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Saturday, February 20, 2021

महंगाई की कमाई

 

भारत में सरकार महंगाई बढ़ाती ही नहीं बल्कि बढ़ाने वालों को बढ़ावा भी देती हैं! सरकारों को समझदारी का मानसरोवर मानने वालेे एक उत्साही  , यह सुनकर भनभना उठेे. क्या कह रहे हो? सरकार ऐसा क्यों करेगी? जवाब आया कि रेत से सिर निकालिए. प्रसिद्ध अर्थविद् मिल्टन फ्रीडमन के जमाने से लेकर आज तक दुनिया का प्रत्येक अर्थशास्त्री यह जानता रहा है कि महंगाई ऐसा टैक्स है जो सरकारें बगैर कानून के लगाती हैं.

पेट्रोल-डीजल पर भारी टैक्स और बेकारी व गरीबी के बीच, मांग के बिना असंख्य उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी मौसमी उठा-पटक की देन नहीं है. भारत की आर्थि‍क नीतियां अब फ्रीडमन को नहीं, ऑस्ट्रियन अर्थविद् फ्रेडरिक वान हायेक को भी सही साबित कर रही हैं, जो कहते थे, अधि‍कांश महंगाई सरकारें खुद पैदा करती हैं, अपने फायदे के लिए.

यानी कि सरकारों की प्रत्यक्ष नीतियों से निकलने वाली महंगाई, जो सिद्धांतों का हिस्सा थीं, वह भारत में हकीकत बन गई है.

महंगाई को बहुत से कद्रदान जरूरी शय बताते हैं लेकिन यह इस पर निर्भर है कि महंगाई का कौन सा संस्करण है. अच्छी महंगाई में मांग और खपत के साथ कीमतें बढ़ती हैं (डिमांड पुल इन्फ्लेशन). यानी मूल्यों के साथ कमाई (वेज पुश) भी बढ़ती है लेकिन भारत में सरकार ने महंगाई परिवार की सबसे दुर्गुणी औलाद को गोद ले लिया है, जिसमें मांग नहीं बल्कि उत्पादन और खपत की लागत बढ़ती है. यह कॉस्ट पुश इन्फ्लेशन है जो अब अपने विकराल रूप में उतर आई है.

महंगाई का यही अवतार अमीरों को अमीर और गरीबों को और ज्यादा निर्धन बनाता है. लागत बढ़ाने वाली महंगाई अक्सर टैक्स की ऊंची दरों या ईंधन कीमतों से निकलती है. सबसे ताजा वाकया 2008 के ब्रिटेन का है, जब दुनिया में बैंकिंग संकट के बाद गहरी मंदी के बीच वहां महंगाई बढ़ी, जिसकी वजह से मांग नहीं बल्कि टैक्स और देश की मुद्रा पाउंड स्ट‌र्लिंग के अवमूल्यन के कारण आयातों की महंगाई थी.

भारत का पूरा खपत टैक्स ढांचा सिर्फ महंगाई बढ़ाने की नीति पर केंद्रित है. जीएसटी, उत्पाद या सेवा की कीमत पर लगता है, यानी कीमत बढऩे से टैक्स की उगाही बढ़ती है. खपत पर सभी टैक्स देते हैं और इसलिए सरकार खपत को हर तरह से निचोड़ती है. केंद्र और राज्यों में एक ही उत्पाद और सेवा पर दोहरे-तिहरे टैक्स हैं, टैक्स पर टैक्स यानी सेस की भरमार है. आत्मनिर्भरता के नाम पर महंगी इंपोर्ट ड्यूटी है, यही महंगाई बनकर फूट रहा है.

भारत सस्ते उत्पादन के बावजूद महंगी कीमतों वाला मुल्क है. पेट्रोल-डीजल सस्ते उत्पादन के बावजूद टैक्स के कारण जानलेवा बने हुए हैं. दक्षिण एशि‍या के 12 प्रमुख देशों की तुलना में भारत में बिजली की उत्पादन लागत सबसे कम है (वुड मैकेंजी रिपोर्ट) लेकिन हम लागत की तीन गुनी कीमत भरते हैं. टैक्स वाली महंगाई भूमि, धातुओं, ऊर्जा, परिवहन को लगातार महंगा कर रही है जिसके कारण अन्य उत्पाद व सेवाएं महंगी होती हैं. ताजा महंगाई के आंकड़े बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था अब मौसमी नहीं बल्कि बुनियादी महंगाई (कोर इन्फ्लेशन) की शि‍कार है, जो मांग न होने के बावजूद इसलिए बढ़ रही है क्योंकि लागत बढ़ रही है.  

महंगाई अब सरकार, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज कंपनियों का साझा उपक्रम है. टैक्स पर टैक्स थोपकर सरकारें उत्पादकों को कीमतें बढ़ाने की खुली छूट दे देती हैं. अप्रत्यक्ष टैक्स उत्पादक नहीं देते, यह तो उपभोक्ता की जेब से निकलता है, इसलिए कंपनियां खुशी-खुशी कीमत बढ़ाती हैं. मसलन, बीते साल अगस्त से दिसंबर के बीच स्टील की कीमत 37 फीसद बढ़ गई और असंख्य उत्पाद महंगे हो गए.

मंदी के बीच इस तरह की महंगाई, एक के बाद दूसरी लागत बढऩे का दुष्चक्र रचती है, जिसमें हम बुरी तरह फंस रहे हैं. अगर आपको लगता है कि यह मुसीबतों के बीच मुनाफाखोरी है तो सही पकड़े हैं. जीएसटी के तहत जो टैक्स दरें घटीं उन्हें कंपनियों ने उपभोक्ताओं से नहीं बांटा यानी कीमतें नहीं घटाईं. जीएसटी की ऐंटी प्रॉफिटियरिंग अथॉरिटी ने एचयूएल, नेस्ले से लेकर पतंजलि तक कई बड़े नामों को 1,700 करोड़ रुपए की मुनाफाखोरी करते पकड़ा. लेकिन इस फैसले के खि‍लाफ कंपनियां हाइकोर्ट में मुकदमा लड़ रही हैं और मुनाफाखोरी रोकने वाले प्रावधान को जीएसटी से हटाने की लामबंदी कर रही हैं.

अक्षम नीतियों और भारी टैक्स के कारण ईंधन, ऊर्जा और अन्य जरूरी सेवाओं की कीमत उनकी लागत से बहुत ज्यादा है. मंदी में मांग तो बढऩी नहीं है इसलिए जो बिक रहा है महंगा हो रहा है. कंपनियों ने बढ़ते टैक्स की ओट में, बढ़ी हुई लागत को उपभोक्ताओं पर थोप कर मुनाफा संजोना शुरू कर दिया है. वे एक तरह से सरकार की टैक्स वसूली सेवा का हिस्सा बन रही हैं. कंपनियां सारे खर्च निकालने के बाद बचे मुनाफे पर टैक्स देती हैं और उसमें भी 2018 में सरकार ने उन्हें बड़ी रियायत (कॉर्पोरेट टैक्स) दी है.

तो क्या भारत ‘क्रोनी इन्फ्लेशन’ का आविष्कार कर रहा है?

Friday, December 18, 2020

बेदम हुए बीमार ...

 


इतिहास के किसी भी काल खंड में, किसी भी सरकार के मातहत यह कल्पना नहीं की गई होगी कि भारत में लोग 90 रुपए लीटर का पेट्रोल खरीदेंगे, जबकि कच्चे तेल कीमत मंदी के कुएं (प्रति बैरल 50 डॉलर से भी कम) में बैठी हो. भयानक मंदी और मांग के सूखे के बीच कंपनियां अगर कीमतें बढ़ाने लगें तो आर्थिक तर्क लड़खड़ा जाते हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन याद आते हैं कि हमारा कुल इतिहास सरकारों की सूझबूझ का लेखा-जोखा है.

मंदी से दुनिया परेशान है लेकिन भारत के इतिहास की सबसे खौफनाक मंदी के नाखूनों में बढ़ती कीमतों का जहर भरा जा रहा है. आर्थिक उत्पादन के आंकड़े मांग की तबाही के सबूत हैं, बेकारी बढ़ रही है और वेतन घट रहे हैं फिर भी खुदरा महंगाई छह माह के सर्वोच्च स्तर पर है. यहां तक कि रिजर्व बैंक को कर्ज सस्ता करने की प्रक्रिया रोकनी पड़ी है.

आखिर कहां से आ रही है महंगाई?

कुछ अजीबोगरीब सुर्खियां! सीमेंट छह महीने में 7 फीसद (दक्षिण भारत में बढ़ोतरी 18 फीसद) महंगा हो चुका है. दो माह में मिल्क पाउडर (पैकेटबंद दूध का आधार का स्रोत) की कीमतें 20 फीसद बढ़ी हैं यानी दूध महंगा होगा. वोडाफोन आइडिया ने फोन दरों में 6 से 8 फीसद की बढ़ोतरी की है. अब अन्य कंपनियों की बारी है. 2020 में चौथी बार मोबाइल फोन सेट की कीमत बढ़ने वाली है. डीजल महंगा होने से ट्रकों के किराए 10-12 फीसद तक बढ़ चुके हैं.

बीते छह महीने में स्टील 30 फीसद, एल्युमिनियम 40 फीसद और तांबा 70 फीसद महंगा हुआ है. खाद्य महंगाई तो थी ही, बुनियादी धातुओं की कीमत और ट्रकों का भाड़ा बढ़ने के कारण फैक्ट्री महंगाई ने बढ़ना शुरू कर दिया है.

मांग की अभूतपूर्व कमी के बीच भी कीमतें इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि...

कंपनियों को अर्थव्यवस्था में ग्रोथ जल्दी लौटने की उम्मीद नहीं है. अब जो बिक रहा है उसे महंगा कर घाटे कम किए जा रहे हैं इसलिए कच्चे माल से लेकर उत्पाद और सेवाओं तक मूल्यवृद्धि का दुष्चक्र बन रहा है

आत्मनिर्भरता जब आएगी तब आएगी लेकिन असंख्य उत्पादों पर इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाकर और आयात में सख्ती से सरकार ने लागत बढ़ा दी है.

सरकार के लिए भी यह महंगाई ही अकेली उम्मीद है. जीएसटी के मासिक संग्रह में दिख रही बढ़ोतरी बिक्री नहीं, कीमतें बढ़ने से आई है क्योंकि अधिकांश उत्पादों पर मूल्यानुसार (एडवैलोरैम) टैक्स लगता है. अप्रैल से अक्तूबर के बीच सभी टैक्सों का संग्रह घटा है जो मांग और आय टूटने का सबूत है. बढ़त केवल पेट्रो उत्पाद पर लगने वाले टैक्स (40 फीसद) में हुई है.

इतनी महंगाई से सरकार का काम नहीं चलेगा. जीएसटी का घाटा पूरा करने के लिए जो कर्ज लिए गए हैं, उन्हें चुकाने के लिए राज्य स्तरीय टैक्स व बिजली-पानी की दरें बढ़ेंगी.

महंगाई खपत खत्म करती है. भारत का 55 फीसद जीडीपी आम लोगों की खपत से आता है जो वर्तमान मूल्यों पर करीब 153 लाख करोड़ रुपए है. क्रिसिल का आकलन है कि अगर खुदरा महंगाई एक फीसद बढ़े तो जीने की लागत 1.53 लाख करोड़ रुपए बढ़ जाती है.

महंगाई गरीबी की दोस्त है, बचत की दुश्मन है. खाद्य महंगाई एक फीसदी बढ़ने से खाने पर खर्च करीब 0.33 लाख करोड़ रुपए बढ़ जाता है. समझना मुश्किल नहीं कि बेरोजगारी और कमाई टूटने के बीच कम आय वाले लोग महंगाई से किस कदर गरीब हो रहे होंगे.

बचत पर भी हम कमा नहीं, गंवा रहे हैं क्योंकि बैंकों में एफडी (मियादी जमा) पर औसत ब्याज दर (4.5-5.5 फीसद) महंगाई दर से करीब दो से ढाई फीसद कम है. सनद रहे कि खुदरा महंगाई दर आठ फीसद के करीब है.

इस बेहद मुश्किल वक्त में जब सरकारें जिंदगी के दर्द कम करने की कोशिश करती हैं तब भारत यह साबित कर रहा है अगर इस समय कच्चे तेल की कीमत 70 डॉलर प्रति बैरल हो जाए तो मौजूदा टैक्स पर पेट्रोल 150 रुपए प्रति लीटर हो जाएगा.

1970 से पहले तक स्टैगफ्लेशन यानी मंदी और महंगाई की जोड़ी आर्थिक संकल्पनाओं से भी बाहर थी क्योंकि कीमतें मांग-आपूर्ति का नतीजा मानी जाती थीं. 1970 के दशक में राजनैतिक कारणों (इज्राएल को अमेरिका के समर्थन पर तेल उत्पादक देशों का बदला) से तेल की आग भड़कने के बाद पहली बार यह स्थापित हुआ कि अगर ईंधन महंगा हो जाए तो मंदी और महंगाई एक साथ भी आ सकती हैं. तब से आज तक स्टैगफ्लेशन की संभावनाओं में ईंधन की कीमत को जरूरी माना गया था. लेकिन भारत यह साबित कर रह रहा है, बेहद सस्ते कच्चे तेल और मजबूत रुपए (सस्ते आयात) के बावजूद भारी टैक्स और आर्थिक कुप्रबंध से मंदी के साथ महंगाई (स्टैगफ्लेशन) की मेजबानी जा सकती है.

पीठ मजबूत रखिए, महामंदी लंबी चलेगी क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था अब  खाद्य, ईंधन, फैक्ट्री और नीतिगत चारों तरह की महंगाई की मेजबानी कर रही है.

 

Saturday, May 5, 2018

अच्छे दिनों की कमाई


अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन कहते थे कि किसी सरकार को सहारा के रेगिस्तान की जिम्मेदारी दे दीजिएपांच साल बाद वहां रेत की कमी हो जाएगी... 


अपने आसपास के किसी भी पेट्रोल पंप परफ्रीडमैन के तंज की समानार्थी देशज बड़बड़ाहटें सुनी जा सकती हैं. पिछले चार साल में पेट्रोल-डीजल की सबसे ऊंची कीमत चुकाते हुए लोग उस बचत की तलाश में मुब्तिला हैं जो सस्ते तेल के अच्छे दिनों के दौरान सरकार को हुई थी.


अच्छे दिनों के जितने मुंह उतने मतलब हैंअलबत्ता  उन दिनों की इस पहचान पर कोई टंटा शायद नहीं होगा कि एक लंबे वक्‍त के बाद पूरे चार साल (2014 से 2018) तक कच्चे तेल की कीमतें ललचाने वाले स्तर तक कम थीं. उपभोक्‍ताओं के लिए पेट्रोल डीजल इस दौरान भी महंगा रहा क्‍यों कि सरकार ने पेट्रो परिवार पर दबा कर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई थी.

कितनी बचत या कमाई हुई थी सरकार कोकहां गई वहक्या तेल की बढ़ती कीमतों से सरकार हमें बचा पाएगी?

आइएआंकड़े फींचते हैं 

- वह 2014 की दूसरी छमाही थी जब तेल की घटती कीमतों का त्योहार (जुलाई 2008-132 डॉलरजून 2014-46 डॉलर प्रति बैरल) शुरू हुआ जो 2017-18 की आखिरी तिमाही तक चला. इसी दौरान सरकार ने पेट्रो उत्पादों की कीमतों को बाजार को सौंप दिया और कंपनियां कच्चे तेल और अन्य लागतों के हिसाब से कीमतों को रोज बदलने लगीं.

- कच्चा तेल सस्ता हुआ लेकिन पेट्रोल-डीजल नहीं क्योंकि 2017 तक सरकार ने पेट्रोल पर 21.5 रु. और डीजल पर 17.3 रु. प्रति लीटर की एक्साटइज ड्यूटी लगा दी थी.

- इस बढ़े हुए टैक्स के कारण 2017 में पेट्रो एक्साइज ड्यूटी का संग्रह जीडीपी के अनुपात में 1.6 फीसदी यानी पर पहुंच गया जो 2014 में केवल 0.7 फीसदी थी. यह पिछले दशकों में तेल पर रिकॉर्ड टैक्स संग्रह था.

- इस कमाई का इस्तेमाल हुआएक-14वें वित्त आयोग की सिफारिश के मुताबिक राज्यों को ज्यादा संसाधन आवंटन और दो-सरकारी कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग के भुगतान के लिए.

- सस्ते कच्चे तेल वाले अच्छे दिनों में दो और फायदे हुए. थोक (5.2 से 1.8%) और खुदरा ( 9.4 से 4.5%) महंगाई घट गई. साथ ही सस्ते आयात के चलते विदेशी मोर्चे पर राहत आई. विदेशी आय-व्यय का अंतर बताने वाला करेंट एकाउंट डेफिसिट कम हो गया

यह थी अच्छे दिनों की कमाई और उसका खर्च... अब बारी है महंगे तेल के साथ आगे की चढ़ाई की.

- कच्चे तेल की वर्तमान कीमत (74-75 डॉलर प्रति बैरल) में प्रति दस डॉलर से महंगाई में 0.50 फीसदी की बढ़ोतरी होगी क्योंकि पेट्रो उत्पाद महंगे होंगे

- दस डॉलर प्रति बैरल की प्रत्येक तेजी पर करेंट एकाउंट डेफिसिट में 0.60 फीसदी की बढ़त और रुपए में कमजोरी

- अब अगर महंगाई रोकनी है तो सरकार को एक्साइज ड्यूटी घटानी होगी यानी दो रु. प्रति लीटर की एक्साइज ड्यूटी कमी से 280 अरब रु. के राजस्व का नुक्सान और केरोसिन व एलपीजी सब्सिडी में भारी इजाफा अलग से.

चुनावी चुनौती से भरपूर महंगे दिनों के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब राज्यों की मदद चाहिए.

- राज्यों को तेल की महंगाई रोकने के लिए वैट घटाना होगा. जो फायदा उन्हें मिला था वह लौटाना होगा. लेकिन यह असंभव है क्योंकि केंद्र से भरपूर मदद के बावजूद राज्यों की वित्तीय हालत बिगड़ती गई है

- पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने की उम्‍मीद अब खत्म हो गई है. कीमतें बढ़ रही हैं और राजस्व में गिरावट रुकने की उम्मीद नहीं है

पिछले चार साल में सरकार ने सस्ते तेल पर भारी टैक्स थोपा लेकिन इस कमाई को संजोने का सूझबूझ भरा तरीका नहीं निकाला. जब दुनिया सस्ते कच्चे तेल का आनंद ले रही थी तब हम महंगा ईंधन इस उम्मीद से खरीद रहे थे कि सरकार जो टैक्स लगा रही है उससे आगे की मुश्किलें हल होंगी. लेकिन राजकोषीय आंकड़ों को कंघी करने से यह नजर आता है कि चार साल के दौरान वित्त मंत्री का सारा बजटीय कौशलदरअसलसस्ते कच्चे तेल और भारी टैक्स पर टिका था. सस्ते तेल के अच्छे दिन बीतते ही सब कुछ बदलने लगा है. 

तेल फिर खौल रहा है. इसमें उपभोक्ता भी झुलसेंगे और तेल कंपनियां भी. सरकारें चुनाव देखकर तेल की कीमतों की राजनीति करेंगी. 2014 के पहले भी यही तो हो रहा था.

हम बुद्धू लौट कर वापस घर आ गए हैं.  


कच्चा तेल जब सस्ता था तब सरकार ने खूब टैक्स लगायाअब हिसाब मांगने की बारी है


Monday, January 21, 2013

आपरेशन डीजल


भारत अपने सुधार इतिहास के सबसे दर्दनाक फैसले से मुकाबिल है। डीजल की कीमतों को बाजार के हवाले करना सुधारों का सबसे धारदार नश्‍तर है। तभी तो कड़वी गोली को खाने व खिलाने  की जुगत लगाते सुधारों 22 साल बीत गए। यह नश्‍तर पहले से मौजूद महंगाई, कमजोर रुपये के सानिध्‍य में दोगुने दर्द की शर्तिया गारंटी के साथ  अर्थव्‍यवस्‍था के शरीर में उतरा हैभारत डीजल पर चलने, चमकने, दौड़ने, उपजने व बढ़ने वाला मुल्‍क है। यहां गरीब गुरबा से लेकर अमीर उमरा तक हर व्‍यक्ति की जिंदगी में डीजल शामिल है। इसलिए भारत की डीजली अर्थव्‍यवस्‍था को एक साल तक महंगाई के अनोखे तेवरों के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इस सुधार सरकार को शुक्रिया जरुर कहियेगा क्‍यों कि इस कदम के फायदे मिलेंगे लेकिन इससे पहले लोगों का तेल निकल जाएगा।
सरकार के आपरेशन डीजल का मर्म यह नहीं है कि पेट्रोल पंप पर डीजल हर माह पचास पैसे महंगा होगा। महंगाई का दैत्‍य तो डीजल पर दोहरी मूल्‍य प्रणाली से अपने नाखून तेज करेगा जिसके तहत थोक उपभोक्‍ताओं यानी रेलवे, बिजली घरों, मोबाइल कंपनियों को प्रति लीटर करीब दस रुपये ज्‍यादा देने होंगे। इस फैसले के बाद  डीजल को सब्सिडी के नजरिये के बजाय महंगाई के नजरिये

Monday, September 17, 2012

सुधारों का स्‍वांग



ग्रोथ की कब्र पर सुधारों का जो नया झंडा लगा है उससे उम्‍मीद और संतोष नहीं बलिक ऊब होनी चाहिए। अब झुंझलाकर यह पूछने का वक्‍त है कि आखिर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार इस देश का करना क्‍या चाहती है। देश की आर्थिक हकीकत को लेकर एक अर्थशास्‍त्री प्रधानमंत्री का अंदाजिया अंदाज हद से ज्‍यादा चकित करने वाला है। यह समझना जरुरी है कि जिन आर्थिक सुधारों के लिए डॉक्‍टर मनमोहन‍ सिंह शहीद होना चाहते हैं उनके लिए न तो देश का राजनीतिक माहौल माकूल है और दुनिया की आर्थिक सूरत। देश की अर्थव्‍यवस्‍था को तो पर्याप्‍त ऊर्जा, सस्‍ता कर्ज और थोड़ी सी मांग चा‍हिए ताकि ग्रोथ को जरा सी सांस मिल सके। पूरी सरकार के पास ग्रोथ लाने को लेकर कोई सूझ नहीं है मगर कुछ अप्रासंगिक सुधारों को लेकर राजनीतिक स्‍वांग जरुर शुरु हो गया है, जिससे प्रधानमंत्री की साख उबारने का जतन किया जा रहा है।
कौन से सुधार 
कथित क्रांतिकारी सुधारों की ताजी कहानी को गौर से पढि़ये इसमें आपको सरकार की राजनीति और आर्थिक सूझ की कॉमेडी नजर आएगी। यह भी दिेखेगा कि अर्थव्‍यवस्‍था की नब्‍ज से सरकार का हाथ फिसल चुका है। एक गंभीर और जरुरी राजनीतिक सूझबूझ मांगने वाला सुधार किस तरह अंतरराष्‍ट्रीय तमाशा बन सकता है, खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश इसका नमूना है। दुनिया के किस निवेशक को यह नहीं मालूम कि भारत का राजनीतिक माहौल फिलहाल मल्‍टीब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश के माफिक नहीं है। अपना इकबाल गंवा चुकी एक लुंज पुंज गठबंधन सरकार

Monday, June 4, 2012

संकट के सूत्रधार


क थी अर्थव्‍यवस्‍था। बाशिंदे थे मेहनतीग्रोथ की कृपा हो गई। मगर आर्थिक ग्रोथ ठहरी कई मुंह वाली देवी। ऊर्जाईंधन उसकी सबसे बडी खुराक। वह मांगती गईलोग ईंधन देते गए। देश में न मिला तो बाहर से मंगाने लगे। ईंधन महंगा होने लगा मगर किसको फिक्र थी। फिर इस देवी ने पहली डकार ली। तब पता चला कि ग्रोथ का पेट भरने में महंगाई आ जमी है। ईंधन के लिए मुल्‍क पूरी तरह विदेश का मोहताज हो गया है। आयात का ढांचा बिगड़ गया है इसलिए देश मुद्रा ढह गई है। और अंतत: जब तक देश संभलता ग्रोथ पलट कर खुद को ही खाने लगी। यह डरावनी कथा भारत की ही है। एक दशक की न्‍यूनतम  ग्रोथजिद्दी महंगाईसबसे कमजोर रुपये और घटते विदेशी मुद्रा भंडार के कारण हम पर  अब संकट की बिजली कड़कने लगी है। भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के लिए अपनी बुनियादी गलतियों को गिनने का वक्‍त आ गया है। बिजली भयानक कमी और ऊर्जा नीति की असफलता ताजा संकट की सबसे बड़ी सूत्रधार है।   
डरावनी निर्भरता   
भारत का आयात एक हॉरर स्‍टोरी है। पिछले एक साल में देश का तेल आयात करीब 46 फीसदी बढ़ा और कोयले का 80 फीसदी। यह दोनों जिंस आयात की टोकरी में सबसे बडा हिससा घेर रहे हैं। दरअसल प्राकृ‍तिक संसाधनों को संजोनेबांटने और तलाशने में घोर अराजकता ने हमें कहीं का नही छोड़ा है। कोयले की कहानी डराती है। भारत की 90 फीसदी बिजली कोयले से बनती है और इस पूरे उजाले व ऊर्जा की जान भीमकाय सरकारी कंपनी कोल इंडिया हाथ में है जो इस धराधाम की सबसे बड़ी कोयला कंपनी है। पिछले दो साल में जब बिजली की मांग बढ़ी तो कोयला उत्‍पादन  घट गया। ऐसा नहीं कि देश में कोयला कम है। करीब 246 अरब टन का अनुमा‍नित भंडार है जिसइसके बाद कोल इंडिया की तानाशाही और कोयला ढोने वाली रेलवे का चरमराता नेटवर्क.. बिजली कंपनियां कोयला आयात न करें तो क्‍या करें। इसलिए कोयला भारत का तीसरा सबसे बड़ा आयात है। अगले पांच साल में कोयले की कमी 40 करोड़ टन होगीयानी और ज्यादा आयात होगा। पेट्रो उत्‍पादों का हाल और भी बुरा है। भारत अपनी 80 फीसदी से ज्‍यादा पेट्रो मांग के लिए आयात पर निर्भर है।  देश में घरेलू कच्‍चा तेल उत्‍पादन पिछले दो साल में एक-दो फीसद से जयादा नहीं बढ़ा। तेल खोज के लिए निजी कंपनियों का बुलाने की पहली कोशिश (नई तेल खोज नीति 1990) कुछ सफल रही लेकिन बाद में सब चौपट। कंपनियों के उत्‍पादन में हिस्‍सेदारी की पूरी नीति सरकार के गले फंस गई है। तेल क्षेत्र लेने वाली निजी कंपनिया उत्‍पादन घटाकर सरकार को ब्‍लैकमेल करती हैं। सरकार असमंजस मे हैं कि निजी कंपनियों के साथ  उत्‍पादन भागीदारी की प्रणाली अपनाई जाए या रॉयल्‍टी टैक्‍स की। अलबत्‍ता ग्रोथ की खुराक को इस असमंजस से फर्क नहीं पड़ताइसलिए पिछले दो साल में कीमतें बढ़ने के बाद भी पेट्रो उतपादों की मांग नहीं घटी। तेल आयात बल्लियों उछल रहा है।

Monday, July 4, 2011

सरकार वही, जो दर्द घटाये !

मेरिका ने फ्रांस को कुछ समझाया। फ्रांस ने स्पेन व इटली को हमराज बनाया। जापान और कोरिया भी आ जुटे। गोपनीय बैठकें, मजबूत पेशबंदी और फिर ताबडतोड़ कार्रवाई।.. पेट्रोल के सुल्तान यानी तेल उत्पाटदक मुल्कं (ओपेक) जब तक कुछ समझ पाते तब तक दुनिया के तेल बाजार में एक्शन हो चुका था। बात बीते सप्ताह की है जब अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी के रणनीतिक भंडारों से छह करोड़ बैरल कच्चा तेल बाजार में पहुंच गया। तेल कीमतें औंधे मुंह गिरीं और ओपेक देश, अपनी जड़ें हिलती देखकर हिल गए। तेल कारोबार दुनिया ने करीब 20 साल बाद आर-पार की किस्म वाली यह कार्रवाई देखी थी। तेल कीमतों में तेजी तोड़ने की यह आक्रामक मुहिम उन देशों की थी जो महंगाई में पिसती जनता का दर्द देख कर सिहर उठे हैं। पिघल तो चीन भी रहा है। वहां मुक्त बाजार में मूल्य नियंत्रण लागू है यानी कंपनियों के लिए मूल्‍य वृद्धि की सीमा तय कर दी गई है। जाहिर सरकार होने के एक दूसरा मतलब दर्दमंद, फिक्रमंद और संवेदनशील होना भी है। मगर अपनी मत कहियें यहां तो महंगाई के मारों पर चाबुक चल रहा है। जखमों पर डीजल व पेट्रोल मलने के बाद प्रधानमंत्री ने महंगाई घटने की अगली तरीख मार्च 2012 लगाई है।
पेट्रो सुल्ता्नों से आर पार
वाणिज्यिक बाजार के लिए रणनीतिक भंडारों से तेल ! यानी आपातकाल के लिए तैयार बचत का रोजमर्रा में इस्तेमाल। तेल बाजार का थरथरा जाना लाजिमी था। विकसित देशों के रणनीतिक भंडारों से यह अब तक की सबसे बड़ी निकासी थी। नतीजतन बीते सप्ताह तेल की कीमतें सात फीसदी तक गिर गईं। बाजार में ऐसा आपरेशन आखिरी बार 1991 में हुआ था। यह तेल उत्पादक (ओपेक) देशों की जिद को सबक व चुनौती थी। मुहिम अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की थी और गठन (1974) के बाद उसकी यह तीसरी ऐसी कार्रवाई है। ओपेक के खिलाफ यह पेशबंदी मार्च में लीबिया पर मित्र देशों के हमले

Monday, May 30, 2011

कुर्बानी का मौसम

रा देखिये तो कि पेट्रो कीमतों के फफोले भूलकर आप दुनियावी बाजार के सामने सरकार की लाचारी पर किस तरह पिघल गए ? जरा गौर तो करिये कि तेल कंपनियों की बैलेंस शीट ठीक रखने के लिए कितने फख्र के साथ बलिदानी चोला पहन लिया। महसूस तो करिये सब्सिडीखोर होने की तोहमत से बचने के लिए आप सरकार के पेट्रो सुधारों पर किस अदा के साथ फिदा हो गए।..... गलती आपकी नहीं है, दरअसल यह मौसम ही कुर्बानी का है। बैंकों से लेकर बाजार तक और तेल कंपनियों से लेकर सरकार तक सब आम लोगों से ही कुर्बानी मांग रहे हैं, और हम भी कभी मजबूरी में तो कभी मौज में बहादुरी दिखाये जा रहे हैं। मगर इससे पहले कि शहादत का नया परवाना (पेट्रो कीमतों में अगली बढ़ोतरी ) आपके पास पहुंचे, सभी सिक्कों के दूसरे पहलू देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। पेट्रो उत्पादों पर टैक्स और सब्सिडी के तंत्र को सिरे से परखने की जरुरत बनती है क्योंभ कि पेट्रो कीमतों में हमाम में दुनिया अन्य देश भी हमारे जैसे ही हैं। इस असंगति से मगजमारी करने में कोई हर्ज नहीं है कि हजारों करोड़ की सब्सिडी बाबुओं जेब में डालने वाली सरकार, सब्सिडी को महापाप बताकर हमें महंगे पेट्रोल डीजल की आग में झोंक देती है। यह गुत्थी खोलने की कोशिश जरुरी है कि लोक कल्याणकारी राज्य के तहत बाजार में सरकार के हस्तक्षेप की जरुरत कब और क्योंी होती है। यह सवाल उठाने में हिचक कैसी कि देश की कथित जनप्रिय सरकारों को पेट्रोल पर टैक्स कम करने से किसने रोका है? और यह तलाशना भी आवश्यक है कि भारत में पेट्रो उत्पादों की मांग अन्य ऊर्जा स्रोतों की किल्लत के कारण बढ़ी है या सिर्फ ग्रोथ के कारण।
सब्सिडी का हमाम
पेट्रो सब्सिडी की हिमायत और हिकारत पर बहस से बेहतर है कि इसकी असलियत देखी जाए। पेट्रो सब्सिडी पर शर्मिंदा होने की जरुरत तो कतई नहीं है क्यों कि इस पृथ्वी तल पर हम अनोखे नहीं हैं, जहां सरकारें अंतरराष्ट्रीय पेट्रोकीमतों की आग पर सब्सिडी का पानी पर डालती हैं। आईएमएफ का शोध बताता है कि 2003 में पूरी दुनिया में पेट्रोलियम उत्पादों पर उपभोक्ता सब्सिडी केवल 60 अरब डॉलर थी जो 2010 में 250 अरब डॉलर पर पहुंच गई। 2007 से दुनिया की तेल कीमतों में आए उछाल के बाद सब्सिडी घटाने की मुहिम हांफने लगी और पूरी दुनिया अपनी जनता को सब्सिडी का मलहम