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Friday, March 5, 2021

चमत्कारी राहत


अबक्या घोर मंदी के बावजूद बेरोजगारी रोकी जा सकती है?

क्या अर्थव्यवस्था की आय टूटने के बाद भी आम लोगों की कमाई में नुक्सान सीमित किए जा सकते हैं या कमाई बढ़ाई जा सकती है?

असंभव लगता है लेकिन असंभव है नहीं? 

बेकारी और मंदी के बीच पेट्रोल-डीजल पर टैक्स लगाकर और किस्म-किस्म की महंगाई बढ़ाकर, सरकारें हमें गरीब कर सकती हैं तो महामंदी के बीच सरकारें ही अपनी आबादी को गरीब होने बचा भी सकती हैं. मंदी के बावजूद आम लोगों की कमाई बढ़ाने का यह करिश्मा दुनिया के बड़े हिस्से में हुआ है, वह भी सामूहिक तौर पर.

मैकेंजी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, यह आर्थिक पैमानों किसी चमत्कार से कम नहीं है कि

= 2019 और 2020 की चौथी व दूसरी तिमाही में यूरोप में जीडीपी करीब 14 फीसद सि‍कुड़ गया तब भी रोजगार में गिरावट केवल 3 फीसद रही जबकि लोगों की खर्च योग्य आय (डिस्पोजेबल इनकम) में केवल 5 फीसद की कमी आई

= अमेरिका में तो जीडीपी 10 फीसद टूटा, रोजगार भी टूटे लेकिन लोगों की खर्च योग्य आय 8 फीसद बढ़ गई!

= कोविड के बाद जी-20 देशों ने मंदी और महामारी के शि‍कार लोगों की मदद पर करीब 10 खरब डॉलर खर्च किए, जो 2008 की मंदी में दी गई सरकारी मदद से तीन गुना ज्यादा था और दूसरे विश्व युद्ध के बाद जारी हुए आर्थिक पैकेज यानी मार्शल प्लान से 30 गुना अधि‍क था. अलबत्ता इस पैकेज का बड़ा होना उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि इनके जरिए उभरने वाला एक नया कल्याणकारी राज्य, जो हर तरह से अनोखा था.

= यूरोपीय समुदाय की सरकारों ने करीब 2,342 डॉलर और अमेरिका ने प्रति व्यक्ति 6,752 डॉलर अति‍रिक्त खर्च किए. सरकारों की पूरी सहायता रोजगार बचाने (कुर्जाबेत-जर्मन, शुमेज पार्शिएल-फ्रांस, फर्लो ब्रिटेन, पे-चेक प्रोटेक्शन-अमेरिका) और बेरोजगारों को सीधी मदद पर केंद्रित थी. यूरोप के अधि‍कांश देशों ने इस तरह की मदद पर सामान्य दिनों से ज्यादा खर्च किया.

= सरकारों ने आम लोगों की बचत संरक्षित करने और आवासीय, चि‍कित्सा की लागत को कम करने पर खर्च किया. यूरोप के देशों ने मकान के किराए कम किए, कर्मचारियों को अनिवार्य पेंशन भुगतान (स्वि‍ट्जरलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड) में छूट दी गई या सरकार ने उनके बदले पैसा जमा किया और शि‍क्षा संबंधी खर्चों की लागत घटाई गई.

= सामाजिक अनुबंधों की इस व्यवस्था में निजी क्षेत्र सरकार के साथ था. हालांकि कंपनियों को कारोबार में नुक्सान हुआ, दीवालिया भी हुईं, लेकिन यूरोप और अमेरिका में कंपनियों ने सरकारी प्रोत्साहनों जरिए रोजगारों में कमी को कम से कम रखा और कर्मचारियों के बदले पेंशन व बीमा भुगतानों का बोझ उठाया.

मंदी के बीच रोजगार महफूज रहे तो अमेरिका में 2020 की तीसरी में तिमाही में बचत दर (खर्च योग्य आय के अनुपात में) 16.1 यानी दोगुनी तक बढ़ गई. यूरोप में बचत दर 24.6 फीसद दर्ज की गई.

अब जबकि उपभोक्ताओं की आय भी सुरक्षि‍त है और बचत भी बढ़ चुकी है तो मंदी से उबरने के लिए जिस मांग का इंतजार है वह फूट पडऩे को तैयार है. वैक्सीन मिलने के बाद कारोबार खुलते ही यह ईंधन अर्थव्यवस्थाओं को दौड़ा देगा.

यकीनन अमेरिका और यूरोप की सरकारें बीमारी और मौतें नहीं रोक सकीं, देश की अर्थव्यवस्था को नुक्सान भी नहीं बचा पाईं लेकिन उन्होंने करोड़ों परिवारों को बेकारी-गरीबी की विपत्ति‍ से बचा लिया.

जहां सरकारें ऐक्ट ऑफ गॉड के सहारे टैक्स थोप रही हैं या निजी कंपनियां रोजगार काट कर मुनाफे कूट रही हैं, ये कल्याणकारी राज्य उनके लिए आइना हैं. पूंजीवादी मुल्कों ने इस महामारी में सरकार और समुदाय के बीच अनुबंध यानी सोशल कॉन्ट्रैक्ट जैसा इस्तेमाल किया वह भारत में क्यों नहीं हो सकता था?

सनद रहे कि भारत में कोविड पूर्व की मंदी और बेरोजगारी की वजह से लोगों की खर्च योग्य आय (डि‍स्पोजेबल इनकम) करीब 7.1 फीसद टूट चुकी थी. लॉकडाउन के दौरान भारत के जीडीपी में गिरावट की अनुपात में लोगों की खर्च योग्य आय में गिरावट कहीं ज्यादा रही है.  

भारत में आम परिवारों की करीब 13 लाख करोड़ रुपये की आय मंदी नि‍गल गई (यूबीएस सि‍क्योरिटीज). इसके बाद महंगाई आ धमकी है जो कमाई और बचत खा रही है. 

भारत दुनिया में खपत पर सबसे ज्यादा और दोहरा-तिहरा टैक्स लगाने वाले मुल्कों में है. हम कभी इस टैक्स का हिसाब नहीं मांगते, पलट कर पूछते भी नहीं कि हम उन सेवाओं के लिए सरकार को भी पैसा देते हैं, जिन्हें हम निजी क्षेत्र से खरीदते हैं या सरकार से उन्हें हासिल करने के लिए हम रिश्वतें चढ़ाते हैं. हम कभी फिक्र नहीं करते कि कॉर्पोरेट मुनाफों में बढ़त से रोजगारों और वेतन क्यों नहीं बढ़ते अलबत्ता संकट के वक्त हमें जरूर पूछना चाहिए कि हम पर भारी टैक्स लगाने वाला भारत का भारत का कल्याणकारी राज्य किस चुनावी रैली में खो हो गया है.

 

Saturday, January 30, 2021

सबसे बड़ी कसौटी

 


अगर आप बजट से तर्कसंगत उम्मीदें नहीं रखते या हकीकतों से गाफिल हैं तो फिर निराश होने की तैयारी रखि‍ए!

क्या कहा वित्त मंत्री बोल चुकी हैं कि यह बजट अभू‍तपूर्व होने वाला है? 

यकीनन इस बजट को अभूतपूर्व ही होना चाहिए, उससे कम पर काम भी नहीं चलेगा क्योंकि भारत 1952 के बाद सबसे बुरी आर्थि‍क हालत में है.

यानी कि बीरबल वाली कहानी के मुताबिक दिल्ली की कड़कड़ाती सर्दी में चंद्रमा से गर्मी मिल जाए या दो मंजिल ऊंची टंगी हांडी पर खि‍चड़ी भी पक जाए लेकिन यह बजट पुराने तौर तरीकों और एक दिन की सुर्खि‍यों से अभूतपूर्व नहीं होगा. कम से कम इस बार तो बजट की पूरी इबारत ही बदलनी होगी क्योंकि इसे दो ही पैमानों कसा जाएगा:

क्या लॉकडाउन में गई नौकरियां बजट के बाद लौटेंगी?

सरकारी कर्मियों के डीए से लेकर लाखों निजी कंपनियों में काटे गए वेतन वापस हो जाएंगे.

ऐसा इसलिए कि भारत की अर्थव्यवस्था की तासीर ही कुछ फर्क है. हमारी अर्थव्यवस्था अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोपीय समुदाय की पांत में खड़ी होती है जहां आधे से ज्यादा जीडीपी (56-57 फीसद) आम लोगों के खपत-खर्च से बनता है. यह प्रतिशत चीन से करीब दोगुना है.

केंद्र सरकार पूरे साल में जि‍तना खर्च (कुल बजट 30 लाख करोड़ रुपए) करती है, उतना खर्च आम लोग केवल दो माह में करते हैं. और करीब से देखें तो देश में होने वाले कुल पूंजी निवेश (जिससे उत्पादन और रोजगार निकलते हैं) में केंद्रीय बजट का हिस्सा केवल 5 फीसद है, इसलिए बजट से कुछ नहीं हो पाता.

केंद्र और राज्य सरकारें साल में कुल 54 लाख करोड़ रुपए खर्च करते हैं जो जीडीपी का 27 फीसद है. यह खर्च भी तब ही संभव है जब लोगों की जेब में पैसे हों और वे खर्च करें. इस खपत से वसूला गया टैक्स सरकारों को मनचाहे खर्च करने का मौका देता है. जो कमी पड़ती है उसके लिए सरकार लोगों की बचत में सेंध लगाती है, यानी बैंकों से कर्ज लेती है.

सरकार ने आत्मनिर्भर पैकेजों के ढोल पीट लिए लेकिन अर्थव्यवस्था उठ नहीं पाई क्योंकि इस मंदी में अर्थव्यवस्था की बुनियादी ताकत यानी आम लोगों की खपत 9.5 फीसद सिकुड़ (बीते साल 5.30 फीसद की बढ़त) गई. कंपनियों के निवेश से लेकर टैक्स और जीडीपी तक सब कुछ इसी अनुपात में गिरा है.

मंदी दूर करने के लिए वित्त मंत्री को तय करना होगा कि पहले वे सरकार का बजट ठीक करना चाहती हैं या आम लोगों का और, यकीन मानिए यह चुनाव बहुत आसान नहीं होने वाला.

भारत में सरकार जितनी बड़ी होती जाती है आम लोगों के बजट उतने ही छोटे होते जाते हैं. मंदी और बेकारी के बीच (सस्ते कच्चे तेल के बावजूद) केंद्र सरकार ने सड़क-पुल बनाने के वास्ते पेट्रोल-डीजल महंगे नहीं किए बल्कि‍ वह अपने दैत्याकार खर्च के लिए हमें निचोड़ रही है. केंद्र का 75 फीसद खर्च (रक्षा, सब्सि‍डी, कर्ज पर ब्याज, वेतन-पेंशन) तो ऐसा है जिस पर कैंची चलाना असंभव है.

मंदी तो आम लोगों का बजट ठीक होने से दूर होगी. यानी कि लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा छोडऩा होगा या पेट्रोल-डीजल सस्ता करना होगा, बड़े पैमाने पर टैक्स घटाना होगा.

लेकिन सतर्क रहिए हालात कुछ ऐसे हैं कि अपने बजट की खातिर सरकार हमारा बजट बिगाड़ सकती है. यानी कि कोरोना या जीएसटी सेस लगाया जा सकता है. ऊंची आय वालों पर इनकम टैक्स और पूंजी लाभ कर दर बढ़ सकती है.

मुसीबत यह है कि सरकार अपने खर्च के जुगाड़ के लिए टैक्स आदि थोपने के बाद भी व्यापक खपत को रियायत नहीं देती. रियायतें कंपनियों को मिलती हैं, जिन्होंने मंदी में दिखा दिया कि वे रियायतों को मुनाफे में बदलती हैं, रोजगार और मांग में नहीं.

याद रहे कि पिछले बजट भी कमजोर नहीं थे इसलिए 2016 में अर्थव्यवस्था गिरी तो गिरती चली गई. भारतीय बजट आंख पर पट्टी बांधे व्यक्ति की तरह चुनिंदा हाथों में पैसा रखते-उठाते रहते हैं, बीते एक साल में यही हुआ है. मदद बेरोजगारों को चाहिए थी और विटामिन कंपनियों को दिया गया. लोगों की जेब में पैसे बचने चाहिए थे तो टैक्स बढ़ाकर पेट्रोल-डीजल खौला दिए गए इसलिए लॉकाडाउन हटने के बाद महंगाई और बेरोजगारी गहरा गए.

बीते एक बरस में मंदी दूर करने की सभी कोशि‍शें हो चुकी हैं. बजट आंकड़े खुली किताब हैं. बड़ी योजनाओं पर खर्च तो दूर, ऐक्ट ऑफ गॉड की शि‍कार केंद्र सरकार के पास राज्यों को टैक्स में हिस्सा देने के संसाधन भी नहीं हैं. इसलिए बजट को केवल अधि‍क से अधि‍क लोगों की आय में सीधी बढ़त पर केंद्रित करना होगा. महामंदी से जंग लोगों को लडऩी है. अगले एक साल में करोड़ों परिवारों का बजट नहीं सुधरा तो मंदी का इलाज तो दूर, संसाधनों की कमी से सरकार के कई अनि‍वार्य खर्च भी संकट में फंस जाएंगे.

Friday, September 4, 2020

पैरों तले ज़मीन है या आसमान है

 


अगर आप जीडीपी में -23.9 फीसद की गिरावट यानी अर्थव्यवस्था में 24 मील गहरे गर्त को समझ नहीं पा रहे हैं तो खुशकिस्मत हैं कि आपकी नौकरी या कारोबार कायम है. अगर आपके वेतन या टर्नओवर में 25-30 फीसद की कमी हुई है तो वह जीडीपी की टूट के तकरीबन बराबर है. लेकिन इससे ज्यादा संतुष्ट होना घातक है. इसके बजाए पाई-पाई सहेजने की जरूरत है.

दुनिया में कौन कितना गिरा, इसे छोड़ हम अपने फटे का हिसाब लगाते हैं. यह रहीं 2020-21 की पहली तिमाही के आंकड़े से निकलने वाली तीन सबसे बड़ी (अघोषि) सुर्खियां! इनमें अगले 12 से 24 महीनों का भविष्य निहित है.

अगर इस साल (2020-21) भारत की विकास दर 1.8 फीसद भी रहती तो भी देश का करीब 4 फीसद वास्तविक जीडीपी (महंगाई हटाकर) पूरी तरह खत्म (क्रिसिल मई 2020 रिपोर्ट) हो जाता. पहली तिमाही की तबाही के मद्देनजर यह साल शून्य से नीचे यानी -8 से -11 फीसद जीडीपी दर के साथ खत्म होगा. इस आंकडे़ के मुताबिक, करीब 15 लाख करोड़ रुपए का वास्तविक जीडीपी (6 से 8 फीसद) यानी उत्पादक गतिविधियां हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी. 200 लाख करोड़ के जीडीपी की तुलना में यह नुक्सान बहुत बहुत गहरा है.

स्कूल, परिवहन, पर्यटन, मनोरंजन, होटल, रेस्तरां, निर्माण आदि  उद्योग और सेवाओं में बहुत से धंधे हमेशा लिए बंद हो रहे हैं. यही है बेकारी की वजह और इसके साथ खत्म हो रही है खपत. आपकी पगार या कारोबार जीडीपी के इस अभागे हिस्से से तो नहीं बधा है, जिसके जल्दी लौटने की उम्मीद नहीं है?

भारतीय अर्थव्यवस्था खपत का खेल है. जनसंख्या से उठने वाली मांग ही 60 फीसद जीडीपी बनाती है. तिमाही के आंकड़ों की रोशनी में इस साल भारत की 26 फीसद खपत या मांग पूरी तरह स्वाहा (एसबीआइ रिसर्च) हो जाएगी. बीते नौ साल में 12 फीसद सालाना की दर से बढ़ रही खपत 2020-21 में 14 फीसद की गिरावट दर्ज करेगी. यानी कि जो लोग बीते साल 100 रुपए खर्च कर रहे थे वे इस साल 80 रुपए ही खर्च कर पाएंगे.

जीडीपी के विनाश का करीब 73.8 फीसद हिस्सा दस राज्यों के खाते में जाएगा, जिनमें महाराष्ट्र, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश बुरे हाल में होंगे. औसत प्रति व्यक्ति आय इस साल 27,000 रुपए कम होगी लेकिन बड़े राज्यों में प्रति व्यक्तिआय का नुक्सान 40,000 रुपए तक होगा.

केंद्र सरकार ने साल भर के घाटे का लक्ष्य अगस्त में ही हासिल कर लिया. सिकुड़ते जीडीपी के जरिए टैक्स तो आने से रहा, अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए सरकारें अब सिर्फ कर्ज ले सकती हैं या नोट छपवा सकती हैं. सरकारों का बढ़ता कर्ज महंगाई बढ़ाएगा, रुपया कमजोर होगा और घबराएंगे शेयर बाजार.

इन सुर्खियों का असर हमें तीन लोग समझा सकते हैंएक हैं रघुबर जो पलामू, झारखंड से बिजली की फिटिंग का काम करने दिल्ली आए थे. दूसरे, जिंदल साहब जिनकी रेडीमेड गारमेंट की छोटी फैक्ट्री है. तीसरे हैं रोहन जो वित्तीय कंपनी में काम करते हैं.

रघुबर जीडीपी के दिवंगत हो रहे हिस्से से जुड़े थे. अब उन्हें 300 रुपए की दिहाड़ी भी मुश्किल से मिलनी है (सरकारी रोजगार योजना की दिहाड़ी 150-180 रुपए). रघुबर भूखे नहीं मरेंगे लेकिन नई मांग के जरिए जीडीपी बढ़ाने में कोई योगदान भी नहीं कर पाएंगे.

सरकार ज्यादा कर्ज उठाएगी. नए टैक्स लगाएगी यानी अगर रोहन की नौकरी बची भी रही तो उनकी कटी हुई पगार जल्दी नहीं लौटेगी. टैक्स और महंगी जिंदगी के साथ रोहन नया क्या खरीदेंगे, उनका खर्च बीते साल के करीब एक-चौथाई कम हो जाएगा.

जिंदल साहब फैक्ट्री के कपड़े रोहन से लेकर रघुबर तक सैकड़ों लोग खरीदते थे, जिनकी मांग तो गई. फिर जिंदल साहब नए लोगों को काम पर लगाकर अपना उत्पादन क्यों बढ़ाने लगे

सरकार के केवल वही कदम कारगर होंगे जिनसे प्रत्यक्ष रूप से लोगों के हाथ में पैसा पहुंचे. खासतौर पर मध्य वर्ग के हाथ में जो अर्थव्यवस्था में मांग की रीढ़ है. इस एक साल में जितने उत्पादन, कमाई और खपत का विनाश हो रहा है उसके आधे हिस्से की भरपाई में भी सात-आठ तिमाही लगेंगी, बशर्ते लोगों की कमाई तेजी से बढे़ और तेल कीमतों में तेजी या सीमा पर कोई टकराव न टूट पड़े.

अगले महीनों में अगर यह सुनना पड़े कि अर्थव्यवस्था सुधर रही है तो प्रचार को एक चुटकी नमक के साथ ग्रहण करते हुए बीते साल के मुकाबले अपनी कमाई, खर्च या बचत का हिसाब देखिएगा.

लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था कोसिर के बल जमीन में धंसा दिया है और पैर आसमान की तरफ हैं. आने वाली प्रत्येक तिमाही में हमें सिर्फ यह बताएगी कि हम गड्ढा कितना भर पाए हैं. 5-6 फीसद की वास्तविक विकास दर लौटने के लिए 2022-23 तक इंतजार करना होगा.  

देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं

पैरों तले ज़मीन है या आसमान है

दुष्यंत


Friday, July 24, 2020

हम सब मंंदी



आप क्या किसी ऐसी कंपनी में नौकरी या निवेश या उससे कारोबार करना चाहेंगे जिसकी कमाई (मुनाफा) लगातार घट रही हो, कारोबारी लागत बढ़ती जा रही हो, कर्ज का बोझ भारी होता जा रहा हो और बचत टूट रही हो?

यकीन मानिए भारत के 15-16 करोड़ परिवार (प्रति परिवार औसत पांच सदस्य) यानी अधिकांश मध्य वर्ग ऐसी ही कंपनियों में बदल चुका है. अगर आप इस मध्य वर्ग का हिस्सा हैं तो कोविड के बाद भारत में लंबी और गहरी मंदी के सबसे बड़े शिकार आप ही होने वाले हैं. यह मंदी करोड़ों परिवारों की वित्तीय जिंदगी का तौर- तरीका बदल देगी.

मध्य वर्ग और भारत का जीडीपी एक-दूसरे का आईना हैं. 60 फीसद जीडीपी (2012 में 56 फीसद) आम लोगों के खर्च पर आधारित है. 2019-20 में आम लोगों का खर्च बढ़ने की गति बुरी तरह गिरकर 5.3 फीसद पर गई थी जो 2018 में 7.4 और पिछले वर्षों में 8-9 फीसद रही थी.

कोविड के बाद इन 15 करोड़ कंपनियों यानी मध्यवर्गीय परिवारों की बैलेंस शीट में क्या होने वाला है, इसके सूत्र हमें उस मंदी में मिलते हैं जो कोविड से पहले ही शुरू हो चुकी थी. कोविड से पहले ही भारतीय मध्य वर्ग के परिवारों का हिसाब-किताब किसी बीमार कंपनी की बैलेंसशीट जैसा हो गया था.

1950 के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब बीते सात वर्षों (2013 से 2020) में भारत में प्रति व्यक्ति खर्च सालाना 7 फीसद की गति से बढ़ा और खर्च योग्य आय में बढ़त की दर केवल 5.5 फीसद रही.

आय कम और खर्च ज्यादा होने से बचत घटी और कर्ज बढ़ा. भारत में परिवारों पर कर्ज का एक मुश्त आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन मोतीलाल ओसवाल ब्रोकरेज के शोध और बैंकिंग आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि नौ वर्ष (2010 से 2019) के बीच, परिवारों पर कुल कर्ज उनकी खर्च योग्य आय के 30 फीसद से बढ़कर 44 फीसद हो गया.

आय में कमी के कारण मकान-जमीन में होने वाली बचत (2013 से 2019 के बीच खर्च योग्य आय का 20 से घटकर 15 फीसद) बढ़ते कर्ज की भेंट चढ़ गई. बाकी जरूरतें कर्ज से पूरी हुईं. इसका असर हमें रियल एस्टेट की मांग पर नजर आया है.

नतीजतन, एक दशक पहले मध्य वर्गीय परिवारों की एक साल की जो बचत, कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्त थी, वहीं पिछले दस सालों में उन कर्ज का आकार उनकी सालाना बचत का दोगुना हो गया.

कोविड की मंदी से पहले इनकंपनियोंकी कमाई और बचत टूट चुकी थी; कर्ज का बोझ बढ़ गया था और महंगाई ने जिंदगी लागत में खासा इजाफा कर दिया था. कोविड के बाद शिकागो विश्वविद्यालय और सीएमआइई का एक अध्ययन बताता है कि लॉकडाउन के बाद भारत के 84 फीसद परिवारों की आय में कमी आई है. बैंक बचत पर रिटर्न गिर रहा है, रोजगारों पर खतरा और आर्थिक सुरक्षा को लेकर गहरी आशंका है.

बाजार, बैंकिंग और वित्तीय अवसरों को करीब से देखने पर महसूस होता है कि भारतीय मध्य वर्ग का वित्तीय व्यवहार बडे़ पैमाने पर बदलने वाला है जो भारत में खपत और मांग का स्वरूप बदल देगा. यानी जो माहौल हमने उदारीकरण के पिछले दो दशकों में देखा था अगले कुछ वर्षों तक दिखाई नहीं देगा.

भारत को मंदी खत्म करने के लिए 6-7 फीसद की न्यूनतम जीडीपी चाहिए जिसके लिए उपभोग खपत में 7 फीसद में की विकास दर जरूरी है जो केवल खर्च योग्य आय बढ़ने से ही आएगी. फिलहाल यह बढ़ने से रही क्योंकि खर्च में बेतहाशा कमी होगी.

भारतीय परिवारों के खर्च के तीन हिस्से हैं. पहला जरूरी खर्च, दूसरा सुविधा और तीसरा बेहतर जिंदगी या शौक. बीते पांच साल में बेहतर जिंदगी या शौक (मनोरंजन, यात्रा, परिवहन, होटल) आदि पर खर्च 17 फीसद सालाना की दर से बढ़ा है जबकि जरूरी और सुविधा वाले उत्पाद-सेवाओं पर खर्च बढ़ने की दर 10 फीसद रही. जाहिर है कि कोविड के बाद शौक और बेहतर जिंदगी वाले खर्च ही टूटेंगे यानी कि इनसे जुड़े कारोबारों में मंदी गहराती जाएगी.

खर्च काटकर लोग बचत बढ़ाएंगे क्योंकि भविष्य अनिश्चि है. इसका असर केवल खपत पर ही नहीं, कर्ज पर भी पड़ेगा. पिछले पांच वर्षों में उद्योगों को बैंक कर्ज केवल 2 फीसद की दर से बढ़ा अलबत्ता खुदरा कर्ज की रफ्तार 17 फीसद के आसपास रही. यह कर्ज भी अब कम होता जाएगा क्योंकि मध्य वर्गीय परिवारों के कस बल ढीले हो चुके हैं.
मध्य वर्ग निन्यानवे के फेर में फंस गया है. उसी की खपत पर जीडीपी निर्भर है और जीडीपी की बढ़त पर उसके भविष्य का दारोमदार है. इसलिए मंदी को नकारने की बजाए अपनी बैलेंसशीट संभालिए. रोजगार या निवेश के लिए उन कारोबारों पर निगाह जमाइए जहां आप खुद खर्च करने वाले हैं.

याद रखिए भारत का आर्थिक विकास उसके मध्यवर्ग ने गढ़ा था और अब यह मंदी भी इसी की बदहाली से निकल रही है और यही वर्ग इसे भुगतने वाला है.