Monday, May 16, 2011

जादू के बाद

शुक्र मनाइये कि पश्चिम बंगाल कोई कंपनी नहीं है अन्यथा इस पर कब्जे की नहीं बल्कि इससे पीछा छुड़ाने की होड़ हो रही होती। शुक्र मनाइये कि ममता वित्तीय बियाबान की रानी बनकर भी खुश हैं क्यों कि सियासत उजाड़ में भी उम्मीद तलाश लेती है मगर इसके आगे शुक्र मनाने के लिए कुछ नहीं है। तृणमूल का पहला कार्यकाल पूरा होने से पहले ही बंगाल शायद ममता से पूछ रहा होगा कि हम दीवालिया कैसे हो गए ?? ..... अगर कोई चमत्कार नहीं हुआ, तो सोनार बांग्ला, कर्ज के जाल में फंस कर तीन साल (2014-15) में दीवालिया हो जाएगा। केवल पिछले एक साल में रिजर्व बैंक से 62 बार ओवर ड्राफ्ट लेने वाले बंगाल का यह भयानक भविष्य. तेरहवें वित्‍त आयोग व केंद्रीय वित्त मंत्रालय दोनों को दिख रहा है। उदारीकरण बीस वर्षों के दौरान अखिल भारतीय तेज विकास को, पश्चिम बंगाल दूर से बस टुकुर-टुकर ताकता रहा है। बंगाल ने चौंतीस साल के कामरेड राज के खिलाफ जब विप्लव किया तब तक ब्रांड बंगाल अपनी वित्तीय साख और निवेशकों के बीच प्रतिष्ठा दोनों गंवा चुका था। और मुश्किल यह है बदलाव का ताजा जादू भी उन्हीं साधनों से निकला है, निवेशक, जिनके कारण बंगाल से बिदकते हैं। कामरेडों के काम तमाम से बंगाल की आर्थिक साख सुधरने की उम्मीद बांधने वाले माफ करेंगे, दीदी का राजनीतिक दर्शन भी ( सिंगुर) उदारीकरण की आबो हवा से मेल नहीं खाता है। यानी कंगाल हुए बंगाल में ‘बदोल’ के लिए दीदी को भी अपनी सियासत बदलनी होगी।
पिछड़ने की जिद
बंगाल आर्थिक विकास की एक बेढब ग्रंथि है। बिहार का पिछड़ापन तो अदूरदर्शी और भ्रष्ट नेताओं की देन है मगर बंगाल को तो पढ़े लिखे और विचारशील नेताओं की जिद ने बदहाल कर दिया। आर्थिक विकास के तीन शुरुआती इंजनों ( मुंबई, चेन्‍नई कोलकता) में शुमार बंगाल के पास रश्क करने लायक औद्योगिक अतीत था। निजी उद्यमिता की कई (मारवाड़ी-बिरला गोयनका) कीर्ति कथायें बंगाल में ही लिखी गईं, जो बाद में लाल झंडों से डर कर महाराष्ट्र कूच कर गईं। कोयला और इस्पात की धुरी पर बैठे बंगाल को सरकारी औद्योगीकरण में भी बड़ा हिस्सा मिला था। दरअसल, बंदरगाह, वित्तीय तंत्र व श्रमिकों से लैस बंगाल उन किस्मती राज्यों में था जो उदारीकरण के घोड़े पर बैठकर हवा से बातें कर सकते थे मगर पिछड़ेपन के धुनी हुक्मरानों

Monday, May 9, 2011

आतंक का अकाउंट

दमी दो और खात्मे का खर्च 57 लाख करोड़ रुपये (1.3 ट्रिलियन डॉलर, अमेरिकी सरकार के मुताबिक) !!! और अगर स्वतंत्र आकलनों (अर्थशास्त्री जोसफ स्टिगलिज) को मानें तो ओसामा-सद्दाम निबटान परियोजना की लागत बैठती है 120 लाख करोड़ रुपये (तीन ट्रिलियन डॉलर)। अर्थात दूसरे विश्व युद्ध बाद सबसे कीमती लड़ाई। .. यकीनन यह इंसाफ बला का महंगा है । दस साल और कई देशों के जीडीपी से ज्यादा पैसा झोंकने के बाद का अंकल सैम जिस न्यांय पर झूम उठे हैं वह दरअसल आतंक पर जीत को नहीं बल्कि इस अद़ृश्य दुश्मन की ताकत को ज्यादा मुखर करता है। आतंक की आर्थिक कीमत का मीजान लगाते ही यह बात आइने की तरह साफ हो जाएगी कि आतंक को पोसना (पाकिस्तान, अफगानिस्तान) या आतंक से बचना (भारत) या फिर आतंक से आर-पार करना (अमेरिका इजरायल), में सफलताओं का खाता नुकसानों के सामने पिद्दी सा है। आतंक कब का एक आर्थिक विपत्ति भी बन चुका है मगर दुनिया इस दुश्मन से अंधी गली में अंदाज से लड़ रही है। उस पर तुर्रा यह कि इस जंग को किसी फतह पर खत्म नहीं होना है। इसलिए ओसामा व सद्दाम पर जीत से दुनिया निश्चिंत नहीं बल्कि और फिक्रमंद हो गई है। भारी खर्च और नए खतरों से भरपूर यह जीत दरअसल हार जैसी लगती है।
इंसाफ का हिसाब
अगर अमेरिका न होता तो ओसामा पाक डॉक्टरों की देख रेख में किडनी की बीमारी से मरा होता और सद्दाम बगदाद के महल में आखिरी सांस लेता। दो दुश्मनों को मारने पर 57 लाख करोड़ रुपये खर्च करना किस नत्थू खैरे के बस का है? इसके बावजूद आतंक ने अमीर अमेरिका से कम कीमत नहीं वसूली। एक ट्रिलियन डॉलर अर्थात 44 लाख करोड़ रुपये की चोट (संपत्ति की बर्बादी, मौतें और बीमा नुकसान आदि) देने वाले 9/11 के जिम्मेदार को सजा देने के लिए अमेरिका को दस साल और 444 अरब डॉलर फूंकने पड़े। दरअसल आतंक के खिलाफ 1.3 ट्रिलियन डॉलर की अंतरराष्ट्रीय अमेरिकी मुहिम तीन

Monday, May 2, 2011

तख्ता पलट महंगाई !

क सरकार ने दूसरी से खुसफुसाकर पूछा क्या इजिप्ट की बगावत यकीनन खाद्य उत्पादों की महंगाई से शुरु हुई थी? मुद्रा कोष (आईएमएफ) तो कह रहा है कि यमन व ट्यूनीशिया की चिंगारी भी महंगाई से भड़की थी।.. जरा देखो तो, महंगे ईंधन के कारण गुस्साये शंघाई के हड़ताली ट्रक वालों को सख्त चीन ने कैसे पुचकार कर शांत किया।... महंगाई के असर से तख्ता पलट ?? सरकारों में खौफ और बेचैनी उफान पर है। लाजिमी भी है, एक तरफ ताजे जन विप्ल‍वों की जड़ें महंगाई में मिल रही हैं तो दूसरी तरफ बढ़ती कीमतों का नया प्रकोप आस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक, चिली से चीन तक और रुस से चीन से अफ्रीका तक पूरी दुनिया को लपेट रहा है। पिछले छह माह में महंगाई एक अभूतपूर्व सार्वभौमिक आपदा बन गई है। मुद्रास्फीति से डरे अमेरिकी फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नांके (सौ साल पुरानी परंपरा तोड़ कर) को बीते सप्ताह मीडिया को सफाई देने आना पड़ा। यूरोप में सस्‍ते कर्ज की दुकानें बंद हो गईं और चीन कीमतों महंगाई रोकने के लिए ग्रोथ गंवाने को तैयार है। भारत तो अब महंगाई की आदत पड़ गई है। भूमंडलीय महंगाई की यह हाल फिलहाल में यह सबसे डरावनी नुमाइश है। बढ़ती कीमतें यूरोप व अमेरिका में बेहतरी की उम्मीदों की बलि मांग रही हैं जबकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं अपनी तेज ग्रोथ का एक हिस्सा इसे भेंट करना होगा। फिर भी राजनीतिक खतरे टलने की गारंटी नहीं है।
सबकी जेब में छेद
मंदी व संकटों से छिली दुनिया के जख्मों पर महंगाई का अभूतपूर्व नमक बरसने लगा है। महंगाई अब अंतरराष्ट्रीय मुसीबत है। पूरा आसियान क्षेत्र मूल्य वृद्धि से तप रहा है। वियतनाम, थाइलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर में महंगाई तीन से दस फीसदी तक है। चीन में जब उपभोक्ता उत्पाद पांच फीसदी से ज्यादा महंगे हुए तो सरकार ने कीमतें बढ़ाने पर पाबंदी लगा दी। महंगाई से डरा चीन अपने युआन को मजबूत करने अर्थात निर्यात वृद्धि से समझौते को तैयार है। भारत दो साल 13 फीसदी महंगाई जूझ रहा है। रुस आठ फीसदी, यूरोजोन दो फीसदी, ब्रिटेन 3.3 फीसदी, पोलैंड तीन फीसदी

Monday, April 25, 2011

साख के गुंबद में सेंध


न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज की छत पर लटके यक्ष ने एक युधिष्ठिर टाइप के निवेशक से पूछा, वत्स ! दुनिया के वित्तीय बाजार में प्रश्नों से परे क्या है ? निवेशक बोला अमेरिका (दीर्घकालीन कर्ज उपकरण) की साख। यक्ष ने कहा कल्यांण हो और निवेशक अपनी किस्मत आजमाने बाजार में उतर गया। वित्तीय बाजारों में वर्षों से सब कुछ यक्ष के वरदान के मुताबिक चल रहा था कि अचानक निवेशकों को बुरे सपने आने लगे। सपने अमेरिकी साख को लेकर थे जिनका मतलब समझने के लिए निवेशक यक्ष को तलाश ही रहे थे कि उनका दुस्वप्न सच हो गया। दुनिया की प्रमुख रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर ने बीते सप्ताह अमेरिकी की साख को नकारात्मक दर्जे में डाल दिया। अपने रेटिंग इतिहास के 70 वर्षों में पहली बार स्टैंडर्ड पुअर चीखी कि अमेरिका को कर्ज देने या उसके कर्ज उपकरणों में निवेश करने वाले जोखिम उठाने को तैयार रहें। दुनिया आशंकित तो थी मगर यकायक विश्वाास नहीं हुआ। बाजार सदमे से बैठ गए, निवेशक अपना रक्तचाप नापने लगे, डॉलर गिरावट के कोटर में छिप गया। कोई बोला ऐसा कैसे हो सकता है ? यह तो वित्ती्य बाजार की सबसे मजबूत मान्यता, विश्वास, दर्शन, सिद्धांत, परंपरा और मानक टूटना है!....मगर ऐसा हो गया है। अमेरिका वित्तीय साख का शिखर, बुर्ज, गुंबद, मस्तूल, प्रकाश स्तंभ सभी कुछ है लेकिन कर्ज व घाटे ने साख के गुंबद में सेंध मार दी है। अमेरिकी सरकार के कर्ज बांडों व हुंडियों ( ट्रेजरी बिल) पर रेटिंग एजेंसियां हमेशा से सर्वश्रेष्ठ और सबसे सुरक्षित की मुहर ( ट्रिपल ए रेटिंग) लगाती हैं, जिसे छीने जाने की उलटी गिनती शुरु हो चुकी है। वित्तीय दुनिया अनदेखी अनसुनी और अप्रत्याशित उलझनों के लिए हिम्मत जुटा रही है।
घनघोर कर्ज
2009 में ऋण संकट के वक्त ही अमेरिकी साख पर खतरे की आहट सुन ली गई थी। कुछ हिम्म तियों कहा था कि यह तो अमेरिका है वरना इतने कर्ज पर तो रेटिंग एजेंसियां किसी दूसरे देश की साख का बैंड बजा देतीं। स्टैंडर्ड एंड पुअर ने जब बीते सप्ताह अमेरिका की दीर्घकालीन कर्ज रेटिंग पर अपना आउटलुक यानी नजरिया (स्थिर से नकारात्मक) बदला तो साफ हो गया कि पानी सर से ऊपर निकल गया है। अमेरिका में कर्ज और घाटे के ताजे आंकड़े भयावह हैं। अमेरिका की संघीय सरकार का कर्ज 4.6 ट्रिलियन डॉलर और राष्ट्रीय कर्ज ( सभी तरह के सरकारी कर्ज) 9.67 ट्रिलियन डॉलर पर पहुंच गया है। यानी कि कुल सार्वजनिक कर्ज करीब 14.27 ट्रिलियन डॉलर के शिखर पर है। कर्ज जीडीपी अनुपात को देखकर निवेशकों का कलेजा

Monday, April 18, 2011

डॉलर-राज से बगावत

मौद्रिक बाजार के बादशाह के खिलाफ बगावत हो गई है। दुनिया की नई आर्थिक ताकतों (ब्रिक्सं) ने मिलकर अमेरिकी डॉलर के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया है और यूरो सेना को सदमें में डाल दिया है। विकसित दुनिया को इसकी उम्मीद नहीं थी ब्राजील,रुस,भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका यह अनोखा गुट अपने जन्म के दो साल ( 2009 में येकतरिनबर्ग से शुरुआत) के भीतर अपनी मुद्राओं में आपसी कारोबार का अद्भुत पैंतरा चल देगा। मतलब यह कि दुनिया के उभरते बाजारों से अमेरिकी डॉलर अब लगभग बेदखल हो जाएगा। 4.6 ट्रिलियन डॉलर के साझा उत्पादन वाले इन नए सूरमाओं ने यह मुनादी कर दी है कि उभरती अर्थव्यवस्थायें अमेरिकी डॉलर की पालकी ढोने को तैयार नहीं है। ब्रिक्स ने दरअसल दुनिया को एक नई रिजर्व करेंसी देने की बहस को जड़, जमीन व आसमान दे दिया है।
डगमग डालर
विश्व के सरकारी विदेशी मुद्रा भंडारों में 61 फीसदी अमेरिकी डॉलर हैं जबकि 85 फीसदी विदेशी विनिमय सौदे, 45 फीसदी अंतरराष्ट्रीय निवेश और लगभग 50 फीसदी निर्यात डॉलर में होता है। यानी डॉलर बेशक दुनिया रिजर्व करेंसी व मौद्रिक प्रणाली का आधार है। डॉलर को यह ताज किस्मत से मिला था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की मुद्रा धराशायी थी और दुनिया का 50 फीसदी उत्पादन अमेरिका के हाथ में था, इसलिए डॉलर कारोबार की प्रमुख मुद्रा बन गया और क्रमश: अपने वित्तीय बाजारों की गहराई और मजबूत वैश्विक मुद्राओं की कमी ने इसे दुनिया की रिजर्व करेंसी बना दिया। विकसित होती दुनिया को ऐसी मुद्रा चाहिए थी जो