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Monday, December 4, 2017

माननीय सभासदो...

लोकतंत्र की सफलता को मापने का सबसे बेहतर पैमाना क्या हो सकता है
नतीजों से नीतियों की ओर चलते हैं. यह सफर हमें नौकरशाहीक्रियान्वयनमॉनिटरिंग के पड़ावों से गुजारते हुए विधायिका की दहलीज पर ले जाकर खड़ा कर देगा.
हम खुद को संसद या विधानसभा के दरवाजे पर खड़ा पाएंगेजहां से कानून निकलते हैं.

लोकतंत्र में सरकारें कितनी सफल होती हैंयह इस बात पर निर्भर करता है कि उनके कानून कितने सुविचारित और दूरदर्शी हैं. जाहिर है कि कानूनों की गुणवत्ता विधायिकाओं की कुशलता पर निर्भर है यानी हमारे कानून निर्माताओं—सांसद-विधायकों की काबिलियत पर.

दो ताजे उदाहरण हमें भारत में विधायी दक्षता की स्थिति पर सोचने को मजबूर करते हैं.

पहला है इनसॉल्वेंसी और बैंकरप्टसी (दीवालियापन) कानूनजिसमें एक साल के भीतर ही अध्यादेश के जरिए बड़ा बदलाव करना पड़ा है. पिछले साल दिसंबर से लागू हुआ कानून बीमार कंपनियों के पुनर्गठन और बकाया बैंक कर्ज की वसूली के लिए आधुनिकत्वरित कानूनी प्रक्रिया लेकर आया था. यह सुधार निवेश के माहौल को स्थायी बनाने और बैंक कर्ज का दुरुपयोग रोकने लिए जरूरी था. इसी कानून के चलते हाल में कारोबारी सहजता में भारत की रैंकिंग बेहतर हुई.

कानून लागू होते ही सरकार को पता चला कि इसका तो बेजा फायदा उठाया जा सकता है और उसका राजनैतिक नुक्सान हो सकता है इसलिए अब इसे सिर के बल खड़ा कर दिया गया. बहस जारी है कि अब यह कानून बैंकों व कंपनियों के कितने काम का बचा है और इसके बाद कर्ज वसूली और बीमार कंपनियों के पुनर्गठन की प्रक्रिया में कैसे तेजी बनी रहेगी. 

संशोधन पर तकनीकी बहस से ज्यादा बड़ा मुद्दा यह है कि सिर्फ एक साल में इतने बड़े बदलाव की जरूरत क्यों पड़ीदेश में बीमार कंपनियों से निबटने वाले कानूनों (सीका ऐक्टकंपनी कानूनसारफेसी ऐक्टकर्ज उगाही ट्रिब्यूनल) का इतिहास और इस तरह के मामलों के पर्याप्त अनुभव हैं लेकिन इसके बाद भी हम एक अचूक बैंकरप्टसी कानून क्यों नहीं बना सके?

दूसरा नमूना है जीएसटी विधायी कुशलता की हालत का. जीएसटी भी करीब एक दशक से बन रहा है ताकि उपभोक्ताओं और उद्योग पर करों का बोझ कम किया जा सकेकर प्रणाली आसान बनाई जा सके और ज्यादा करदाता टैक्स दायरे में आ सकें. लेकिन बनने के तीन माह के भीतर ही जीएसटी ध्वस्त हो गया. टैक्स रेट उलट-पलट हो गए और इस दौरान नियम इतने बदले कि उन्हें याद रखना मुश्किल हो गया. जीएसटी की विफलता ने भारत के इनडाइरेक्ट टैक्स ढांचे को गहरी चोट पहुंचाई है.

टैक्स को लेकर भी तजुर्बों की कमी नहीं है. वैट और सर्विस टैक्स लागू हो चुके हैं. वैट यानी वैल्यू एडेड टैक्स को अमल में लाने में वक्त लगा था लेकिन वह जीएसटी से ज्यादा टिकाऊ साबित हुआ. जीएसटी की जरूरतें और चुनौतियां पूरी तरह स्पष्ट थीं. राजनैतिक सहमति भी थी लेकिन लंबे इंतजार के बाद भी हमारे कानून निर्माता हमें एक कायदे का जीएसटी नहीं दे पाए.

कानूनी और नीतिगत विफलताओं की फेहरिस्त लंबी हो सकती है जो विधायिका की दक्षता पर उठने वाले सवालों को और व्यापक बना देगी. चुनावी दबावों के कारण नए बने कानूनों का ऐसा शीर्षासन (जीएसटीबैंकरप्टसी) अनोखा है. जो संसद कानून बनाती है वह इन बदलावों पर जब तक विचार करे तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

भारत में विधायी अकुशलता की चुनौती बढ़ रही है. ताजा अनुभव हमें चार निष्कर्ष देते हैं:

1. जीएसटी व बैंकरप्टसी कोड का यह हाल नहीं होता. का हाल गवाह है कि सरकार कानून बनाने से पहले पर्याप्त शोध नहीं कर रही है

2. कानून से प्रभावित होने वाले पक्षों से संवाद नहीं होता. राजनेता स्वयं को सर्वज्ञ मानते हैं.

3. संसद में कानूनों पर बहस इतिहास बन चुकी है. संसद से बहुमत के दम पर पारित कराने के बाद अधकचरे कानून जनता के माथे मढ़ दिए जाते हैं.

4. खराब कानून विवादों में बदलते हैं और तब सरकार को लगता है कि अदालतें अपनी सीमा पार कर रही हैं.

दूरदर्शिता कानूनों की पहली जरूरत है. उनमें बार-बार बदलाव उनकी कमजोरी ही साबित करते हैं. जब हमारी संसद हमें एक साल तक टिक पाने वाले कानून नहीं दे पा रही है तो राज्यों की विधानसभाओं में कैसे कानून बन रहे होंगे. 




कानूनों की अधिकता जितनी खतरनाक है, खराब कानून से उतनी ही बड़ी मुसीबतें हैं. दुर्भाग्य से हमारे पास दोनों हैं.

Monday, March 2, 2015

29 बजटों की ताकत


राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी।
बीते सप्ताह जब उद्योग और सियासत मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के इंतजार में नाखून चबा रहे थे, तब देश में कई और बजट भी पेश हो रहे थे. भारत एक बजट का नहीं बल्कि 29 बजटों का देश है और राज्यों के इन 29 बजटों को बेहद गंभीरता से लेने का वक्त आ गया है. अगले एक साल में भारत के राज्य उस वित्तीय ताकत से लैस हो चुके होंगे, जो देश में आर्थिक नीतियों का ही नहीं बल्कि राजनीति का चेहरा भी बदल देगी. फ्रांसीसी लेखक विक्टर ह्यूगो कहते थे, उस विचार को कोई नहीं रोक सकता जिसका समय आ गया हो. राज्यों को आर्थिक फैसलों की आजादी और संसाधन देने का समय आ गया था इसलिए इसे रोका नहीं जा सका. इसे आप भारत का सबसे दूरगामी आर्थिक सुधार कह सकते हैं जो पिछले एक दशक की सियासी चिल्लपों के बीच चुपचाप आ जमा है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले वित्त आयोग ने राज्यों के वित्तीय अधिकार बढ़ाने का सफर शुरू कर दिया था, मोदी ने योजना आयोग को खत्म करते हुए इसे मंजिल तक पहुंचा दिया. मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के साथ भारत में संघवाद का एक नया खाका उभर रहा है, जिसमें शक्ति संपन्न केंद्र अब कमजोर होगा जबकि राज्य वित्तीय मामलों में नई ताकत बनेंगे और विकास का तकाजा अब केवल दिल्ली से नहीं बल्कि जयपुर, भोपाल, लखनऊ, चेन्नै, बेंगलुरू, कोलकाता से भी होगा, जिन्हें इस नई वित्तीय ताकत व आजादी को संभालने की क्षमताएं विकसित करनी हैं.
योजना आयोग को खत्म करते हुए नरेंद्र मोदी विकेंद्रीकृत आर्थिक नीति नियोजन का नया खाका भले ही स्पष्ट न कर पाए हों लेकिन उन्होंने आर्थिक संसाधनों के बंटवारे में केंद्र के दबदबे को जरूर खत्म कर दिया. बचा हुआ काम चौदहवें वित्त आयोग ने कर दिया है. बजट से पहले इसकी जो रिपोर्ट सरकार ने स्वीकार की है वह केंद्र व राज्यों के वित्तीय रिश्तों का नक्शा बदलने जा रही है. राज्यों को केंद्रीय करों में अब 42 फीसदी हिस्सा मिलेगा यानी पिछले फॉर्मूले से 10 फीसदी ज्यादा. केंद्र सरकार उन्हें शर्तों में लपेटे बिना फंड देगी और यही नहीं, केंद्र राज्य के संसाधनों के हिस्से बांटने का नया फॉर्मूला भी लागू होगा जो आधुनिक जरूरतों को देखकर बना है. केंद्रीय करों में मिलने वाला हिस्सा 2016 के बाद करीब 1.76 खरब रु. बढ़ जाएगा. कोयला खदानों के आवंटन से राज्यों  को एक लाख करोड़ रु. मिल रहे हैं. योजना आयोग से मिलने वाले अनुदान व फंड भी बढ़ेंगे और जीएसटी भी राज्यों की कमाई में इजाफा करेगा.
बात सिर्फ वित्तीय संसाधनों की सप्लाई की नहीं है. योजना आयोग की विदाई और वित्त आयोग की सिफारिशों की रोशनी में राज्यों को इन संसाधनों को खर्च करने की पर्याप्त आजादी भी मिल रही है, जो एक बड़ी चुनौती भी है. अधिकांश राज्यों का वित्तीय प्रबंधन बदहाल और प्रागैतिहासिक है. बजटों की प्रक्रिया कामचलाऊ है. कर्ज, नकदी और वित्तीय लेन-देन प्रबंधन की आधुनिक क्षमताएं नहीं हैं. टैक्स मशीनरी जंग खा रही है. राज्यों को योजना, नीति निर्माण और मॉनिटरिंग के उन सभी तरीकों की शायद ज्यादा जरूरत है जो उदार बाजार के बाद केंद्र सरकार के लिए बेमानी हो गए थे. राज्यों को अब पारदर्शी व आधुनिक वित्तीय ढांचा बनाना होगा, जो संसाधनों की इस आपूर्ति को संभाल सके. वित्त आयोग की सिफारिश, मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट और निवेश के माहौल को देखते हुए जो तस्वीर बन रही है, उसमें विकास का बड़ा खर्च राज्यों के माध्यम से होगा अर्थात् बड़े आर्थिक निर्माणों से लेकर सामाजिक ढांचा बनाने तक केंद्र की भूमिका सीमित हो जाएगी. राज्यों का प्रशासानिक ढांचा अक्षमताओं का पुराना रोगी है. निर्माण गतिविधियां कॉन्ट्रेक्टर राज के हवाले हैं. यदि राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी, क्योंकि राज्यों को वित्तीय ही नहीं बल्कि जमीन अधिग्रहण से लेकर रिटेल में विदेशी निवेश तक कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर कानूनी ताकत भी मिल रही है.
राजनैतिक उठा-पटक के बावजूद भारत में गवर्नेंस का एक नया ढांचा उभरने लगा है. इसमें एक तरफ राज्य सरकारें होंगी जो विकास की राजनीति में केंद्र की भूमिका सीमित करेंगी तो दूसरी तरफ होंगे स्वतंत्र नियामक यानी रेगुलेटर, जो दूरसंचार, बिजली, बीमा, पेंशन, पेट्रोलियम, बंदरगाह, एयरपोर्ट, कमॉडिटी, फार्मास्यूटिकल व पर्यावरण क्षेत्रों में केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकार ले चुके हैं. रेलवे व सड़क नियामक कतार में हैं. सेबी, प्रतिस्पर्धा आयोग, राज्य बिजली नियामक आयोगों को शामिल करने के बाद यह नया शासक वर्ग राजनैतिक प्रभुओं से ज्यादा ताकतवर दिखता है. अगर राज्यों में पानी और सड़क परिवहन के लिए नियामक बनाने की सिफारिशें भी अमल में आर्इं तो अगले कुछ वर्षों में देश की आर्थिक किस्मत नेताओं से लैस मंत्रिमंडल नहीं बल्कि विशेषज्ञ नियामक लिखेंगे.

इतिहास हर व्यक्ति के लिए अपनी तरह से जगह निर्धारित करता है. इतिहास नरेंद्र मोदी का मूल्याकंन कैसे करेगा अभी यह तय करना जल्दी है लेकिन उन्होंने जान-बूझकर या अनजाने ही इतिहास की एक बड़ी इबारत अपने नाम जरूर कर ली है. उनकी अगुआई में केंद्र और राज्य के रिश्तों का ढांचा बदल गया है. नरेंद्र मोदी भारत में ताकतवर केंद्र सरकार का नेतृत्व करने वाले शायद आखिरी प्रधानमंत्री होंगे. उनके रहते ही सत्ता की ताकत नए सुल्तानों यानी स्वतंत्र नियामकों के पास पहुंच जाएगी और विकास के खर्च की ताकत राज्यों के हाथ में सिमट जाएगी. यह किसी भी तरह से 91 या ’95 के सुधारों से कम नहीं है. इस बदलाव के बाद भारत की राजनीति का रासायनिक संतुलन भी सिरे से तब्दील हो सकता है.

Monday, January 20, 2014

गति से पहले सुरक्षा

मंदी से उबरी दुनिया में अब तेज ग्रोथ के चमत्‍कार नहीं होंगे बल्कि सफलता का आकलन इस पर होगा कि कौन कितना निरंतर व सुरक्षित है

ड़ी खबर यह नहीं है कि पांच साल पुराने ग्‍लोबल वित्‍तीय संकट के समापन का आधिकारिक ऐलान हो गया है बल्कि ज्‍यादा बड़ी बात यह है कि दुनिया ने अब बहुत तेज दौड़ने यानी ग्रोथ की धुआंधार रफ्तार से तौबा कर ली है। 2008 से पहले तक ग्रोथ की उड़न तश्‍तरी पर सवार ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था अब धीमे व ठोस कदमों से चलने की शपथ ले रही है। यही वजह है कि बीते सप्‍ताह जब विश्‍व बैंक ने दुनिया के मंदी से उबरने का ऐलान किया तो बाजार उछल नहीं पड़े और न ही अमेरिका में ग्रोथ चमकने, यूरोप का ढहना रुकने, जापान की वापसी और भारत चीन में माहौल बदलने के ठोस संकेतों से आतिशबाजी शुरु हो गई। बल्कि विश्‍व के आर्थिक मंचों से नसीहतों की आवाजें और मुखर हो गईं जिनमें यह संदेश साफ था कि अगर सुधारों को आदत नहीं बनाया गया तो आफत लौटते देर नहीं लगेगी। खतरनाक गति नहीं बल्कि सुरक्षित निरंतरता, वित्‍तीय बाजारों का नया सूत्र है और मंदी के पार की दुनिया इसी सूत्र की रोशनी में आगे बढ़ेगी।
2014 का पहला सूरज सिर्फ साल बदलने का संदेश नहीं लाया था बल्कि यह पांच साल लंबे दर्द और पीड़ा की समाप्ति का ऐलान भी था। विश्‍व बैंक के आंकड़ों की  रोशनी में  अर्थव्यवस्‍था की ग्‍लोबल तस्वीर भरोसा जगाती है। इस साल दुनिया की विकास दर 3.2 फीसद रहेगी, जो बीते साल 2.4 फीसद थी। 2008-09 के बाद यह पहला मौका है जब दुनिया में ग्रोथ के तीनों बड़े इंजनों, अमेरिका, जापान और यूरोप में गुर्राहट लौटी है।

Monday, June 10, 2013

सत्‍ता के नए सुल्‍तान


 नेता केंद्रित गवर्नेंस के मॉडल का अवसान अब करीब है। स्‍वतंत्र नियामक यानी रेगुलेटर सत्‍ता के नए सुल्‍तान हैं 

पांच साल बाद देश को शायद इससे बहुत फर्क न पडे कि सियासत का ताज किसके पास है लेकिन यह बात बहुत बड़ा फर्क पैदा करेगी कि संसाधनों के बंटवारे व सेवाओं की कीमत तय करने की ताकत कौन संभाल रहा है। यकीनन, कुर्सी के लिए मर खप जाने वाले नेताओं के पास यह अधिकार नहीं रहने वाला है। भारत में एक बड़ा सत्‍ता हस्‍तांतरण शुरु हो चुका है। स्‍वतंत्र नियामक यानी रेगुलेटर सत्‍ता के नए सुल्‍तान हैं जो वित्‍तीय सेवाओं से बुनियादी ढांचे तक जगह जगह फैसलों में सियासत के एकाधिकार को तोड़ रहे हैं। नियामक परिवार के विस्‍तार के साथ अगले कुछ वर्षों में अधिकांश आर्थिक राजनीति, मंत्रिमंडलों से नहीं बल्कि इनके आदेश से तय होगी। भारत में आर्थिक सुधार, विकास, बाजार, विनिमयन के भावी फैसले, बहसें व विवाद भी इन ताकतवर नियामकों के इर्द गिर्द ही केंद्रित होने वाले हैं जिनमें राजनीति को अपनी जगह

Monday, May 7, 2012

दोहरी मंदी की दस्‍तक


स्‍पेनी डुएंडे ने अमरिकी ब्‍लैकबियर्ड घोस्‍ट (दोनो मिथकीय प्रेत) से कहा .. अब करो दोहरी ड्यूटी। यह दुनिया वाले चार साल में एक मंदी खत्‍म नहीं कर सके और दूसरी आने वाली है। ... यह प्रेत वार्ता जिस निवेशक के सपने में आई वह शेयर बाजार की बुरी दशा से ऊबकर अब हॉरर फिल्‍में देखने लगा था। चौंक कर जागा तो सामने टीवी चीख रहा था कि 37 सालों में पहली बार ब्रिटेन में डबल डिप (ग्रोथ में लगातार गिरावट) हुआ  है। स्‍पेन यूरोजोन की नई विपत्ति है। यूरोप की विकास दर और नीचे जा रही  है अमेरिका में  ग्रोथ गायब है। यानी कि देखते देखते चार साल (2008 से) बीत गए। सारी तकनीक, पूंजी और सूझ, के बावजूद दुनिया एक मंदी से निकल नहीं सकी और दूसरी दस्‍तक दे रही है। पिछले साल की शुरुआत से ही विश्‍व बाजार यह सोचने और भूल जाने की कोशिश में लगा था कि ग्रोथ दोहरा गोता नहीं लगायेगी। मगर अब डबल डिप सच लग रहा है। अर्थात मंदी के कुछ और साल। क्‍या एक पूरा दशक बर्बाद होने वाला है।
स्‍पेन में कई आयरलैंड
स्‍पेन की हकीकत सबको मालूम थी  मगर कहे कौन कि यूरोजोन की चौथी सबसे बड़ी अर्थवयवस्‍था दरक रही है। इसलिए संकट के संदेशवाहकों (स्‍टैंडर्ड एंड पुअर रेटिंग डाउनग्रेड) का इंतजार किया गया। स्‍पेन का बहुत बड़ा शिकार है। ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड की अर्थव्‍यवस्‍थाओं को मिलाइये और फिर उन्‍हें दोगुना कीजिये। इससे जो हासिल होगा वह स्‍पेन है इसलिए सब मान रहे थे कि कुछ तो ऐसा होगा जिससे ग्रीस और आयरलैंड, स्‍पेन में नहीं दोहरा जाएंगे। मगर अब यह साबित हो गया कि प्रापर्टी, बैंक और कर्ज की कॉकटेल में स्‍पेन दरअसल आयरलैंड का सहोदर ही नहीं है वरन वहां तो कई आयरलैंड कर्ज देने वाले बैंक डूब रहे हैं। यूरोप का सबसे बड़े मछलीघर (एक्‍वेरियम) और सिडनी जैसा ऑपेरा हाउस से लेकर हॉलीवुड की तर्ज पर मूवी स्‍टूडियो सजा स्‍पेनी शहर वेलेंशिया देश पर बोझ बन गया है। वेंलेंशिया में 150 मिलियन यूरो की लागत वाले एक एयरपोर्ट को लोग बाबा का हवाई अड्डा (ग्रैंड पा एयरपोर्ट) कहते हैं। बताते हैं कि स्‍पेन के कैस्‍टेलोन क्षेत्र के नेता कार्लोस फाबरा ने इसे उद्घाटन के वक्‍त अपने नाती पोतों से पूछा था कि बाबा का हवार्इ अड्डा कैसा लगा। भ्रष्‍टाचार के आरोपों में घिरे फाबरा के इस हवाई अड्डे पर अब तक वाणिज्यिक उड़ाने शुरु नहीं हुई हैं।  बैंक, प्रॉपर्टी, राजनीति की तिकड़ी स्‍पेन को डुबा रही है।  प्रॉपर्टी बाजार पर झूमने वाले कई और दूसरे शहरों में भी दुबई और ग्रेट डबलिन (आयरलैंड) की बुरी आत्‍मायें दौड़ रही हैं। स्‍पेन सरकार पर बोझ बने इन शहरों के पास खर्चा चलाने तक का पैसा नहीं है। नए हवाई अड्डों व शॉपिंग काम्‍प्‍लेक्‍स और बीस लाख से ज्‍यादा मकान खाली पड़े हैं। यूरोपीय केंद्रीय बैंक से स्‍पेनी बैंकों को जो मदद मिली थी, वह भी गले में फंस गई है। अगर स्‍पेन अपने बैंकों को उबारता है तो खुद डूब जाएगा क्‍यों कि देश पर 807 अरब यूरो का कर्ज है, जो देश के जीडीपी का 74 फीसद है। युवाओं में 52 फीसद की बेरोजगारी दर वाला स्‍पेन बीते सप्‍ताह स्‍पष्‍ट रुप से मंदी में चला गया है। पिछले 150 साल में करीब 18 बड़े आर्थिक संकट (इनमें सबसे जयादा बैंकिंग संकट) देखने वाला स्‍पेन आर्थिक मुसीबतों का अजायबघर है।  प्रसिद्ध स्‍पेनी कवि गार्सिया लोर्का ने कहा था कि दुनिया के किसी भी देश ज्‍यादा मुर्दे स्‍पेन में जीवित हैं। इसलिए स्‍पेन की खबर सुनकर यूरोप में दोहरी मंदी की आशंका को नकारने वाले  पस्‍त हो  गए है।

Monday, April 9, 2012

सूबेदारों के खजाने

किस्‍मत हो तो अखिलेश यादव और विजय बहुगुणा जैसी। क्‍यों कि ममता बनर्जी और प्रकाश सिंह बादल जैसी किस्‍मत से फायदा भी क्‍या। उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तराखंड में मुख्‍यमंत्री बनने के लिए शायद इससे अच्‍छा वक्‍त नहीं हो सकता। अखिलेश और विजय बहुगुणा को सिर्फ कुर्सी नहीं बल्कि भरे पूरे खजाने भी मिले हैं यानी कि दोहरी लॉटरी। दूसरी तरफ कंगाल बंगाल की महारानी, ममता दरअसल जीत कर भी हार गई हैं। और रहे बादल तो वह किसे कोसेंगे, उन्‍हें तो अपना ही बोया काटना है। राज्‍यों के मामले में हम एक बेहद कीमती और दुर्लभ परिदृश्‍य से मुखातिब है। जयादातर राज्‍यो के बजट में राजस्‍व घाटा खत्‍म ! करीब दो दर्जन सरकार की कमाई के खाते में सरप्‍लस यानी बचत की वापसी ! खर्च पर नियंत्रण। कर्ज के अनुपातों में गिरावट। ... प्रणव बाबू अगर राज्‍यों के यह आंकड़े देखें तो वह अपने बजट प्रबंधन ( भारी घाटा) पर शर्मिंदा हुए बिना नहीं रहेंगे। अर्से बाद राज्‍यों की वित्‍तीय सेहत इतनी शानदार दिखी है। तीन चार साल की हवा ही कुछ ऐसी थी कि यूपी बिहार जैसे वित्‍तीय लद्धढ़ भी बजट प्रबंधन के सूरमा बन गए, तो जिन्‍हें नहीं सुधरना था (बंगाल, पंजाब) वह इस मौके पर भी नहीं सुधरे। राज्‍यों के वित्‍तीय सुधार की यह खुशी शत प्रतिशत हो सकती थी, बस अगर बिजली कंपनियों व बोर्डों के घाटे न होते। राज्‍यों के वित्‍तीय प्रबंधन की चुनौती अब उनके बजट यानी टैक्‍स या खर्च से के दायरे से बाहर है। राज्‍यों की बिजली कंपनियां अब सबसे बड़ा वित्‍तीय खतरा बन गई हैं।
जैसे इनके दिन बहुरे
नजारा बड़ा दिलचस्‍प है। उत्‍तर प्रदेश, मध्‍य प्रदेश झारखंड, बजटीय संतुलन की कक्षा में मेधावी हो गए हैं जबकि पुराने टॉपर महाराष्‍ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा और यहां तक कि गुजरात का भी रिपोर्ट कार्ड दागी है। राज्‍यों की पूरी जमात में पंजाब, हरियाणा और बंगाल तीन ऐसे राज्‍य हैं जो वित्‍तीय सेहत सुधारने मौसम में भी ठीक नहीं हो सके। अन्‍य राज्‍यों और पिछले वर्षों की तुलना में इनका राजसव्‍ गिरा और घाटे व कर्ज बढे हैं। वैसे अगर सभी राज्‍यों के संदर्भ में देखा जाए तो घाटों, कर्ज और असंतुलन का अजायबघर रहे राज्‍य बजटों का यह पुनरोद्धार

Monday, December 26, 2011

ग्यारह का गुबार

मय हमेशा न्‍याय ही नहीं करता। वह कुछ देशों, जगहों, तारीखों और वर्षों के खाते में इतना इतिहास रख देता है कि आने वाली पीढि़यां सिर्फ हिसाब लगाती रह जाती हैं। विधवंसों-विपत्तियों, विरोधों-बगावतों, संकटों-समस्‍याओं और अप्रतयाशित व अपूर्व परिवर्तनों से लंदे फंदे 2011 को पिछले सौ सालों का सबसे घटनाबहुल वर्ष मानने की बहस शुरु हो गई है। ग्‍यारह की घटनायें इतनी धमाकेदार थीं कि इनके घटकर निबट जाने से कुछ खत्‍म नहीं हुआ बल्कि असली कहानी तो इन घटनाओं के असर से बनेगी। अर्थात ग्‍यारह का गुबार इसकी घटनाओं से ज्‍यादा बड़ा होगा
....यह रहे उस गुबार के कुछ नमूने, घटनायें तो हमें अच्‍छी तरह याद हैं।  
1.अमेरिका का शोध
अमेरिका की वित्‍तीय साख घटने से अगर विज्ञान की प्रगति की रफ्तार थमने लगे तो समझिये कि बात कितनी दूर तक गई है। अमेरिका में खर्च कटौती की मुहिम नए शोध के कदम रोकने वाली है। नई दवाओं, कंप्‍यूटरों, तकनीकों, आविष्‍कारों और प्रणालियों के जरिये अमेरिकी शोध ने पिछली एक सदी की ग्रोथ का नेतृत्‍व किया था। उस शोध के लिए अब अमेरिका का हाथ तंग है।  बेसिक रिसर्च से लेकर रक्षा, नासा, दवा, चिकित्‍सा, ऊर्जा सभी में अनुसंधान पर खर्च घट रहा है। यकीनन अमेरिका अपने भविष्‍य को खा रहा (एक सीनेटर की टिप्‍पणी) है। क्‍यों कि अमेरिका का एक तिहाई शोध सरकारी खर्च पर निर्भर है। हमें अब पता चलेगा कि 1.5 ट्रिलियन डॉलर का अमेरिकी घाटा क्‍या क्‍या कर सकता है। वह तो अंतरिक्ष दूरबीन की नई पीढ़ी (जेम्‍स बेब टेलीस्‍कोप- हबल दूरबीन का अगला चरण) का जन्‍म भी रोक सकता है।
2.यूरोप का वेलफेयर स्‍टेट
इटली की लेबर मिनिस्‍टर एल्‍सा फोरनेरो, रिटायरमेंट की आयु बढ़ाने की घोषणा करते हुए रो पड़ीं। यूरोप पर विपत्ति उस वक्‍त आई, जब यहां एक बड़ी आबादी अब जीवन की सांझ ( बुजुर्गों की बड़ी संख्‍या ) में  है। पेंशन, मुफ्त इलाज, सामाजिक सुरक्षा, तरह तरह के भत्‍तों पर जीडीपी का 33 फीसदी तक खर्च करने वाला यूरोप उदार और फिक्रमंद सरकारों का आदर्श था मगर

Saturday, September 17, 2011

भारत का चौथाई औद्योगिक उत्‍पादन चीन का मोहताज

विशेष पोस्‍ट

दैनिक जागरण में 16 सितंबर को प्रकाशित समाचार

चीन का खतरा अब देश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से पर भी उसका परोक्ष कब्जा हो गया है। लगभग 26 फीसदी औद्योगिक उत्पादन चीन से आयातित इनपुट या उत्पादों पर निर्भर है, यानी उसकी मुट्ठी में है। यह हैरतअंगेज निष्कर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) का है। एनएसए सचिवालय ने चीन पर हाल में सरकारी विभागों को एक रिपोर्ट दी है। इसके अनुसार चीन ने कई संवेदनशील क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता पर दांत गड़ा दिए हैं। बिजली, दवा, दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में उसका दखल खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। रिपोर्ट के बाद विदेश मंत्रालय व आर्थिक मंत्रालयों में हड़कंप है।
  करीब आठ पेज की यह गोपनीय रिपोर्ट बेहद सनसनीखेज है। एनएसए ने इस साल मार्च में योजना आयोग और अगस्त में आर्थिक मंत्रालयों के साथ बैठक की थी। इसके बाद यह रिपोर्ट तैयार की गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन की नीयत और नीतियां साफ नहीं है। चीन दूरसंचार और सूचना तकनीक के क्षेत्रों में अपने दखल का इस्तेमाल साइबर जासूसी के लिए कर सकता है। इस रहस्योद्घाटन ने सरकार के हाथों से तोते उड़ा दिए हैं कि अगले पांच साल में चीन हमारे 75 फीसदी मैन्यूफैक्चरिंग उत्पादन को नियंत्रित करने लगेगा। इस समय देश मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का करीब 26 फीसदी उत्पादन चीन से मिलने वाली आपूर्ति के भरोसे है। एक देश पर इतनी निर्भरता अर्थव्यवस्था को गहरे खतरे

Monday, July 4, 2011

सरकार वही, जो दर्द घटाये !

मेरिका ने फ्रांस को कुछ समझाया। फ्रांस ने स्पेन व इटली को हमराज बनाया। जापान और कोरिया भी आ जुटे। गोपनीय बैठकें, मजबूत पेशबंदी और फिर ताबडतोड़ कार्रवाई।.. पेट्रोल के सुल्तान यानी तेल उत्पाटदक मुल्कं (ओपेक) जब तक कुछ समझ पाते तब तक दुनिया के तेल बाजार में एक्शन हो चुका था। बात बीते सप्ताह की है जब अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी के रणनीतिक भंडारों से छह करोड़ बैरल कच्चा तेल बाजार में पहुंच गया। तेल कीमतें औंधे मुंह गिरीं और ओपेक देश, अपनी जड़ें हिलती देखकर हिल गए। तेल कारोबार दुनिया ने करीब 20 साल बाद आर-पार की किस्म वाली यह कार्रवाई देखी थी। तेल कीमतों में तेजी तोड़ने की यह आक्रामक मुहिम उन देशों की थी जो महंगाई में पिसती जनता का दर्द देख कर सिहर उठे हैं। पिघल तो चीन भी रहा है। वहां मुक्त बाजार में मूल्य नियंत्रण लागू है यानी कंपनियों के लिए मूल्‍य वृद्धि की सीमा तय कर दी गई है। जाहिर सरकार होने के एक दूसरा मतलब दर्दमंद, फिक्रमंद और संवेदनशील होना भी है। मगर अपनी मत कहियें यहां तो महंगाई के मारों पर चाबुक चल रहा है। जखमों पर डीजल व पेट्रोल मलने के बाद प्रधानमंत्री ने महंगाई घटने की अगली तरीख मार्च 2012 लगाई है।
पेट्रो सुल्ता्नों से आर पार
वाणिज्यिक बाजार के लिए रणनीतिक भंडारों से तेल ! यानी आपातकाल के लिए तैयार बचत का रोजमर्रा में इस्तेमाल। तेल बाजार का थरथरा जाना लाजिमी था। विकसित देशों के रणनीतिक भंडारों से यह अब तक की सबसे बड़ी निकासी थी। नतीजतन बीते सप्ताह तेल की कीमतें सात फीसदी तक गिर गईं। बाजार में ऐसा आपरेशन आखिरी बार 1991 में हुआ था। यह तेल उत्पादक (ओपेक) देशों की जिद को सबक व चुनौती थी। मुहिम अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की थी और गठन (1974) के बाद उसकी यह तीसरी ऐसी कार्रवाई है। ओपेक के खिलाफ यह पेशबंदी मार्च में लीबिया पर मित्र देशों के हमले

Monday, June 13, 2011

सरकारें हैं कि मानती नहीं

स ट्यूनीशियाई ने जुलूस में फूटा अपना सर चीनी को दिखाया तो चीन वाले के चेहरे पर जमीन छिनने का दर्द उभर आया। इजिप्टयन ने कराहते हुए अपनी व्यथा सुनाई तो यमन वाले को भी पुलिस की मार याद आई। चुटहिल ग्रीक, हैरान आयरिश, नाराज सीरियाई, खफा स्पेनिश और गुस्सा भारतीय सभी एक साथ बड़बड़ाये कि सरकारें अगर गलत हों तो सही होना बहुत खतरनाक है। (वाल्तेयर)..... यह सरकारों के विरोध का अंतरराष्ट्रीय मौसम है। एक चौथाई दुनिया सरकार विरोधी आंदोलनों से तप रही है। रुढि़वादी अरब समाज ने छह माह में दुनिया को दो तख्ता पलट ( इजिप्ट और ट्यूनीशिया) दिखा दिये। चीन में विरोध अब पाबंदियों से नहीं डरता। अमीर यूरोप में जनता सड़क पर हैं तो पिछड़े अफ्रीका में लोग सामंती राज से भिड़े हुए हैं। लगभग हर महाद्वीप के कई प्रमुख देशों में आम लोगों की बददुआओं पर अब केवल सरकारों का हक है। सरकारों के यह भूमंडलीय दुर्दिन हैं और देशों व संस्कृंतियों से परे सभी आंदोलन महंगाई और भ्रष्टांचार जैसी पुरानी समस्या ओं के खिलाफ शुरु हुए हैं जो बाद में किसी भी सीमा तक चले गए। लेकिन सरकारें कभी वक्त पर नसीहत नहीं लेतीं क्यों कि उन्हें इतिहास बनवाने का शौक है।
चीन का भट्टा पारसौल
जमीनों में विरोध कई जगह उग रहा है। चीन फेसबुक या ट्विटर छाव विरोध (जास्मिन क्रांति) से नहीं बल्कि हिंसक आंदोलनों से मुकाबिल है। जमीन बचाने के लिए चीन के किसान कुछ भी करने को तैयार हैं। जिआंग्शी प्रांत के फुझोउ शहर में जानलेवा धमाकों के बाद चीन में अचल संपत्ति पर कब्जे की होड़ का भयानक चेहरा सामने आ गया। फुझोउ से सटे ग्रामीण इलाकों जमीन बचाने के लिए आत्मेहत्याओं से शुरु हुइ बात सरकार पर जानलेवा हमलों तक जा पहुंची है। चीन का विकास हर साल करीब 30 लाख किसानों से जमीन छीन रहा है। विरोध से हिले बीजिंग ने जमीन अधिग्रहण के लिए नया कानून बना लिया मगर लागू नहीं हुआ अलबत्ता चीन में नेल हाउसहोल्ड नाम एक ऑनलाइन गेम

Monday, March 7, 2011

बजट तो कच्चा है जी !

अथार्थ
गरबत्ती का बांस, क्रूड पाम स्टीरियन, लैक्टोज, टैनिंग एंजाइन, सैनेटरी नैपकिन, रॉ सिल्क पर टैक्स ......! वित्त मंत्री मानो पिछली सदी के आठवें दशक का बजट पेश कर रहे थे। ऐसे ही तो होते हैं आपके जमाने में बाप के जमाने के बजट। हकीकत से दूर, अस्त व्यस्त और उबाऊ। राजनीति, आर्थिक संतुलन और सुधार तीनों ही मोर्चों पर बिखरा 2011-12 का बजट सरकार की बदहवासी का आंकड़ाशुदा निबंध है। महंगाई की आग में 11300 करोड़ रुपये के नए अप्रत्यक्ष करों का पेट्रोल झोंकने वाले इस बजट और क्‍या उम्मीद की जा सकती है। इससे तो कांग्रेस की राजनीति नहीं सधेगी क्यों कि इसने सजीली आम आदमी स्कीमों पर खर्च का गला बुरी तरह घोंट कर सोनिया सरकार (एनएसी) के राजनीतिक आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा कर दिया है। सब्सिडी व खर्च की हकीकत से दूर घाटे में कमी के हवाई किले बनाने वाले इस बजट का आर्थिक हिसाब किताब भी बहुत कच्चा है। और रही बात सुधारों की तो उनकी चर्चा से भी परहेज है। प्रणव दा ने अपना पूरा तजुर्बा उद्योगों के बजट पूर्व ज्ञापनों पर लगाया और कारपोरेट कर में रियायत देकर शेयर बाजार से 600 अंकों में उछाल की सलामी ले ली। ... लगता है कि जैसे बजट का यही शॉर्ट कट मकसद था।
महंगाई : बढऩा तय
इस बजट ने महंगाई और सरकार में दोस्ती और गाढ़ी कर दी है। अगले वर्ष के लिए 11300 करोड़ रुपये और पिछले बजट में 45000 करोड़ रुपये नए अप्रत्यक्ष करों के बाद महंगाई अगर फाड़ खाये तो क्या अचरज है। चतुर वित्त मंत्री ने महंगाई के नाखूनों को पैना करने का इंतजाम छिपकर किया है। जिन 130 नए उत्पादों को एक्साइज ड्यूटी के दायरे में लाया गया है उससे पेंसिल से लेकर मोमबत्ती तक दैनिक खपत वाली

Monday, February 14, 2011

सबसे बड़ा घाटा

अथार्थ
स बजट में अगर वित्तस मंत्री दस फीसदी विकास दर का दम भरें तो पलट कर खुद से यह सवाल जरुर पूछियेगा कि आखिर पांच फीसदी (सुधारों से पहले यानी 1989-90) से साढ़े आठ फीसदी तक आने में हम इतने हांफ क्यों गए हैं। ग्रोथ की छोटी सी चढ़ाई चढ़ने में ही गला क्यों सूख गया है, दो दशकों में सिर्फ तीन-चार फीसदी की छलांग इतनी भारी पड़ी कि कदम ही लड़खड़ा गए हैं। अचानक सब कुछ अनियंत्रित व अराजक सा होने लगा है। जमीन से लेकर अंतरिक्ष (एसबैंड) तक घोटालों की पांत खड़ी है। मांग महंगाई में बदलकर मुसीबत बन गई है। नियम, कानूनों और          व्यवस्था की वाट लग गई है। शेयर बाजार अब तेज विकास का आंकड़ा देखकर नाचता नहीं बल्कि कालेधन की चर्चा और महंगाई से डर कर डूब जाता है। यह बदहवासी बदकिस्मंती नहीं बावजह और बाकायदा है। दरअसल विकास की रफ्तार सुधारों पर ही भारी पड़ी है अर्थव्यंवस्था छलांग मारकर आगे निकल गई और सुधार बीच राह में छूट ही नहीं बल्कि बैठ भी गए। आर्थिक सुधारों का खाता जबर्दस्त घाटे ( रिफॉर्म डेफिशिट) में है इसलिए बजट को अब विकास की रफ्तार से पहले इस सबसे बड़े घाटे यानी सुधारों की बैलेंस शीट बात करनी चाहिए। क्यों कि सुधारों का बजट बिगड़ने से उम्मींद टूटती है।
सुधारों का अंधकार
बीस साल की तेज वृद्धि दर अब उन रास्तों पर फंस रही है जहां हमेशा से सुधारों का घना अंधेरा है। भारत अब आपूर्ति के पहलू पर गंभीर समस्याओं में घिरा है यह समस्या रोटी दाल से लेकर उद्योगों के कच्चे माल तक की है। खेती में सुधारों की अनुपस्थिति का अंधेरा सबसे घना है। कृषि उत्पादो की आपूर्ति की कमी ने महंगाई को जिद्दी और अनियंत्रित बना दिया है। अगर बजट सुधारों पर आधारित होगा तो यह पूरी ताकत के साथ खेती में सुधार शुरु करेगा। खेती में अब सिर्फ आवंटन बढ़ाने या

Monday, February 7, 2011

बड़े मौके का बजट

अर्थार्थ
चहत्तर साल के प्रणव मुखर्जी इकसठ साल के गणतंत्र को जब नया बजट देंगे तब भारत की नई अर्थव्यवस्था पूरमपूर बीस की हो जाएगी। ... है न गजब की कॉकटेल। हो सकता है कि महंगाई को बिसूरते, थॉमसों, राजाओं और कलमाडि़यों को कोसते या सरकार की हालत पर हंसते हुए आप भूल जाएं कि अट्ठाइस फरवरी को भारत का एक बहुत खास बजट आने वाला है। बजट यकीनन रवायती होते हैं लेकिन यह बजट बड़े मौके का है। यह बजट भारत के नए आर्थिक इंकलाब (उदारीकरण) का तीसरा दशक शुरु करेगा। यह बजट नए दशक की पहली पंचवर्षीय योजना की भूमिका बनायेगा जो उदारीकरण के बाद सबसे अनोखी चुनौतियों से मुकाबिल होगी क्यों कि खेत से लेकर कारखानों और सरकार से लेकर व्या पार तक अब उलझनें सिर्फ ग्रोथ लाने की नहीं बल्कि ग्रोथ को संभालने, बांटने और बेदाग रखने की भी हैं। हम एक जटिल व बहुआयामी अर्थव्यवस्था हो चुके हैं, जिसमें मोटे पैमानों (ग्रोथ, राजकोषीय संतुलन) पर तो ठीकठाक दिखती तस्वी्र के पीछे कई तरह जोखिम व उलझने भरी पडी हैं। इसलिए एक रवायती सबके लिए सबकुछ वाला फ्री साइज बजट उतना अहम नहीं है जितना कि उस बजट के भीतर छिपे कई छोटे छोटे बजट। देश इस दशकारंभ बजट को नहीं बलिक इसके भीतर छिपे बजटों को देखना चाहेगा, जहां घाटा बिल्कुल अलग किस्म का है।
ग्रोथ : रखरखाव का बजट
वित्त मंत्री को अब ग्रोथ की नहीं बलिक ग्रोथ के रखरखाव और गुणवत्ता की चिंता करनी है। बीस साल की आर्थिक वृद्धि ऊंची आय, असमानता, असंतुलन, निवेश, तेज उतपादन, भ्रष्टाचार, उपेक्षा, अवसर यानी सभी गुणों व दुर्गुणों के साथ मौजूद है। मांग के साथ महंगाई मौजूद है और आपूर्ति के साथ बुनियादी ढांचे की किल्लत लागत चौतरफा बढ़ रही है और ग्रोथ की दौड़ मे पिछड़ गए कुछ अहम क्षेत्र आर्थिक वृद्धि की टांग खींचने लगे हैं। कायदे से वित्त मंत्री को महंगाई से निबटने का बजट ठीक करते नजर आना चाहिए। महंगाई भारत की ग्रोथ कथा में खलनायक बनने वाली है। इस आफत को  टालने के लिए खेती को जगाना जरुरी है। यानी कि इस बजट को पूरी तरह

Monday, January 31, 2011

हम सब काले, कालिख वाले !


अर्थार्थ
कसठ का हो चुका गणतंत्र अपनी सबसे गहरी कालिख को देखकर शर्मिंदा है। सराहिये इस शर्मिंदगी को, यही तो वह काला (धन) दाग है जो हर आमो-खास के धतकरम, चवन्नी छाप रिश्वंतखोरी से लेकर कीर्तिमानी भ्रष्टाचार और हर किस्म के जरायम अपने अंदर समेट लेता है। यह धब्बा हर क्षण बढ़ता है महसूस होता है मगर नजर नहीं आता। सरकार की साख में अभूतपूर्व गिरावट के बीच काले धन की कालिख भी चमकने लगी है। दिल्ली से स्विटजरलैंड तक भारत के काले (धन) किस्से कहे सुने जा रहे हैं। वैसे अगर टैक्स हैवेन की पुरानी और रवायती बहस को छोड़ दिया जाता तो हकीकत यह है कि काली अर्थव्यवस्था हमारे संस्कार में भिद चुकी है। आर्थिक अपराध का यह अदृश्‍य चरम अब हम हिंदुस्ता्नियों की नंबर दो वाली आदत है। अर्थव्‍यवस्था इसकी चिकनाई पर घूमती है। टैक्सन हैवेन के रहस्यों पर सरकार का असमंजस लाजिमी है क्यों कि पिछले साठ वर्षों में इस कालिख के उत्पावदन को हर तरह से बढ़ावा दिया गया है। भारत में साल दर साल काले धन के धोबी घाट( मनी लॉड्रिंग के रास्ते ) बढ़ते चले गए हैं। काला धन हमारी मजबूर और मजबूत आर्थिक विरासत बन चुका है।
कालिख के कारखाने
अब टैक्स के डर से और काली कमाई कोई नहीं छिपाता बल्कि काले धन का उत्पादन सुविधा, स्‍वभाव और सु‍नोयजित व्यवस्था के तहत होता है। भारत कुछ ऐसे अजीबोगरीब ढंग से उदार हुआ है कि एनओसी, अप्रूवल, नाना प्रकार के फॉर्म, सार्टीफिकेट, डिपार्टमेंटल क्लियरेंस, इंस्पेक्शन रिपोर्ट, तरह तरह की फाइलों, दस्तावेजों, इंसपेक्टेर राज आदि से गुंथी बुनी सरकारी दुनिया में हर सरकारी दफ्तर एक प्रॉफिट सेंटर

Monday, January 24, 2011

टाइम बम पर बैठे हम

अर्थार्थ
र्थव्यथवस्था के डब्लूटीसी या ताज (होटल) को ढहाने के लिए किसी अल कायदा या लश्क र-ए-तैयबा की जरुरत नहीं हैं, आर्थिक ध्वंस हमेशा देशी बमों से होता है जिन्हें कुछ ताकतवर, लालची, भ्रष्टं या गलतियों के आदी लोगों एक छोटा का समूह बड़े जतन के साथ बनाता है और पूरे देश को उस बम पर बिठाकर घड़ी चला देता है। बड़ी उम्मीदों के साथ नए दशक में पहुंच रही भारतीय अर्थव्यवस्था भी कुछ बेहद भयानक और विध्वंसक टाइम बमों पर बैठी है। हम अचल संपत्ति यानी जमीन जायदाद के क्षेत्र में घोटालों की बारुदी सुरंगों पर कदम ताल कर रहे हैं। बैंक अपने अंधेरे कोनों में कई अनजाने संकट पाल रहे हैं और एक भीमकाय आबादी वाले देश में स्थांयी खाद्य संकट किसी बड़ी आपदा की शर्तिया गारंटी है। खाद्य आपूर्ति, अचल संपत्ति और बैंकिग अब फटे कि तब वाले स्थिति में है। तरह तरह के शोर में इन बमों की टिक टिक भले ही खो जाए लेकिन ग्रोथ की सोन चिडि़या को सबसे बड़ा खतरा इन्ही धमाकों से है।
जमीन में बारुद
वित्तीय तबाहियों का अंतरराष्ट्रीय इतिहास गवाह है कि अचल संपत्ति में बेसिर पैर के निवेश उद्यमिता और वित्तीय तंत्र की कब्रें बनाते हैं। भारत में येदुरप्पाओं, रामलिंग राजुओं से लेकर सेना सियासत, अभिनेता, अपराधी, व्यायपारी, विदेशी निवेशक तक पूरे समर्पण के साथ अर्थव्ययवस्था में यह बारुदी सुरंगे बिछा रहे हैं। मार्क ट्वेन का मजाक (जमीन खरीदो क्यों कि यह दोबारा नहीं बन सकती) भारत में समृद्ध होने का पहला प्रमाण है। भ्रष्ट राजनेता, रिश्वतखोर अफसर, नौदौलतिये कारोबारी, निर्यातक आयातक और माफिया ने पिछले एक दशक में जायदाद का

Monday, January 10, 2011

हमने कमाई महंगाई !

अर्थार्थ
पने खूब कमाया इसलिए महंगाई ने आपको नोच खाया !!...हजम हुई आपको वित्त मंत्री की सफाई ?...नहीं न? हो भी कैसे। हम ताजे इतिहास की सबसे लंबी और जिद्दी महंगाई का तीसरा साल पूरा कर रहे हैं और सरकार हमारे जखमों पर मिर्च मल रही है। हमारी भी खाल अब दरअसल मोटी जो चली है क्यों कि पिछले दो ढाई वर्षों में हमने हर रबी-खरीफ, होली-ईद, जाड़ा गर्मी बरसात, सूखा-बाढ़, आतंक-शांति, चुनाव-घोटाले और मंदी-तेजी महंगाई के काटों पर बैठ कर शांति से काट जो चुके है। वैसे हकीकत यह है कि उत्पादन व वितरण का पूरा तंत्र अब पीछे से आई महंगाई को आगे बांटने की आदत डाल चुका है। उत्पादक, निर्माता, व्यापारी और विक्रेता महंगाई से मुनाफे पर लट्टू हैं नतीजतन बेतहाशा मूल्य वृद्धि अब भारत के कारोबार स्थायी भाव है। यह सब इसलिए हुआ है क्यों कि पिछले दो वर्षों में अर्थव्यंवस्था के हर अहम व नाजुक पहलू पर बारीकी और नफासत के साथ महंगाई रोप दी गई है। कहीं यह काम सरकारों ने जानबूझकर किया और तो कहीं इसे बस चुपचाप हो जाने दिया है। लद गए वह दिन जब महंगाई मौसमी, आकस्मिक या आयातित ( पेट्रो मूल्य) होती थी अब महंगाई स्थायी, स्वाभाविक, सुगठित और व्यवस्थागत है। छत्तीस करोड़ अति‍ निर्धनों, इतने ही निर्धनों और बीस करोड़ निम्न मध्य‍मवर्ग वाले इस देश में कमाई से महंगाई बढ़ने का रहस्य तो सरकार ही बता सकती है आम लोग तो बस यही जानते हैं कि महंगाई उनकी कमाई खा रही है और लालची व्यापारियों व संवेदनहीन सत्ता तंत्र की कमाई की बढ़ाने के काम आ रही है।
कीमत बढ़ाने का कारोबार
महंगाई की सूक्ष्म कलाकारी को देखना जरुरी है क्यों कि निर्माता, व्यापारी और उपभोक्तां इसके टिकाऊ होने पर मुतमइन हैं। जिंस या उत्पाद को कुछ बेहतर कर उसका मूल्य यानी वैल्यूं एडीशन आर्थिक खूबी या सद्गुण है लेकिन किल्लत वाली अर्थव्यवस्‍थाओं में यह बुनियादी जिंसों की कमी कर देता है। भारत में खाद्य उत्पाद इसी दुष्‍चक्र के शिकार हो चले हैं क्यों कि बुनियादी जिंसों की पैदावार पहले ही मांग से बहुत कम है। संगठित रिटेल ने बहुतों को रोजगार और साफ सुथरी शॉपिंग का मौका भले ही दिया हो लेकिन वह इसके बदले वह

Monday, January 3, 2011

ग्रोथ की सोन चिडि़या

अर्थार्थ 2011
दुनिया अपने कंधे सिकोड़ कर और भौहें नचाकर अगर हमसे यह पूछे कि हमारे पास डॉलर है ! यूरो है ! विकसित होने का दर्जा है! बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं ! ताकत हैं! हथियार हैं! दबदबा है !!.... तुम्हा़रे पास क्या् है ??? ... तो भारत क्या कहेगा ? यही न कि कि (बतर्ज फिल्म दीवार) हमारे पास ग्रोथ है !!! भारत के इस जवाब पर दुनिया बगले झांकेगी क्यों कि हमारा यह संजीदा फख्र और सकुचता हुआ आत्मविश्वास बहुत ठोस है। ग्रोथ यानी आर्थिक विकास नाम की बेशकीमती और नायाब सोन चिडि़या अब भारत के आंगन में फुदक रही है। यह बेहद दुर्लभ पक्षी भारत की जवान (युवा कार्यशील आबादी) आबो-हवा और भरपूर बचत के स्वा्दिष्ट चुग्गे पर लट्टू है। विकास, युवा आबादी और बचत की यह रोशनी अगर ताजा दुनिया पर डाली जाए एक अनोखी उम्मीद चमक जाती है। अमेरिका यूरोप और जापान इसके लिए ही तो सब कुछ लुटाने को तैयार हैं क्यों कि तेज विकास उनका संग छोड़ चुका है, बचत की आदत छूट गई है और आबादी बुढ़ा ( खासतौर पर यूरोप) रही है। दूसरी तरफ भारत ग्रोथ, यूथ और सेविंग के अद्भुत रसायन को लेकर उदारीकरण के तीसरे दशक में प्रवेश

Monday, December 20, 2010

हमको भी ले डूबे !

अर्थार्थ
“तुम नर्क में जलो !! सत्यानाश हो तुम्हारा !! .दुनिया याद रखे कि तुमने कुछ भी अच्छा नहीं किया !!”....डबलिन में एंग्लो आयरिश बैंक के सामने चीखती एक बूढ़ी महिला के पोस्टर पर यह बददुआ लिखी है। ...बैंकों से नाराज लोगों का गुस्सा एक बड़ा सच बोल रहा है। बैंकों ने दुनिया का कितना भला किया यह तो पता नहीं मगर मुश्किलों की महागाथायें लिखने में इन्हे महारथ हासिल है। आधुनिक वित्तीय तंत्र का यह जोखिमपसंद, मनमाना और बिगड़ैल सदस्य दुनिया की हर वित्तीय त्रासदी का सूत्रधार या अभिनेता रहा है। बैंक हमेशा डूबे हैं और हमको यानी हमारे जैसे लाखों को भी ले डूबे हैं। इनके पाप बाद में सरकारों ने अपने बजट से बटोरे हैं। अमेरिका सिर्फ अपने बैंकों के कारण औंधे मुंह बैठ गया है। इन्हीं की मेहरबानी से यूरोप के कई देश दीवालिया होने की कगार पर हैं। इसलिए तमाम नियामक बैंकों को रासते पर लाने में जुट गए हैं। डरा हुआ यूरोप छह माह में दूसरी बार बैंकों को स्ट्रेस टेस्ट (जोखिम परीक्षण) से गुजारने जा रहा है। बैंकिंग उद्योग के लिए नए बेहद सख्त कानूनों से लेकर अंतरराष्ट्री य नियमों (बेसिल-तीन) की नई पीढ़ी भी तैयार है। मगर बैंक हैं कि मानते ही नहीं। अब तो भारत के बैंक भी प्रॉपर्टी बाजार (ताजा बैंक-बिल्डर घोटाला) में हाथ जलाने लगे हैं।
डूबने की फितरत
गिनती किसी भी तरफ से शुरु हो सकती है। चाहें आप पिछले दो साल में डूबे 315 अमेरिकी बैंकों और यूरोप में सरकारी दया पर घिसट रहे बैंकों को गिनें या फिर 19 वीं शताब्दी का विक्टोरियन बैंकिंग संकट खंगालें। हर कहानी में बैंक नाम एक चरित्र जरुर मौजूद है, खुद डूबना व सबको डुबाना जिसकी फितरत है। 1970 से लेकर 2007 तक दुनिया में 124 बैंकिंग संकट आए हैं और कई देशों में तो यह तबाही एक से ज्या दा बार

Monday, December 6, 2010

पर्दा जो उठ गया !

अर्थार्थ
रा देखिये तो शर्म से लाल हुए चेहरों की कैसी अंतरराष्ट्रीय नुमाइश चल रही है। अमेरिका से अरब तक और भारत से यूरोप तक मुंह छिपा रहे राजनयिकों ने नहीं सोचा था कि विकीलीक्स ( एक व्हिसिल ब्लोइंग वेबसाइट) सच की सीटी इतनी तेज बजायेगी कि कूटनीतिक रिश्तों पर बन आएगी। दुनिया के बैंक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर सब उनकी कारोबारी गोपनीयता को उघाड़ क्यों देना चाहते हैं। कहीं (भारत में) कारोबारी लामबंदी बनाम निजता बहस की गरम है क्यों कि कुछ फोन टेप कई बड़े लोगों को शर्मिंदा कर रहे हैं। अदालतें सरकारी फाइलों में घुस कर सच खंगाल रही हैं। पूरी दुनिया में पारदर्शिता के आग्रहों की एक नई पीढ़ी सक्रिय है, जो संवेदनशीलता, गोपनीयता,निजता की मान्यताओं को तकनीक के मूसल से कूट रही है और सच बताने के पारंपरिक जिम्मेंदारों को पीछे छोड़ रही है। कूटनीति, राजनीति, कारोबार सभी इसके निशाने पर हैं। कहे कोई कुछ भी मगर, घपलों, घोटालों, संस्थागत भ्रष्टाचार और दसियों तरह के झूठ से आजिज आम लोगों को यह दो टूक तेवर भा रहे हैं। दुनिया सोच रही है कि जब घोटाले इतने उम्दा किस्म के हो चले हैं तो फिर गोपनीयता के पैमाने पत्थर युग के क्यों हैं ?
खतरनाक गोपनीयता
ग्रीस की संप्रभु सरकार अपने कानूनों के तहत ही अपनी घाटे की गंदगी छिपा रही थी। पर्दा उठा तो ग्रीस ढह गया। ग्रीस के झूठ की कीमत चुकाई लाखों आम लोगों ने, जो पलक झपकते दीवालिया देश के नागरिक बन गए । यूरोप अमेरिका की वित्तीय संस्थामओं ने नीतियों के पर्दे में बैठकर तबाही रच दी। अमेरिका लेकर आयरलैंड तक आम लोग अपने बैंकों के दरवाजे पीट कर यही तो पूछ रहे हैं कि यह कैसी कारोबारी गोपनीयता थी जिसमें उनका सब कुछ लुट

Monday, November 29, 2010

नीतीश होने की मजबूरी

अर्थार्थ
वोटर रीझता है मगर सड़क से नहीं (जातीय) समीकरण से, विकास से नहीं (वोटों का) विभाजन से और काम से नहीं (व्यक्तित्व के) करिश्मे से! एक पराजित मुख्यमंत्री ने कुछ साल पहले ऐसा ही कहा था। यह हारे को हरिनाम था ? नहीं ! यह भारत में विकास की राजनीति के असफल होने का ईमानदार ऐलान था। नेता जी बज़ा फरमा रहे थे,भारत की सियासत तो जाति प्रमाण पत्रों की दीवानी है। विकास के सहारे बदलते आय (कमाई)प्रमाण पत्रों की होड़ उसे नहीं सुहाती। चुनावी गणित विकास के आंकड़ो से नहीं सधती, इसलिए ठोस आर्थिक विकास से सिंझाई गई राजनीति को हमने कभी चखा ही नहीं। भारत में सियासत अपनी लीक चलती है और विकास अपनी गति से ढुलकता है। सत्ता में पहुंच कर आर्थिक प्रगति दिखाने वालों का माल भी वोट की मंडी में कायदे से नहीं बिकता तो फिर विकास की राजनीति का जोखिम कौन ले? इसलिए आर्थिक विकास दलों के बुनियादी राजनीतिक दर्शन की परिधि पर टंगा रहता है। मगर इस बार कुछ हैरतअंगेज हुआ। जनता नेताओं से आगे निकल गई। पुरानी सियासत के अंधेरे में सर फोड़ती पार्टियों को, बिहार का गरीब गुरबा वोटर धकेल कर नई रोशनी में ले आया है। बिहार के नतीजे राजनीति को उसका बुनियादी दर्शन बदलने पर मजबूर कर रहे हैं। चौंकिये मत! राजनीति हमेशा मजबूरी में ही बदली है।
प्रयोग जारी है
भारत का प्रौढ़ लोकतंत्र,उदार अर्थव्यवस्था से रिश्ते को कई तरह से परख रहा है। पूरा देश राजनीतिक आर्थिक मॉडलों की विचित्र प्रयोगशाला है। राजनीतिक स्थिरता विकास की गारंटी है लेकिन बंगाल का वोटर अब विकास के लिए ही स्थिरता से निजात चाहता है। दूसरी तरफ लंबी राजनीतिक स्थिरता के सहारे राजस्थान चमक जाता है। गठजोड़ की सरकारें पंजाब में कोई उम्मीाद नहीं जगातीं लेकिन बिहार में वोटरों को भा जाती हैं। बड़े राज्यों में पहिया धीरे घूमता है मगर छोटे राज्य विकास का रॉकेट बनते भी नजर नहीं