Monday, December 27, 2010

भूल-चूक, लेनी-देनी

अर्थार्थ
शुक्र है कि हम सुर्खियों से दूर रहे। आर्थिक दुनिया ने दस के बरस में जैसी डरावनी सुर्खियां गढ़ी उनमें न आने का सुकून बहुत गहरा है। करम हमारे भी कोई बहुत अच्छेह नहीं थे। हमने इस साल सर ऊंचा करने वाली सुर्खियां नहीं बटोरीं लेकिन ग्रीस, आयरलैंड, अमेरिका के मुकाबले हम, घाव की तुलना में चिकोटी जैसे हैं। अलबत्ता इसमें इतराने जैसा भी कुछ नहीं है। वक्त, बड़ा काइयां महाजन है। उसके खाते कलेंडर बदलने से बंद नही हो जाते हैं बल्कि कभी कभी तो उसके परवाने सुकून की पुडि़या में बंध कर आते हैं। मंदी व संकटों से बचाते हुए वक्त हमें आज ऐसी हालत में ले आया है जहां गफलत में कुछ बड़ी नसीहतें नजरअंदाज हो सकती हैं। दस के बरस बरस का खाता बंद करते हुए अपनी भूल चूक के अंधेरों पर कुछ रोशनी डाल ली जाए क्यो कि वक्त की लेनी देनी कभी भी आ सकती है।
लागत का सूद
सबसे पहले प्योर इकोनॉमी की बात करें। भारत अब एक बढती लागत वाला मुल्क हो गया है। पिछले कुछ वर्षों की तेज आर्थिक विकास दर ने हमें श्रम (लेबर कॉस्ट) लागत को ऊपर ले जाने वाली लिफ्ट में चढ़ा दिया है। सस्ता श्रम ही तो भारत की सबसे बड़ी बढ़त थी। वैसे इसमें कुछ अचरज नहीं है क्यों कि विकसित होने वाली अर्थव्यरवस्थाओं में श्रम का मूल्यं बढ़ना लाजिमी है। अचरज तो यह है कि हमारे यहां लागत हर तरफ से बढ़

Monday, December 20, 2010

हमको भी ले डूबे !

अर्थार्थ
“तुम नर्क में जलो !! सत्यानाश हो तुम्हारा !! .दुनिया याद रखे कि तुमने कुछ भी अच्छा नहीं किया !!”....डबलिन में एंग्लो आयरिश बैंक के सामने चीखती एक बूढ़ी महिला के पोस्टर पर यह बददुआ लिखी है। ...बैंकों से नाराज लोगों का गुस्सा एक बड़ा सच बोल रहा है। बैंकों ने दुनिया का कितना भला किया यह तो पता नहीं मगर मुश्किलों की महागाथायें लिखने में इन्हे महारथ हासिल है। आधुनिक वित्तीय तंत्र का यह जोखिमपसंद, मनमाना और बिगड़ैल सदस्य दुनिया की हर वित्तीय त्रासदी का सूत्रधार या अभिनेता रहा है। बैंक हमेशा डूबे हैं और हमको यानी हमारे जैसे लाखों को भी ले डूबे हैं। इनके पाप बाद में सरकारों ने अपने बजट से बटोरे हैं। अमेरिका सिर्फ अपने बैंकों के कारण औंधे मुंह बैठ गया है। इन्हीं की मेहरबानी से यूरोप के कई देश दीवालिया होने की कगार पर हैं। इसलिए तमाम नियामक बैंकों को रासते पर लाने में जुट गए हैं। डरा हुआ यूरोप छह माह में दूसरी बार बैंकों को स्ट्रेस टेस्ट (जोखिम परीक्षण) से गुजारने जा रहा है। बैंकिंग उद्योग के लिए नए बेहद सख्त कानूनों से लेकर अंतरराष्ट्री य नियमों (बेसिल-तीन) की नई पीढ़ी भी तैयार है। मगर बैंक हैं कि मानते ही नहीं। अब तो भारत के बैंक भी प्रॉपर्टी बाजार (ताजा बैंक-बिल्डर घोटाला) में हाथ जलाने लगे हैं।
डूबने की फितरत
गिनती किसी भी तरफ से शुरु हो सकती है। चाहें आप पिछले दो साल में डूबे 315 अमेरिकी बैंकों और यूरोप में सरकारी दया पर घिसट रहे बैंकों को गिनें या फिर 19 वीं शताब्दी का विक्टोरियन बैंकिंग संकट खंगालें। हर कहानी में बैंक नाम एक चरित्र जरुर मौजूद है, खुद डूबना व सबको डुबाना जिसकी फितरत है। 1970 से लेकर 2007 तक दुनिया में 124 बैंकिंग संकट आए हैं और कई देशों में तो यह तबाही एक से ज्या दा बार

Monday, December 13, 2010

साख नहीं तो माफ करो!

अर्थार्थ
साख नहीं तो माफ करो! .. दुनिया का बांड बाजार अर्से बाद जब इस दो टूक जबान में बोला तो लंदन, मैड्रिड, रोम, ब्रसेल्स और न्यूयॉर्क, फ्रैंकफर्ट, बर्लिन और डबलिन में नियामकों व केंद्रीय बैंकों की रीढ़ कांप गई। दरअसल जिसका डर था वही बात हो गई है। वित्तीय बाजारों के सबसे निर्मम बांड निवेशकों ने यूरोप व अमेरिका की सरकारों की साख पर अपने दांत गड़ा दिए हैं। घाटे से घिरी अर्थव्यवस्थाओं से निवेशक कोई सहानुभूति दिखाने को तैयार नहीं हैं। ग्रीस व आयरलैंड को घुटनों के बल बिठाकर यूरोपीय समुदाय से भीख मंगवाने के बाद ये निवेशक अब स्पेन की तरफ बढ़ रहे हैं। स्पेन, यूरोप की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, क्या आयरलैंड व ग्रीस की राह पर जाएगा? सोच कर ही यूरोप की सांस फूल रही है। लेकिन यह बाजार तो स्पेन के डेथ वारंट पर दस्तखत करने लगा है, क्योंकि इस क्रूर बाजार में बिकने वाली साख यूरोप की सरकारों के पास नहीं है और तो और, इस निष्ठुर बाजार ने अमेरिका की साख को भी खरोंचना शुरू कर दिया है।
खतरे की खलबली
पूरी दुनिया में डर की ताजा लहर बीते हफ्ते यूरोप, अमेरिका व एशिया के बांड बाजारों से उठी, जब सरकारों की साख पर गहरे सवाल उठाते हुए निवेशकों ने सरकारी बांड की बिकवाली शुरू कर दी और सरकारों के लिए कर्ज महंगा हो गया। बीते मंगलवार अमेरिकी सरकार के (दस साल का बांड) बाजार कर्ज की लागत सिर्फ कुछ घंटों में

Monday, December 6, 2010

पर्दा जो उठ गया !

अर्थार्थ
रा देखिये तो शर्म से लाल हुए चेहरों की कैसी अंतरराष्ट्रीय नुमाइश चल रही है। अमेरिका से अरब तक और भारत से यूरोप तक मुंह छिपा रहे राजनयिकों ने नहीं सोचा था कि विकीलीक्स ( एक व्हिसिल ब्लोइंग वेबसाइट) सच की सीटी इतनी तेज बजायेगी कि कूटनीतिक रिश्तों पर बन आएगी। दुनिया के बैंक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर सब उनकी कारोबारी गोपनीयता को उघाड़ क्यों देना चाहते हैं। कहीं (भारत में) कारोबारी लामबंदी बनाम निजता बहस की गरम है क्यों कि कुछ फोन टेप कई बड़े लोगों को शर्मिंदा कर रहे हैं। अदालतें सरकारी फाइलों में घुस कर सच खंगाल रही हैं। पूरी दुनिया में पारदर्शिता के आग्रहों की एक नई पीढ़ी सक्रिय है, जो संवेदनशीलता, गोपनीयता,निजता की मान्यताओं को तकनीक के मूसल से कूट रही है और सच बताने के पारंपरिक जिम्मेंदारों को पीछे छोड़ रही है। कूटनीति, राजनीति, कारोबार सभी इसके निशाने पर हैं। कहे कोई कुछ भी मगर, घपलों, घोटालों, संस्थागत भ्रष्टाचार और दसियों तरह के झूठ से आजिज आम लोगों को यह दो टूक तेवर भा रहे हैं। दुनिया सोच रही है कि जब घोटाले इतने उम्दा किस्म के हो चले हैं तो फिर गोपनीयता के पैमाने पत्थर युग के क्यों हैं ?
खतरनाक गोपनीयता
ग्रीस की संप्रभु सरकार अपने कानूनों के तहत ही अपनी घाटे की गंदगी छिपा रही थी। पर्दा उठा तो ग्रीस ढह गया। ग्रीस के झूठ की कीमत चुकाई लाखों आम लोगों ने, जो पलक झपकते दीवालिया देश के नागरिक बन गए । यूरोप अमेरिका की वित्तीय संस्थामओं ने नीतियों के पर्दे में बैठकर तबाही रच दी। अमेरिका लेकर आयरलैंड तक आम लोग अपने बैंकों के दरवाजे पीट कर यही तो पूछ रहे हैं कि यह कैसी कारोबारी गोपनीयता थी जिसमें उनका सब कुछ लुट

Monday, November 29, 2010

नीतीश होने की मजबूरी

अर्थार्थ
वोटर रीझता है मगर सड़क से नहीं (जातीय) समीकरण से, विकास से नहीं (वोटों का) विभाजन से और काम से नहीं (व्यक्तित्व के) करिश्मे से! एक पराजित मुख्यमंत्री ने कुछ साल पहले ऐसा ही कहा था। यह हारे को हरिनाम था ? नहीं ! यह भारत में विकास की राजनीति के असफल होने का ईमानदार ऐलान था। नेता जी बज़ा फरमा रहे थे,भारत की सियासत तो जाति प्रमाण पत्रों की दीवानी है। विकास के सहारे बदलते आय (कमाई)प्रमाण पत्रों की होड़ उसे नहीं सुहाती। चुनावी गणित विकास के आंकड़ो से नहीं सधती, इसलिए ठोस आर्थिक विकास से सिंझाई गई राजनीति को हमने कभी चखा ही नहीं। भारत में सियासत अपनी लीक चलती है और विकास अपनी गति से ढुलकता है। सत्ता में पहुंच कर आर्थिक प्रगति दिखाने वालों का माल भी वोट की मंडी में कायदे से नहीं बिकता तो फिर विकास की राजनीति का जोखिम कौन ले? इसलिए आर्थिक विकास दलों के बुनियादी राजनीतिक दर्शन की परिधि पर टंगा रहता है। मगर इस बार कुछ हैरतअंगेज हुआ। जनता नेताओं से आगे निकल गई। पुरानी सियासत के अंधेरे में सर फोड़ती पार्टियों को, बिहार का गरीब गुरबा वोटर धकेल कर नई रोशनी में ले आया है। बिहार के नतीजे राजनीति को उसका बुनियादी दर्शन बदलने पर मजबूर कर रहे हैं। चौंकिये मत! राजनीति हमेशा मजबूरी में ही बदली है।
प्रयोग जारी है
भारत का प्रौढ़ लोकतंत्र,उदार अर्थव्यवस्था से रिश्ते को कई तरह से परख रहा है। पूरा देश राजनीतिक आर्थिक मॉडलों की विचित्र प्रयोगशाला है। राजनीतिक स्थिरता विकास की गारंटी है लेकिन बंगाल का वोटर अब विकास के लिए ही स्थिरता से निजात चाहता है। दूसरी तरफ लंबी राजनीतिक स्थिरता के सहारे राजस्थान चमक जाता है। गठजोड़ की सरकारें पंजाब में कोई उम्मीाद नहीं जगातीं लेकिन बिहार में वोटरों को भा जाती हैं। बड़े राज्यों में पहिया धीरे घूमता है मगर छोटे राज्य विकास का रॉकेट बनते भी नजर नहीं