदार बनाता था। आजादी के आंदोलन में तपी पीढ़ी के सभी कल्याणकारी सपने सरकार में निहित हो गए थे। ऊंचे कर, भारी खर्च और हर कारोबार में सरकार बजट की तासीर और असर के हिस्से थे। सातवें आठवें दशक में अर्थव्यवस्था ने चुनिंदा निजी उद्योगों व सरकार की जुगलबंदी देखी जो लाइसेंस राज के साज पर बज रही थी। ऊंची कर दरें मगर कुछ खास को कर रियायतों, नियमों के मकड़जाल, लोकलुभावन स्कीमें और तरह-तरह के लाइसेंसों से बजट का यह ताजा रसायन बना था। आठवें दशक में अर्थव्यवस्था बदलाव के लिए कसमसाने लगी थी और नब्बे के दशक के बाद की कहानी अभी ताजी है। दस का बजट इन्हीं तत्वों से बनेगा, लेकिन बहस अब साठ बनाम बीस की है।
इतिहास की तर्ज पर?
साठ की पीढ़ी के हिसाब से बजट बनाने में दादा माहिर हैं। अगर वह उसी राह पर चले तो पिछले बजटों का कोई भी अध्येता बता देगा कि दादा दरअसल क्या करने वाले हैं। यह उधारवाद, कांग्रेसी समाजवाद और लोकलुभावनवाद का आजमाया हुआ बजट होगा। ऐसे बजटों में भारी खर्च पर तालियां बजवाई जाती हैं न कि बड़े सुधारों पर। इंदिरा, नेहरू, राजीव के नाम वाली स्कीमों की छेद वाली टंकियों में नया पानी, किसान, गांव, गरीब की बात, उद्योगों में जो ताकतवर होगा, उसे प्रोत्साहन और भारी घाटे की गठरी। ध्यान रखिए घाटा पहले से ही विस्फोटक बिंदु पर है। राजस्व विलासिता पर कर, कुछ कामचलाऊ कर प्रोत्साहन और रियायतों में कतर ब्योंत। ..साठ की पीढ़ी के बजट का यही नुस्खा है। चुनाव में जाने और जुलाई में जीतकर आने के बाद दादा ने इसी परिपाटी का निर्वाह किया था। अगर यह बजट दादा की अपनी पीढ़ी के फार्मूले पर बनता है तो सुधारों आदि की उम्मीद लगाकर अपना दिमाग मत खराब करिए। वैसे भी तगड़े सुधार सियासत का हाजमा खराब करते हैं और जब दुनिया में बाजारवाद व उदारीकरण के दिन जरा खराब चल रहे हों तो दादा के पास पुरानी रोशनाई से बजट लिखने का तर्क भी मौजूद है।
या इतिहास बनाने के लिए?
वैसे नए जमाने का बजट कुछ और ही तरह होना चाहिए। क्योंकि साठ के बजट चार-पांच फीसदी की ग्रोथ देते थे और अब के बजटों से आठ-नौ फीसदी की विकास दर निकली है व निकलने की उम्मीद होती है। लेकिन इस तरह के बजट से जुड़ी उम्मीदों की केमिस्ट्री ही दूसरी है। यह बहीखाते वाली नहीं, बल्कि डाटाबेस वाली पीढ़ी है। इसे तो जल्द से जल्द नया कर ढांचा यानी जीएसटी चाहिए। .. वित्त मंत्री देंगे? वह तो टल गया है। इसे नया आयकर कानून चाहिए। इसे श्रम कानूनों में बदलाव चाहिए। इसे वित्तीय बाजार का विनियमन और उदारीकरण चाहिए। इसे भरपूर बुनियादी ढांचा चाहिए। इसे महंगाई पर स्थायी काबू चाहिए ताकि वह अपनी बढ़ी हुई आय महंगी रोटी दाल लेने के बजाय अपनी जिंदगी बेहतर करने पर खर्च करे और बाजार में मांग बढ़ा सके। इसे सही कीमत पर शानदार सरकारी सेवाएं चाहिए ताकि वह उत्पादक होकर जीडीपी बढ़ा सके। इसे संतुलित, पारदर्शी बाजार चाहिए। और साथ में इसे चाहिए ऐसा बजट जिसमें घाटा हो मगर अच्छी क्वालिटी का यानी कि विकास के खर्च के कारण होने वाला घाटा, न कि फालतू और अनुत्पादक खर्च के कारण।
आर्थिक डाक्टर यानी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दो दशक पहले पुरानी पीढ़ी वाले बजट का खोल तोड़ा था और नई पीढ़ी को उसके सपनों के मुताबिक बजट दिया था। इसके बाद से नई अर्थव्यवस्था वाले जवान पीढ़ी हर बजट से ड्रीम बजट होने की उम्मीद लगाती है। उनके सपनों की सीमा नहीं है, इसलिए हर बजट को देखकर उनके सपने जग जाते हैं। इधर साठ की पीढ़ी का बजटीय हिसाब-किताब आर्थिक जरूरतों के फार्मूले से कम सियासी सूत्रों से ज्यादा बनता है। अर्थव्यवस्था संक्राति के बिंदु पर है। पिछले दो दशकों में खोए-पाए, गंवाए- चुकाए आदि का लंबा हिसाब-किताब होना है। वक्त बताएगा कि तजुर्बेकार प्रणब दादा ने उम्रदराज सियासत के लिए बजट बनाया या फिर चहकती नई पीढ़ी के लिए? ..इस बजट को बहुत ध्यान से देखिएगा। नई अर्थव्यवस्था यहां से तीसरे दशक की गाड़ी पकड़ेगी।
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और अन्‍यर्थ के लिए स्‍वागत है .....
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Monday, January 18, 2010

वेताल फिर डाल पर!

भारत में आर्थिक मंदी दुनिया की मार थी या अपनी महंगाई व अपनी ही नीतियों का उपहार? उद्योगों को प्रोत्साहन देने का तुक तर्क क्या था? मंदी का डर दिखाकर उद्योगों ने जो सरकार से झटक लिया उसमें उन्होंने आम उपभोक्ताओं को क्या बांटा? प्रोत्साहन की जरूरत दरअसल किसे थी और टानिक किसे पिला दी गई?.... वक्त का वेताल फिर डाल पर है और अजीबोगरीब व बुनियादी किस्म के सवाल कर रहा है? अर्थव्यवस्था का पहिया घूम कर 2007-08 के बिंदु पर आ गया है, बल्कि चुनौतियां कुछ ज्यादा ही उलझी हैं। ब्याज दरें बढ़ने वाली हैं, मांग बढ़े या न बढ़े उत्पादन की लागत का बढ़ना तय है, महंगाई पहले से ज्यादा ठसक के साथ मौजूद है, जबकि घाटे से हलकान सरकार के सामने कर बढ़ाने और खर्च घटाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। इसलिए चलिये भूले बिसरे आंकड़ों की गुल्लक फोड़ें और मंदी व उद्योगों की रियायतों को लेकर लामबंदी के दावों को निचोड़ें।.. हकीकत दरअसल आल इज वेल के दावों से बिल्कुल उलटी है।
दिमाग पर जोर डालिये
2007-08 की पहली तिमाही याद करिये। ठीक इसी समय से भारत में आर्थिक विकास दर में गिरावट की शुरुआत हुई थी। दुनिया में उस वक्त मंदी की चर्चा भी नहीं थी। मत भूलिये कि अप्रैल 2007 में पहली बार रिजर्व बैंक ने सीआरआर दर बढ़ाई थी क्योंकि तब महंगाई आठ फीसदी का स्तर छू रही थी और सरकार की सांस ऊपर नीचे हो रही थी। कोई कैसे भूल सकता है दो साल पहले इसी वक्त चल रही उस बहस को, जिसमें रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय यह मानने लगे थे कि अर्थव्यवस्था ओवरहीट हो रही है, यानी कि कुछ ज्यादा ही तेज गति से दौड़ रही है और महंगाई बाजार में बढ़ रही अप्रत्याशित मांग का नतीजा है। मांग पर ढक्कन लगाने की चर्चायें नीतिगत समर्थन पाने लगी थीं और नतीजतन रिजर्व बैंक ने लगातार सीआरआर बढ़ाई और 2007-08 की चौथी तिमाही (औद्योगिक विकास दर पहली तिमाही के दस फीसदी से घटकर चौथी तिमाही में 6.3 फीसदी पर) से भारत में आर्थिक मंदी शुरू हो गई। यह बात हजम करना जरा मुश्किल है कि भारत में मंदी दुनिया की मंदी की देन है। लेहमैन की बर्बादी सितंबर 2008 की घटना है, जिसका असर वित्तीय बाजारों पर हुआ था। भारत में आर्थिक फिसलन तो इससे कई महीने पहले शुरू हो गई थी। अगर मंदी ने किसी को मारा था तो वह निर्यात (वह भी दिसंबर 2008 के बाद। दिसंबर तक निर्यात 17 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा था) का क्षेत्र था। मंदी के नाम पर रियायतों की लामबंदी करने वाले उद्योग यह भूल जाते हैं कि कुल आर्थिक उत्पादन में निर्यात का हिस्सा बहुत छोटा है, अधिकांश मांग तो देशी बाजार से आती है। भारत में दरअसल मंदी दुनिया से पहले आई और वह भी इसलिए क्योंकि महंगाई ने मांग का दम घोंट दिया था। बाद में बची खुची कसर ब्याज दरों ने पूरी कर दी।
इलाज, जो बन गया खुराक?
चलिये अब स्टिमुलस यानी मंदी से उबरने के लिए प्रोत्साहनों की बहस को भी कुछ तथ्यों के आईने में उतारा जाए। उद्योग जिन कर रियायतों को जारी रखने का झंडा उठाये हैं वह हकीकत में महंगाई का इलाज थीं। मंदी हटाने की खुराक नहीं। सरकार ने कभी नहीं माना कि भारत मंदी का शिकार है। पिछले साल के अंतरिम बजट भाषण में आदरणीय वित्त मंत्री के शब्द थे, 'भारत की अर्थव्यवस्था 7.1 फीसदी की वृद्घि दर के साथ अभी भी दुनिया की दूसरी सबसे तेज अर्थव्यवस्था है।' संसद में पेश सरकारी आर्थिक समीक्षा कहती है कि भारत में आर्थिक विकास दर में गिरावट सख्त मौद्रिक नीतियों की देन थी। इसलिए प्रोत्साहन भी मंदी दूर करने के लिए दिये ही नहीं गए थे। प्रोत्साहनों का दौर नवंबर 2008 से शुरू हुआ और वह भी महंगाई घटाने के लिए। सरकार ने एक मुश्त कई कृषि जिंसों के आयात पर शुल्क हटाये और घरेलू उत्पादन पर करों में रियायत दी। यह सब चुनाव सामने देख कर किया गया था। रही बात खर्च बढ़ाने की तो वह प्रोत्साहन चुनावी संभावनाओं के लिए था। खर्च बढ़ाने के पैकेज वेतन आयोग की सिफारिशों पर अमल, किसानों की कर्ज माफी और सब्सिडी में वृद्घि से बने थे। जिनका मंदी से सीधा कोई लेना देना नहीं था। सच तो यह है कि देश को पलट कर उद्योगों से पूछना चाहिए कि उन्होंने महंगाई को कम करने में क्या भूमिका निभाई? किस रियायत को उन्होंने उपभोक्ताओं से बांटा? सच यह है कि महंगाई घटाने के लिए मिली कर रियायतों को उद्योगों ने सफाई के साथ मंदी दूर करने से जोड़ दिया और सारा प्रोत्साहन पी गए। महंगाई जस की तस रही। औद्योगिक उत्पादन दरअसल इन रियायतों की वजह से पटरी पर नहीं लौटा है बल्कि वापसी तब शुरू हुई जब बाजार में रुपये का प्रवाह बढ़ा। अगस्त 2008 में रिजर्व बैंक ने सख्त मौद्रिक नीति की जिद छोड़ी और सीआरआर व रेपो रेट कम करना शुरू किया। यह कदम उठाने के ठीक एक साल 2009-10 की दूसरी तिमाही से उत्पादन पटरी पर आया है। .. मगर विसंगति देखिये कि अब बारी ब्याज दर फिर बढ़ने की है क्योंकि रिजर्व बैंक को फिर 2007-08 की तरह ब्याज दरें बढ़ाकर और कर्ज की मांग घटाकर महंगाई पर काबू करना है।
बीमार कौन और दवा किसको?
भारत में मंदी की शुरुआत अर्थात अप्रैल 2007 और हाल की उम्मीद भरी वापसी सितंबर 2009 के बीच दो कारक स्थिर रहे हैं। एक है महंगाई और दूसरी मांग में कमी। बदली है तो सिर्फ रिजर्व बैंक की मौद्रिक मुद्रायें और सरकार के असमंजस के रंग। महंगाई में वृद्घि और मांग में कमी का सीधा रिश्ता है। अप्रैल 2007 में खाद्य जिंसों व उत्पादों की महंगाई 9.4 फीसदी पर थी, अप्रैल 2008 में यह 10.7 फीसदी हो गई और पिछले सप्ताह के आंकड़ों में यह 18 फीसदी है। यानी कि महंगाई लगातार बढ़ी और मांग टूटती गई है। औद्योगिक उत्पादन में ताजे सुधार की जमीन इस तथ्य की रोशनी में खोखली दिखती है। औद्योगिक उत्पादन में यह वृद्घि हालात सुधरने की उम्मीदों और सस्ते कर्ज के सहारे आए नए निवेश की देन है, इसे बाजार में ताजी मांग का समर्थन हासिल नहीं है। प्रोत्साहन, खुराक या इलाज की जरूरत खेती को थी जहां से महंगाई पैदा हो रही है और लेागों की क्रय शक्ति व मांग को खा रही है। जबकि मंदी से मारे जाने का सबसे ज्यादा स्यापा उद्योगों ने किया और रियायतें ले उड़े। ताजा हालात में उद्योगों की एक खुराक रिजर्व बैंक के पास है अर्थात सस्ता कर्ज और दूसरी बाजार के पास अर्थात मांग में सुधार। रिजर्व बैंक सस्ते कर्जो का शटर गिराने वाला है, जबकि मांग की दुश्मन महंगाई बाजार का रास्ता घेरे बैठी है। यानी दोनों जगह मामला गड़बड़ है। ऐसे में अगर सरकार कर रियायतें देती भी रहे तो उसका कोई बड़ा फायदा नहीं होने वाला।
पिछले तीन साल के आंकड़े और तथ्य किस्म-किस्म के सवाल पूछ रहे हैं। कठघरे में उद्योग भी हैं, सरकार भी और रिजर्व बैंक भी। नीतियों को लेकर गजब का भ्रम और जबर्दस्त अफरा-तफरी है। रिजर्व बैंक मानता है कि इस महंगाई का इलाज मौद्रिक सख्ती से नहीं हो सकता मगर फिर भी वह ब्याज दरें बढ़ाकर मंदी से उबरने की कोशिशों का दम घोंटने की तैयारी कर रहा है। सरकार तो अब तक यह तय नहीं कर पाई है कि पहले वह मंदी का इलाज करे या महंगाई का या फिर बढ़ते घाटे का। तीनों का इलाज एक साथ मुमकिन नहीं है क्योंकि एक की दवा दूसरे के लिए कुपथ्य है। घाटा कम करने के लिए खर्च घटाना और कर बढ़ाना जरूरी है, लेकन इससे मंदी को अगर खुराक मिलने का खतरा है, वहीं दूसरी तरफ घाटा इसी तरह बढ़ा तो भी आर्थिक दुनिया नहीं छोड़ेगी। रही बात महंगाई की तो वहां सरकार पहले से थकी-हारी और पस्त व निढाल होकर वक्त के आसरे है।..दस के बरस का बजट हाल के वर्षो में सबसे गहरे असमंजस का बजट है। .. इक तो रस्ता है पुरखतर अपना, उस पे गाफिल है राहबर अपना। .. खुदा खैर करे।
और अन्‍यर्थ ( the other meaning ) के लिए स्‍वागत है
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Monday, January 11, 2010

चुनौतियों की चकरी

इस होम में हाथ तो जलने ही थे। अलबत्ता होम तो हो गया, और सुनते हैं कि मंदी का अनिष्ट भी कुछ हद तक टल गया है लेकिन अब बारी हाथों की जलन तो रहेगी। अगर देश की अर्थव्यवस्था से कुछ वास्ता रखते हैं तो बस एक पखवाड़े के भीतर सरकारी घाटे और ऊंची ब्याज दरों की अप्रिय खबरें आपकी महंगी सुबह कसैली करने लगेंगी। बजट की उलटी गिनती और घाटे की सीधी गिनती शुरु हो चुकी है। मंदी की इलाज में सरकार ने खुद को बुरी तरह बीमार कर लिया है। राजकोषीय घाटा पिछले सत्रह साल के सबसे ऊंचे और विस्मयकारी स्तर पर है। महंगाई जी भरकर मार रही है। बाजार में मुद्रा के छोड़ने वाला पाइप अब संकरा होने वाला है अर्थात ब्याज दरें ऊपर जाएंगी। हम आप तो भले ही कर्ज न लें लेकिन सरकार तो कर्ज बिना एक कदम नहीं चल पाएगी। यानी ऊंचा घाटा, ज्यादा कर्ज, महंगाई, सख्त मौद्रिक नीति और ऊंचा ब्याज.. राजकोषीय चुनौतियों की चकरी धुरे पर बैठ गई है। इस दुष्चक्र की मार हमेशा से मीठी और लंबी होती है। मुसीबत का यह पहिया पहले भी घूमता रहा है लेकिन तब से अब में सबसे बड़ा फर्क यह है कि मंदी से उबरने की कोशिशों कायदे से शुरु हो पातीं इससे पहल ही यह दुष्चक्र शुरु हो गया है और वह भी उस वक्त जब नया वित्त वर्ष, केंद्र सरकार सामने पुराने कर्जो की भारी देनदारी का तकाजा खोलने वाला है।
वित्तीय अनुशासन का शीर्षासन
इस साल फरवरी में आने वाला बजट पिछले कुछ दशकों के सबसे अभूतपूर्व राजकोषीय घाटे वाला बजट हो तो चौंकियेगा नहीं। सरकार के आधिकारिक आंकड़ों में राजकोषीय और राजस्व घाटा, जीडीपी के अनुपात मे क्रमश: सात और पांच फीसदी, सत्रह साल के सबसे के सबसे ऊंचे स्तरों पर है। दरअसल दुनिया जब तक मंदी से निबटने की रणनीति बनाती भारत सरकार सांता क्लॉज बन कर वित्तीय रियायतों बांटने निकल पड़ी। चुनाव सामने था और सरकार मंदी को प्रोत्साहन के सहारे तमाम ऐसे खर्चे सब्सिडी और वेतन आयोग की सिफारिशों पर खर्च, ढकने थे जिन पर आम दिनों में वित्तीय सवाल उठ सकते थे। प्रोत्साहन पैकेज से मंदी से कितनी दूर हुई इस पर चर्चा फिर कभी लेकिन खजाना विकलांग हो गया है। उत्पादन व मांग घटने के कारण राजस्व घटा और इधर जुलाई में सरकार ने अब तक का सबसे बड़ा कर्ज , 4,50,000 करोड़ रुपये, कार्यक्रम घोषित किया। ताकि दस लाख करोड़ के खर्च का बजटीय गुब्बारे में हवा भरी जा सके। अचरज नहीं कि मार्च के अंत तक कर्ज इससे भी ऊपर चला जाए क्यों कि लिब्रहान आदि पर बहसों के बीच बीते माह सरकार ने संसद से अपने बढ़े खर्च का बिल पास करा लिया। और राजस्व की हालत पतली है। अगला साल खर्च में कोई रियायत देने नहीं जा रहा क्यों कि सब्सिडी, नरेगा आदि के मुंह पहले से बड़े हो गए हैं। वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों को करों में पहले से ज्यादा हिस्सा देना होगा। पूरी तरह बेहाथ हो चुके घाटे को भरने के लिए अगले वित्त वर्ष में सरकार बाजार से कितना कर्ज उठायेगी, अंदाज मुश्किल है। अब डरिये कि घाटे को देख अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख यानी रेटिंग न घट जाए।
मुंबई वाली मदद
आइये अब मुंबई वाले सूरमा को देखते हैं यानी रिजर्व बैंक जो कि चुनौतियों की इस चकरी को अपनी तरह से रफ्तार देने वाला है। प्रणव बाबू अब रिजर्व बैंक से यह उम्मीद तो नहीं कर सकते कि वह बाजार में घड़े में पानी भरता रहेगा ताकि सरकार को कर्ज मिल सके। रिजर्व बैंक को जो महंगाई दिख रही है वही प्रणव मुखर्जी की भी निगाहों के सामने है। भले ही यह महंगाई मौद्रिक नहीं बल्कि आर्थिक दुर्नीतियों का नतीजा हो लेकिन रिजर्व बैंक की किताब में महंगाई और मौद्रिक उदारता के बीच छत्तीस का फार्मूला है। इसलिए बजट से पहले ही मौद्रिक सख्ती शुरु हो जाएगी और साथ ही बढ़ने लगेंगी ब्याज दरें। महंगाई के बीच अगर ब्याज दरें भी बढ़ गई तो उद्योगों की पार्टी तो खत्म समझिये। एक तो महंगाई ने लोगों की क्रय शक्ति लूट ली ऊपर से अब कर्ज के सहारे ग्राहकी निकलने की उम्मीद भी खत्म क्यों कि महंगा कर्ज लेकर कौन खर्च करेगा? सरकार के लिए मुश्किलें दोहरी हैं। यह माहौल उत्पादन को हतोत्साहित करता है जिससे राजस्व में कमी आती है और दूसरी तरफ खर्च कम करने की कोई गुंजायश नहीं है।
तकाजे का वक्त
मुसीबतों के इस पहिये का सबसे चुनौती भरा मोड़ यह है कि सरकारी खजाने के लिए बेहद कठिन दशक इसी साल से शुरु हो रहा है। बीते सालों के सरकार ने जो जमकर कर्ज जुटाये थे उनकी भारी देनदारी 2010-11 से शुरु हो रही है। सरकारी ट्रेजरी बिलों के संदर्भ में रिजर्व बैंक का आंकड़ा बताता है कि इस साल सरकार को करीब 1,12,000 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाना है। जो कि मौजूदा साल में महज 27000 करोड़ रुपये था। यह भारी तकाजे अगले एक दशक तक चलेगा और हर साल सरकार की देनदारी 70,000 करोड़ रुपये से ऊपर होगी। 2014-15 में तो इसके 1,75,000 करोड़ रुपये तक जाने का आकलन है। इधर ब्याज दर बढ़ने से ब्याज की देनदारी बढ़ेगी से अलग से। मौजूदा साल में खजाना 2,25,000 करोड रुपये का ब्याज दे रहा है यह रकम मौजूदा साल में सरकार को इनकम टैक्स से मिलने वाले राजस्व की दोगुनी और कुल कर राजस्व की लगभग आधी है। ब्याज देनदारी में बढ़ोत्तरी के पिछले आंकड़ों के आधार अगले साल यह तीन लाख करोड़ रुपये आसपास हो सकता । जाहिर इसे चुकाने के लिए सरकार को नया कर्ज चाहिए। इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे कि क्या यह घरेलू ऋण संकट की शुरुआत है? लेकिन यह आंकड़ा जरुर जहन में रखना चाहिए कि जीडीपी के अनुपात में घरेलू कर्ज 60 फीसदी पर पहुंच गया है। दुनिया के कुछ मुल्कों के ताजे दीवालियेपन से डरे दुनिया के निवेशकों को डराने के लिए अब हमारे पास बहुत कुछ है।
बाड़ ने खेत को कितना बचाया तो यह बाद में पता चलेगा लेकिन मंदी रोकने की बाड़ राजकोष के खेत का बड़ा हिस्सा चट जरुर कर गई है। आर्थिक चुनौतियों का यह चरित्र है कि इसमें तात्कालिक उपाय अक्सर दूरगामी समस्या बन जाते हैं। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने बीते सप्ताह कहा है कि वित्तीय संकट अभी टला नहीं है बल्कि नए सिरे से आ रहा है। यकीनन उनका इशारा अब उस संकट की तरफ है जो बैंकों की बैलेंस शीट और निवेशकों के खातों से निकल कर सरकारी खजानों के हिसाब किताब में बैठ गया है। भारत भी इसी नाव में सवार है और हम व आप भी इसी नौका के यात्री हैं। बजट का इंतजार बेशक करिये मगर बहुत उम्मीद के साथ नहीं क्यों चुनौतियों का पहिया थमते-थमते ही थमेगा।

Monday, December 21, 2009

छोटे होने की जिद

तो फिर भारत का हर छोटा राज्य समृद्धि में बड़ा क्यों नहीं हो जाता? क्यों छोटे राज्य विशेष श्रेणी के दर्जे यानी केंद्रीय सहायता के मोहताज हैं? वित्तीय देनदारियों में डिफाल्टर होने का खतरा इन पर ही क्यों मंडराता है? इनके पास शानदार विकास और जानदार कानून व्यवस्था दिखाने वाला कोई चमकदार अतीत क्यों नहीं है? विकास के बेहद सीमित अवसर, चुनिंदा संसाधन व सीमित आर्थिक गतिविधियां क्यों इन राज्यों की नियति बन जाती हैं? इन सवालों से ईमानदारी के साथ आंख मिलाकर तो देखिए!.. छोटे राज्यों को लेकर होने वाले बड़े-बड़े आंदोलनों का तुक-तर्क आपको असमंजस में डाल देगा। छोटे राज्यों की पूरी बहस को यदि आर्थिक संदर्भो और बदले वक्त की रोशनी में खोला जाए तो हैरत में डालने वाले निष्कर्ष निकलते हैं। दुनिया के छोटे देश, अब तो बड़े भी, इस निर्दयी बाजार में साझी आर्थिक (यूरोपीय समुदाय, आसियान) किस्मत लिख रहे हैं, तब भारत में ऐसी राज्य इकाइयां बनाने की मांग उठती है जो आर्थिक कमजोरी व जोखिम के डीएनए के साथ ही पैदा होने वाले हैं।
अतीत किसे सिखाता है?
बहस पिछड़े इलाकों के आर्थिक विकास की ही है ना! मगर गैर आर्थिक तर्को पर बांटे गए राज्यों ने तो भारत को विकास की विसंगतियों का अजायबघर बना दिया है। 28 राज्यों वाले इस मुल्क में 13 राज्य छोटे हैं। इनमें आठ तो विशेष दर्जे वाले हैं, जिन्हें मजाक में विशेष खर्चे वाले राज्य कहा जाता है। केंद्रीय मदद और अनुदान पर निर्भर, क्योंकि अपनी अर्थव्यवस्था बैसाखी भी नहीं देती। पांच राज्य जो इस दर्जे से बाहर हैं, उनमें झारखंड गरीबी और भ्रष्टाचार का स्वर्ग है। छत्तीसगढ़ नक्सली हिंसा का और गोवा राजनीतिक अस्थिरता का। .. पंजाब और हरियाणा? जिज्ञासा लाजिमी है क्योंकि छोटे राज्यों के समर्थन की पूरी तर्क श्रृंखला को इन्हीं से ऊर्जा मिलती है। पंजाब व हरियाणा भारतीय कृषि के स्वर्ण युग की देन हैं। वक्त बदला तो खेती आधारित विकास का माडल उदारीकरण की आंधी में उखड़ गया। जैसे-जैसे देश के आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा घटा, आबादी बढ़ी, जोतें छोटी हुई, वैसे-वैसे पंजाब और हरियाणा मुश्किलों की गांठ बनते गए हैं। भारी घाटे, असंतुलित विकास व आय में अंतर और पलायन इनकी पहचान है। हरियाणा को खेतिहर जमीन गंवाकर कुछ उद्योग मिल भी गए, लेकिन पंजाब तो बड़े उद्योगों के मामले में छोटा ही रह गया। भाषाई पहचान के लिए बना पंजाब अतीत में पहचान की संकट का एक हिंसक आंदोलन झेल चुका है और खेती का यह स्वर्ग किसानों की आत्महत्या का नर्क भी रहा है। जबकि हरियाणा में अधिकांश जमीन मुट्ठी भर लोगों के पास है। नए हो या पुराने, छोटे राज्य न आंकड़ों में कोई करिश्मा करते दिखते हैं और न जमीन पर। झारखंड अगर प्रति व्यक्ति आय में देश में पांचवें नंबर पर है तो राज्य में गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले 42 फीसदी का आंकड़ा इसकी चुगली खाता है। उत्तर पूर्व को सात छोटे राज्यों में बांटकर भी यहां विकास की तस्वीर नहीं बदली जा सकी।
विभाजन के जोखिम
कल्पना करिए कि अगर मौसम का बदलाव किसी छोटे राज्य में खेती का ढर्रा ही बदल दे (दुनिया के कुछ देशों में यह हो रहा है) या पर्यावरण के कानूनों के कारण खानें बंद करनी पड़ें या फिर वित्तीय कानूनों में बदलावों की वजह से राज्यों के लिए बाजार से कर्ज लेना मुश्किल हो जाए?.. कुछ भी हो सकता है! लेहमन की बर्बादी या दुबई के डूबने के बारे में किसने सोचा था? वित्तीय तूफानों में थपेड़े खा रही दुनिया मान रही है कि छोटा होना अब जोखिम को बुलाना है। इसलिए देश अपनी आर्थिक सीमाओं का एकीकरण कर रहे हैं भौगोलिक तौर पर एक भले ही न हों। पिछले साल की मंदी ने यूरोप के कई छोटे मुल्कों को बर्बाद किया था। भारत में पिछले दो साल की आर्थिक कमजोरी के मद्देनजर एक अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ने कहा है कि केंद्र पर निर्भर छोटे राज्यों के लिए आने वाले साल बहुत मुश्किल हैं। कर कानूनों में एक फेरबदल भी छोटे राज्य की औद्योगिक तस्वीर बदल देता है। याद कीजिए कि दो साल पहले उत्तर पूर्व के राज्यों से जब केंद्र ने कर रियायतें वापस लीं तो उद्योग भी वापस चल दिए। छोटे राज्यों का झंडा उठाने वालों को कौन यह बताए कि अब बाजार में छोटा होना ज्यादा जोखिम भरा है। निवेशक स्वतंत्र हैं, बैंक अब साख देखते हैं। बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अपने व्यापक आर्थिक आधार के कारण फिर भी बच जाती हैं, मगर छोटी तो एक झटके में निबट जाती हैं। आर्थिक अतीत गवाह है कि वेतन आयोग की सिफारिशों से लेकर आपदाओं तक जब भी बोझ बढ़ा है, छोटे राज्यों की अर्थव्यवस्थाएं भूलोट हो गई हैं।
यह पहाड़ा ही उलटा है
विशालता या राजधानी से भौगोलिक दूरी के कारण कोई प्रदेश या प्रदेश का हिस्सा उपेक्षित नहंी होता। इस तर्क पर उत्तर पूर्व और लद्दाख कुछ भी सोच सकते हैं। विकास में उपेक्षा की वजह सिर्फ राजनीतिक है। दूरी का तर्क तो अब हास्यास्पद है क्योंकि सूचना तकनीक के विकास के बाद एक राज्य का मुख्यमंत्री (अगर चाहे तो) राजधानी में बैठकर सुदूर जिले के डीएम से आंख में आंख डालकर विकास के सवाल कर सकता है। विकास के इस उलटे पहाड़े ने कई बार पेचीदा जनसंख्या प्रवास को भी जन्म दिया है। जातीय या क्षेत्रीय पहचान के सवाल अक्सर सक्षम मानव संसाधनों को एक राज्य की सीमा में बांध (उस राज्य विशेष के लोग बाहर से आकर वापस बसते हैं और गैर राज्य के लोग बाहर का रुख करते हैं) देते हैं या फिर बाहर रोक देते हैं। क्योंकि राज्य का बंटवारा ही मूल निवासियों को प्रमुखता देने के तर्क पर होता है, इसलिए प्रवासियों की उम्मीदें खत्म हो जाती हैं। यही वजह है कि छोटे राज्यों में उत्पादक गतिविधियां बहुआयामी नहीं हो पातीं।राजनीति की उम्र हमेशा दिनों व हफ्तों में होती है, जबकि आर्थिक विकास को वर्षो तपना पड़ता है। तेजी से बदलते बाजार और बिल्कुल नए किस्म की उलझनों ने दुनिया के सारे आर्थिक सिद्धातों को पलट दिया है। छोटे राज्यों में बस इतना फायदा जरूर है कि जो नेता कभी सामूहिक और व्यापक जनाधार की राजनीति नहीं कर सकते, उनकी सत्ताकांक्षाएं ये राज्य पूरी कर देते हैं, मगर इससे विकास के सवाल कहां हल होते हैं? छोटे राज्यों की बहस को नए संदर्भो में एक बार फिर परखना चाहिए? तर्कों व तथ्यों पर आधारित बहस में न बसें जलती हैं और न शहर थमते हैं, बल्कि काम के निष्कर्ष जरूर निकल आते हैं।