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Saturday, August 31, 2019

उम्मीदों की ढलान


र्थशास्त्र की असंख्य तकनीकी परिभाषाओं के परे कोई आसान मतलब? प्राध्यापक ने कहा, उम्मीद और विश्वास. कारोबार, विनिमय, खपत, बचत, कर्ज, निवेश अच्छे भविष्य की आशा और भरोसे पर टिका है. इसी उम्मीद का थम जाना यानी भरोसे का सिमट जाना मंदी है.

खपत आधारित है आगे आय बढ़ते रहने की उम्मीद पर. कर्ज अपनी वापसी की उम्मीद पर टिका है; औद्योगिक व्यापारिक निवेश खपत बढ़ने पर केंद्रित है; और बचत या शेयरों की खरीद इस उम्मीद पर टिकी है कि यह चक्र ठीक चलेगा.

सरकार ने मंदी से निबटने के लिए दो माह पहले आए बजट को शीर्षासन करा दिया. लेकिन उम्मीदें निढाल पड़ी हैं.

क्या हम उम्मीद और विश्वास में कमी को आंकड़ों में नाप सकते हैं? मंदी के जो कारण गिनाए जा रहे हैं या जो समाधान मांगे जा रहे हैं उन्हें गहराई से देख कर यह नाप-जोख हो सकती है.

मंदी की पहली वजह बताई जा रही है कि बाजार में पूंजी, पैसे या तरलता की कमी है लेकिन...

·       भारत में नकदी (करेंसी इन सर्कुलेशन), जुलाई के पहले सप्ताह में 21.1 लाख करोड़ रुपए पर थी जो पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 13 फीसदी ज्यादा है. दूसरी तरफ, बैंकों में जमा की दर 2010 से गिरते हुए दस फीसदी से नीचे आ गई.

·       रिजर्व बैंक ब्याज की दर एक फीसद से ज्यादा घटा चुका है लेकिन कर्ज लेने वाले नहीं हैं. यानी कि बाजार में पैसा है, लोगों के हाथ में पैसा है, बैंक कर्ज सस्ता कर रहे हैं लेकिन लोग बिस्किट खरीदने से पहले भी सोच रहे हैं, कार और मकान आदि तो दूर की बात है.

·       अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध (आयात महंगा करना) से तो निर्यात बढ़ाने का मौका है. कमजोर रुपया भी निर्यातकों के माफिक है लेकिन न निर्यात बढ़ा, न उत्पादन.

·       खर्च चलाने के लिए सरकार ने रिजर्व बैंक का रिजर्व निचोड़ लिया है तो सुझाव दिए जा रहे हैं कि जीएसटी कम होने से मांग बढ़ जाएगी. लेकिन लागू होने के बाद से हर छह माह में जीएसटी की दर कम हुई. न मांग बढ़ी, न खपत, राजस्व और बुरी तरह टूट गया.

·       पिछले पांच साल के दौरान एक बार भी महंगाई ने नहीं रुलाया फिर भी बचत और खपत गिर गई.

हाथ में पैसा होने के बाद भी खर्च न बढ़ना,

टैक्स और कीमतें घटने के बाद भी मांग न बढ़ना,

कर्ज सस्ता होने के बाद भी कर्ज न उठना...

इस बात की ताकीद करते हैं कि जिन्हें खर्च करना या कर्ज लेकर घर-कार खरीदनी है उन्हें यह भरोसा नहीं है कि आगे उनकी कमाई बढ़ेगीजिन्हें उद्योग के लिए कर्ज लेना है उन्हें मांग बढ़ने की उम्मीद नहीं है और जिन्हें कर्ज देना हैउन्हें कर्ज की वापसी न होने का डर है.

इस जटिलता ने दो दुष्चक्र शुरू कर दिए हैं. टैक्स कम होगा तो घाटा यानी सरकार का कर्ज बढ़ेगा. ब्याज दर बढ़ेगी, नए टैक्स लगेंगे या पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ेगी. अगर बैंक कर्ज और सस्ता करेंगे तो डिपॉजिट पर भी ब्याज घटेगा. इस तरह बैंक बचतें गंवाएंगे और पूंजी कम पड़ेगी.

यही वजह है कि यह मंदी अपने ताजा पूर्वजों से अलग है. 2008 और 2012 में सरकार ने पैसा डाला और टैक्स काटे, जिससे बात बन गई लेकिन अब मुश्किल है.

2015 के बाद से लगातार सरकारी खर्च में इजाफा हुआ है और जीएसटी के चुनावी असर को कम करने के लिए टैक्स में कमी हुई लेकिन फिर भी हम ढुलक गए. अब संसाधन ही नहीं बचे. सरकारी खर्च के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व के इस्तेमाल से डर बढ़ेगा और विश्वास कम होगा.

कमाई, बचत और खपत, तीनों में एक साथ गिरावट मंदी की बुनियादी वजह है. लोगों को आय बढ़ने की उम्मीद नहीं है. देश में बड़ा मध्य वर्ग कर्ज में फंस चुका है. रोजगार न बढ़ने के कारण घरों में एक कमाने वाले पर आश्रितों की संख्या बढ़ रही है. यही वजह है कि बचत (बैंक, लघु बचत, मकान) 20 साल के न्यूनतम स्तर पर (जीडीपी का 30 फीसद) पर है. यह सब उस कथित तेज विकास के दौरान हुआ, जिसके दावे बीते पांच बरस में हुए. कोई अर्थव्यवस्था अगर अपने सबसे अच्छे दिनों में रोजगार सृजन या बचत नहीं करती तो आने वाली पीढ़ी के लिए मौके कम हो जाते हैं.

सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में तेज विकास के जो आंकड़े गढ़े थे क्या उन पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया? उसी की चमक में निवेश बढ़ाने, सरकारी दखल कम करने, मुक्त व्यापार के लिए ढांचागत सुधार नहीं किए गए जिसके कारण हम एक जिद्दी ढांचागत मंदी की चपेट में हैं

अगर यही सच है तो फिर जरूरत उन सुधारों की है, सुर्खियां बनाने वाले पैकेजों की नहीं क्योंकि उम्मीदों की मंदी बड़ी जिद्दी होती है.


Saturday, February 24, 2018

शक करने का हक


भारत के इतिहास का सबसे बड़ा बैंक घोटाला क्यों हुआ?

क्योंकि हमने सवाल पूछने बंद कर दिए,

हमें शक करते रहना चाहिए था, सरकार के कामकाज पर,

रातोरात विशाल हो जाती कंपनियों पर,

बैंक कर्ज पर चल रहे कारोबारों पर

और सबसे ज्यादा सवाल हमें करने चाहिए थे उन घोटालों की जांच पर जो अदालतों में दम तोड़ गईं. 

हर वित्तीय घोटाला पिछले की तुलना में ज्यादा सफाई और बेहयाई से किया जाता है. 

और निगहबान पिछले की तुलना में और ज्यादा नाकारा पाए जाते हैं.

इस घोटाले का किस्सा बस इतना है कि नीरव और मेहुल ने की तरह बैंकों के बीच लेन-देन और छोटी अवधि के कर्ज का इस्तेमाल किया, विदेश में विदेशी मुद्रा में भुगतान ले लिया और चंपत हो गए. हर्षद मेहता और केतन पारेख ने भी इसी रास्‍ते का इस्‍तेमाल किया था.

हमें नहीं पता कि सरकार इनका क्‍या कर पायेगी लेकिन इस लूट को रोकना हरगिज संभव है अगर हम सरकारों पर रीझना छोड़ दें.

रोशनी की मांग
इस घोटाले में एफआइआर के 15 दिन बाद कोहराम क्यों मचा. दरअसल, जब पीएनबी ने इस मामले की जानकारी स्टॉक एक्सचेंज को दी तब पता चला कि हुआ क्या है. कारोबारियों को जनता की अदालत में लाया जाना चाहिए. 50 करोड़ रु. से ऊपर की प्रत्येक कंपनी के लिए जनता को भागीदारी देने और शेयर बाजार में सूचीकरण की शर्त जरूरी है. भारत में दस हजार करोड़ रु. तक के कारोबार वाली कंपनियां हैं, जो बैंकों से कर्ज लेती हैं और कंपनी विभाग के पास एक सालाना रिटर्न भरकर छुट्टी पा जाती हैं. हमें पता नहीं, वे क्या कर रही हैं और कब चंपत हो जाएंगी. इस पारदर्शिता से आम लोगों के लिए निवेश के अवसर भी बढ़ेंगे.

कर्ज चाहिए तो पूंजी दिखाइए
यदि प्रवर्तक अपनी पूंजी पर जोखिम नहीं लेता तो फिर डिपॉजिटर की बचत पर जोखिम क्यों कर्ज पर कारोबार के (डेट फाइनेंस) के नियम बदलना जरूरी है. अब उन कंपनियों की जरूरत है जो पारदर्शिता के साथ जनता से पूंजी लेकर कारोबार करती हैं या फिर प्रवर्तक अपनी पूंजी लगाते हैं. 

गड्ढे और भी हैं
हम बकाया बैंक कर्ज (एनपीए) के पहाड़ को बिसूर रहे थे और नीरव-मेहुल छोटी अवधि के बायर्स क्रेडिट (90-180-360 दिन) के कर्ज के जरिए 11,000 करोड़ रु. (या 20,000 करोड़ रु.) ले उड़े, जिसका इस्तेमाल आयातक, वर्किंग कैपिटल के लिए करते हैं.

उधार में कारोबार, सप्लाई चेन की कमजोरी और खराब कैश फ्लो की वजह से भारतीय कंपनियां सक्रिय कारोबारी (वर्किंग) पूंजी को लेकर हमेशा दबाव में रहती हैं. जब भारत की बड़ी कंपनियों को अपने संचालन  को सहज बनाने के लिए सालाना चार खरब रु. (अर्न्स्ट ऐंड यंग—2016) की अतिरिक्त वर्किंग कैपिटल चाहिए तो छोटी फर्मों की क्या हालत होगी.

बैंकों से छोटी अवधि के कर्ज की प्रणाली में बदलाव चाहिए. गैर जमानती कर्ज सीमित होने के बाद कंपनियां अपने संचालन को चुस्त करने पर बाध्य होंगी. जमाकर्ताओं के पैसे पर धंधा घुमाना बंद करना पड़ेगा. 

राजनैतिक चंदे की गंदगी
हीरा कारोबारियों की राजनैतिक हनक से कौन वाकिफ नहीं है. जो हुक्काम के साथ डिनर करते हैं वही चंदा भी देते हैं, वे ही बैंकों के सबसे बड़े कर्जदार भी हैं. अगर देश को यह पता चल जाए कि कौन-सी कंपनी किस पार्टी को कितना चंदा देती है, तो बहुत बड़ी पारदर्शिता आ जाएगी, जिसमें सियासी रसूख के जरिए बैकों की लूट भी शामिल है.

ध्‍यान रहे कि मेहुल चोकसी का कारोबारी रिकार्ड कतई इस लायक नहीं था कि उन्‍हें या उनके भांजे पर पंजाब नेशनल बैंक इस कदर दुलार उड़ेलता, हां यह बात जरुर है कि उनका राजनीतिक रसूख उन्‍हें हर स्‍याह सफेद की सुविधा देता था.   

बड़े बैंक चाहिए
सिर्फ एक बड़ी धोखाधड़ी से देश का दूसरा सबसे बड़ा बैंक घुटनों पर आ गया. इस घोटाले की राशि पीएनबी के मुनाफे की दस गुनी है. बैंक को हाल में सरकार से जितनी पूंजी मिली थी, उसका दोगुना यह दोनों लूट ले गए. अर्थव्यवस्था का आकार बढऩे के साथ देश को बड़े बैंक चाहिए ताकि इस तरह के झटके झेल सकें.

भ्रष्टाचार चेहरा देखकर या भाषणों से नहीं रुकता. संस्थागत भ्रष्टाचार के खिलाफ सफलताएं हमेशा संस्थाओं (कानून, अदालत, ऑडिटर) की मदद से ही मिली हैं. पिछले चार साल में न तो संस्थाएं मजबूत और विकसित हुईं और न नए कानून, नियम बनाए या बदले गए.

भ्रष्टाचार जब तक बंद था तब तक आनंद था, अब खुल रहा है तो खिल रहा है.

बैंक किसी भी अर्थव्यवस्था में भरोसे का आखिरी केंद्र हैं. इसमें रखा पैसा हमारी बचत का है, सरकार का नहीं. अगर यह लूट खत्म करनी है, तो पारदर्शिता के नए प्रावधान चाहिए. सरकारें तब तक पारदर्शिता नहीं बढ़ाएंगी जब तक हम उनके कामकाज पर गहरा शक नहीं करेंगे. हमें उनसे वही सवाल बार-बार पूछने होंगे जिनके जवाब वे कभी नहीं देना चाहतीं.


Sunday, December 17, 2017

ताकि बना रहे भरोसा


डर में जीने का शौक न हो तो सरकार की इस बात पर भरोसा करने में कोई हर्ज नहीं है कि बैंकों में जमाकर्ताओं का पैसा नहीं डूबेगा. लोगों को बैंकों की जितनी जरूरत है सरकार को भी लोगों की बचत की उतनी ही जरूरत है. यह बचत ही बैंकों के जरिए सरकार को कर्ज के तौर पर मिलती हैजिससे उसका खर्च चलता है.

भारत में बैंक बीमार हुए हैं लेकिन डूबे कभी नहीं. कोई सरकार बैंकों के डूबने का जोखिम नहीं ले सकती लेकिन (एफआरडीआइ—फाइनेंशियल रिजोल्यूशन ऐंड डिपॉजिट इंश्योरेंस) बिल 2017 का प्रावधान 52 का खौफ तारी हैजो कहता है कि बैंक या वित्तीय कंपनियां अगर संकट में हो तो वह अपनी देनदारियों यानी लायबेलिटी का इस्तेमाल (बेल इन) कर सकती हैं. जमाकर्ताओं (डिपॉजिटर्स) का पैसा इसमें शामिल है हालांकि जिसे डिपॉजिट को इंश्योरेंस के तहत रखा गया है वह इस प्रक्रिया से बाहर रहेगा. मौजूदा नियमों के तहत बैंक डिपॉजिट चाहे जितना भी हो उस पर अधिकतम बीमा एक लाख रुपए ही है.

इस प्रावधान की भाषा खराब हैसंदर्भ भी उलझे हैंइसके लागू होने की कोई संभावना नहीं है. सरकार सफाई दे रही है लेकिन डर है तो है.

खौफ की बुनियादी वजह यह है कि चुनिंदा लोगों की आर्थिक अनियमितताओं के लिए सामूहिक दंड देने के प्रयोग कुछ ज्यादा ही होने लगे हैं. पिछले साल नोटबंदी में कुछ लोगों के काले धन के कारण पूरे देश को सजा दे दी गई. बड़े कर्जदारों पर बकाया बैंकों की समस्या है लेकिन समाधान की कोशिशें आम लोगों को डरा रहीं हैं.

भारतीय बैंकिंग की मुसीबत अनोखी है. 

- चुनिंदा बड़े कर्जदार इसका संकट हैं. कुछ कारोबारी गलतियों के मारे हैंकुछ ने जान-बूझकर बैंकों को चूना लगाया है और कुछ को मंदी ले डूबी है. बैंकों के 86 फीसदी फंसे हुए कर्ज (जीएनपीए-8.29 लाख करोड़ रु.) बड़े कर्जदारों के नाम हैं.

- लेकिन खौफ में जमाकर्ता हैं जो छोटी बचतों (150 लाख करोड़ रु.) से देश की वित्तीय रीढ़ बनाते हैं.

- बैंकों को उबारने के लिए दो ही विकल्प हैं: एक या तो करदाताओं का पैसा लगाकर बैंकों को उबारा (बजट से बैंकों को पूंजी देना यानी बेल आउट) जाए या जमाकर्ताओं वालों की बचत से नुक्सान भरा जाए. 'बेल-इन' प्रावधान सुझाता है कि बैंकों को बजट यानी टैक्स के पैसे से उबारना गलत है. बैंकों से कारोबार (निवेश या जमा) करने वालों को यह बोझ उठाना चाहिए यानी कि छुरी किसी तरह से गिरे कटेंगे आम लोग ही.

बैंकिंग की दुविधा का इलाज 'बेल इन''बेल आउट' या 'हेयर कट' (बैंकों के पूंजी व मुनाफे में कमी) नहीं है. फिलहाल बैंकिंग परिदृश्य को तीन बड़े ढांचागत सुधार चाहिए.

- उदारीकरण को 25 साल बीत चुके हैं. परियेाजनाओं के वित्त पोषण का ढांचा बदलना चाहिए. बड़ी परियोजनाओं के लिए बैंक कर्जों पर निर्भरता कम करना जरूरी है. कंपनियों को अपनी साख पर बाजार पूंजी व कर्ज उठाना चाहिए. बैंकों के लिए छोटे उपभोक्ता कर्ज बेहतर हैंजिनकी वसूली को लेकर समस्या नहीं है. इक्विटी संस्कृति कंपनियों को पारदर्शी बनाएगी. आम लोगों को बचत व निवेश के नए मौके हासिल होंगे और जोखिम भरे बैंक कर्ज कम होंगे.

- बैंकों को संसाधनों के गैर डिपॉजिट स्रोत बढ़ाने होंगे. पिछली सदी तक अमेरिका में बैंकों के अधिकांश संसाधन डिपॉजिट से आते थे. क्रमशः बैंकों ने फेडरल रिजर्व से कर्ज और पूंजी व बॉन्ड बाजार के जरिए संसाधन संग्रह बढ़ाना प्रारंभ किया. अब आधे संसाधन गैर डिपॉजिट हैं. इससे बैंक संसाधनों की लागत भी कम हुई हैजमाकर्ताओं के लिए जोखिम घटे हैं.
जमाकर्ताओं को बेहतर बीमा सुरक्षा मिलनी चाहिए जिसकी लागत उनसे ली जा सकती है.

- बैंकों पर सरकार के नजरिए में अंतरविरोध लोगों को डरा रहा है. पहले बैंक में सोना रखकर (गोल्ड मॉनेटाइजेशन) नकद लेने के लिए कहा गयाफिर नोटबंदी हो गई. गरीबों को बैंक से जोड़ने की कोशिशें (जन धन) इसका सबसे बड़ा शिकार हुई हैं. 

- बैंक का एक अर्थ विश्वास भी होता है जो यूं ही नहीं है. किसी अर्थव्यवस्था में बैंक लोगों के भरोसे का पहला व आखिरी आधार हैं. हर देश की बैंकिंग का मिजाज अलग है. भारत में बैंकों पर पहला हक करोड़ों जमाकर्ताओं का हैजिनमें अधिकांश कभी कर्ज नहीं लेते. कर्ज लेने वाले बैंकिंग का जरूरी हिस्सा हैं लेकिन छोटा-सा हैं.




अगर सरकार चाहती है कि अधिक से अधिक लोग बैंकों से जुड़ें या जुड़े रहें तो उसे ऐसा कुछ नहीं करना होगा जो भारत में बैंकों की बुनियाद यानी जमाकर्ताओं को आशंकित करता हो. बैंकिंग के साथ एक सीमा से ज्यादा जोखिम विस्फोटक हो सकता है.

Tuesday, June 27, 2017

सही साबित होने का अफसोस

नोटबंदी या डिमॉनेटाइजेशन बहुत बड़ा उलटफेर था. इसकी विफलता से उठने वाले सवाल नोटबंदी के फैसले से ज्‍यादा बडे हो गए हैं 

लत सिद्ध होने का संतोष, कभी-कभी सही साबित होने से ज्यादा कीमती होता है. सरकारी नीतियों के बनते या लागू होते वक्त जोखिमों को रोशनी में लाना और चेतावनियों की टेर लगाना जरूरी है. नीतियों के नतीजे यदि आशंकाओं के विपरीत अर्थात् अच्छे आएं तो लोकतंत्र में पत्रकारिता की यह विफलता शुभ और श्रेयस्कर ही होगी.

नोटबंदी के दौरान इस स्तंभ को पढ़ते रहे लोग याद करेंगे इस फैसले को लेकर जितनी आशंकाएं जाहिर की गईंवे एक-एक कर सच साबित हुईं.

काशनोटबंदी से जुड़े डर सच न होते और हम गलत साबित होते!

नोटबंदी या डिमॉनेटाइजेशन बहुत बड़ा उलटफेर था. इसकी भव्य विफलता ने बहुत कुछ तोड़ दिया है.

नोटबंदी की बैलेंस शीट
  - इस साल जनवरी से मार्च के दौरान भारत की आर्थिक विकास दर घटकर 6.1 फीसद (इससे पिछली तिमाही में 7 फीसदी) रह गई. यह नोटबंदी के बाद पहली तिमाही थी. पूरे वित्त वर्ष (2016-17) की विकास दर आठ फीसदी की बजाए 7.1 फीसदी रह गई. भारत ने दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था का दर्जा गंवा दिया. जब संगठित औपचारिक अर्थव्यवस्था इस कदर टूट गई तो नकद पर काम करने वाली छोटी इकाइयोंकारोबारों और रोजगारों का क्या हाल हुआ होगा?
  - याद कीजिए गरीब कल्याण योजना जो नोटबंदी के साथ आई थीजिसमें पुराने नोटों में काला धन घोषित करने पर 50 फीसदी टैक्स और घोषित धन का एक-चौथाई चार माह सरकार के पास जमा रखने की शर्त थी. इस योजना में केवल 5,000 करोड़ रु. जमा हुए. सरकार ने मान लिया कि स्कीम ढह गई.
  - नोटबंदी के छह माह पूरे होने से पहले ही लोग वापस नकदी की तरफ लौट आए. बकौल रिजर्व बैंक केडिजिटल माध्यमों से वित्तीय लेन-देननोटबंदी के पहले वाले स्तर पर पहुंच गया. पता नहीं कि ''भीम" और यूपीआइ कहां गए?
  - रिजर्व बैंक में पुराने नोटों की गिनती सतयुग आने तक चलेगी. वित्त मंत्रालय काले धन की फिक्र छोड़ जीएसटी की उधेड़बुन में है. 
  - नोटबंदी के जरिए काले धन के बारे भरपूर सूचनाएं मिली थीं लेकिन उत्तर प्रदेश का चुनाव शुरू होते ही छापेमारी और पड़ताल बंद हो गई.
  - नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक ने भी कर्ज सस्ते करने से तौबा कर ली.

इस हिसाब-किताब में हमें उन वादों की श्रद्धांजलि मिल जाएगी जो नोटबंदी के दौरान सरकारी मंत्रियों के बड़बोले उच्छवासों से फूटते थे.

नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को कई गुप्त चोटें दी हैं जिनके ठीक होने में बहुत लंबा वक्त लगेगा.

  - काले धन के खिलाफ या तो सख्ती की जा सकती है या फिर लोगों को कालिख धोने के मौके यानी टैक्स माफी की स्कीमें उपलब्ध कराई जा सकती हैं. नोटबंदी पहला ऐसा अभियान था जिसमें दोनों पैंतरे आजमाए गए. तीन साल में तीन (एक विदेशी कालाधन के लिए और दो देशी) ऐसी स्कीमें आईं जो काले धन वालों को पवित्र होने का मौका देती थींलेकिन तीनों ही नाकाम रहीं. नोटबंदी के चाबुक से कितना काला धन निकलासरकार यह बताने को तैयार नहीं है. इस कौतुक में न तो सरकारी सख्ती की साख बची और न रियायतों की. काले धन को लेकर सरकारी कोशिशों पर आगे कोई आसानी से भरोसा करेगाइस पर शक है.

  - नोट बदलने के दो महीनों ने बैंकिंग तंत्र को भ्रष्ट कर दिया. लोगों का जमा बैकों की बैलेंस शीट पर बोझ बन गया. नोटबंदी के दौरान कर्ज चुकाने से मिली रियायतों ने फंसे हुए कर्जों के बोझ को और बढ़ा दिया. पहले से हलाकान बैंक अब ज्यादा मुसीबत में हैं. सरकार के पास उन्हें उबारने के लिए संसाधन नहीं हैं.

  - रिजर्व बैंक की साख और स्वायत्तता पुराने नोटों के ढेर में दब गई है.

 - हमें शायद ही कभी यह पता चल सके कि नोटबंदी से उन ''खास" लोगों की जिंदगी पर क्या असर पड़ा जिन्हें सजा देने के लिए आम लोगों को गहरी यंत्रणा से गुजरना पड़ा था.

  - और अंत में.. नोटबंदी के साथ सरकार के नए चेहरे से हमारा परिचय हुआ है जो एक क्रांतिकारी कदम के लिए पूरे देश को सिर के बल खड़ा कर देती है पर नतीजे बताने का मौका आने पर पीठ दिखा देती है. 

हम नहीं मानते कि नोटबंदी यूपी के चुनावों से प्रेरित थी. राजनीति इतनी गैर जिम्मेदार कैसे हो सकती है ??   

नोटबंदी सिद्ध करती है कि सरकार साहसी फैसले लेने में सक्षम है लेकिन विफलता बताती है कि हकीकत से कटा साहस आत्मघाती हो जाता है.

हमें अपने सही साबित होने का अफसोस है.



Tuesday, June 7, 2016

अब की बार बैंक बीमार


बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है.

भारतीय बैंकों के कुल फंसे हुए कर्ज अब 13 लाख करोड़ रुपए से ऊपर हैं जो न्यूजीलैंड, केन्या, ओमान, उरुग्वे जैसे देशों के जीडीपी से भी ज्यादा है. सुनते थे कि चीन की बैंकिंग बुरे हाल में है लेकिन बैंकों के कर्ज संकट के पैमाने पर एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के बैंकों की हालत सबसे ज्यादा खराब है. प्रमुख सरकारी बैंकों के वित्तीय नतीजे बताते हैं कि 25 में से 15 सरकारी बैंकों का मुनाफा डूब गया है. बैंकिंग उद्योग का ताजा घाटा अब 23,000 करोड़ रुपए से ऊपर है, जबकि बैंक पिछले साल इसी दौरान मुनाफे में थे.

मोदी सरकार अपनी सालगिरह के उत्सव और गुलाबी आंकड़ों की चाहे जो धूमधाम करे लेकिन यकीन मानिए, बैंकिंग के संकट ने इस जश्न में खलल डाल दिया है. भारतीय बैंकों की हालत अब देसी निवेशकों की ही नहीं बल्कि ग्लोबल चिंता का सबब है और इसे सुधारने में नाकामी पिछले दो साल में मोदी सरकार की सबसे बड़ी विफलता है. कमजोर होते और दरकते बैंक ब्याज दरों में कमी की राह रोक रहे हैं. बैंकों पर टिकी मोदी सरकार की कई बड़ी स्कीमें भी इस संकट के कारण जहां की तहां खड़ी हैं.

वित्त मंत्रालय, बैंकिंग क्षेत्र और शेयर बाजार को टटोलने पर भारतीय बैंकिंग में लगातार बढ़ रहे संकट के कई अनकहे किस्से सुनने को मिलते हैं, जो ताजा आंकड़ों से पुष्ट होते हैं. बैंकों की ताजा वित्तीय सूरतेहाल (2015-16 की आखिरी तिमाही) के मुताबिक, केवल पिछले एक साल में ही बैंकों का फंसा हुआ कर्ज यानी बैड लोन (एनपीए) 3.09 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 5.08 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया. अकेले मार्च की तिमाही में ही बैंकों का एनपीए 1.5 लाख करोड़ रुपए बढ़ा है. सरकारी बैंकों का एनपीए अब शेयर बाजार में उनके मूल्य से 1.5 गुना है. यानी अगर किसी ने ऐसे बैंक में निवेश किया है तो वह प्रत्येक 100 रुपए के निवेश पर 150 रुपए का एनपीए ढो रहा है.

बैंकों के इलाज के लिए सरकार नहीं बल्कि रिजर्व बैंक ने कोशिश की है. एनपीए को लेकर सरकार की तरफ से ठोस रणनीति की नामौजूदगी में रिजर्व बैंक ने पिछले साल से बैंकों की बैलेंस शीट साफ करने का अभियान शुरू किया, जिसके तहत बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले अपनी कुछ राशि अलग से सुरक्षित (प्रॉविजनिंग) रखनी होती है. इस फैसले से एनपीए घटना शुरू हुआ है लेकिन  इसका तात्कालिक नतीजा यह है कि 25 में से 15 प्रमुख सरकारी बैंक घाटे के भंवर में घिर गए हैं. मार्च की तिमाही के दौरान भारी घाटा दर्ज करने वाले बैंकों में पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, बैंक ऑफ इंडिया जैसे बड़े बैंक शामिल हैं. देश के सबसे बड़े बैंक, स्टेट बैंक का मुनाफा भी बुरी तरह टूटा है. यह सफाई अभियान कुछ और समय तक चलने की उम्मीद है यानी बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले और मुनाफा गंवाना होगा. लिहाजा, अगले छह माह तक बैंकों की हालत सुधरने वाली नहीं है.

महंगे कर्ज को लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन को कठघरे में खड़ा करने वालों से बैंकों की बैलेंस शीट पर एक नजर डालने की उम्मीद जरूर की जानी चाहिए. मई में कर्ज की मांग घटकर दस फीसदी से भी नीचे आ गई जो सबूत है कि बैंकों को नया कारोबार नहीं मिल रहा है. बैंकों में जमा की ग्रोथ रेट पांच दशक के न्यूनतम स्तर पर है. एनपीए के कारण बैंकिंग उद्योग का पूंजी आधार सिकुड़ गया है. दरअसल, ऊंची ब्याज दरों की वजह रिजर्व बैंक की महंगाई नियंत्रण नीति नहीं है, बैंकों की बदहाली ही ब्याज दरों में कमी को रोक रही है.

बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है. सरकार सूझ और साहस के साथ इस संकट से मुकाबिल नहीं हो सकी. पिछले साल अगस्त में आया बैंकिंग सुधार कार्यक्रम इंद्रधनुष बैंक कर्जों और घाटे की आंधी में उड़ गया. यह कार्यक्रम बैंकों के संकट को गहराई से समझने में नाकाम रहा. बैंकों के फंसे कर्जों को उनकी बैलेंस शीट से बाहर करने की जुगत चाहिए, लेकिन उसके लिए सरकार हिम्मत नहीं जुटा सकी. बैंकों का पूंजी आधार इतनी तेजी से गिरा है कि बजट से बैंकों में पैसा डालने (कैपिटलाइजेशन) से भी बात बनने की उम्मीद नहीं है.

यह समझ से परे था कि जब सरकारी बैंक पिछले कई दशकों की सबसे बुरी वित्तीय हालत में हैं तो सरकार ने अपने प्रमुख लोकलुभावन मिशन बैंकों पर लाद दिए. बैंकिंग का ऐसा इस्तेमाल सत्तर-अस्सी के दशक में होता था जब लोन मेले लगाए जाते थे. पिछले दो साल में शुरू हुई लगभग आधा दर्जन योजनाएं बड़े सरकारी बैंकों पर केंद्रित हैं. मुद्रा बैंक, स्टार्ट-अप इंडिया, सोने के बदले कर्ज तो सीधे कर्ज बांटने से जुड़ी हैं जबकि जन धन, बीमा योजनाएं और डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर सेवाओं में बैंकिंग नेटवर्क का इस्तेमाल होगा जिसकी अपनी लागत है. आज अगर मोदी सरकार की कई स्कीमों के जमीनी असर नहीं दिख रहे हैं तो उसकी वजह यह है कि बैंकों की वित्तीय हालत इन्हें लागू करने लायक है ही नहीं.

आइएमएफ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के सरकारी बैंकों की हालत ज्यादा खराब है. 3 मई को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत में कुल (ग्रॉस) लोन में नॉन-परफॉर्मिंग एसेट का हिस्सा अन्य एशियन देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है. कुल बैंक कर्ज के अनुपात में 6 फीसदी एनपीए के साथ भारत अब मलेशिया, इंडोनिशया और जापान ही नहीं, चीन से भी आगे है.


अच्छे मॉनसून से विकास दर में तेजी की संभावना है. इसे सस्ते कर्जों और मजबूत बैंकिंग का सहारा चाहिए, लोकलुभावन स्कीमों का नहीं. सरकार को दो साल के जश्न से बाहर निकलकर ठोस बैंकिंग सुधार करने होंगे, जिनसे वह अभी तक बचती रही है. बैंकिंग संकट अगर और गहराया तो यह ग्रोथ की उम्मीदों पर तो भारी पड़ेगा ही, साथ ही भारत के वित्तीय तंत्र की साख को भी ले डूबेगा, जो फिलहाल दुनिया के कई बड़े मुल्कों से बेहतर है.

Monday, July 22, 2013

जोखिम का जखीरा


बेसिर पैर नीतियों, रुपये की कमजोरी, किस्‍म किस्‍म के घोटालों और कंपनियों की ऐतिहा‍सिक भूलें अर्थात 2008 के बाद के सभी धतकरमों का ठीकरा बैंकों के सर फूटने वाला है।
बैंकों को अर्थव्‍यवस्‍था का आईना कहना पुरानी बात है, नई इकोनॉमी में बैंक किसी देश की आर्थिक भूलों का दर्दनाक प्रायश्चित होते हैं फिर बात चाहे अमेरिका हो, यूरोप हो या कि भारत की। अलबत्‍ता भारतीय बैंकों को तबाह होने के लिए पश्चिम की तर्ज पर वित्‍तीय बाजार की आग में कूदने करने की जरुरत ही नहीं है, यहां तो बैंक अपने बुनियादी काम यानी कर्ज बांटकर ही मरणासन्‍न्‍ा हो जाते हैं, वित्‍तीय बाजार के रोमांच की नौबत ही नहीं आती। भारतीय बैंक निजी व सरकारी उपक्रमों को मोटे कर्ज देकर गर्दन फंसाते हैं और फिर बकाये का भुगतान टाल कर शहीद बन जाते हैं। बर्बादी की यह अदा भारतीय बैंकिंग का बौद्धिक संपदा अधिकार है। भारतीय बैंक अब जोखिम का जखीरा हैं जिन के खातों में बकाया कर्जों का भारी बारुद जमा है।  बैंकों बचाने की जद्दोजहद जल्‍द ही शुरु होने वाली है। खाद्य सुरक्षा के साथ बैंक सुरक्षा का बिल भी जनता को पकड़ाया जाएगा।
भारत में बैंक कर्ज वितरण की दर जीडीपी की दोगुनी रही है। अधिकांश ग्रोथ बैंकों के कर्ज से निकली है, इसलिए सरकारी व निजी क्षेत्र के सभी पाप बैंकों के खातों में दर्ज हैं। जैसे अमेरिकी बैंकों ने डूबने के लिए पेचीदा वित्‍तीय उपकरण चुने थे या यूरोपीय बैंक सरकारों को कर्जदान के जरिये वीरगति को प्राप्‍त हुए थी भारत में यही हाल कारपोरेट डेट रिस्‍क्‍ट्रचरिंग (सीडीआर) का है जो अब देशी बैंकिंग उद्योग की सबसे