अच्छा होना हमेशा अच्छा ही नहीं होता। कम से कम इस निष्ठुर आर्थिक दुनिया का तो यही नियम है। यहां संतुलित और कुछ बेहतर होने की भी अपनी एक कीमत होती है। भारत सहित उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं संकटग्रस्त दुनिया के बीच (तुलनात्मक रूप से) निरापद होने की एक बड़ी कीमत चुकाने वाली हैं। भारत से लेकर कोरिया तक और ब्राजील से लेकर रूस तक विभिन्न अर्थव्यवस्थाएं मंदी से उबरने का कितना उत्सव मना पाएंगी यह तो पता नहीं, लेकिन उनकी चिंता का नया चक्र शुरू हो रहा है। चिंता बड़ी दिलचस्प है... यूरोजोन के निवेश सरोवर सूखने और डालरजोन (अमेरिका) में अनदेखे जोखिम के कारण दुनिया भर के प्रवासी निवेशक भारत जैसे मुल्कों में झुंड बांध कर उतरने लगे हैं। केवल मार्च में ही छह अरब डालर का विदेशी निवेश अकेले भारत के वित्तीय बाजारों में जज्ब हो चुका है। भारत का रुपया, रूस का रूबल, ब्राजील का रिएल, दक्षिण अफ्रीका का रैंड, मेक्सिको का पेसो, मलेशिया का रिंगिट आदि उभरते बाजारों की मुद्राएं, इस विदेशी खुराक से पहलवान हुई जा रही हैं। वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की भरमार और बेवजह ताकत दिखाती घरेलू मुद्राओं के अपने खतरे हैं। ऊपर से डर यह है कि अगर ग्रीस डूबा तो फिर डालरों व यूरो का एक ज्वार इन बाजारों से आकर टकराएगा, जिसे संभालना बड़ा मुश्किल होगा।
ग्रीक ट्रेजडी, डालर कामेडी
डालर की कामेडी बड़ी मजेदार है। डालर खुद खोखला है, लेकिन प्रतिस्पर्धी मुद्रा इतनी मरियल है कि डालर में ताकत दिख रही है। संकट शुरू हुआ था डालर की दुनिया से, लेकिन बन आई यूरो पर। डालर के आसपास भी जोखिमों का घेरा है लेकिन उसकी तुलना में यूरो की स्याही ज्यादा गाढ़ी है, इसलिए बुनियादी रूप से कमजोर होते हुए भी डालर यूरो के मुकाबले मजबूत है। पिछले दो तीन माह में डालर ने अर्से से मजबूत यूरो को पछाड़ दिया है। यूरोजोन में ग्रीक ट्रेजडी किसी भी वक्त घट सकती है। यूरोप के बड़े मुल्क मदद को तैयार नहीं हैं अर्थात भारी कर्ज में दबे पिग्स देशों (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन) में पहला हादसा होने को है। बाजार ने इसे कायदे से सूंघ लिया है। यूरो की सेहत बिगड़ रही है। ग्रीस का डिफाल्टर होना दक्षिण यूरोप के अन्य परेशान हाल देशों की किस्मत भी लिख देगा। पिछले एक सप्ताह में यूरोजोन के बाजार लगातार टूटे हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत उभरते बाजारों में तेजी का त्यौहार है। भारी विदेशी निवेश के सहारे पिछले एक पखवाड़े में उभरते बाजारों की कई मुद्राओं ने अपने एक साल के सर्वोच्च स्तर छू लिये हैं। दुनिया के निवेशकों को यूरो से तो उम्मीद है ही नहीं और डालर पर भी उनका भरोसा सीमित ही है, क्योंकि अमेरिका भी जीडीपी के अनुपात में 10.6 फीसदी के राजकोषीय घाटे (1.56 खरब डालर) पर बैठा है। जापान और ब्रिटेन भी भारी सरकारी कर्ज से हलाकान हैं। इसलिए डालर, येन या पौंड पर ज्यादा लंबे दांव लगाने वाले वाले लोग कम हैं। नतीजतन सबकी उम्मीदें उभरते बाजारों में उभर रहीं है, जहां मंदी का अंधेरा भी छंटने लगा है।
निवेशकों के काफिले
खरबों डालर को समेटे दुनिया की वित्तीय पाइपलाइनें इन नए सितारों की तरफ मुड़ गई हैं। इक्विटी निवेशक, हेज फंड, पेंशन फंड के काफिले भारत समेत पूर्वी एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों में पड़ाव डालने लगे हैं। भारत की स्थिति तो बड़ी दिलचस्प है। मार्च में विदेशी निवेशक इक्विटी में करीब 4 अरब डालर और ऋण बाजार में 2.2 अरब डालर लगा चुके हैं। इससे पहले दिसंबर तक पिछले कैलेंडर साल में 17.64 अरब डालर काविदेशी निवेश आ चुका है। विदेश से सस्ता पैसा लाकर भारत में ब्याज कमाने (आरबिट्रेज) का पूरा कारोबार भी काफी गुलजार है। संकट से उबरने और मंदी दूर करने के लिए दुनिया भर के बैंकों ने ब्याज दरें घटाकर बाजार में धन की नदियां बहा दीं। विश्व के बाजारों में कम ब्याज दर पर भारी पैसा उपलब्ध है, लेकिन निवेश के विकल्प कम हैं। दरअसल दुनिया के निवेशकों को यह अंदाज नहीं था कि अमेरिका का वित्तीय संकट यूरोजोन को तोड़ देगा। वह तो यूरोजोन को निवेश की नई उम्मीद के तौर पर देख रहे थे, लेकिन अमेरिका के साथ यूरोपीय उम्मीद भी बिखर गई। इसलिए पैसे की गठरी उठाए निवेशक भारत जैसे उभरते बाजारों में मंडरा रहे हैं। भारत में मंदी का असर अभी बाकी है, महंगाई है, ऊंचा राजकोषीय घाटा है, फिर भी विदेशी निवेशकों के लिए यह बाजार हर हाल में यूरोजोन से अच्छा है।
अनोखी आफत
उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास इस नए आकर्षण पर इतराने का वक्त नहीं है, क्योंकि चुनौतियां बिल्कुल फर्क हैं। भारत में इस अनोखी आफत ने पैमाने ही बदल दिए हैं। 1990-91 के संकट के बाद भारत में पहली बार चालू खाते का घाटा जीडीपी के अनुपात में तीन फीसदी पर आया है। कोई दूसरा वक्त होता तो इस चिंताजनक घाटे के कारण रुपया जमीन सूंघ रहा होता, लेकिन 280 अरब डालर के जबर्दस्त विदेशी मुद्रा भंडार के कारण उलझनों की गणित तब्दील हो गई है। अब समस्या इन डालरों को संभालने, लगाने और इनकी भरमार के असर से निबटने की है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति भी विदेशी निवेश की इस चमक पर अपनी आशंका जाहिर कर चुकी है। रिजर्व बैंक के लिए इन डालरों को खरीद कर विदेश में निवेश करना घाटे का सौदा है, क्योंकि दुनिया में ब्याज दरें कम हैं। इधर देश में डालर लाने वाले निवेशकों को ऊंचा ब्याज मिलता है। दूसरी तरफ बाजार से डालर खरीदने के बदले छोड़ा जाने वाला रुपया महंगाई की आग भड़का देता है, लेकिन अगर रिजर्व बैंक डालर न खरीदे तो रुपये की ताकत निर्यातकों को निचोड़ देगी। देशी बाजार में इन डालरों को खपाने का विकल्प नहीं है, क्योंकि परियोजनाएं उपलब्ध नहीं हैं। रिजर्व बैंक ने पिछले साल दिसंबर में विदेशी मुद्रा बाजार से किनारा कर लिया था, लेकिन अब चर्चा है कि 45 रुपये पर पहुंचा डालर उसे बाजार में उतरने और डालर खरीदने पर बाध्य कर रहा है।
छप्पर फाड़कर मिलना अच्छा है, मगर उस मिले हुए को सहेजने के लिए दूसरे ठिकाने तो होने ही चाहिए। निवेश के नए स्वर्गो की यही दिक्कत है कि उनके पास इस भेंट को सहेजने के रास्ते जरा कम हैं। नतीजतन विदेशी निवेश की यह अनोखी आमद इनके यहां मुद्रास्फीति से लेकर, अचल संपत्ति की कीमतों में कृत्रिम तेजी और बाजारों में सट्टेबाजी जैसी बुराइयां ला सकती है। ऊपर से यह निवेश डरे हुए व परेशान निवेशकों का है, इसलिए इसके टिकाऊ होने की गारंटी भी जरा कम है। लेकिन इस निवेश पर रोक लगाना और बड़ी चुनौती है। उभरती अर्थव्यवस्थाएं यकीनन शेष दुनिया से बेहतर, सुरक्षित और अच्छी हैं। भविष्य बताएगा कि इन्हें इस बेहतरी का क्या ईनाम मिला, फिलहाल वर्तमान तो यह बता रहा है कि इन्हें निवेश की शरणार्थी समस्या के निबटने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। ..शाख से तोड़े गए फूल ने हंस करके कहा, अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में।
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अन्यर्थ के लिए
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Monday, April 12, 2010
Monday, April 5, 2010
डूबे तो.. उबरेंगे
दुनिया के वित्तीय बाजारों में इस समय एक अजीब सी गंध तैर रही है, कुछ जलने की गंध! ताजे वित्तीय संकट की आंच पर यूरोप की अनोखी बेमेल (मौद्रिक एकता) खिचड़ी शायद जलने लगी है। यूरोप में अलग आकार और स्वरूप की अर्थव्यवस्थाओं को यूरो नामक एकल मुद्रा का जो अनोखा परिधान पहनाया गया था वह छोटों की गर्दन पर कसने और बड़ों के बदन पर ढीला होने लगा है। ओलंपिक के मुल्क ग्रीस में वित्तीय संकट सुलग रहा है, जिसमें सोलह यूरोपीय देशों की एकता घुलने लगी है। बाजार घुस फुसा रहा है कि एक से अधिक यूरोपीय देश दीवालिया हो सकते हैं।
देश अलग, अर्थव्यवस्थाओं के आकार अलग, बजट अलग, वित्तीय कायदे अलग, राजनीति अलग मगर मुद्रा यानी करेंसी एक। .. सवाल दस साल पहले भी उठे थे, लेकिन संकट अब उठा है। वित्तीय बाजारों के महासंकट ने अपारदर्शी वित्तीय प्रणाली वाले ग्रीस, आयरलैंड जैसे कमजोरों के पैर उखाड़ दिए। सोलह यूरोपीय देशों वाला यूरो क्लब ग्रीस को उबारने पर बंट गया है। बीते सप्ताह ब्रुसेल्स की बैठक में यूरोजोन के बड़ों (फ्रांस व जर्मनी) के बीच दरारें साफ दिख गई। यूरो की साख टूट रही है। यूरो क्लब की एकता पर ही बन आई है। यह मानने वाले अब बहुत से हैं कि यूरो क्लब डूब कर ही उबर सकता है।
परेशान 'पिग्स'
पिग्स से मतलब है कि यूरोप के पांच परेशान छोटे अर्थात पुर्तगाल, इटली, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन। इनकी समस्या है इनका भारी कर्ज। यूरोप की इन छोटी अर्थव्यवस्थाओं को ताजी मंदी और वित्तीय बाजारों के हाहाकार ने बेदम कर दिया। रही बची कसर इन के वित्तीय कुप्रबंध ने पूरी कर दी है। ग्रीस (यूनान) सबसे बुरी हालत में है। जहां सरकार का कुल कर्ज देश के जीडीपी का 125 फीसदी हो गया है। ग्रीस की सरकार का डिफाल्टर होना तय है। इसे बचाने के तरीकों पर यूरोप में चख-चख जारी है। बात सिर्फ ग्रीस की ही नहीं, इस समूह में जनमों का कर्जदार इटली, दीवालियेपन के लिए कुख्यात और अभी तक मंदी से जूझ रहा स्पेन, प्रापर्टी मार्केट टूटने से बदहाल हुआ आयरलैंड (जीडीपी के अनुपात में कर्ज 82 फीसदी) और कर्ज में दबा पुर्तगाल (कर्ज जीडीपी अनुपात 85 फीसदी) भी हैं। दरअसल यूरो क्लब में होना या यूरो मुद्रा अपनाना इस गाढ़े वक्त में इन्हें बहुत साल रहा है। अगर इनकी स्वतंत्र मुद्राएं होतीं तो अब तक ये अवमूल्यन करने अपने कर्ज को घटाने का जुगाड़ बिठा चुके होते। मगर ऐसा होना नामुमकिन है और क्योंकि यूरो की कीमत गिरने में यूरोप के बड़ों का बहुत बड़ा नुकसान है।
और हैरान दिग्गज
पिग्स परिवार को मदद का चारा देने में भी कम नुकसान नहीं हैं। यूरो क्लब में जबर्दस्त ऊहापोह है। अगर पिग्स को नहीं उबारा जाता तो यूरो जोन दीवालिया मुल्कों का जोन बन जाएगा, लेकिन इनको उबारने का मतलब होगा कि बड़े अपने खजाने से इसका बिल चुकाएं। यानी कि जर्मनी व फ्रांस जैसे बड़े यूरोपीय देश इनके कर्ज की जिम्मेदारी उठाएं। यूरो क्लब की बुनियादी संधि (स्टेबिलटी एंड ग्रोथ पैक्ट) किसी तरह के बेल आउट या उद्धार पैकेजों की छूट नहीं देती। इसी संधि के जरिए सभी सदस्यों के लिए कर्ज व घाटा कम करने की कड़ी शर्ते भी तय की गई थीं, मगर छोटों ने ये बंदिशें कायदे से नहीं मानीं। बड़े अगर मदद कर भी दें तो भी इस बात की गारंटी नहीं है कि कमजोर और बदहाल पिग्स अपनी राजकोषीय सेहत सुधारने के लिए खर्च में कमी कर सकेंगे। मंदी व महंगाई के बाद वेतन और खर्चो में कटौती कठिन राजनीतिक फैसला है। यूरोप के बड़े अगर अपने बजट से इनका कर्ज उठाते हैं तो उनकी अपनी और यूरो की साख टूटेगी, लेकिन अगर मुल्क दीवालिया हुए तो भी यूरो टूटने से नहीं बचेगा। तीसरा विकल्प आईएमएफ को बीच में लाने का है, लेकिन इससे बुरा विकल्प कोई नहीं है। आईएमएफ की मदद का मतलब एकल यूरोपीय मुद्रा का असफल होना है। क्योंकि तब दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुद्रा किसी छोटे देश की कमजोर मुद्रा जैसी हो जाएगी जो बाहरी मदद की बैसाखियों पर टिकी होगी।
क्या अब लौट चलें?
चर्चा तो वापस लौटने की ही है। वित्तीय संकट ने यूरो क्लब को तोड़ दिया है। अब जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रिया, फिनलैंड, नीदरलैंड जैसे मजबूत मुल्क एक तरफ हैं तो पिग्स जैसे कर्ज में दबे दक्षिण यूरोप के मुल्क दूसरी तरफ। कहा यह भी जा रहा है कि दक्षिण के छोटों ने यूरो क्लब का हिस्सा बनने और एकल मुद्रा के फायदे पाने के लिए अपनी वित्तीय असलियत दुनिया से छिपाई। ग्रीस को लेकर यह तो यह चर्चा काफी प्रामाणिक है। दक्षिण के मुल्कों की साख ध्वस्त है। वित्तीय बाजार उनके बांडों से बिदक रहा है। यूरोप में ऐसा मानने वाले बहुत से हैं कि यूरो मुद्रा इन घायल पिग्स सिपाहियों के सहारे वित्तीय दुनिया में जंग में टिक नहीं सकती। क्या जर्मनी व फ्रांस के नेतृत्व में एक नया मौद्रिक ब्लाक बनना चाहिए? जैसा 1999 के पहले था जब यूरोप में ड्यूश मार्क, पौंड और फ्रैंक तीन बड़ी मुद्राएं थीं। दरअसल यूरो क्लब सातवें व आठवें दशक की मंदी और मुद्रास्फीति यानी महंगाई की बुनियाद पर बना था। नतीजतन कड़े मौद्रिक नियंत्रण व महंगाई पर काबू, इस एकता की बुनियाद थे। अब वह एकता बिखर चुकी है। क्या यूरो क्लब से कमजोर मुल्कों की निकासी होगी? या एक नया मौद्रिक ब्लाक बनेगा? अथवा दुनिया एक कमजोर और लुढ़कते यूरो के साथ जिएगी? .इन सवालों के फिलहाल कोई जवाब नहीं हैं। वैसे चाहे यूरोप में कुछ देश दीवालिया हों या फिर यूरो क्लब में टूट हो .. यूरो का जलवा अब ढलने वाला है।
मशहूर अर्थविद मिल्टन फ्रीडमैन सही साबित होते दिख रहे हैं। एकल यूरोपीय मुद्रा के जन्म के समय 1999 में उन्होंने कहा था कि यह क्लब पहला वित्तीय संकट नहीं झेल पाएगा। कहां तो बात डालर का विकल्प बनने से शुरू हुई थी और अब यूरो की साख के लाले हैं। दुनिया ताजी वित्तीय बदहाली में अपना चेहरा देखकर पहले से ही हैरत में थी, इस बीच यूरो क्लब का शीराजा भी दरकने लगा है।.. हैरां थे अपने अक्स पर घर के तमाम लोग, शीशा चटख गया तो हुआ एक काम और।
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देश अलग, अर्थव्यवस्थाओं के आकार अलग, बजट अलग, वित्तीय कायदे अलग, राजनीति अलग मगर मुद्रा यानी करेंसी एक। .. सवाल दस साल पहले भी उठे थे, लेकिन संकट अब उठा है। वित्तीय बाजारों के महासंकट ने अपारदर्शी वित्तीय प्रणाली वाले ग्रीस, आयरलैंड जैसे कमजोरों के पैर उखाड़ दिए। सोलह यूरोपीय देशों वाला यूरो क्लब ग्रीस को उबारने पर बंट गया है। बीते सप्ताह ब्रुसेल्स की बैठक में यूरोजोन के बड़ों (फ्रांस व जर्मनी) के बीच दरारें साफ दिख गई। यूरो की साख टूट रही है। यूरो क्लब की एकता पर ही बन आई है। यह मानने वाले अब बहुत से हैं कि यूरो क्लब डूब कर ही उबर सकता है।
परेशान 'पिग्स'
पिग्स से मतलब है कि यूरोप के पांच परेशान छोटे अर्थात पुर्तगाल, इटली, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन। इनकी समस्या है इनका भारी कर्ज। यूरोप की इन छोटी अर्थव्यवस्थाओं को ताजी मंदी और वित्तीय बाजारों के हाहाकार ने बेदम कर दिया। रही बची कसर इन के वित्तीय कुप्रबंध ने पूरी कर दी है। ग्रीस (यूनान) सबसे बुरी हालत में है। जहां सरकार का कुल कर्ज देश के जीडीपी का 125 फीसदी हो गया है। ग्रीस की सरकार का डिफाल्टर होना तय है। इसे बचाने के तरीकों पर यूरोप में चख-चख जारी है। बात सिर्फ ग्रीस की ही नहीं, इस समूह में जनमों का कर्जदार इटली, दीवालियेपन के लिए कुख्यात और अभी तक मंदी से जूझ रहा स्पेन, प्रापर्टी मार्केट टूटने से बदहाल हुआ आयरलैंड (जीडीपी के अनुपात में कर्ज 82 फीसदी) और कर्ज में दबा पुर्तगाल (कर्ज जीडीपी अनुपात 85 फीसदी) भी हैं। दरअसल यूरो क्लब में होना या यूरो मुद्रा अपनाना इस गाढ़े वक्त में इन्हें बहुत साल रहा है। अगर इनकी स्वतंत्र मुद्राएं होतीं तो अब तक ये अवमूल्यन करने अपने कर्ज को घटाने का जुगाड़ बिठा चुके होते। मगर ऐसा होना नामुमकिन है और क्योंकि यूरो की कीमत गिरने में यूरोप के बड़ों का बहुत बड़ा नुकसान है।
और हैरान दिग्गज
पिग्स परिवार को मदद का चारा देने में भी कम नुकसान नहीं हैं। यूरो क्लब में जबर्दस्त ऊहापोह है। अगर पिग्स को नहीं उबारा जाता तो यूरो जोन दीवालिया मुल्कों का जोन बन जाएगा, लेकिन इनको उबारने का मतलब होगा कि बड़े अपने खजाने से इसका बिल चुकाएं। यानी कि जर्मनी व फ्रांस जैसे बड़े यूरोपीय देश इनके कर्ज की जिम्मेदारी उठाएं। यूरो क्लब की बुनियादी संधि (स्टेबिलटी एंड ग्रोथ पैक्ट) किसी तरह के बेल आउट या उद्धार पैकेजों की छूट नहीं देती। इसी संधि के जरिए सभी सदस्यों के लिए कर्ज व घाटा कम करने की कड़ी शर्ते भी तय की गई थीं, मगर छोटों ने ये बंदिशें कायदे से नहीं मानीं। बड़े अगर मदद कर भी दें तो भी इस बात की गारंटी नहीं है कि कमजोर और बदहाल पिग्स अपनी राजकोषीय सेहत सुधारने के लिए खर्च में कमी कर सकेंगे। मंदी व महंगाई के बाद वेतन और खर्चो में कटौती कठिन राजनीतिक फैसला है। यूरोप के बड़े अगर अपने बजट से इनका कर्ज उठाते हैं तो उनकी अपनी और यूरो की साख टूटेगी, लेकिन अगर मुल्क दीवालिया हुए तो भी यूरो टूटने से नहीं बचेगा। तीसरा विकल्प आईएमएफ को बीच में लाने का है, लेकिन इससे बुरा विकल्प कोई नहीं है। आईएमएफ की मदद का मतलब एकल यूरोपीय मुद्रा का असफल होना है। क्योंकि तब दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुद्रा किसी छोटे देश की कमजोर मुद्रा जैसी हो जाएगी जो बाहरी मदद की बैसाखियों पर टिकी होगी।
क्या अब लौट चलें?
चर्चा तो वापस लौटने की ही है। वित्तीय संकट ने यूरो क्लब को तोड़ दिया है। अब जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रिया, फिनलैंड, नीदरलैंड जैसे मजबूत मुल्क एक तरफ हैं तो पिग्स जैसे कर्ज में दबे दक्षिण यूरोप के मुल्क दूसरी तरफ। कहा यह भी जा रहा है कि दक्षिण के छोटों ने यूरो क्लब का हिस्सा बनने और एकल मुद्रा के फायदे पाने के लिए अपनी वित्तीय असलियत दुनिया से छिपाई। ग्रीस को लेकर यह तो यह चर्चा काफी प्रामाणिक है। दक्षिण के मुल्कों की साख ध्वस्त है। वित्तीय बाजार उनके बांडों से बिदक रहा है। यूरोप में ऐसा मानने वाले बहुत से हैं कि यूरो मुद्रा इन घायल पिग्स सिपाहियों के सहारे वित्तीय दुनिया में जंग में टिक नहीं सकती। क्या जर्मनी व फ्रांस के नेतृत्व में एक नया मौद्रिक ब्लाक बनना चाहिए? जैसा 1999 के पहले था जब यूरोप में ड्यूश मार्क, पौंड और फ्रैंक तीन बड़ी मुद्राएं थीं। दरअसल यूरो क्लब सातवें व आठवें दशक की मंदी और मुद्रास्फीति यानी महंगाई की बुनियाद पर बना था। नतीजतन कड़े मौद्रिक नियंत्रण व महंगाई पर काबू, इस एकता की बुनियाद थे। अब वह एकता बिखर चुकी है। क्या यूरो क्लब से कमजोर मुल्कों की निकासी होगी? या एक नया मौद्रिक ब्लाक बनेगा? अथवा दुनिया एक कमजोर और लुढ़कते यूरो के साथ जिएगी? .इन सवालों के फिलहाल कोई जवाब नहीं हैं। वैसे चाहे यूरोप में कुछ देश दीवालिया हों या फिर यूरो क्लब में टूट हो .. यूरो का जलवा अब ढलने वाला है।
मशहूर अर्थविद मिल्टन फ्रीडमैन सही साबित होते दिख रहे हैं। एकल यूरोपीय मुद्रा के जन्म के समय 1999 में उन्होंने कहा था कि यह क्लब पहला वित्तीय संकट नहीं झेल पाएगा। कहां तो बात डालर का विकल्प बनने से शुरू हुई थी और अब यूरो की साख के लाले हैं। दुनिया ताजी वित्तीय बदहाली में अपना चेहरा देखकर पहले से ही हैरत में थी, इस बीच यूरो क्लब का शीराजा भी दरकने लगा है।.. हैरां थे अपने अक्स पर घर के तमाम लोग, शीशा चटख गया तो हुआ एक काम और।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)
Monday, March 29, 2010
भरपूर भंडारों से निकली भूख
भारत इस समय पूरी दुनिया को कई बेजोड़ नसीहतें बांट रहा है। हम दुनिया को सिखा रहे हैं कि भरे हुए गोदामों के बावजूद भूख को कैसे संजोया जाता है। कैसे आठ करोड़ परिवारों (योजना आयोग के मुताबिक गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले परिवार केवल छह करोड़ हैं) को गरीब होने का सर्टीफिकेट यानी बीपीएल कार्ड तो मिल जाता है मगर अनाज नहीं मिलता। करोड़ों की सब्सिडी लुटाकर ऐसी राशन प्रणाली बरसों-बरस कैसे चलाई जा सकती है, जिसे प्रधानमंत्री निराशाजनक कहते हों और सुप्रीम कोर्ट भ्रष्टाचार वितरण प्रणाली ठहराता हो। दरअसल भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था खामियों की एक ग्रंथि बन गई है। आने वाली हर सरकार इस गांठ में असंगतियों का ताजा एडहेसिव उड़ेल देती है। सस्ता अनाज वितरण प्रणाली यानी टीपीडीएस (लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली), बीपीएल-एपीएल, अंत्योदय आदि कई घाटों पर पिछले बीस साल में कई बार डुबकी लगा चुकी है, लेकिन इसका मैल नहीं धुला। गरीबों की रोटी का जुगाड़, महंगाई पर नियंत्रण और अनाज उत्पादन को प्रोत्साहन... यही तो तीन मकसद थे खाद्य सुरक्षा नीति के? इन लक्ष्यों से नीति बार-बार चूकती रही, लेकिन सरकार की नई सूझ तो देखिए वह इसी प्रणाली के जरिए भूखों को खाने की कानूनी गारंटी दिलाने जा रही है।
संकट सिर्फ अभाव से ही नहीं आदतों से भी आता है। केवल मांग-आपूर्ति का रिश्ता बिगड़ने से ही बाजार महंगाई के पंजे नहीं मारने लगता। कभी-कभी सरकारें भी बाजार को बिगाड़ देती हैं। बाजार में अनाज और अनाज के उत्पादों की कीमतें काटने दौड़ रही हैं, लेकिन इस समय भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में 200 लाख टन गेहूं और 240 लाख टन चावल है जो कि खाद्य सुरक्षा के भंडार मानकों का क्रमश: पांच व दोगुना है। सरकार रबी की ताजी खरीद को तैयार है, जबकि पहले खरीदा गया करीब 100 लाख टन अनाज खुले आसमान के नीचे चिडि़यों व चोरों की 'हिफाजत' में है। इस भरे भंडार से महंगाई को कोई डर नहीं लगता, क्योंकि खुले बाजार में सरकारी हस्तक्षेप का कोई मतलब नहीं बचा है और अनाज के बाजार में मांग व आपूर्ति का गणित सटोरियों की उंगलियों पर है। रही बात गरीबों को राशन से सस्ता अनाज बंटने की तो वह न भरपूर भंडार के वक्त मिलता है और न किल्लत के वक्त।
विसंगतियों की खरीद
खाद्य सुरक्षा की बुनियाद ही टेढ़ी हो गई है। समर्थन मूल्य प्रणाली इसलिए बनी थी कि भारी उत्पादन के मौसम में सरकार निर्धारित कीमत पर अनाज खरीदकर एक निश्चित मात्रा में अपने पास रखेगी जो महंगाई के वक्त बाजार में जारी किया जाएगा। इस भंडार से बेहद निर्धनों को सस्ता राशन भी दिया जाएगा। लेकिन यह तो महंगाई समर्थन मूल्य प्रणाली बन गई। इसने अनाज की कीमतों व आपूर्ति का पूरा ढांचा ही बिगाड़ दिया है। सरकारें भंडार में पड़े पिछले अनाज की फिक्र किए बगैर हर साल अनाज खरीदती हैं। अनाज की मांग व आपूर्ति से बेखबर, समर्थन मूल्य बाजार में अनाज की एक न्यूनतम कीमत तय कर देता है। सटोरियों व बाजार को मालूम है कि कुल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा बफर मानकों के तहत सरकार के गोदाम में चला जाएगा, इसलिए अनाज बाजार में हमेशा महंगाई का माहौल रहता है। मौजूदा वर्ष की तरह 1998 व 2002 में भी सरकारी भंडारों में निर्धारित मानकों का कई गुना अनाज जमा था और लाखों टन अनाज बाद में बाहर सड़ा था। अब सरकार अनाज की भारी अनाज खरीद करने वाली है, फिर पिछला भंडार खुले आसमान के नीचे सड़ेगा और सब्सिडी बजट को खोखला करेगी, लेकिन बाजार में अनाज की कीमतें टस से मस नहीं होंगी। रही बात किसानों की तो उन्हें इस समर्थन मूल्य प्रणाली ने कभी आधुनिक नहीं होने दिया। किसान तो बाजार, मांग व आपूर्ति को देखकर नहीं सरकार को देखकर अनाज उगाते हैं। सरकार इस प्रणाली से किसानों की आदत व अपना खजाना बिगाड़ कर बहुत खुश है और उसका आर्थिक सर्वेक्षण पूरे फख्र के साथ इस विशेषता को स्वीकार करता है।
बेअसर बिक्री
सरकार अगर आंख पर पट्टी बांध कर अनाज खरीदती है तो कान पर हाथ रखकर उसे बाजार में बेचती है। हम बात कर रहे हैं अनाज की उस ओपन सेल की जो कि खाद्य सुरक्षा नीति का दूसरा पहलू है। बताया जाता है कि सरकार उपभोक्ताओं को महंगाई के दांतों से बचाने के मकसद से बाजार में अनाज रिलीज करती है। आप जानना चाहेंगे की महंगाई रोकने के लिए अनाज किसे बेचा जा जाता है? आटा बनाने वाली मिलों को। हाल में सरकार ने करीब 1240 रुपये क्विंटल की दर अनाज बेचा, मगर आटा वही बीस रुपये किलो पर मिल रहा है। अनाज दरअसल छोटी मात्रा में खुदरा व्यापारियों या सीधे उपभोक्ताओं को मिलना चाहिए, मगर मिलता है बड़े व्यापारियों को। उस पर तुर्रा यह कि ओपन सेल अक्सर बाजार की कीमत पर और कभी-कभी तो उससे ऊपर कीमत पर होती है, इसलिए व्यापारी भी सरकार का अनाज नहीं खरीदते। निष्कर्ष यह कि अनाज की सरकारी खरीद बाजार तो बिगाड़ देती है, मगर अनाज की सरकारी बिक्री से महंगाई का कुछ नहीं बिगड़ता।
फिर भी गरीब भूखा
अनाज की इतनी भारी खरीद, ऊंची लागत के साथ भंडारों का इंतजाम और राशन प्रणाली का विशाल तंत्र अगर देश के गरीबों को दो जून की सस्ती रोटी दे रहे होते तो इस महंगी कवायद को झेला जा सकता था। लेकिन इस प्रणाली से सिर्फ बर्बादी व भ्रष्टाचार को नया अर्थ मिला है। हकीकत यह है कि देश में गरीबों की तादाद से ज्यादा बीपीएल कार्ड धारक हैं और अनाज फिर भी नहीं बंटता। खाद्य सुरक्षा कानून बना रही सरकार भी यह मान रही है कि देश के जिन इलाकों में राशन प्रणाली होनी चाहिए वहां नहीं है और जहां है, वहां उपभोक्ताओं को इसकी जरूरत नहीं है। ऊपर से गरीब का कोई चेहरा या पहचान नहीं है। सरकार की एक दर्जन स्कीमें और आधा दर्जन आकलन गरीबों की तादाद अलग-अलग बताते हैं। इसलिए गरीबों की गिनती से लेकर आवंटन तक हर जगह खेल है। नतीजा यह कि एक दशक में खाद्य सब्सिडी 9,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 47,000 करोड़ रुपये हो गई है, लेकिन राशन प्रणाली बिखर कर ध्वस्त हो गई।
सरकार इसी ध्वस्त प्रणाली पर खाद्य सुरक्षा की गारंटी का कानून लादना चाहती है। इसमें गरीबों को सस्ता अनाज मिलना उनका कानूनी अधिकार बनाया जाएगा। यह बात अलग है कि गरीबों तक अनाज पहुंचाने की कोई व्यवस्था तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि उनकी सही पहचान व गिनती न हो। हो सकता है सरकार खाद्य कूपन देने या सीधी सब्सिडी की तरफ जाए, लेकिन उस प्रणाली में भी पहचान और मानीटरिंग का एक तंत्र तो चाहिए ही। ऐसा तंत्र अगर होता तो मौजूदा प्रणाली भी चल सकती थी। रही बात समर्थन मूल्य व बाजार में हस्तक्षेप की तो इन नीतियों के मोर्चे पर नीम अंधेरा है। दरअसल जब अनाज के भरपूर भंडार और दुनिया के सबसे बडे़ राशन वितरण तंत्र के जरिए गरीब के पेट में रोटी नहीं डाली जा सकी और महंगाई नहीं थमी तो खाद्य सुरक्षा कानून से बहुत ज्यादा उम्मीद बेमानी है। यह बात अलग है कि भूख से निजात की कानूनी गारंटी की बहस खासी दिलचस्प है।...
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे-बहस यह मुद्दआ।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)
संकट सिर्फ अभाव से ही नहीं आदतों से भी आता है। केवल मांग-आपूर्ति का रिश्ता बिगड़ने से ही बाजार महंगाई के पंजे नहीं मारने लगता। कभी-कभी सरकारें भी बाजार को बिगाड़ देती हैं। बाजार में अनाज और अनाज के उत्पादों की कीमतें काटने दौड़ रही हैं, लेकिन इस समय भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में 200 लाख टन गेहूं और 240 लाख टन चावल है जो कि खाद्य सुरक्षा के भंडार मानकों का क्रमश: पांच व दोगुना है। सरकार रबी की ताजी खरीद को तैयार है, जबकि पहले खरीदा गया करीब 100 लाख टन अनाज खुले आसमान के नीचे चिडि़यों व चोरों की 'हिफाजत' में है। इस भरे भंडार से महंगाई को कोई डर नहीं लगता, क्योंकि खुले बाजार में सरकारी हस्तक्षेप का कोई मतलब नहीं बचा है और अनाज के बाजार में मांग व आपूर्ति का गणित सटोरियों की उंगलियों पर है। रही बात गरीबों को राशन से सस्ता अनाज बंटने की तो वह न भरपूर भंडार के वक्त मिलता है और न किल्लत के वक्त।
विसंगतियों की खरीद
खाद्य सुरक्षा की बुनियाद ही टेढ़ी हो गई है। समर्थन मूल्य प्रणाली इसलिए बनी थी कि भारी उत्पादन के मौसम में सरकार निर्धारित कीमत पर अनाज खरीदकर एक निश्चित मात्रा में अपने पास रखेगी जो महंगाई के वक्त बाजार में जारी किया जाएगा। इस भंडार से बेहद निर्धनों को सस्ता राशन भी दिया जाएगा। लेकिन यह तो महंगाई समर्थन मूल्य प्रणाली बन गई। इसने अनाज की कीमतों व आपूर्ति का पूरा ढांचा ही बिगाड़ दिया है। सरकारें भंडार में पड़े पिछले अनाज की फिक्र किए बगैर हर साल अनाज खरीदती हैं। अनाज की मांग व आपूर्ति से बेखबर, समर्थन मूल्य बाजार में अनाज की एक न्यूनतम कीमत तय कर देता है। सटोरियों व बाजार को मालूम है कि कुल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा बफर मानकों के तहत सरकार के गोदाम में चला जाएगा, इसलिए अनाज बाजार में हमेशा महंगाई का माहौल रहता है। मौजूदा वर्ष की तरह 1998 व 2002 में भी सरकारी भंडारों में निर्धारित मानकों का कई गुना अनाज जमा था और लाखों टन अनाज बाद में बाहर सड़ा था। अब सरकार अनाज की भारी अनाज खरीद करने वाली है, फिर पिछला भंडार खुले आसमान के नीचे सड़ेगा और सब्सिडी बजट को खोखला करेगी, लेकिन बाजार में अनाज की कीमतें टस से मस नहीं होंगी। रही बात किसानों की तो उन्हें इस समर्थन मूल्य प्रणाली ने कभी आधुनिक नहीं होने दिया। किसान तो बाजार, मांग व आपूर्ति को देखकर नहीं सरकार को देखकर अनाज उगाते हैं। सरकार इस प्रणाली से किसानों की आदत व अपना खजाना बिगाड़ कर बहुत खुश है और उसका आर्थिक सर्वेक्षण पूरे फख्र के साथ इस विशेषता को स्वीकार करता है।
बेअसर बिक्री
सरकार अगर आंख पर पट्टी बांध कर अनाज खरीदती है तो कान पर हाथ रखकर उसे बाजार में बेचती है। हम बात कर रहे हैं अनाज की उस ओपन सेल की जो कि खाद्य सुरक्षा नीति का दूसरा पहलू है। बताया जाता है कि सरकार उपभोक्ताओं को महंगाई के दांतों से बचाने के मकसद से बाजार में अनाज रिलीज करती है। आप जानना चाहेंगे की महंगाई रोकने के लिए अनाज किसे बेचा जा जाता है? आटा बनाने वाली मिलों को। हाल में सरकार ने करीब 1240 रुपये क्विंटल की दर अनाज बेचा, मगर आटा वही बीस रुपये किलो पर मिल रहा है। अनाज दरअसल छोटी मात्रा में खुदरा व्यापारियों या सीधे उपभोक्ताओं को मिलना चाहिए, मगर मिलता है बड़े व्यापारियों को। उस पर तुर्रा यह कि ओपन सेल अक्सर बाजार की कीमत पर और कभी-कभी तो उससे ऊपर कीमत पर होती है, इसलिए व्यापारी भी सरकार का अनाज नहीं खरीदते। निष्कर्ष यह कि अनाज की सरकारी खरीद बाजार तो बिगाड़ देती है, मगर अनाज की सरकारी बिक्री से महंगाई का कुछ नहीं बिगड़ता।
फिर भी गरीब भूखा
अनाज की इतनी भारी खरीद, ऊंची लागत के साथ भंडारों का इंतजाम और राशन प्रणाली का विशाल तंत्र अगर देश के गरीबों को दो जून की सस्ती रोटी दे रहे होते तो इस महंगी कवायद को झेला जा सकता था। लेकिन इस प्रणाली से सिर्फ बर्बादी व भ्रष्टाचार को नया अर्थ मिला है। हकीकत यह है कि देश में गरीबों की तादाद से ज्यादा बीपीएल कार्ड धारक हैं और अनाज फिर भी नहीं बंटता। खाद्य सुरक्षा कानून बना रही सरकार भी यह मान रही है कि देश के जिन इलाकों में राशन प्रणाली होनी चाहिए वहां नहीं है और जहां है, वहां उपभोक्ताओं को इसकी जरूरत नहीं है। ऊपर से गरीब का कोई चेहरा या पहचान नहीं है। सरकार की एक दर्जन स्कीमें और आधा दर्जन आकलन गरीबों की तादाद अलग-अलग बताते हैं। इसलिए गरीबों की गिनती से लेकर आवंटन तक हर जगह खेल है। नतीजा यह कि एक दशक में खाद्य सब्सिडी 9,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 47,000 करोड़ रुपये हो गई है, लेकिन राशन प्रणाली बिखर कर ध्वस्त हो गई।
सरकार इसी ध्वस्त प्रणाली पर खाद्य सुरक्षा की गारंटी का कानून लादना चाहती है। इसमें गरीबों को सस्ता अनाज मिलना उनका कानूनी अधिकार बनाया जाएगा। यह बात अलग है कि गरीबों तक अनाज पहुंचाने की कोई व्यवस्था तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि उनकी सही पहचान व गिनती न हो। हो सकता है सरकार खाद्य कूपन देने या सीधी सब्सिडी की तरफ जाए, लेकिन उस प्रणाली में भी पहचान और मानीटरिंग का एक तंत्र तो चाहिए ही। ऐसा तंत्र अगर होता तो मौजूदा प्रणाली भी चल सकती थी। रही बात समर्थन मूल्य व बाजार में हस्तक्षेप की तो इन नीतियों के मोर्चे पर नीम अंधेरा है। दरअसल जब अनाज के भरपूर भंडार और दुनिया के सबसे बडे़ राशन वितरण तंत्र के जरिए गरीब के पेट में रोटी नहीं डाली जा सकी और महंगाई नहीं थमी तो खाद्य सुरक्षा कानून से बहुत ज्यादा उम्मीद बेमानी है। यह बात अलग है कि भूख से निजात की कानूनी गारंटी की बहस खासी दिलचस्प है।...
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे-बहस यह मुद्दआ।
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Monday, March 22, 2010
सरकार जी! क्या हुआ साख को?
सरकार जी !! आपकी साख को अचानक क्या हो गया है? सरकार तो संज्ञा (व्यक्तिवाचक, भाववाचक, जातिवाचक .. आदि ), सर्वनाम, क्रिया, विशेषण सभी कुछ है, इसलिए फिक्र कुछ ज्यादा है। माहौल और ताजे बदलाव बताते हैं कि इस सर्वशक्तिमान सरकार का जलवा, बाजार में कुछ घट रहा है। सरकार के नवरत्न यानी सार्वजनिक उपक्रम कितने भी बेशकीमती क्यों न हों लेकिन उनके पब्लिक इश्यू को बाजार में ग्राहक नहीं मिलते। बाद में साख बचाने के लिए सरकारी वित्तीय संस्थाओं को मोर्चे पर जूझना पड़ता है। भारत भले ही फोन सेवाओं के लिए मलाईदार बाजार हो, लेकिन दूरसंचार क्षेत्र में नया उदारीकरण दुनिया के टेलीकाम दिग्गजों में कोई दिलचस्पी नहीं जगाता। दूरसंचार तकनीकों की थ्री जी यानी तीसरी पीढ़ी की अगवानी के लिए केवल देसी कंपनियां आगे आती हैं और वह भी अनमने ढंग से। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप अर्थात निजी सार्वजनिक भागीदारी का मंत्र किसी को सम्मोहित नहीं करता। पीपीपी के नाम पर सिर्फ कागजी अनुबंध नजर आते हैं, वास्तविक परियोजनाएं नदारद हैं। निजी कंपनियां टेंडर-ठेके लेने में तो इच्छुक हैं, मगर सरकार के साथ मिलकर कुछ बनाने में नहीं। ..याद नहंी पड़ता कि सरकार की इतनी नरम साख पहले कब दिखी थी?
रत्नों के भी ग्राहक नहीं
सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने जब नवरत्नों का आधिकारिक दर्जा दिया था, तब शायद ही उसने इस अंजाम के बारे में सोचा हो। कभी इन रत्नों को खरीदने के लिए निवेशक रुपयों से भरी थैली लिये बाजार में टहलते थे। सार्वजनिकउपक्रमों के शेयरों में निवेश को कमाई में बढ़ोतरी की गारंटी माना जाता था। इनके विनिवेश की चर्चा छिड़ने मात्र से शेयर बाजार बाग-बाग हो जाता था, लेकिन इस बार तो गजब हो गया। एक दो नहीं, बल्कि पांच सरकारी रत्नों के पब्लिक इश्यू शेयर बाजार में ग्राहकों को तरस गए। अंतत: सरकार को जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी जैसे अपने वित्तीय दिग्गजों को मोर्चे पर लगाकर खरीद करानी पड़ी। बात हल्की फुल्की कंपनियों की नहीं, बल्कि देश की सबसे बड़ी ताप बिजली कंपनी एनटीपीसी, पनबिजली कंपनी एनएचपीसी, प्रमुख खनिज कंपनी एनएमडीसी और गांवों में बिजली का नेटवर्क बनाने वाली कंपनी आरईसी जैसे सरकारी जवाहरात की है। सिर्फ आयल इंडिया का इश्यू ही आंशिक सफल हुआ है। ये सरकारी कंपनियां शेयर बाजार की सरताज रही हैं क्योंकि इनके पास सुनिश्चित बाजार, मजबूत बैलेंस शीट अलावा सरकार की साख भी थी। मगर निवेशक तो निजी कंपनियों को ज्यादा भरोसेमंद मान रहे हैं। निजी कंपनियों के पब्लिक इश्यू सफल हो रहे हैं और सरकारी औंधे मुंह गिर रहे हैं। सार्वजनिक उपक्रम सतलुज जल विद्युत निगम का पब्लिक इश्यू टल चुका है, सेल, इंजीनियर्स इंडिया के इश्यू अधर में हैं और इंडियन आयल के पब्लिक इश्यू के बारे में पता नहीं है। .. सरकार जी, आसार अच्छे नहीं हैं। यही हाल रहा तो इन रत्नों के जरिए अगले साल विनिवेश के मद में 40,000 करोड़ रुपये कैसे आएंगे?
थ्री जी! माफ करिए जी
भारत ने अपना थ्री जी बाजार खोला तो दुनिया के दूरसंचार दिग्गजों ने मुंह मोड़ लिया। होती होगी थ्री जी रोमांचक दूरसंचार तकनीक । मिलती होगी इस पर डाटा, वीडियो की जबर्दस्त स्पीड। चलता होगा इस पर मोबाइल टीवी, मगर दुनिया के दूरसंचार दिग्गज यह सब कुछ देने भारत नहीं आ रहे हैं। उन्हें भारत के उभरते दूरसंचार बाजार ने जरा भी नहंी लुभाया। सरकार पिछले दो वर्षो से थ्री जी रत्न छिपाए बैठी थी। कितनी खींचतान, कितनी लामबंदी! कई बार अंतिम मौके पर आवंटन को टाला गया और जब माल बाजार में बिकने आया तो बड़े ग्राहक नदारद। थ्री जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में विदेशी दिग्गजों की अरुचि यह बताती है कि दूरसंचार क्षेत्र में उदारीकरण को लेकर कहीं न कहीं कुछ समस्या जरूर है। किसी को टू जी लाइसेंस के आवंटनों में उठे विवाद डरा रहे हैं तो किसी को स्पेक्ट्रम की किल्लत। तो किसी को लगता है कि पता नहीं कब नियम बदल जाएं। अब थ्री जी वाली नई तकनीक तो आएगी मगर वही देसी खिलाड़ी सेवा देंगे, जिनकी सेवाओं की गुणवत्ता व नेटवर्क की हालत अब सरदर्द बन चुकी है। सरकार जी ! थ्रीजी से न आपको मोटा राजस्व मिलने की उम्मीद है और न हम यानी उपभोक्ताओं को नई प्रतिस्पर्धा।
पीपीपी की पालकी
पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मतलब विकास के लिए निजी क्षेत्र व सरकार की दोस्ती। ..केंद्र से लेकर राज्यों तक उदारीकरण का यह सबसे नया, सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा असफल नारा है। केंद्र करीब दो साल से पीपीपी की दुकान सजाए बैठा है, लेकिन निजी कंपनियां करीब फटकती तक नहीं। केंद्र को देख कर राज्यों ने भी अपनी दुकान सजा ली, मगर वहां भी ठन ठन गोपाल। दिखाने को कंपनियों ने दर्जनों अनुबंध तो कर लिये हैं, मगर उसके बाद आगे कुछ भी नहीं है। सरकार के दस्तावेजों में सिर्फ पीपीपी अनुबंधों का आंकड़ा चमकता है, वास्तविक निवेश की सूचना नदारद है। केंद्र के स्तर पर बिजली और सड़क क्षेत्रों में निजी क्षेत्र से दोस्ती दिखती है, लेकिन वह बहुत सीमित है और पीपीपी नहीं बल्कि टेंडरिंग, बीओटी (बिल्ट ओन आपरेट) जैसे वाणिज्यिक अनुबंधों के बूते है। निजी क्षेत्र अभी पीपीपी का गणित समझ नहीं पाया है। कहीं कानून रोड़ा हैं तो कहीं कानून लागू कराने वाले। नियमों का मकड़जाल इतना कठिन है कि कंपनी को टेंडर लेना आसान दिखता है, मगर सरकार के कंधे से कंधा मिलाना मुश्किल। सरकार जी, बताइए तो कि पीपीपी की पालकी उठाने के लिए निजी क्षेत्र कब आगे आएगा?
सरकार की साख में ऐसी कमी अप्रत्याशित है। उम्मीद तो यह थी कि आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों के बाद निवेशक ज्यादा मुतमइन होकर निवेश के लिए उत्सुक होंगे, लेकिन यहां तो उलटा हो गया है। सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण भी जब इस स्थिति की तरफ इशारा करता है तो यह सोचना पड़ता है कि नौकरशाही की सुस्त रफ्तार, नियमों को लेकर अनिश्चितता, जंग लगे कानून और भ्रष्टाचार की फलती-फूलती संस्कृति ने मिलकर कहीं सरकार नाम के मजबूत ब्रांड लोकप्रियता तो नहीं घटा दी है। सरकार जी! गंभीरता से सोचिए.. यह साख का सवाल है।
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रत्नों के भी ग्राहक नहीं
सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने जब नवरत्नों का आधिकारिक दर्जा दिया था, तब शायद ही उसने इस अंजाम के बारे में सोचा हो। कभी इन रत्नों को खरीदने के लिए निवेशक रुपयों से भरी थैली लिये बाजार में टहलते थे। सार्वजनिकउपक्रमों के शेयरों में निवेश को कमाई में बढ़ोतरी की गारंटी माना जाता था। इनके विनिवेश की चर्चा छिड़ने मात्र से शेयर बाजार बाग-बाग हो जाता था, लेकिन इस बार तो गजब हो गया। एक दो नहीं, बल्कि पांच सरकारी रत्नों के पब्लिक इश्यू शेयर बाजार में ग्राहकों को तरस गए। अंतत: सरकार को जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी जैसे अपने वित्तीय दिग्गजों को मोर्चे पर लगाकर खरीद करानी पड़ी। बात हल्की फुल्की कंपनियों की नहीं, बल्कि देश की सबसे बड़ी ताप बिजली कंपनी एनटीपीसी, पनबिजली कंपनी एनएचपीसी, प्रमुख खनिज कंपनी एनएमडीसी और गांवों में बिजली का नेटवर्क बनाने वाली कंपनी आरईसी जैसे सरकारी जवाहरात की है। सिर्फ आयल इंडिया का इश्यू ही आंशिक सफल हुआ है। ये सरकारी कंपनियां शेयर बाजार की सरताज रही हैं क्योंकि इनके पास सुनिश्चित बाजार, मजबूत बैलेंस शीट अलावा सरकार की साख भी थी। मगर निवेशक तो निजी कंपनियों को ज्यादा भरोसेमंद मान रहे हैं। निजी कंपनियों के पब्लिक इश्यू सफल हो रहे हैं और सरकारी औंधे मुंह गिर रहे हैं। सार्वजनिक उपक्रम सतलुज जल विद्युत निगम का पब्लिक इश्यू टल चुका है, सेल, इंजीनियर्स इंडिया के इश्यू अधर में हैं और इंडियन आयल के पब्लिक इश्यू के बारे में पता नहीं है। .. सरकार जी, आसार अच्छे नहीं हैं। यही हाल रहा तो इन रत्नों के जरिए अगले साल विनिवेश के मद में 40,000 करोड़ रुपये कैसे आएंगे?
थ्री जी! माफ करिए जी
भारत ने अपना थ्री जी बाजार खोला तो दुनिया के दूरसंचार दिग्गजों ने मुंह मोड़ लिया। होती होगी थ्री जी रोमांचक दूरसंचार तकनीक । मिलती होगी इस पर डाटा, वीडियो की जबर्दस्त स्पीड। चलता होगा इस पर मोबाइल टीवी, मगर दुनिया के दूरसंचार दिग्गज यह सब कुछ देने भारत नहीं आ रहे हैं। उन्हें भारत के उभरते दूरसंचार बाजार ने जरा भी नहंी लुभाया। सरकार पिछले दो वर्षो से थ्री जी रत्न छिपाए बैठी थी। कितनी खींचतान, कितनी लामबंदी! कई बार अंतिम मौके पर आवंटन को टाला गया और जब माल बाजार में बिकने आया तो बड़े ग्राहक नदारद। थ्री जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में विदेशी दिग्गजों की अरुचि यह बताती है कि दूरसंचार क्षेत्र में उदारीकरण को लेकर कहीं न कहीं कुछ समस्या जरूर है। किसी को टू जी लाइसेंस के आवंटनों में उठे विवाद डरा रहे हैं तो किसी को स्पेक्ट्रम की किल्लत। तो किसी को लगता है कि पता नहीं कब नियम बदल जाएं। अब थ्री जी वाली नई तकनीक तो आएगी मगर वही देसी खिलाड़ी सेवा देंगे, जिनकी सेवाओं की गुणवत्ता व नेटवर्क की हालत अब सरदर्द बन चुकी है। सरकार जी ! थ्रीजी से न आपको मोटा राजस्व मिलने की उम्मीद है और न हम यानी उपभोक्ताओं को नई प्रतिस्पर्धा।
पीपीपी की पालकी
पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मतलब विकास के लिए निजी क्षेत्र व सरकार की दोस्ती। ..केंद्र से लेकर राज्यों तक उदारीकरण का यह सबसे नया, सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा असफल नारा है। केंद्र करीब दो साल से पीपीपी की दुकान सजाए बैठा है, लेकिन निजी कंपनियां करीब फटकती तक नहीं। केंद्र को देख कर राज्यों ने भी अपनी दुकान सजा ली, मगर वहां भी ठन ठन गोपाल। दिखाने को कंपनियों ने दर्जनों अनुबंध तो कर लिये हैं, मगर उसके बाद आगे कुछ भी नहीं है। सरकार के दस्तावेजों में सिर्फ पीपीपी अनुबंधों का आंकड़ा चमकता है, वास्तविक निवेश की सूचना नदारद है। केंद्र के स्तर पर बिजली और सड़क क्षेत्रों में निजी क्षेत्र से दोस्ती दिखती है, लेकिन वह बहुत सीमित है और पीपीपी नहीं बल्कि टेंडरिंग, बीओटी (बिल्ट ओन आपरेट) जैसे वाणिज्यिक अनुबंधों के बूते है। निजी क्षेत्र अभी पीपीपी का गणित समझ नहीं पाया है। कहीं कानून रोड़ा हैं तो कहीं कानून लागू कराने वाले। नियमों का मकड़जाल इतना कठिन है कि कंपनी को टेंडर लेना आसान दिखता है, मगर सरकार के कंधे से कंधा मिलाना मुश्किल। सरकार जी, बताइए तो कि पीपीपी की पालकी उठाने के लिए निजी क्षेत्र कब आगे आएगा?
सरकार की साख में ऐसी कमी अप्रत्याशित है। उम्मीद तो यह थी कि आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों के बाद निवेशक ज्यादा मुतमइन होकर निवेश के लिए उत्सुक होंगे, लेकिन यहां तो उलटा हो गया है। सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण भी जब इस स्थिति की तरफ इशारा करता है तो यह सोचना पड़ता है कि नौकरशाही की सुस्त रफ्तार, नियमों को लेकर अनिश्चितता, जंग लगे कानून और भ्रष्टाचार की फलती-फूलती संस्कृति ने मिलकर कहीं सरकार नाम के मजबूत ब्रांड लोकप्रियता तो नहीं घटा दी है। सरकार जी! गंभीरता से सोचिए.. यह साख का सवाल है।
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Tuesday, March 16, 2010
ढूंढो तो, बुनियाद कहां है?
अभी तो नौ की तैयारी . पर जल्दी ही दस की बारी.. याद कीजिये, कुछ ऐसा ही तो अंदाज था वित्त मंत्री का बजट भाषण के दौरान। मगर जब वित्त मंत्री नौ और दस फीसदी की विकास दर का रंगीन सपना बुन रहे थे ठीक उसी समय सरकार के आंकड़ा भंडार से विकास दर के ताजे आंकड़े निकल रहे थे, जिनके मुताबिक दिसंबर में खत्म तिमाही में विकास दर तेज गोता खा गई थी। वित्त मंत्री का विकास उवाच, महंगाई पर शोर करते विपक्ष की आवाजों के बीच संसद की गोल दीवारों में खो गया मगर विकास दर का गिरने का आंकड़ा रिकार्ड में पुख्ता हो गया। ऐसा इसलिए क्योंकि आर्थिक विकास मांग, निवेश और कर्ज या पूंजी से मिलकर बनी खुराक से बढ़ता है और खुद सरकार के तथ्य यह बता रहे हैं कि मौजूदा सूरते हाल में इस खुराक का कोई जुगाड़ नहंी है। यानी कि नौ दस वाली बात भरी दोपहर की झपकी वाला सपना है, जिसमें किले कंगूरे तो दिखते हैं मगर कमबख्त बुनियाद नजर नहीं आती।
वो मांग कहां से लाएं?
महंगाई में मांग?.. बात ही बेतुकी है लेकिन हम हैं कि नौ फीसदी विकास दर की बारात के लिए सज रहे हैं। सत्रह अठारह फीसदी की दर वाली महंगाई से रोज की छीन झपट के बाद किसमें इतना दम बचता है कि वह कुछ और खरीदने की सोचे। इसलिए ही तो मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.9 फीसदी की दर पर उछल रही विकास दर तीसरी तिमाही में छह फीसदी पर निढाल हो गई। ठीक यही वक्त था जब खरीफ के सूखे ने महंगाई को नये तेवर दिये थे। अर्थात मंदी से उबरने के बाद बाजार में जो उत्साह दिखा था उस पर जल्द ही टनों महंगाई पड़ गई। महंगाई हमेशा मांग की बड़ी दुश्मन रही है और हालत तब और बुरी हो जाती है जब हम यह देखते हैं कि मांग को बढ़ावा देने वाले बुनियादी कारक भी बदहाल हैं। यहां आंकड़ों की रोशनी जरूरी है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की दर 5.3 फीसदी और प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च की दर केवल 2.7 फीसदी? शायद बढ़ी हुई आय महंगाई खा गई? क्योंकि यह आंकड़ा महंगाई यानी वर्तमान बाजार मूल्य को शामिल नहीं करता। सिर्फ यही नहीं आर्थिक विकास दर को अगर मांग के नजरिये से पढ़ें तो सरकारी दस्तावेजों में और भी हैरतअंगेज आंकड़े चमकते हैं। पिछले तीन चार वर्षो में करीब नौ फीसदी की वृद्घि दर दिखा रहा निजी उपभोग अचानक 2009-10 में घटकर चार फीसदी रह गया है जबकि सरकार उपभोग खर्च की वृद्घि दर 16 से आठ फीसदी पर आ गई है। यानी एक तो पहले से मांग कम और ऊपर से महंगाई का ढक्कन। इसके बाद तेज विकास दर की उम्मीद कुछ हजम नहीं होती।
जो निवेश को लुभाये
बाजार में मांग का नृत्य निवेश को लुभाता है। मंदी आई तो सबसे पहले यह उत्सव बंद हुआ। उद्योगों ने अपनी जेब कस कर दबा ली। पिछले करीब डेढ़ साल में देश में नया निवेश अचानक तलहटी पर आ गया है। आंकड़ों की मदद लें तो दिखेगा कि 2008-09 तक देश में नया निवेश करीब 16 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन मंदी की धमक के साथ यह घटकर शून्य से नीचे -2.4 आ गया। आंकड़ों के और भीतर उतरें तो दिखेगा कि नए निवेश का झंडा लेकर चलने वाला उद्योग क्षेत्र तो मानो निढाल है। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में निवेश 2007-08 तक 19.8 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन अब शून्य से नीचे 21 फीसदी गिर गया। गिरावट केवल बड़ी इकाइयों तक ही सीमित नहीं है, असंगठित औद्योगिक क्षेत्र के निवेश में यह गिरावट -42 फीसदी तक है। सिर्फ दूरसंचार क्षेत्र को छोड़कर सभी सेवाओं में निवेश घटा है। यह गिरावट हर पैमाने पर बहुत बड़ी है। मांग की कमी उद्योगों का भरोसा तोड़ती है और उसे लौटाने के लिए बाजार में मांग बढ़ने के ठोस संकेत चाहिए और चाहिए सस्ती पूंजी। यह खुराक मिलने में अभी वक्त लगेगा यानी कि तेज विकास की उम्मीद को साधने के लिए निवेश की बुनियाद भी नहीं है।
मगर पूंजी महंगी होती जाए
पूंजी सस्ती हो तो निवेशक लंबे समय की उड़ान भरते हैं यानी कि मांग की उम्मीद में जोखिम उठा लेते हैं लेकिन इस पहलू पर गहरी निराशा है। दरअसल उद्योग अपने बचत और मुनाफे को भी लगाने के मूड में नहीं हैं। आंकड़े यह कलई कायदे से खोलते हैं। 2008-09 में निजी क्षेत्र में बचत की दर जीडीपी के अनुपात में 31.1 फीसदी रही जबकि निवेश की दर केवल 24.9 फीसदी। यानी कि उद्योग अपनी बचत और मुनाफे को रोक कर अभी इंतजार करेंगे। पूंजी के दूसरे स्रोत यानी कर्ज और बाजार मदद नहीं करते बल्कि मुश्किल बढ़ाते हैं। महंगाई से डरा रिजर्व बैंक ठीक उस समय सस्ते कर्ज की दुकाने बंद कर रहा है जबकि इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। जनवरी में आए नए मौद्रिक उपायों के बाद ब्याज दर बढ़ने की शुरुआत हो चुकी है और अप्रैल की शुरुआत में जब उद्योग अपने नए बहीखाते खोल रहे होंगे और निवेश की योजनायें बना रहें होंगे तब बैंकों की ब्याज दर उन्हें निवेश से दूर भगा रही होगी। बल्कि हो सकता है कि उद्योगों की चिंता अपने पुराने कर्ज हों जिन पर बढ़ी हुई ब्याज दर का असर होने वाला है। पूंजी बाजार से पैसे उठाकर नया निवेश करना सबके बस का नहीं है लेकिन जिनके बस का है वह भी सरकारी नवरत्नों को मिले कौडि़यों के भाव यानी सरकारी कंपनियों के आईपीओ की विफलता देखकर आगे आने की हिम्मत नहीं जुटायेंगे।
वित्त मंत्री के साहसी आशावादिता आश्चर्यजनक है, क्योंकि हकीकत, उनके सपनों से बिल्कुल उलटी है। अगर अर्थव्यवस्था को मंदी की गर्त से उचक कर बाहर आना है तो उसे मांग की सीढ़ी, निवेश की रोशनी और पूंजी का सहारा चाहिए। मगर इस समय यह तीनों ही उपलब्ध नहीं हैं। विकास के नौ-दस फीसदी वाले खूबसूरत नृत्य के लिए मांग, पूंजी व निवेश का नौ मन तेल जुटने में अभी एक से डेढ़ साल लग जाएंगे। तब तक वित्त मंत्री से मिली उम्मीदों को इन्ज्वाय कीजिये, महंगाई के चुभन के बीच यह सपने कुछ राहत देंगे। रही बात हकीकत की तो अभी विकास दर के लिए 6 से सात फीसदी की मंजिल ही मुमकिन और भरोसेमंद दिखती है। अलबत्ता यह बात पूरी तरह सच है कि गरीबी हटाने या आय को निर्णायक ढंग से बढ़ाने की क्रांति छह सात फीसदी के विकास दर से नहीं हो सकती। इससे कुछ अमीर, और ज्यादा अमीर हो जाएंगे बस... पिछले दो दशकों का यही तजुर्बा है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)
वो मांग कहां से लाएं?
महंगाई में मांग?.. बात ही बेतुकी है लेकिन हम हैं कि नौ फीसदी विकास दर की बारात के लिए सज रहे हैं। सत्रह अठारह फीसदी की दर वाली महंगाई से रोज की छीन झपट के बाद किसमें इतना दम बचता है कि वह कुछ और खरीदने की सोचे। इसलिए ही तो मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.9 फीसदी की दर पर उछल रही विकास दर तीसरी तिमाही में छह फीसदी पर निढाल हो गई। ठीक यही वक्त था जब खरीफ के सूखे ने महंगाई को नये तेवर दिये थे। अर्थात मंदी से उबरने के बाद बाजार में जो उत्साह दिखा था उस पर जल्द ही टनों महंगाई पड़ गई। महंगाई हमेशा मांग की बड़ी दुश्मन रही है और हालत तब और बुरी हो जाती है जब हम यह देखते हैं कि मांग को बढ़ावा देने वाले बुनियादी कारक भी बदहाल हैं। यहां आंकड़ों की रोशनी जरूरी है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की दर 5.3 फीसदी और प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च की दर केवल 2.7 फीसदी? शायद बढ़ी हुई आय महंगाई खा गई? क्योंकि यह आंकड़ा महंगाई यानी वर्तमान बाजार मूल्य को शामिल नहीं करता। सिर्फ यही नहीं आर्थिक विकास दर को अगर मांग के नजरिये से पढ़ें तो सरकारी दस्तावेजों में और भी हैरतअंगेज आंकड़े चमकते हैं। पिछले तीन चार वर्षो में करीब नौ फीसदी की वृद्घि दर दिखा रहा निजी उपभोग अचानक 2009-10 में घटकर चार फीसदी रह गया है जबकि सरकार उपभोग खर्च की वृद्घि दर 16 से आठ फीसदी पर आ गई है। यानी एक तो पहले से मांग कम और ऊपर से महंगाई का ढक्कन। इसके बाद तेज विकास दर की उम्मीद कुछ हजम नहीं होती।
जो निवेश को लुभाये
बाजार में मांग का नृत्य निवेश को लुभाता है। मंदी आई तो सबसे पहले यह उत्सव बंद हुआ। उद्योगों ने अपनी जेब कस कर दबा ली। पिछले करीब डेढ़ साल में देश में नया निवेश अचानक तलहटी पर आ गया है। आंकड़ों की मदद लें तो दिखेगा कि 2008-09 तक देश में नया निवेश करीब 16 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन मंदी की धमक के साथ यह घटकर शून्य से नीचे -2.4 आ गया। आंकड़ों के और भीतर उतरें तो दिखेगा कि नए निवेश का झंडा लेकर चलने वाला उद्योग क्षेत्र तो मानो निढाल है। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में निवेश 2007-08 तक 19.8 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन अब शून्य से नीचे 21 फीसदी गिर गया। गिरावट केवल बड़ी इकाइयों तक ही सीमित नहीं है, असंगठित औद्योगिक क्षेत्र के निवेश में यह गिरावट -42 फीसदी तक है। सिर्फ दूरसंचार क्षेत्र को छोड़कर सभी सेवाओं में निवेश घटा है। यह गिरावट हर पैमाने पर बहुत बड़ी है। मांग की कमी उद्योगों का भरोसा तोड़ती है और उसे लौटाने के लिए बाजार में मांग बढ़ने के ठोस संकेत चाहिए और चाहिए सस्ती पूंजी। यह खुराक मिलने में अभी वक्त लगेगा यानी कि तेज विकास की उम्मीद को साधने के लिए निवेश की बुनियाद भी नहीं है।
मगर पूंजी महंगी होती जाए
पूंजी सस्ती हो तो निवेशक लंबे समय की उड़ान भरते हैं यानी कि मांग की उम्मीद में जोखिम उठा लेते हैं लेकिन इस पहलू पर गहरी निराशा है। दरअसल उद्योग अपने बचत और मुनाफे को भी लगाने के मूड में नहीं हैं। आंकड़े यह कलई कायदे से खोलते हैं। 2008-09 में निजी क्षेत्र में बचत की दर जीडीपी के अनुपात में 31.1 फीसदी रही जबकि निवेश की दर केवल 24.9 फीसदी। यानी कि उद्योग अपनी बचत और मुनाफे को रोक कर अभी इंतजार करेंगे। पूंजी के दूसरे स्रोत यानी कर्ज और बाजार मदद नहीं करते बल्कि मुश्किल बढ़ाते हैं। महंगाई से डरा रिजर्व बैंक ठीक उस समय सस्ते कर्ज की दुकाने बंद कर रहा है जबकि इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। जनवरी में आए नए मौद्रिक उपायों के बाद ब्याज दर बढ़ने की शुरुआत हो चुकी है और अप्रैल की शुरुआत में जब उद्योग अपने नए बहीखाते खोल रहे होंगे और निवेश की योजनायें बना रहें होंगे तब बैंकों की ब्याज दर उन्हें निवेश से दूर भगा रही होगी। बल्कि हो सकता है कि उद्योगों की चिंता अपने पुराने कर्ज हों जिन पर बढ़ी हुई ब्याज दर का असर होने वाला है। पूंजी बाजार से पैसे उठाकर नया निवेश करना सबके बस का नहीं है लेकिन जिनके बस का है वह भी सरकारी नवरत्नों को मिले कौडि़यों के भाव यानी सरकारी कंपनियों के आईपीओ की विफलता देखकर आगे आने की हिम्मत नहीं जुटायेंगे।
वित्त मंत्री के साहसी आशावादिता आश्चर्यजनक है, क्योंकि हकीकत, उनके सपनों से बिल्कुल उलटी है। अगर अर्थव्यवस्था को मंदी की गर्त से उचक कर बाहर आना है तो उसे मांग की सीढ़ी, निवेश की रोशनी और पूंजी का सहारा चाहिए। मगर इस समय यह तीनों ही उपलब्ध नहीं हैं। विकास के नौ-दस फीसदी वाले खूबसूरत नृत्य के लिए मांग, पूंजी व निवेश का नौ मन तेल जुटने में अभी एक से डेढ़ साल लग जाएंगे। तब तक वित्त मंत्री से मिली उम्मीदों को इन्ज्वाय कीजिये, महंगाई के चुभन के बीच यह सपने कुछ राहत देंगे। रही बात हकीकत की तो अभी विकास दर के लिए 6 से सात फीसदी की मंजिल ही मुमकिन और भरोसेमंद दिखती है। अलबत्ता यह बात पूरी तरह सच है कि गरीबी हटाने या आय को निर्णायक ढंग से बढ़ाने की क्रांति छह सात फीसदी के विकास दर से नहीं हो सकती। इससे कुछ अमीर, और ज्यादा अमीर हो जाएंगे बस... पिछले दो दशकों का यही तजुर्बा है।
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