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Friday, December 23, 2022

ये नहीं तो कुछ नहीं


 

 

यूरोप के देश कई हफ्तों से यही तो सुनने के लिए व्‍याकुल थे. अगस्‍त के आख‍िरी सप्‍ताह में जर्मनी ने एलान क‍र दिया कि पुतिन का ब्‍लैकमेल नहीं चलेगा. जर्मनी में गैस के 80 फीसदी भंडार भर चुके हैं. अगले साल तक रुस निर्भरता और खत्‍म हो जाएगी.

इस एलान के वक्‍त रुस ने जर्मनी को गैस ले जाने वाली नॉर्डस्‍ट्रीम पाइपलाइन से तीन दिन तक सप्‍लाई बंद कर दी थी. सितंबर के पहले सप्‍ताह में यह आपूर्ति पूरी तरह रोक दी गई. लेक‍िन इस बीच जर्मनी ने न केवल छह माह में अपनी ऊर्जा सुरक्षा का बंदोबस्त कर ल‍िया बल्‍क‍ि महंगाई थामने के लिए महंगी बिजली के बदलने लोगों को राहत देने का पैकेज भी तैयार कर लिया.

यूक्रेन पर रुस के हमले के बाद यूरोप ने रिपॉवर ईयू कार्यक्रम प्रारंभ किया था. जिसका मकसद 2027 तक रुस पर ऊर्जा निर्भरता खत्‍म करना था. एलएनजी का आयात इस कार्यक्रम का आधार था. ाीजभी जर्मनी के द बंदरगाहों विलहेल्‍मसहैवेन और ब्रूंसबुटल, यूरोप की इस नई ताकत का आधार हैं.

विलहेल्‍मसहैवेन यह शहर नॉर्थ सी खाड़ी में जर्मनी का प्रमुख डीप वाटर बंदरगाह है जो एम्‍स और वीजर नदियों की बीच जेड डेल्‍टा में स्‍थ‍ित है ब्रूंसबुटेल भी नॉर्थ सी में एल्‍ब नदी के मुहाने पर स्‍थित है. कील नहर दुनिया का सबसे व्‍यस्‍त मानवन‍िर्मित वाटरवे यानी जलमार्ग है.

यह दोनों ही जर्मनी में आयात‍ित एलएनजी के नए केंद्र हैं. यहां जर्मनी ने चार  floating storage and regasification units (FSRUs) लगाये हैं. इन्‍हे तैरते हुए गैस टर्मिनल समझ‍िये जहां तरल एलएएनजी जमा होती है और  उसे गैस में बदला जाता है. बूंसबुटेल के दूसरी तरफ यानी एल्‍ब नदी के पास हैम्‍बर्ग के करीब पोर्ट ऑफ स्‍टेड में भी ठीक इसी तरह के टर्मिनल बन रहे हैं .बाल्‍ट‍िक तट पर ल्‍युबम‍िन में भी तैरते हुए गैस टर्मिनल एलएनजी जमा करेंगे.

एलएनजी आयात की क्षमतायें बढ़ाकर जर्मनल ने रिपॉवर ईयू

2021 में जर्मनी की जरुरत की 55 फीसदी गैस रुस से आती थी जो इस साल जून में घटकर 26 फीसदी रह गया. अब जर्मनी अगले साल तक रुस पर निर्भरता पूरी तरह खत्‍म करने की तरफ बढ़ गया है.

यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था जर्मनी की गैस में बढ़ती आत्‍मनिर्भरता यूरोप के लिए ठीक वैसा ही अवसर है जैसा कि 1970 में अमेरिका में हुआ था जब इजरायल अरब युद्ध में, इज़रायल के समर्थन पर अरब देशों ने अमेरिका का तेल का निर्यात बंद कर दिया था. इसके बाद अमेरिका ने नए ऊर्जा स्रोतों, शेल और गैस में निवेश किया. यही गैस आज पुतिन के ब्‍लैकमेल को जवाब देने के लिए यूरोप के काम भी आ रही है.

 

भारत की ऊर्जा पहेली

लौटते हैं अपने मुल्‍क की तरफ

यूरोप पूरा घटनाक्रम भारत के लिए कई जरुरी नसीहतों से लबरेज़ है. प्रधानमंत्री ने इस साल स्‍वाधीनता दिवस पर अपने संबोधन में ऊर्जा आत्‍मनिर्भरता की हुंकार लगाई. हालांकि बात उन्‍होंने इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों के संदर्भ में की थी. इससे ज्‍यादा कुछ कहना मुश्‍कि‍ल भी था क्‍यों कि 2022 भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए सबसे निराशाजनक या कहें कि अपशकुनी साल बन गया है.

यह साल ऊर्जा की संसाधनों की खौलती कीमतों के बीच  भारत ऊर्जा सुरक्षा के कमजोर होते जाने का है. सैकड़ों सुर्ख‍ियों के बीच क्‍या हमें याद है कि 2015 में सरकार ने तय किया था आयात‍ित कच्‍चे तेल पर निर्भरता को 2022 में दस फीसदी घटा दिया जाएगा. 2022 की वह साल भी है जब भारत थर्मल कोल यानी बिजली के लिए कोयले के आयात बंद करने का एलान कर चुका था. यह एलान बीते बरस कोयला मंत्रालय के एक चिंतन श‍िविर में हुआ था, जो गुजरात के केवड़‍िया में आयोजित किया गया था.

कोयले और तेल के साथ नेचुरल गैस की आपूर्ति भी घट रही है.

सनद रहे कि भारत की ऊर्जा सुरक्षा केवल रुस यूक्रेन युद्ध के कारण मुश्‍क‍िल में नहीं आई यहां तो मुसीबत पुरानी है और लंबी लंबी बातों के बीच उत्‍पादन में गिरावट बढ़ती गई है इधर लीथि‍यम, बैटरी, तकनीक, सोलर सेल्‍स और हाइड्रोजन फ्यूल के आयात पर निर्भरता के बाद पूरा ऊर्जा क्षेत्र भी आयात का मोहताज हो गया है जो विदेशी मुद्रा भंडार के ल‍िए किसी संकट की पदचाप है.

 

सबसे पहले देखते हैं कच्‍चे तेल की तरफ .. जहां कुछ चाहते थे कुछ और ही हो गया है.

 

तेल में यह क्‍या हुआ

इस साल अप्रैल से अगस्‍त के बीच भारत में कच्‍चे तेल के आयात का बिल करीब 99 अरब डॉलर पर पहुंच गया. इससे पहले मार्च 2022 तक भारत का तेल आयात 2021 के मुकाबले दोगुना बढ़कर 119 अरब डॉलर हो गया था.

यदि हम इसे रुस यूक्रेन युद्ध के कारण तेल की कीमतों में लगी का आग का असर मानते हैं तो दरसअल यह रेत में सर डाल देने जैसा है.

2015 में सरकार ने लक्ष्‍य रखा था कि 2022 तक तेल आयात पर भारत की निर्भरता 87 फीसदी से घटाकर 77 फीसदी और 2030 तक 50 फीसदी कर दी जाएगी. लेक‍िन हुआ इसका उलटा. 2015 से तेल आयात पर भारत की निर्भरता बढ़ने लगी. सरकार के पेट्रोल‍ियम प्‍लानिंग एंड एनाल‍िसिस सेल के आंकड़ो के अनुसार जून 2022 में भारत अपनी जरुरत का  87 फीसदी तेल आयात करने लगा. वह भी इतनी ऊंची कीमतों पर .

 

अब आइये आपको भारत की ऊर्जा सुरक्षा के खलनायक से मिलवाते हैं. भारत में कच्‍चे तेल का घरेलू उत्‍पादन वित्‍त वर्ष 2022 में 28 साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर आ गया.

भारत में बुनियादी उद्योगों का एक सूचकांक है जिसमें मासिक आधार पर तेल, कोयला, स्‍टील, बिजली आदि उद्योगों के उत्‍पादन वृद्धि का आकलन किया जाता है. इस सूचकांक के आधार पर बीते चार बरस से भारत का कच्‍चा तेल उत्‍पादन लगातार गिर रहा है.

ओएनजीसी सबसे बड़ा खलनायक है. दूसरी सरकारी कंपनी ऑयर इंडिया है. इन दोनों पर घरेलू उत्‍पादन का दारोमदार है. इनका उत्‍पादन लगातार गिर रहा है. ओएनजीसी में तेल उत्‍पादन का बुरा हाल है.  कंपनी का तेल उत्‍पादन बीते चार साल में करीब 10 से 16 फीसदी गिरा है. नए रिजर्व जोड़ने की रफ्तार करीब 35 फीसदी टूटी है. देश की शीर्ष तेल खोज कंपनी अपने पूंजी खर्च का इस्‍तेमाल भी नहीं कर पा रही है.

 

सरकार कंपन‍ियां ही नहीं निजी क्षेत्र के घरेलू कच्‍चे तेल उत्‍पादन में भी गिरावट आ रही है. भारत के तेल कुएं सूख रहे हैं. ड्राइ वेल्‍स सबसे बड़ी समस्‍या हैं. तेल की खोज में निवेश नहीं हुआ है इसलिए जितने भंडार थे वह निचोड़े जा चुके हैं. नए भंडार उपलब्‍ध नहीं हैं. अगर आप अपने ज़हन पर जोर डालकर बीते वर्षों में आई तेल खोज नीति यानी एनईएलपी और एचईएलपी की याद कर पूछना चाहते हैं कि उनसे क्‍या नए स्रोत नहीं मिले? तो आपको पता चले कि यह नीतियां असफलता का सबसे बड़ा स्‍मारक बन चुकी हैं

1999 से 2016 तक तेल ब्‍लॉक आवंटन की कोश‍िशें लगभग असफल रहीं. कोई बड़ी विदेशी कंपनी आई नहीं और जिन कंपन‍ियों ने लाइसेंस ल‍िये भी वह ब्‍लॉक छोड़कर निकल गईं. 2018 की तेल खोज लाइसेंस नीति में 127 ब्‍लॉक आवंट‍ित हुए हैं उत्‍पादन किसी में नहीं हो रहा है.

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी का आकलन है कि इलेक्‍ट्रि‍क वाहनों के आने बावजूद 2040 तक भारत में क्रूड ऑयल की मांग कम से 7 मिल‍ियन बैरल प्रत‍िद‍िन के हिसाब से बढ़ेगी.

आप खुद अंदाज लगा सकते हैं कि लगातार महंगे कच्‍चे तेल की बीत भारत की तेल आत्‍मनिर्भरता का क्‍या हश्र होने वाला है.

 

कोयले की ट्रेजडी

भारत इस साल करीब 76 मिल‍ियन टन कोयला आयात करेगा. जो बीते कई वर्षों का रिकार्ड है. भारत की 90 फीसदी बिजली थर्मल यानी कोयला आधारित है. इस साल कोयले का आयात करीब 40 फीसदी बढ़ा है. यह आयात बीते कई बरसों में कोयले की सबसे महंगी कीमत पर होगा. 

कोयले की त्रासदी, क्रूड ऑयल से ज्‍यादा दर्दनाक है. भारत दुनिया का दूसरा सबसे कोयला खनन वाला देश है. पांचवा सबसे बड़ा कोयला भंडार है. बीते साल अक्‍टूबर में सरकार ने दावा किया कि कोयला उत्‍पादन बढ़ रहा है. इस साल यानी 2022 से थर्मल कोल का आयात बंद हो जाएगा लेक‍िन इस साल पूरी आपूर्ति चरमरा गई. जनवरी के बाद बिजली घर बंद होने लगे. सरकार को न केवल कोयला आयात को बढ़ावा  देना पड़ा बल्‍क‍ि देश की सबसे बड़ी कोयला उत्‍पादक कंपनी कोल इंड‍िया खुद ही इंपोर्टर होगई.

कोयले में समस्‍या उत्‍पादन की ही नहीं बल्‍क‍ि आपूर्ति और ि‍बजली घरों तक कोयला पहुंचाने की भी है. कोल इंडिया को अगले एक साल कोयला ढुलाई की क्षमताओं मसलन रेल लाइन, ढुलाई तकनीक में करीब 14000 करोड़ रुपये का निवेश करना होगा

कोल इंडिया मांग का 80 फीसदी कोयला उत्‍पादन करती है लेक‍िन कंपनी का निवेश नहीं बढ़ा है. नई खदानों को खोलने का काम पिछड़ा है. करीब 39 खदानें लंबित मंजूर‍ियों की वजह से अधर में हैं. बीते पांच बरस में कोयला खदानों के निजीकरण कोश‍िश भी सफल नहीं हुई. कोयला नीति में बड़े बदलावों के बाद 2020 में करीब 40 खदानों को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया था मगर नि‍वेश नहीं आया. हाल के कोयला संकट के बाद कोल इंड‍िया ने बंद पड़ी खदानों के निजीकरण की तैयारी की थी मगर बाजार से कोई उत्‍सुकता नहीं दिखी.

गैस तो है ही नहीं

पूरी दुनिया में नेचुरल गैस की ले दे मची है. रुस यूक्रेन युद्ध के बाद यूरोप से लेकर चीन तक गैस की आपूर्ति बढ़ाने के नए उपायों की होड़ है. नेचुरल गैस भविष्‍य का ईंधन है सुरक्षि‍त और सस्‍ता. रिकार्ड तेजी है कीमतों में.

भारत में ऊर्जा की चर्चायें तेल से आगे नहीं निकलती,  नेचुरल गैस पर चर्चा केवल सीएनजी की कीमतें बढ़ने की वजह से होती है.

नेचुरल गैस भी सरकारों के कुछ कहने और कुछ होने का प्रमाण है. सरकार ने यह लक्ष्‍य रखा था कि भारत की ऊर्जा आपूर्ति में गैस का हिस्‍सा 2030 तक आज के 6.4 फीसदी  से बढ़ाकर 15% किया जाएगा.

अलबत्‍ता बीते एक दशक में भारत में नेचुरल गैस का उत्‍पादन लगातार गिर रहा है. 2013 में यह 39 एमएमएससीएम था जो अब 33 एमएमएससीएम है जबकि मांग दोगुानी बढ़कर 63MMSCM पर पहुंच गई. यहां भी उत्‍पादन की खलनायक ओनएनजीसी है जो करीब 61 फीसदी उत्‍पादन करती है.

आयात पर निर्भरता बढ़ रही है क्‍यों कि उर्वरक, बिजली, परिवहन और घरेलू आपूर्ति की मांग सालाना करीब 10 फीसदी की गति से बढ रही है. मांग की आधी गैस आयात होती है. रुस यूक्रेन युद्ध और दुनिया में गैस की कीमतें बढ़ने के बाद भारत की प्रमुख गैस कंपनी को आयात में दिक्‍कत होने लगी. रुस की कंपनी गैजप्रॉम आपूर्ति का प्रमुख स्रोत थी जिस पर प्रत‍िबंध लगा हुआ है.

भारत में एलएनजी टर्मिनल हैं लेक‍िन गैस नहीं है. बीते बरस इन टर्मिनल की केवल 59 फीसदी क्षमता का उपयोग हो सका था. एलएनजी आयात की लागत बढ़ रही है. कीमतों को लेकर तस्‍वीर साफ नहीं होती क्‍येां कि सरकार हर छह माह में कीमतों पर फैसला करती है इसलिए आयात भी कम है.

 

भारत में नए एलएनजी टर्म‍िनल बन रहे हैं. जिनमें बैकों का बड़ा निवेश फंसा है लेक‍िन गैस कहां से आएगी इसकी यह पता नहीं है. यूरोप में गैस की मांग बढ़ने के बाद मध्‍य पूर्व ने अपनी आपूर्ति यूरोप की तरफ मोड़ दी है, भारत को नए स्रोत नहीं मिल रहे हैं

 

नए चुनौतियां

भारत की इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों की फैशनेबल चर्चाओं से गुलजार है. हाइड्रोजन और सोलर ऊर्जा की उडाने हैं. बैटरी को लेकर भारत के पास कच्‍चा माल और तकनीक दोनों नहीं है. जबकि बैटरी के ईंधन जैसे लीथि‍यम, कोबाल्‍ट की कीमतें बढ रही हैं. बैटरी तकनीक का आयात ही एक रास्‍ता है. भारत इस साल करीब 13000 करोड़ रुपये के लीथियम का इंपोर्ट करेगा.

यह है सबसे कठिन पहेली

अगले 25 वर्षों में विकस‍ित देश बनने के लक्ष्‍य रखने वाले शायद ऊर्जा सुरक्षा पर बात करने से कतराते हैं. यह भारत की विकास की कोश‍िशों का सबसे बड़ा गर्त है.

ऊर्जा के आइने में आत्‍मनिर्भरता को तो छोड़ि‍ये और छोड़‍िये ग्रोथ की छलांग को यहां तो एक कामचलाऊ विकास दर के लिए भी सस्‍ती ऊर्जा का टोटा होने वाला है.

भारत  दो राहे पर है.

लाख कोश‍िशों के बावजूद भौगोलिक तौर पर भारत के पास बड़े ऊर्जा स्रोत नहीं हैं, चाहे तेल गैस हो या बैटरी खनिज. इसे आयात से ही काम चलेगा. जहां कीमतें नई ऊंचाई पर हैं. कार्टेल हैं और सस्‍ता होने की गुंजायश नहीं है. ऊपर से टूटता घरेलू मुद्रा आयात महंगा करती जाएगाी

दूसरी तरफ बिजल और बिजली चलित वाहनों के लिए कोयला है लेक‍िन तो उसकी निकासी, आपूर्ति पर भारी निवेश चाहिए. इसके बाद पर्यावरण के ल‍िए सुरक्ष‍ित बनाना होगा जो बहुत महंगा सौदा है.

भारत की सरकारें फिलहाल तात्‍कालिक उपायों या सपनों उड़ान में लगी हैं. ऊर्जा सुरक्षा की पूरी नीति पर नये सिरे से तैयारी चाहिए. हम आज के यूरोप या 1970 के अमेरिका से सीख सकते हैं सनद रहे भारत के आर्थ‍िक विकास की गति में स्‍थायी ऊर्जा महंगाई का पत्‍थर बंध चुका है. यह हमें दौड़ने तो दूर तेज चलने भी नहीं देगा.

Sunday, November 13, 2022

महंगाई ज्‍यादा बुरी है या मंदी ?


 

 

  

एक्‍शन सिनेमा के शौकीन 2009 की फिल्‍म वाचमेन को नहीं भूल सकते.  यह दुविधा और असमंजस का सबसे रोमांचक फिल्‍मांकन है 1980 का दशक अमेरिका में कॉमिक्‍स के दीवानेपन का दौर था. लोग ब्रिट‍िश कॉमिक लेखक एलन मूर के दीवाने थे जिन्‍होंने कॉमिक्‍स की दुनिया को कुछ सबसे मशूर चरित्र दिये. यह मूवी एलन मूर की प्रख्‍यात कॉमिक्‍स वाचमेन पर आधारित थी जिसे फिल्‍म हालीवुड के स्‍टार एक्‍शन फिल्‍म प्रोड्यूसर लॉरेंस गॉर्डन ने बनाया था जो ब्रूस विलिस की एतिहा‍स‍िक फिल्‍म डाइ हार्ड के निर्माता भी थे.

वाचमेन मूवी का खलनायक ओजिमैंड‍ियास कुछ एसा करता है जिसे सही ठहराना जितना मुश्‍क‍िल है. वह गुड विलेन है यानी अच्‍छा खलनायक. उतना ही उसे गलत ठहराना. विज्ञान, न्‍यूक्‍लियर वार और एक्‍शन पर केंद्रित इस मूवी में मानव जाति‍ को नाभिकीय तबाही से बचाने के लिए ओजिमैंड‍ियास दुनिया के अलग हिस्‍सों में बड़ी तबाही बरपा करता है और नाभिकीय हमला टल जाता है. इस मूवी का प्रसि‍द्ध संवाद नाइट आउल और ओजिमैंडिआस के बीच है.

नाइट आउल - तुमने लाखों को मरवा दिया

ओजिमैंडिआस अरबों लोगों को बचाने के लिए

केंद्रीय बैंक यानी गुड विलेन

दुनिया के केंद्रीय बैंक भी गुड विलेन बन गए हैं. उन्‍होंने महंगाई को मारने के लिए ग्रोथ को मार दिया है. यानी मंदी बुला ली है.

लेक‍िन क्‍या उन्‍होंने सही किया है.

कैसे तय हो कि  महंगाई ज्‍यादा बुरी शय है या मंदी ज्‍यादा बुरी बला?

तो अब हम आपको सीधे बहस के बीचो बीच ले चलते हैं इसके बाद तो फिर  जाकी रही भावना जैसी

महंगाई सबसे बड़ी बुराई

इत‍िहास गवाह है कि महंगाई आते ही मौद्रिक नियामकों के तेवर बदल जाते है. हर कीमत पर अर्थव्‍यवस्‍था की ग्रोथ में सस्‍ते कर्ज का ईंधन डालने वालने बैंकर बला के क्रूर हो जाते हैं. यूरोप को देख‍िये मंदी न आए यह तय करने के लिए बीते एक दशक से ब्‍याज दर शून्‍य पर रखी गई लेक‍िन अब महंगाई भड़की तो मंदी का डर का खत्‍म हो गया.

यूरोप और अमेरिका जहां वित्‍तीय निवेश की संस्‍कृति भारत से ज्‍यादा मजबूत है वहां महंगाई के खतरे के प्रति गहरा आग्रह है. मंदी को उतना बुरा नहीं माना जाता. महंगाई का खौफ इसलिए बड़ा है क्‍यों कि वेतनों में बढ़ोत्‍तरी की गति सीमित रहती है. इसलिए जब भी कीमतें बढ़ती हैं जो जिंदगी जीने की लागत बढ़ जाती है. खासतौर पर उनके लिए जिनकी आय सीम‍ित है

हमारे पास जो भी है और उसकी जो भी कीमत है, महंगाई उस मूल्‍य को कम कर देती है. लोग याद करते हैं कि 1970 की महंगाई ने अमेरिका के लोगों को क्रय शक्‍ति (पर्चेज‍िंग पॉवर) का नुकसान 1930 की महामंदी से ज्‍यादा था.

महंगाई को मंदी के मुकाबले ज्‍यादा घातक यूं भी कहा जाता क्‍यों ि‍क यह पेंशनर और युवाओं दोनों को मारती है. जिंदगी जीने के लागत बढ़ने से युवाओं की बचत का मूल्‍य घटता है जो उनके सपनों पर भारी पड़ता है जैसे कि अगर कोई तीन साल बाद मकान लेना चाहता है तो महंगाई से उसकी लागत बढ़ाकर उसे पहुंच से बाहर कर दिया. इधर ब्‍याज या पेंशन पर गुजारा करने वाले रिटायर्ड की सीम‍ित आय महंगाई के सामने पानी भरती है.

महंगाई बचत की दुश्‍मन है और बचत टूटने से अर्थव्‍यवस्‍था का भविष्‍य संकट में पड़ता है अलबत्‍ता सरकारों को महंगाई से फर्क नहीं पड़ता क्‍यों कि आज के खर्च के लिए वह जो कर्ज दे रहें उसे आगे कमजोर मुद्रा में चुकाना होता है लेक‍िन न‍िवेशकों और उद्योगों की मुश्‍किल पेचीदा हो जाती है.

सरकारें मंदी से नहीं महंगाई से डरती हैं क्‍यों? 

महंगाई के बीच यह तय करना मुश्‍क‍िल होता है कि किसकी मांग बढ़ेगी और किसकी कम होगी. मांग आपूर्ति का पूरा गणित ध्‍वस्‍त! एसे में निवेशक और उद्योग गलत जगह निवेश कर बैठते हैं जिनमें महंगाई के बाद मांग टूट जाती है.

महंगाई खुद को ही ताकत देती है. कीमत बढ़ने से डर से लोग जरुरत से ज्‍यादा खरीदते हैं. बाजार में पूंजी ज्‍यादा हो तो महंगाई को और ईंधन. यही वजह है कि बैंक पूंजी की प्रवाह सिकोड़ते हैं.

पूरी दुनिया की सरकारें महंगाई को संभालने में मंदी से ज्‍यादा मेहनत इसल‍िए करती हैं कि महंगाई बढ़ते ही वेतन बढ़ाने का दबाव बनता है. इस वक्‍त यूरोप और लैटिन अमेरिका में यही हो रहा है. 1970 में महंगाई के दबाव कंपनियों को वेतन बढ़ाने पड़े और स्‍टैगफ्लेशन आ गई.

स्‍टैगफ्लेशन यानी उत्‍पादन में गिरावट और महंगाई दोनों एक साथ होना सबसे बुरी बला है. मंदी से ज्‍यादा बुरी बला क्‍यों कि नियामक मानत‍े हैं कि मंदी लंबी नहीं चलती. हाल के दशकों में तो यह एक दो साल से ज्‍यादा उम्रदराज नहीं होती.

 

कर्ज महंगा होने से संपत्‍त‍ियों की कीमत टूटती हैं और अंतत: अर्थव्‍यवस्‍था में कम कीमत पर नई खरीद आती है. मंदी से रोजगारों पर असर पड़ता है लेक‍िन महंगाई को सबसे बुरी बला मानने वाले कहते हैं कि वह अस्‍थायी है. महंगाई में नए रोजगार नहीं आते और जो हैं उनकी कमाई घटती जाती हैं

बैंकर यह मानते हैं कि मंदी दूर सकती है लेक‍िन महंगाई एक बार लंबी हो जाए तो फिर मुश्‍क‍िल से काबू आती है क्‍यों कि इसके बढ़ते जाने की धारणा इसे ताकत देती है. यह वजह है कि पूरा नियामक समुदाय महंगाई का लक्ष्‍य तय करता है और इसके बढ़ने पर हर कीमत पर इसे रोकने लगता है.

मंदी ज्‍यादा बुरी है

मंदी के पक्ष में भी तर्क कम नहीं है

2007 के बाद वाली मंदी, से हुआ नुकसान महंगाई की तुलना में कहीं ज्‍यादा है. तभी तो शेयर न‍िवेशक जो कर्ज महंगा करने वाले केंद्रीय बैंकों को बिसूर रहे हैं.

यह धारणा गलत है कि महंगाई पूरी अर्थव्‍यवस्‍था को प्रभाव‍ित करती है जबकि मंदी अस्‍थायी तौर पर केवल रोजगारों में कमी करती है. उनका तर्क है कि मंदी पूरी अर्थव्‍यवस्‍था में कमाई कम कर देती है. सभी संसाधनों मसलन पूंजी, श्रम आदि का इस्‍तेमाल क्षमता से कम हो जाता है. 2007 से 2009 की मंदी के दौरान दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था को करीब 20 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ जो पूरी दुन‍िया के एक साल के कुल आर्थ‍िक उत्‍पादन से ज्‍यादा था. उसके बाद दुनिया की विकास दर में कभी पहले जैसी तेजी नहीं आई.

महंगाई से कहां कम होती कमाई ?  

महंगाई रोकने के लिए बैंकों कर्ज महंगा करो मुहिम के खिलाफ यह तर्क दिये जा रहे हैं कि महंगाई सकल आय (सभी कारकों को मिलाकर) कम नहीं करती. एक व्‍यक्‍ति की बढी हुई लागत दूसरे की इनकम है भाई. कच्‍चा तेल महंगा हुआ तो कंपनियों की आय बढ़ी. कीमतें बढती हैं तो किसी न किसी की आय भी तो बढती है. यह आय का पुर्नव‍ितरण है. जैसे महंगाई के साथ कंपनियों की बढ़ती कमाई और उस पर शेयर धारकों का बेहतर रिटर्न. अरे महंगाई से तो राष्‍ट्रीय आय बढती है क्‍यों कि सरकारों का टैक्‍स संग्रह ज्‍यादा होता है.

महंगाई न हो तो इनकम का यह नया बंटवारा करेगा कौन? कुछ लोगों को लगता है कि महंगाई की तुलना में वेतन मजदूरी की वृद्ध‍ि दर कम है लेक‍िन जैसे ही मंदी के वजह रेाजगार घटती है वेतन बढ़ोत्‍तरी के बजाय कमी होने लगती है क्‍यों कि ज्‍यादा लोग बाजार में काम मांग रहे होते हैं. दरअसल मंदी को न केवल बेकारी लाती है बल्‍क‍ि जो काम पर है उनकी कमाई की संभावना को भी सीमित कर देती है.

मंदी से ज्‍यादा बुरा बताने वाले कहते हैं कि केंद्रीय बैंकों को एकदम ब्‍याज दरों में तेज बढ़त नहीं करनी चाहिए बल्‍क‍ि महंगाई को धीरे धीरे ठंडा होने देना चाहिए. क्‍यों कि इतिहास बताता है कि महंगाई घाव तात्‍कालिक होते हैं मंदी का घाव वर्षों नहीं भरता.

 

महंगाई और मंदी के बीच चुनाव जरा मुश्‍क‍िल है ?

पुराने अर्थशास्‍त्री  महंगाई के राजनीतिक अर्थशास्‍त्र एक सूत्र बताते हैं

दरअसल बीते डेढ दशक में दुनिया में महंगाई नहीं आई. सस्‍ते कर्ज के सहारे समृद्ध लोगों ने खूब कमाई की. स्‍टार्ट अप से लेकर शेयर तक धुआंधार निवेश किया. यही वह दौर था जब दुनिया में आय असमानता सबसे तेजी से बढी.

 

 

 

 

इस असमानता कम करने के दो ही तरीकें या तो वेतन बढ़ाये जाएं अध‍िकांश लोगों की आय बढ़े, जो अभी संभव नहीं है तो फिर दूसरा तरीका है कि शेयर, अचल संपत्‍ति‍, सोना जैसी संपत्‍त‍ियां जहां ससती पूंजी लगाई गई है उनकी कीमतों में कमी हो ताकि असमानता दूर हो सके.

महंगाई इन संपत्‍ति‍यों कीमत करती है और इसलि‍ए निवेशकों को सबसे ज्‍यादा नुकसान होता है. अब आप चाहें तो कह सकते कि केंद्रीय बैंक दरअसल महंगाई कम कर के दरअसल निवेशकों को हो रहा नुकसान कम करना चाहते हैं. दूसरा पहलू यह भी होगा कि इस कमी से आम लोगों की कमाई में परोक्ष कमी भी तो बचेगी.

 

भारत को महंगाई और आर्थ‍िक सुस्‍ती दोनों साथ लंबा वक्‍त गुजारने का तजुर्बा है लेक‍िन इस बहस में आप तय कीजिये महंगाई ज्‍यादा बुरी है या मंदी


Friday, October 21, 2022

क‍िंग कोल की वापसी


साल 1306 ब्रिटेन की गर्म‍ियां. नाइट्स, बैरन्‍स बिशप्‍स
यानी ब्रिटेन के सामंत गांवों में मौजूद अपनी रियासत और किलों से दूर लंदन आए थे. जहां संसद का पहला प्रयोग हो रहा था.

सामंतों का स्‍वागत किया लंदन की आबोहवा में घुली एक अजीब सी गंध ने. एक तीखी चटपटी सी महक जो नाक से होकर गले तक जा रही थी

यह गंध कोयले की थी.

उस वक्‍त तक लंदन के कारीगर लकड़ी छोड़ कर एक काले पत्‍थर को जलाने लगे थे.

सामंतों ने  धुआं धक्‍कड़ का विरोध व‍िरोध किया तो सम्राट एडवर्ड कोयले इस्‍तेमाल रोक दिया. पाबंदी ने बहुत असर नहीं कि‍या. तो सख्‍ती हुई जुर्माने लगे, फर्नेस तोड़ दी गईं.

 

मगर वक्‍त कोयले के साथ था. 1500 में ब्रिटेन में ऊर्जा की क‍िल्‍लत हो गई. ब्रिटेन दुनिया का पहला देश हो गया जहां कोयले का संगठित और व्‍यापक खनन शुरु हुआ. पहली औद्योगिक क्रांति कोयले के धुंए में लिपट धरती पर आई.

करीब 521 साल बाद दुनिया को फिर कोयले के धुएं से तकलीफ महसूस हुई. धुआं-धुआं आबोहवा पृथ्‍वी का तापमान बढ़ाकर विनाश कर रही थी.  

नवंबर 2021 में ग्‍लासगो में दुनिया की जुटान में तय हुआ कि 2030 तक विकस‍ित देश और 2040 तक विकासशील देश कोयले का इस्‍तेमाल बंद कर देंगे. इसके बाद थर्मल पॉवर यानी कोयले वाली बिजली नहीं होगी.

भारत-चीन राजी नहीं थे मगर 40 देशों ने कोयले से तौबा कर ली. 20 देशों ने यह भी तय किया कि 2022 के अंत से कोयले से बिजली वाली परियोजनाओं वित्‍त पोषण यानी कर्ज आदि बंद हो जाएगा. बैंकरों में  मुनादी पिट गई. नई खदानों पर काम रुक गया.

एंग्‍लो आस्‍ट्रेल‍ियन माइन‍िंग दिग्‍गज रिओ टिंटो ने आस्‍ट्रेल‍िया की अपनी खदान में 80 फीसदी हिस्‍सेदार बेच कर कोयले को श्रद्धांजलि की कारोबारी रजिस्‍ट्री कर दी थी.

लौट आया काला सम्राट  

कोयला मरा नहीं.

फंतासी नायक या भारतीय दोपहर‍िया टीवी सीरियलों के हीरो के तरह वापस लौट आया. पुतिन ने यूक्रेन पर हमला कर दुनिया की ऊर्जा योजनाओं को काले सागर में डुबा दिया. पर्यावरण की सुरक्षा के वादे और दावे पीछे छूट गए. पूरी दुनिया कोयला लेने दौड़ पड़ी है. सबसे आगे वे ही हैं जो कोयले का युग बीतने की दावत बांट रहे थे

दुनिया की करीब 37 फीसदी बिजली कोयले से आती है इस‍का क्षमता का अध‍िकांश हिस्‍सा यूरोप से बाहर स्‍थापित था. यूरोस्‍टैट के आंकड़ों के मुताबिक 2019 तक यूरोप की अपनी केवल 20 फीसदी ऊर्जा के लिए कोयले का मोहताज था. बाकी ऊर्जा सुरक्षित स्रोतों और गैस से आती थी.

यूरोप 2025 तक अपने अध‍िकांश कोयला बिजली संयंत्र खत्‍म करने वाला था लेक‍िन अब रुस की गैस न मिलने के बाद बाद आस्‍ट्र‍िया जर्मनी इटली और नीदरलैंड ने अपने पुराने कोयला संयंत्र शुरु करने का एलान किया है.

इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी (आईईए)  ने बताया है कि यूरोपीय समुदाय में कोयले की खपत 2022 में करीब 7 फीसदी बढ़ेगी जो 2021 में 14 फीसदी बढ़ चुकी है. पूरी दुनिया में कोयले की खपत इस साल यानी 2022 में 8 बिल‍ियन टन हो जाएगी जो 2013 की रिकार्ड खपत के बराबर है.

कोयले की कीमत भी चमक उठी है. इस मई में यह 400 डॉलर प्रति टन के रिकार्ड स्‍तर पर को छू गई.

माइन‍िंग डॉट कॉम और इन्‍फोरिसोर्स ने बताया कि विश्‍व के ताजा खनन न‍िवेश में कोयले अब तांबे से आगे है 2022-23 में करीब 81 अरब डॉलर की 1863 कोयला परियोजनायें सक्रिय हैं 2022 के जून तक दुनिया की कोल सप्‍लाई चेन में निवेश रिकार्ड 115 अरब डॉलर पर पहुंच गया था इसके बड़ा हिस्‍सा चीन का है.

दुनिया के बैंकर और कंपन‍ियां कोयले को पूंजी दे रहे हैं. इंडोनेश‍िया दुनिया सबसे बड़ा न‍िर्यातक और पांचवा सबसे बड़ा कोयला उत्‍पादक है यहां के माइनिंग उद्योग को सिटी ग्रुप, बीएनपी पारिबा, स्‍टैंडर्ड एंड चार्टर्ड का कर्ज जनवरी 2022 में 27 फीसदी बढ़ा है. एश‍िया की कोयला जरुरतों के लि‍हाज से इंडोनेश‍िया सबसे बड़ा सप्‍लायर है.

अमेरिका कोयले का स्‍व‍िंग उत्‍पादक है. बीते बरस चीन ने आस्‍ट्रेल‍िया से कोयला आयात पर रोक लगाई थी उसके बाद अमेरिका का कोयला निर्यात करीब 26 फीसदी बढ़ा है..

 

भारत और चीन की बेचैनी

 

रुस, इंडोनेशिया और आस्‍ट्रेल‍िया कोयले सबसे बड़े निर्यातक है इनके बाद दक्षि‍ण अफ्रीका और कनाडा आते हैं. चीन, जापान और भारत से सबसे बड़े आयातक हैं अब यूरोप भी इस कतार में शामिल होने जा रहा है. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी बता रही है भारत और चीन की मांग ने बाजार को हिला दिया है. इनकी कोयला खपत पूरी दुनिया कुल खपत की दोगुनी है.

दुनिया की आधी कोयला मांग तो केवल चीन से निकलती है.चीन की 65 फीसदी बिजली कोयले से आती है. उसके पास कोयले का अपना भी भारी भंडार है. गैस की महंगाई और कि‍ल्‍लत के कारण यहां नई खनन परियोजनाओ में निवेश बढ़ाया जा रहा

भारत में इस साल फरवरी में कोयले का संकट आया. महाकाय सरकारी कोल कंपनी कोल इंड‍िया आपूर्तिकर्ता की जगह आयातक बन गई. इस साल भारत का कोयला आयात बीते साल के मुकाबले तीन गुना हो गया है..ईआईए का अनुमान है कि भारत में कोयले की मांग इस साल 7 से 10 फीसदी तक बढ़ेगी.

सब कुछ उलट पलट

ग्रीनहाउस गैस रोकने वाले इस साल कोयले से रिकार्ड बिजली बनायेंगे. नौ फीसदी की बढ़त के साथ यह उत्‍पादन इस साल 10350 टेरावाट पर पहुंच जाएगा.

कोयला दुनिया का सबसे अध‍िक कार्बन गहन जीवाश्‍म ईंधन है. पेरिस समझौते का लक्ष्‍य था इसकी खपत घटाकर ग्‍लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्‍स‍ियस कम किया जाएगा.

2040 तक कोयले को दुनिया से विदा हो जाना था. लेक‍िन तमाम हिकारत, लानत मलामत के बाद भी कोयला लौट आया है. अब अगर  दुनिया को धुंआ रहित कोयला चाहिए एक टन कोयले को साफ करने यानी सीओ2 कैच का खर्चा 100 से 150 डॉलर प्रति टन हो सकता है. बकौल ग्‍लोबल कॉर्बन कैप्‍चर एंड रिसोर्स इंस्‍टीट्यूट के मुताबिक दुनिया को हर साल करीब 100 अरब डॉलर लगाने होंगे यानी अगले बीच साल में 650 बिल‍ियन से 1.5 ट्रि‍ल‍ियन डॉलर का निवेश.

यानी धुआं या महंगी बिजली दो बीच एक को चुनना होगा ..

और यह चुनाव आसान नहीं होने वाला.

 

आने से जिनके आए बहार



 

नागपुर के लालन जी अग्रवाल तपे हुए निवेशक हैं. उन्‍हें पता है कि किस्‍मत की हवा कभी नरम कभी गरम होती ही है लेक‍िन अगर भारत में लोगों का खर्च बढ़ता रहेगा तो तरक्‍की का पहिया चूं चर्र करके चलता रहेगा.

त्‍योहारों की तैयारी के बीच कुछ सुर्ख‍ियां उन्‍हें सोने नहीं देतीं.  भारत में छोटी कारें और कम कीमत वाले बाइक-स्‍कूटरों के ग्राहक लापता हो गए हैं सस्‍ते मोबाइल हैंडसेट की मांग टूट रही है.किफायती मकानों की‍ बिक्री नहीं बढ़ रही.

कहां फंस गई क्रांति

बीते चार बरस में एंट्री लेवल कारों की बिक्री 25 फीसदी कम हुई है. एसयूवी और महंगी (दस लाख से ऊपर) की कारों की मांग बढ़ी है. देश की सबसे बडी कार कंपनी मारुति के चेयरमेन आर सी भार्गव को कहना पड़ा कि छोटी कारों का बाजार खत्‍म हो रहा है.

जून 2022 की तिमाही में सस्‍ती (110 सीसी) बाइक की बिक्री करीब 42 फीसदी गिरी. 125 सीसी के स्‍कूटर का बाजार भी इस दौरान करीब 36 फीसदी सिकुड़ गया.. सिआम के मुताबिक वित्‍त वर्ष 2022 में भारत में दुपह‍िया वाहनों की बिक्री दस साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर आ गई.

दुनिया में आटोमोबाइल क्रांति फोर्ड की छोटी कार मॉडल टी से ही शुरु हुई थी लेक‍िन इसका दरख्‍त भारत की जमीन पर उगा. 2010 तक दुनिया की सभी प्रमुख कार कंपनियां भारत में उत्‍पादन या असेंम्‍बल‍िंग करने लगीं.

वाहनों की बिक्री का आख‍िरी रिकॉर्ड 2017-18 में बना था जब 33 लाख कारें और दो करोड बाइक बिकीं. इसके बाद बिक्री ग‍िरने लगी.  फाइनेंस कंपनियां डूबीं, कर्ज मुश्‍क‍िल हुआ, सरकार ने प्रदूषण को लेकर नियम बदले. मांग सिकुड़ने लगी. इसके बाद आ गया कोविड.  अब छोटी कारों और सस्‍ती बाइकों बाजार सिकुड़ रहा है जबक‍ि महिंद्रा की प्रीमियम कार स्‍कॉर्प‍ियो एन को जुलाई में 30 मिनट में एक लाख बुकिंग ि‍मल गईं.

मोबाइल में यह क्‍या

मोबाइल बाजार में भी जून त‍िमाही में 40000 रुपये से ऊपर के  मोबाइल फोन की बिक्री करीब 83 फीसदी बढ़ी जबक‍ि सस्‍ते 8000 रुपये के मोबाइल की बिक्री में गिरावट आई. काउंटरप्‍वाइंट रिसर्च की रिपोर्ट और उद्योग के आंकड़े बताते हैं कि 10000 रुपये तक मोबाइल की बिक्री की करीब 25 फीसदी सिकुड गया है. पुर्जों की कमी कारण मोबाइल हैंडसेट महंगे हुए हैं.. ऑनलाइन शिक्षा का प्रचलन बढने के बाद भी सस्‍ते स्‍मार्ट फोन नहीं बिके.

घर का सपना

प्रॉपर्टी कंसल्टेंट एनारॉक ने बताया कि साल 2022 की पहली छमाही में घरों की कुल बिक्री में महंगे घरों (1.5 करोड़ से ऊपर) की मांग दोगुनी हो गई. साल 2019 में पूरे साल के दौरान घरों की बिक्र में लग्जरी घरों की हिस्सेदारी महज 7 फीसद थी.

देश के 7 प्रमुख शहरों में साल 2021 में लॉन्च 2.36 लाख नए मकानों में 63 फीसदी मकान मिड और हाई एंड सेगमेंट (40 लाख और 1.5 करोड़) के हैं. नई हाउसिंग परियोजनाओं में अफोर्डेबल हाउसिंग की हिस्सेदारी घटकर 26 फीसदी रह गई, जो वर्ष 2019 में 40 फीसद थी.

उम्‍मीदों के विपरीत

कोविड से पहले तक बताया जाता कि आटोमबाइल, मोबाइल फोन और मकान ही रोजगार और तरक्‍की इंजन हैं.  

भारत में कारों (प्रति 1000 लोगों पर केवल 22 कारें) वाहनों का बाजार छोटा है केवल 49 फीसदी परिवारों के पास दो पहिया वाहन थे इस के बावजूद 2018 तक आटोमोबाइल भारत की मैन्‍युफैक्‍चरिंग में 49 फीसदी और जीडीपी का 7.5 फीसदी हिस्‍सा ले चुका था. करीब 32 लाख रोजगार यहीं से निकल रहे थे.

सहायक उद्योगों व सेवाओं के साथ 2018 में, भारतीय आटोमोबाइल उद्योग 100 अरब डॉलर के मूल्‍यांकन के साथ दुनिया में चौथे नंबर पर पहुंच गया था. लेक‍िन अब मारुति के चेयरमैन कहते हैं कि छोटी कारें ब्रेड एंड बटर थीं बटर खत्‍म हो गया अब ब्रेड बची है.

आटोमेाबाइल क्रांति सस्‍ती बाइक और छोटी कारों पर केंद्रित थी. यदि इनके ग्राहक नहीं बचे तो भारत में महंगी या इलेक्‍ट्र‍िक कारें में निवेश क्‍यों बढेगा?

मंदी की हवेल‍ियां

हाउसिंग की मंदी  2017 से शुरु हुई थी, नोटबंदी के बाद 2017 में (नाइट फ्रैंक रिपोर्ट) मकानों की बिक्री करीब 7 फीसदी और नई परियोजनाओं की शुरुआत 41 फीसदी कम हुई. मकानों की कीमतें नहीं टूटीं्. जीएसटी की गफलत, एनबीएफसी का संकट, मांग की कमी और  आय कम होने कारण कोविड आने तक यहां    करीब 6.29 लाख मकान ग्राहकों का  इंतजार कर रहे थे.

बड़ी आबादी के पास अपना मकान खरीदने की कुव्वत भले ही  हो लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था में कंस्ट्रक्शन का हिस्सा 15 फीसद (2019) है जो अमेरिकाकनाडाफ्रांस ऑस्ट्रेलिया जैसे 21 बड़े देशों (चीन शामिल नहींसे भी ज्यादा हैयह खेती के बाद रोजगारों का सबसे बड़ा जरिया है.

तो कैसा डिज‍िटल इंड‍िया

2019 तक फीचर फोन बदलने वाले स्‍मार्ट फोन खरीद रहे थे. इसी से डिज‍िटल लेन देन और मोबाइल इंटरनेट का इस्‍तेमाल भी बढ़ा. सस्‍ते फोन की बिक्री घटने से डि‍ज‍िटल सेवाओं की मांग पर असर पड़ेगा. 5जी आने के बाद तो यह बाजार महंगे फोन और महंगी सेवा वालों पर केंद्रित हो जाएगा.

 

कहां गया मध्‍य वर्ग

भारत का उभरता बाजार मध्‍य वर्ग पर केंद्रित था. जिसमें नए परिवार शामिल हो रहे थे.  यही मध्य वर्ग बीते 25 साल में भारत की प्रत्येक चमत्कारी कथा का शुभंकर रहा है नए नगर (80 फीसद मध्य वर्ग नगरीयऔर 60 फीसदी जीडीपी इन्‍हीं की खपत से आता है बीसीजी का आकलन है कि इस वर्ग ने में ने करीब 83 ट्रिलियन रुपए की एक विशाल खपत अर्थव्यवस्था तैयारकी है. मगर प्‍यू रिसर्च ने 2020 में बताया था कि की कोविड की ामर से भारत के करीब 3.2 करोड़ लोग मध्य वर्ग से बाहर हो गए.

क्‍या यही लोग हैं जिनके कारण कारें मकान मोबाइल की बिक्री टूट गई है ? भारी महंगाई और टूटती कमाई इनकी वापसी कैसे होगी?

2047 में विकसित देश होने के लक्ष्‍य की रोशनी में यह जान लेना जरुरी है भारत में 2020 में प्रति व्‍यक्‍ति‍ आय (पीपीपी आधार पर) का जो स्‍तर था अमेरिका ने वह 1896 में और यूके ने 1894 में ही हासि‍ल कर लिया था. 2019 के हाउसहोल्‍ड प‍िरामिड सर्वे आंकडो के मुताबिक आज भारत में प्रति परिवार जितनी कारें है वह स्‍तर अमेरिका में 1915 में आ गया था. जीवन स्‍तर की बेहतरी के अन्‍य पैमाने जैसे फ्रिज ,एसी वाश‍िंग मशीन, कंप्‍यूटर ,भारत इन सबमें अमेरिका 75 से 25 साल तक पीछे है

बाकी आप कुछ समझदार हैं ...