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Friday, December 18, 2020

बेदम हुए बीमार ...

 


इतिहास के किसी भी काल खंड में, किसी भी सरकार के मातहत यह कल्पना नहीं की गई होगी कि भारत में लोग 90 रुपए लीटर का पेट्रोल खरीदेंगे, जबकि कच्चे तेल कीमत मंदी के कुएं (प्रति बैरल 50 डॉलर से भी कम) में बैठी हो. भयानक मंदी और मांग के सूखे के बीच कंपनियां अगर कीमतें बढ़ाने लगें तो आर्थिक तर्क लड़खड़ा जाते हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन याद आते हैं कि हमारा कुल इतिहास सरकारों की सूझबूझ का लेखा-जोखा है.

मंदी से दुनिया परेशान है लेकिन भारत के इतिहास की सबसे खौफनाक मंदी के नाखूनों में बढ़ती कीमतों का जहर भरा जा रहा है. आर्थिक उत्पादन के आंकड़े मांग की तबाही के सबूत हैं, बेकारी बढ़ रही है और वेतन घट रहे हैं फिर भी खुदरा महंगाई छह माह के सर्वोच्च स्तर पर है. यहां तक कि रिजर्व बैंक को कर्ज सस्ता करने की प्रक्रिया रोकनी पड़ी है.

आखिर कहां से आ रही है महंगाई?

कुछ अजीबोगरीब सुर्खियां! सीमेंट छह महीने में 7 फीसद (दक्षिण भारत में बढ़ोतरी 18 फीसद) महंगा हो चुका है. दो माह में मिल्क पाउडर (पैकेटबंद दूध का आधार का स्रोत) की कीमतें 20 फीसद बढ़ी हैं यानी दूध महंगा होगा. वोडाफोन आइडिया ने फोन दरों में 6 से 8 फीसद की बढ़ोतरी की है. अब अन्य कंपनियों की बारी है. 2020 में चौथी बार मोबाइल फोन सेट की कीमत बढ़ने वाली है. डीजल महंगा होने से ट्रकों के किराए 10-12 फीसद तक बढ़ चुके हैं.

बीते छह महीने में स्टील 30 फीसद, एल्युमिनियम 40 फीसद और तांबा 70 फीसद महंगा हुआ है. खाद्य महंगाई तो थी ही, बुनियादी धातुओं की कीमत और ट्रकों का भाड़ा बढ़ने के कारण फैक्ट्री महंगाई ने बढ़ना शुरू कर दिया है.

मांग की अभूतपूर्व कमी के बीच भी कीमतें इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि...

कंपनियों को अर्थव्यवस्था में ग्रोथ जल्दी लौटने की उम्मीद नहीं है. अब जो बिक रहा है उसे महंगा कर घाटे कम किए जा रहे हैं इसलिए कच्चे माल से लेकर उत्पाद और सेवाओं तक मूल्यवृद्धि का दुष्चक्र बन रहा है

आत्मनिर्भरता जब आएगी तब आएगी लेकिन असंख्य उत्पादों पर इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाकर और आयात में सख्ती से सरकार ने लागत बढ़ा दी है.

सरकार के लिए भी यह महंगाई ही अकेली उम्मीद है. जीएसटी के मासिक संग्रह में दिख रही बढ़ोतरी बिक्री नहीं, कीमतें बढ़ने से आई है क्योंकि अधिकांश उत्पादों पर मूल्यानुसार (एडवैलोरैम) टैक्स लगता है. अप्रैल से अक्तूबर के बीच सभी टैक्सों का संग्रह घटा है जो मांग और आय टूटने का सबूत है. बढ़त केवल पेट्रो उत्पाद पर लगने वाले टैक्स (40 फीसद) में हुई है.

इतनी महंगाई से सरकार का काम नहीं चलेगा. जीएसटी का घाटा पूरा करने के लिए जो कर्ज लिए गए हैं, उन्हें चुकाने के लिए राज्य स्तरीय टैक्स व बिजली-पानी की दरें बढ़ेंगी.

महंगाई खपत खत्म करती है. भारत का 55 फीसद जीडीपी आम लोगों की खपत से आता है जो वर्तमान मूल्यों पर करीब 153 लाख करोड़ रुपए है. क्रिसिल का आकलन है कि अगर खुदरा महंगाई एक फीसद बढ़े तो जीने की लागत 1.53 लाख करोड़ रुपए बढ़ जाती है.

महंगाई गरीबी की दोस्त है, बचत की दुश्मन है. खाद्य महंगाई एक फीसदी बढ़ने से खाने पर खर्च करीब 0.33 लाख करोड़ रुपए बढ़ जाता है. समझना मुश्किल नहीं कि बेरोजगारी और कमाई टूटने के बीच कम आय वाले लोग महंगाई से किस कदर गरीब हो रहे होंगे.

बचत पर भी हम कमा नहीं, गंवा रहे हैं क्योंकि बैंकों में एफडी (मियादी जमा) पर औसत ब्याज दर (4.5-5.5 फीसद) महंगाई दर से करीब दो से ढाई फीसद कम है. सनद रहे कि खुदरा महंगाई दर आठ फीसद के करीब है.

इस बेहद मुश्किल वक्त में जब सरकारें जिंदगी के दर्द कम करने की कोशिश करती हैं तब भारत यह साबित कर रहा है अगर इस समय कच्चे तेल की कीमत 70 डॉलर प्रति बैरल हो जाए तो मौजूदा टैक्स पर पेट्रोल 150 रुपए प्रति लीटर हो जाएगा.

1970 से पहले तक स्टैगफ्लेशन यानी मंदी और महंगाई की जोड़ी आर्थिक संकल्पनाओं से भी बाहर थी क्योंकि कीमतें मांग-आपूर्ति का नतीजा मानी जाती थीं. 1970 के दशक में राजनैतिक कारणों (इज्राएल को अमेरिका के समर्थन पर तेल उत्पादक देशों का बदला) से तेल की आग भड़कने के बाद पहली बार यह स्थापित हुआ कि अगर ईंधन महंगा हो जाए तो मंदी और महंगाई एक साथ भी आ सकती हैं. तब से आज तक स्टैगफ्लेशन की संभावनाओं में ईंधन की कीमत को जरूरी माना गया था. लेकिन भारत यह साबित कर रह रहा है, बेहद सस्ते कच्चे तेल और मजबूत रुपए (सस्ते आयात) के बावजूद भारी टैक्स और आर्थिक कुप्रबंध से मंदी के साथ महंगाई (स्टैगफ्लेशन) की मेजबानी जा सकती है.

पीठ मजबूत रखिए, महामंदी लंबी चलेगी क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था अब  खाद्य, ईंधन, फैक्ट्री और नीतिगत चारों तरह की महंगाई की मेजबानी कर रही है.

 

Wednesday, August 3, 2016

आगेे और महंगाई है !


अच्‍छे मानसून के बावजूद, कई दूसरे कारणों के चलते अगले दो वर्षों में महंगाई  की चुनौती समाप्‍त होने वाली नहीं है। 

देश में महंगाई पर अक्सर चर्चा शुरू हो जाती हैलेकिन जब सरकार कोई अच्छे फैसले करती है तो उसका कोई जिक्र नहीं करता." ------ 22 जुलाई को गोरखपुर की रैली में यह कहते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति और आर्थिक प्रबंधन की सबसे पुरानी दुविधा को स्वीकार कर रहे थेजिसने किसी प्रधानमंत्री का पीछा नहीं छोड़ा. कई अच्छी शुरुआतों के बावजूद महंगाई ने ''अच्छे दिन" के राजनैतिक संदेश को बुरी तरह तोड़ा है. पिछले दो साल में सरकार महंगाई पर नियंत्रण की नई सूझ या रणनीति लेकर सामने नहीं आ सकी जबकि अंतरराष्ट्रीय माहौल (कच्चे तेल और जिंसों की घटती कीमतें) भारत के माफिक रहा है. सरकार की चुनौती यह है कि अच्छे मॉनसून के बावजूद अगले दो वर्षों में टैक्सबाजारमौद्रिक नीति के मोर्चे पर ऐसा बहुत कुछ होने वाला हैजो महंगाई की दुविधा को बढ़ाएगा.
भारत के फसली इलाकों में बारिश की पहली बौछारों के बीच उपभोक्ता महंगाई झुलसने लगी है. जून में उपभोक्ता कीमतें सात फीसदी का आंकड़ा पार करते हुए 22 माह के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गईं. अच्छे मॉनसून की छाया में महंगाई का जिक्र अटपटा नहीं लगना चाहिए. महंगाई का ताजा इतिहास (2008 के बाद) गवाह है कि सफल मॉनूसनों ने खाद्य महंगाई पर नियंत्रण करने में कोई प्रभावी मदद नहीं की है अलबत्ता खराब मॉनसून के कारण मुश्किलें बढ़ जरूर जाती हैं. पिछले पांच साल में भारत में महंगाई के सबसे खराब दौर बेहतर मॉनसूनों की छाया में आए हैं. इसलिए मॉनसून से महंगाई में तात्कालिक राहत के अलावा दीर्घकालीन उम्मीदें जोडऩा तर्कसंगत नहीं है.
भारत की महंगाई जटिलजिद्दी और बहुआयामी हो चुकी है. नया नमूना महंगाई के ताजा आंकड़े हैं. आम तौर पर खाद्य उत्पादों की मूल्य वृद्धि को शहरी चुनौती माना जाता है लेकिन मई के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण इलाकों में महंगाई बढऩे की रफ्तार शहरों से ज्यादा तेज थी. खेती के संकट और ग्रामीण इलाकों में मजदूरी दर में गिरावट के बीच ग्रामीण महंगाई के तेवर राजनीति के लिए डरावने हैं.
अच्छे मॉनसून के बावजूद तीन ऐसी बड़ी वजह हैं जिनके चलते अगले दो साल महंगाई के लिए चुनौती पूर्ण हो सकते हैं.
सबसे पहला कारण सरकारी कर्मचारियों के वेतन में प्रस्तावित बढ़ोतरी है. इंडिया रेटिंग का आकलन है कि वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद खपत में 45,100 करोड़ रु. की बढ़ोतरी होगी. प्रत्यक्ष रूप से यह फैसला मांग बढ़ाएगालेकिन इससे महंगाई को ताकत भी मिलेगी जो पहले ही बढ़त की ओर है. जैसे ही राज्यों में वेतन बढ़ेगामांग व महंगाई दोनों में एक साथ और तेज बढ़त नजर आएगी.
रघुराम राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक महंगाई पर अतिरिक्त रूप से सख्त था और ब्याज दरों को ऊंचा रखते हुए बाजार में मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित कर रहा था. केंद्रीय बैंक का यह नजरिया दिल्ली में वित्त मंत्रालय को बहुत रास नहीं आया. राजन की विदाई के साथ ही भारत में ब्याज दरें तय करने का पैमाना बदल रहा है. अब एक मौद्रिक समिति महंगाई और ब्याज दरों के रिश्ते को निर्धारित करेगी. राजन के नजरिए से असहमत सरकार आने वाले कुछ महीनों में उदार मौद्रिक नीति पर जोर देगी. मौद्रिक नीति के बदले हुए पैमानों से ब्याज दरें कम हों या न हों लेकिन महंगाई को ईंधन मिलना तय है.
तीसरी बड़ी चुनौती बढ़ते टैक्स की है. पिछले तीन बजटों में टैक्स लगातार बढ़ेजिनका सीधा असर जेब पर हुआ. रेल किराएफोन बिलइंटरनेटस्कूल फीस की दरों में बढ़ोतरी इनके अलावा थी. इन सबने मिलकर पिछले दो साल में जिंदगी जीने की लागत में बड़ा इजाफा किया. जीएसटी को लेकर सबसे बड़ी दुविधा या आशंका यही है कि यदि राज्यों और केंद्र के राजस्व की फिक्र की गई तो जीएसटी दर ऊंची रहेंगी. जीएसटी की तरफ बढ़ते हुए सरकार को लगातार सर्विस टैक्स की दर बढ़ानी होगीजिसकी चुभन पहले से ही बढ़ी हुई है.
महंगाई पर नियंत्रण की नई और प्रभावी रणनीति को लेकर नई सरकार से उम्मीदों का पैमाना काफी ऊंचा था. इसकी वजह यह थी कि मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नई सूझ लेकर आने वाले थे. मांग (मुद्रा का प्रवाह) सिकोड़ कर महंगाई पर नियंत्रण के पुराने तरीकों के बदले मोदी को आपूर्ति बढ़ाकर महंगाई रोकने वाले स्कूल का समर्थक माना गया था.
याद करना जरूरी है कि मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के बतौर एक समिति की अध्यक्षता की थीजो महंगाई नियंत्रण के तरीके सुझाने के लिए बनी थी. उसने 2011 में तत्कालीन सरकार को 20 सिफारिशें और 64 सूत्रीय कार्ययोजना सौंपी थीजो आपूर्ति बढ़ाने के सिद्धांत पर आधारित थी. समिति ने सुझाया था कि खाद्य उत्पादों की अंतरराज्यीय आपूर्ति बढ़ाने के लिए मंडी कानून को खत्म करना अनिवार्य है. मोदी समिति भारतीय खाद्य निगम को तीन हिस्सों में बांट कर खरीदभंडार और वितरण को अलग करने के पक्ष में थी. इस समिति की तीसरी महत्वपूर्ण राय कृषि बाजार का व्यापक उदारीकरण करने पर केंद्रित थी.
दिलचस्प है कि पिछले ढाई साल में खुद मोदी सरकार इनमें एक भी सिफारिश को सक्रिय नहीं कर पाई. सरकार ने सत्ता में आते ही मंडी (एपीएमसी ऐक्ट) कानून को खत्म करने या उदार बनाने की कोशिश की थी लेकिन इसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी भाव नहीं दिया. एनडीए सरकार ने पूर्व खाद्य मंत्री और बीजेपी नेता शांता कुमार के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी जिसने एफसीआइ के विभाजन व पुनर्गठन को खारिज कर दिया और खाद्य प्रबंधन व आपूर्ति तंत्र में सुधार जहां का तहां ठहर गया. 
मोदी सरकार यदि लोगों के ''न की बात" समझ रही है तो उसे बाजार में आपूर्ति बढ़ाने वाले सुधार शुरू करने होंगे.अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमतों में गिरावट उनकी मदद को तैयार है. 
दरअसलमौसमी महंगाई उतनी बड़ी चुनौती नहीं है जितनी इस अपेक्षा का स्थायी हो जाना कि महंगाई कभी कम नहीं हो सकती. भारत में इस अंतर्धारणा ने महंगाई नियंत्रण की हर कोशिश के धुर्रे बिखेर दिए हैं. इस धारणा को तोडऩे की रणनीति तैयार करना जरूरी है अन्यथा मोदी सरकार को महंगाई के राजनैतिक व चुनावी नुक्सानों के लिए तैयार रहना होगाजो सरकार के पुरानी होने के साथ बढ़ते जाएंगे.

Monday, November 18, 2013

महंगाई का यंगिस्‍तान

बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्‍या मानने वाली दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्‍याशास्‍त्र बनता देख रही है।

दिल्‍ली के तख्‍त का ताज किसे मिलेगा यह उतना बड़ा सवाल नहीं है जितनी बड़ी पहेली यह है कि क्‍या भारत की सबसे बडी नेमत ही दरअसल उसकी सबसे बड़ी मुसीबत बनने वाली है। भारत की सबसे बड़ी संभावना के तौर

चमकने वाली युवा आबादी अब, समृद्धि की जयगाथा नहीं बल्कि मुसीबतों का नया अर्थशास्‍त्र लिखने लगी है। भारत की लंबी और जिद्दी महंगाई में इस यंगिस्‍तान की भूमिका अचानक बड़ी होने लगी है। एक तरफ उत्‍पादन व उत्‍पादकता में गिरावट और दूसरी तरफ खपत की क्षमताओं से लैस इस कार्यशील आबादी ने ताजा महंगाई को एक जटिल सामाजिक परिघटना बना दिया है। भारत में लोगों की कमाई को कोई पंख नहीं लगे हैं, लेकिन खपत में सक्षम आबादी बढ़ने से महंगाई की नींव में मांग व आपूर्ति में स्‍थायी असंतुलन का सीमेंट भर गया है। तभी तो रिकार्ड कृषि उत्‍पादन और ब्‍याज दरों में लगातार वृ‍द्धि के बावजूद जिद्दी महंगाई पिछले पांच साल से जीत का अट्टहास कर रही है और बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्‍या मानने वाली दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्‍याशास्‍त्र बनता देख रही है।
मिल्‍टन फ्रीडमैन ने बड़े ठोस विश्‍वास के साथ कहा था कि मुद्रास्‍फीति हर जगह और हमेशा एक मौद्रिक परिघटना है। खुले बाजार व मु्द्रास्‍फीति के विशेषज्ञ अमेरिकी अर्थविद फ्रीडमैन मानते थे कि सरकारें जितनी ज्‍यादा करेंसी छापेंगी मुद्रास्‍फीति उतनी ही बढ़ेगी। लेकिन बीसवीं सदी के इस वैचारिक पुरोधा को इक्‍कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में गलत

Monday, August 6, 2012

सूखे का मौका


सूखा आ गया है यानी सरकारों को महसूस करने का मौका आ गया है।  पिछले दो साल में हमें सरकारें नहीं दिखीं हैं या अगर दिखीं हैं तो सिर्फ अपना मुंह छिपाती हुई। लेकिन अब  अगर देश में सरकारें हैं तो उन्‍हें अब खुद को साबित करने के लिए सड़क पर आ जाना चाहिए। पिछले एक दशक में यह तीसरा सूखा है जो सबसे अलग, बेहद पेचीदा किस्‍म का है। नीतियों के शून्‍य, ग्रोथ की ढलान, बहुआयामी उलझनों के बीच नियति ने चुनौती की कहानी को एक नया ट्विस्‍ट दिया है। यह सूखा खेत से निकल कर सरकार के खजाने तक जाएगा और बैंकों के खातों से होता हुआ बाजार तक आएगा। इसलिए यह सरकारों के बुद्धि और विवेक का सबसे तगड़ा इम्‍तहान लेने वाला है। केंद्र की गैरहाजिर और प्रभावहीन सरकार के लिए यह आपदा दरअसल लोगों से जुड़ने का एक अवसर है। वरना तो भारत के इतिहास में सूखा दरअसल लूट का नया मौका ही होता है।
तब और अब 
अपने 137 साल के इतिहास में भारतीय मौसम विभाग कभी भी मानसून की विफलता नहीं बता सका। पिछले सौ वर्षों में 85 फीसदी मानूसन सामान्‍य रहे हैं इसलिए मानूसन को सामान्‍य कहना मौसम विभाग आदत बन गई है। इस मानसून का झूठ हमें देर तक सुनना पड़ा, क्‍यों कि देश को सूखा बताने का फैसला भी सियासत करती है यह पिछले एक दशक का तीसरा सूखा है। 2002-03 और 2009 की तुलना में यह हीं से कमजोर नहीं है। सूखे की गंभीरता को सामान्‍य से कम बारिश से स्‍तर से नापते हैं। इस अगस्‍त तक सामान्‍य से औसतन 19 फीसदी कम पानी बरसा है जबकि देश की अनाज पट्टी में बारिश की कमी 37 फीसदी तक है। अभी सितंबर बाकी है, जब अल निनो (समुद्री सतह के तापमान में वृद्धि) असर करेगा। पिछले 40 साल में जो पांच बड़े सूखे

Monday, September 19, 2011

शुद्ध स्‍वदेशी संकट

क्या हमारी सरकार दीवालिया (जैसे यूरोप) हो रही है?  क्या हमारे बैंक (जैसे अमेरिका) डूब रहे हैं? क्या हमारा अचल संपत्ति बाजार ढह (जैसे चीन) रहा है?  क्या हम सूखा, बाढ़ या सुनामी (जैसे जापान) के मारे हैं ? इन सब सवालों का जवाब होगा एक जोरदार नहीं !! तो फिर हमारी ग्रोथ स्टोरी त्रासदी में क्यों बदलने जा रही है ? हम क्यों औद्योगिक उत्पाहदन में जबर्दस्त गिरावट, बेकारी और बजट घाटे की समस्याओं की तरफ बढ़ रहे हैं। हम तो दुनिया की ताजी वित्तीय तबाही से लगभग बच गए थे। हमें तो सिर्फ महंगाई का इलाज तलाशना था, मगर हमने मंदी को न्योत लिया। भारतीय अर्थव्यवस्था का ताजा संकट विदेश से नहीं आया है इसे देश के अंदाजिया आर्थिक प्रबंधन, सुधारों के शून्य और खराब गवर्नेंस ने तैयार किया है। हमारी की ग्रोथ का महल डोलने लगा है। नाव में डूबना इसी को कहते हैं।
महंगाई का हाथ
महंगाई का हाथ पिछले चार साल से आम आदमी के साथ है। इस मोर्चे पर सरकार की शर्मनाक हार काले अक्षरों में हर सप्ताह छपती है और सरकार अंतरराष्ट्रीय तेल कीमतों के पीछे छिपकर भारतीयों को सब्सिडीखोर होने की शर्म से भर देती है। भारतीय महंगाई अंतरराष्ट्री य कारणों से सिर्फ आंशिक रुप से प्रेरित है। थोक कीमतों वाली (डब्लूपीआई) महंगाई में सभी ईंधनों (कोयला, पेट्रो उत्पाद और बिजली) का हिस्सां केवल

Monday, May 23, 2011

अब तो ग्रोथ पर बन आई

मुंबई में रिजर्व बैंक की छत से एक कौए ने ब्याज दरें बढ़ने के ऐलान के साथ महंगाई से डराने वाली प्रभाती सुनाई, तो दिल्ली में वित्त मंत्रालय की मुंडेर पर बैठे दूसरे कौए ने पेट्रो कीमतों में बढ़ोत्तडरी की हांक लगाते हुए कहा कि यह कैसी रही भाई? ... यह सुनकर स्टॉक एक्सचेंज की छत पर बैठा एक दिलजला कौआ चीखा, चुप करो अब तो ग्रोथ पर बन आई। यकीनन, अब भारत के तेज आर्थिक विकास पर बन आई है। महंगाई ने सात साल में कमाई गई सबसे कीमती पूंजी पर दांत गड़ा दिये हैं। तमाम संकटों के बावजूद टिकी रही हमारी चहेती ग्रोथ अब खतरे में है। रिजर्व बैंक कह चुका है कि महंगाई अब विकास को खायेगी। सरकार भी ग्रोथ बचाने के बजाय महंगाई बढ़ाने (पेट्रो मूल्य वृद्धि) में मुब्तिला है। ग्रोथ, बढ़ती कमाई और रोजगार के  सहारे ही पिछले तीन साल से महंगाई को झेल रहे थे लेकिन मगर हम महंगाई को अपनी तरक्की खाते देखेंगे। दहाई की (दस फीसदी) की विकास दर का ख्वाब चूर होने के करीब है।
हारने की रणनीति
हम दुनिया की सबसे ज्यादा महंगाई वाली अर्थव्यवस्थाओं में एक है और यह हाल के इतिहास का सबसे लंबी और जिद्दी महंगाई है। महंगाई के इन वर्षों में चुनाव न आते तो शायद सरकारें महंगाई से निचुडते आम लोगों को ठेंगे पर ही रखतीं। क्यों कि महंगाई से मुकाबला सियासत की गणित के तहत हुआ है। तभी तो बंगाल में वोट पड़ते पेट्रोल पांच रुपये बढ़ गया। बढ़ोत्तंरी अगर क्रमश: होती तो शायद दर्द कुछ कम रहता। पिछले तीन साल की महंगाई ने केंद्र के आर्थिक प्रबंधकों की दरिद्र दूरदर्शिता को उघाड़ दिया है। ताजा महंगाई ने हमें 2008-09 में पकड़ा था। याद कीजिये कि तब से प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, योजना आयोग के मुखिया, रिजर्व बैंक गवर्नर आदि ने कितनी बार यह नहीं कहा कि तीन माह में महंगाई काबू में होगी मगर तीन माह खत्म होने से पहले ही इन्हों ने अपनी बात वापस चबा कर निगल

Monday, May 2, 2011

तख्ता पलट महंगाई !

क सरकार ने दूसरी से खुसफुसाकर पूछा क्या इजिप्ट की बगावत यकीनन खाद्य उत्पादों की महंगाई से शुरु हुई थी? मुद्रा कोष (आईएमएफ) तो कह रहा है कि यमन व ट्यूनीशिया की चिंगारी भी महंगाई से भड़की थी।.. जरा देखो तो, महंगे ईंधन के कारण गुस्साये शंघाई के हड़ताली ट्रक वालों को सख्त चीन ने कैसे पुचकार कर शांत किया।... महंगाई के असर से तख्ता पलट ?? सरकारों में खौफ और बेचैनी उफान पर है। लाजिमी भी है, एक तरफ ताजे जन विप्ल‍वों की जड़ें महंगाई में मिल रही हैं तो दूसरी तरफ बढ़ती कीमतों का नया प्रकोप आस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक, चिली से चीन तक और रुस से चीन से अफ्रीका तक पूरी दुनिया को लपेट रहा है। पिछले छह माह में महंगाई एक अभूतपूर्व सार्वभौमिक आपदा बन गई है। मुद्रास्फीति से डरे अमेरिकी फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नांके (सौ साल पुरानी परंपरा तोड़ कर) को बीते सप्ताह मीडिया को सफाई देने आना पड़ा। यूरोप में सस्‍ते कर्ज की दुकानें बंद हो गईं और चीन कीमतों महंगाई रोकने के लिए ग्रोथ गंवाने को तैयार है। भारत तो अब महंगाई की आदत पड़ गई है। भूमंडलीय महंगाई की यह हाल फिलहाल में यह सबसे डरावनी नुमाइश है। बढ़ती कीमतें यूरोप व अमेरिका में बेहतरी की उम्मीदों की बलि मांग रही हैं जबकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं अपनी तेज ग्रोथ का एक हिस्सा इसे भेंट करना होगा। फिर भी राजनीतिक खतरे टलने की गारंटी नहीं है।
सबकी जेब में छेद
मंदी व संकटों से छिली दुनिया के जख्मों पर महंगाई का अभूतपूर्व नमक बरसने लगा है। महंगाई अब अंतरराष्ट्रीय मुसीबत है। पूरा आसियान क्षेत्र मूल्य वृद्धि से तप रहा है। वियतनाम, थाइलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर में महंगाई तीन से दस फीसदी तक है। चीन में जब उपभोक्ता उत्पाद पांच फीसदी से ज्यादा महंगे हुए तो सरकार ने कीमतें बढ़ाने पर पाबंदी लगा दी। महंगाई से डरा चीन अपने युआन को मजबूत करने अर्थात निर्यात वृद्धि से समझौते को तैयार है। भारत दो साल 13 फीसदी महंगाई जूझ रहा है। रुस आठ फीसदी, यूरोजोन दो फीसदी, ब्रिटेन 3.3 फीसदी, पोलैंड तीन फीसदी

Monday, March 7, 2011

बजट तो कच्चा है जी !

अथार्थ
गरबत्ती का बांस, क्रूड पाम स्टीरियन, लैक्टोज, टैनिंग एंजाइन, सैनेटरी नैपकिन, रॉ सिल्क पर टैक्स ......! वित्त मंत्री मानो पिछली सदी के आठवें दशक का बजट पेश कर रहे थे। ऐसे ही तो होते हैं आपके जमाने में बाप के जमाने के बजट। हकीकत से दूर, अस्त व्यस्त और उबाऊ। राजनीति, आर्थिक संतुलन और सुधार तीनों ही मोर्चों पर बिखरा 2011-12 का बजट सरकार की बदहवासी का आंकड़ाशुदा निबंध है। महंगाई की आग में 11300 करोड़ रुपये के नए अप्रत्यक्ष करों का पेट्रोल झोंकने वाले इस बजट और क्‍या उम्मीद की जा सकती है। इससे तो कांग्रेस की राजनीति नहीं सधेगी क्यों कि इसने सजीली आम आदमी स्कीमों पर खर्च का गला बुरी तरह घोंट कर सोनिया सरकार (एनएसी) के राजनीतिक आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा कर दिया है। सब्सिडी व खर्च की हकीकत से दूर घाटे में कमी के हवाई किले बनाने वाले इस बजट का आर्थिक हिसाब किताब भी बहुत कच्चा है। और रही बात सुधारों की तो उनकी चर्चा से भी परहेज है। प्रणव दा ने अपना पूरा तजुर्बा उद्योगों के बजट पूर्व ज्ञापनों पर लगाया और कारपोरेट कर में रियायत देकर शेयर बाजार से 600 अंकों में उछाल की सलामी ले ली। ... लगता है कि जैसे बजट का यही शॉर्ट कट मकसद था।
महंगाई : बढऩा तय
इस बजट ने महंगाई और सरकार में दोस्ती और गाढ़ी कर दी है। अगले वर्ष के लिए 11300 करोड़ रुपये और पिछले बजट में 45000 करोड़ रुपये नए अप्रत्यक्ष करों के बाद महंगाई अगर फाड़ खाये तो क्या अचरज है। चतुर वित्त मंत्री ने महंगाई के नाखूनों को पैना करने का इंतजाम छिपकर किया है। जिन 130 नए उत्पादों को एक्साइज ड्यूटी के दायरे में लाया गया है उससे पेंसिल से लेकर मोमबत्ती तक दैनिक खपत वाली

Monday, January 24, 2011

टाइम बम पर बैठे हम

अर्थार्थ
र्थव्यथवस्था के डब्लूटीसी या ताज (होटल) को ढहाने के लिए किसी अल कायदा या लश्क र-ए-तैयबा की जरुरत नहीं हैं, आर्थिक ध्वंस हमेशा देशी बमों से होता है जिन्हें कुछ ताकतवर, लालची, भ्रष्टं या गलतियों के आदी लोगों एक छोटा का समूह बड़े जतन के साथ बनाता है और पूरे देश को उस बम पर बिठाकर घड़ी चला देता है। बड़ी उम्मीदों के साथ नए दशक में पहुंच रही भारतीय अर्थव्यवस्था भी कुछ बेहद भयानक और विध्वंसक टाइम बमों पर बैठी है। हम अचल संपत्ति यानी जमीन जायदाद के क्षेत्र में घोटालों की बारुदी सुरंगों पर कदम ताल कर रहे हैं। बैंक अपने अंधेरे कोनों में कई अनजाने संकट पाल रहे हैं और एक भीमकाय आबादी वाले देश में स्थांयी खाद्य संकट किसी बड़ी आपदा की शर्तिया गारंटी है। खाद्य आपूर्ति, अचल संपत्ति और बैंकिग अब फटे कि तब वाले स्थिति में है। तरह तरह के शोर में इन बमों की टिक टिक भले ही खो जाए लेकिन ग्रोथ की सोन चिडि़या को सबसे बड़ा खतरा इन्ही धमाकों से है।
जमीन में बारुद
वित्तीय तबाहियों का अंतरराष्ट्रीय इतिहास गवाह है कि अचल संपत्ति में बेसिर पैर के निवेश उद्यमिता और वित्तीय तंत्र की कब्रें बनाते हैं। भारत में येदुरप्पाओं, रामलिंग राजुओं से लेकर सेना सियासत, अभिनेता, अपराधी, व्यायपारी, विदेशी निवेशक तक पूरे समर्पण के साथ अर्थव्ययवस्था में यह बारुदी सुरंगे बिछा रहे हैं। मार्क ट्वेन का मजाक (जमीन खरीदो क्यों कि यह दोबारा नहीं बन सकती) भारत में समृद्ध होने का पहला प्रमाण है। भ्रष्ट राजनेता, रिश्वतखोर अफसर, नौदौलतिये कारोबारी, निर्यातक आयातक और माफिया ने पिछले एक दशक में जायदाद का