Monday, May 21, 2012

फिर ग्रोथ की शरण में

हीं चाहिए खर्च में कंजूसी ! घाटे में कमी! निवेश करो !आर्थिक विकास बढ़ाओ! रोजगार दो! नहीं तो जनता निकोलस सरकोजी जैसा हाल कर देगी। .. ग्‍लोबल नेतृत्‍व को मिला यह सबसे ताजा ज्ञान सूत्र है जो बीते सप्‍ताह कैम्‍प डेविड (अमेरिका) में जुटे आठ अमीर देशों के नेताओं की जुटान से उपजा और अब दुनिया में गूंजने वाला है। फ्रांस के चुनाव में निकोलस सरकोजी की हार ने चार साल पुराने विश्‍व आर्थिक संकट को से निबटने के पूरे समीकरण ही बदल दिये हैं। सरकारों का ग्‍लोबल संहार शुरु हो गया है क्‍यों कि जनता रोजगारों से भी गई और सुविधाओं से भी। वित्‍तीय कंजूसी की एंग्‍लो सैक्‍सन कवायद अटलांटिक के दोनों पार की सियासत भारी पड़ रही है। अमेरिका और यूरोप अब वापस ग्रोथ की सोन चिडिया को तलाशने निकल रहे हैं। चीन ग्रोथ को दाना डालना शुरु कर चुका है। दुनिया के नेताओं को यह इलहाम हो गया है कि घाटे कम करने की कोशिश ग्रोथ को खा गई है। यानी कि मु्र्गी ( ग्रोथ और जनता) तो बेचारी जान से गई और दावतबाजों का हाजमा बिगड़ गया।...
देर आयद
अगर बजट घाटे न हों तो ग्रोथ की रोटी पर बेफिक्री का घी लग जाता है। लेकिन घी के बिना काम चल सकता है ग्रोथ की, सादी ही सही, रोटी के बिना नहीं। 2008 में जब लीमैन डूबा और दुनिया मंदी की तरफ से खिसकी तब से आज तक दुनिया की सरकारें यह तय नहीं कर पाई कि रोटी बचानी है या पहले इस रोटी के लिए घी जुटाना है। बात बैंकों के डूबने से शुरु हुई थी। जो अपनी गलतियों से डूबे, सरकारों ने उन्‍हें बचाया अपने बजटों से। बजटों में घाटे पहले से थे क्‍यों कि यूरोप और अमेरिकी सरकारें जनता को सुविधाओं से पोस रही थीं। घाटा बढ़ा तो कर्ज बढे और कर्ज बढ़ा तो साख गिरी। पूरी दुनिया साख को बचाने के लिए घाटे कम करने की जुगत में लग गई इसलिए यूरोप व अमेरिका की जनता पर खर्च कंजूसी के चाबुक चलने लगे। जनता गुस्‍साई ओर उसने सरकारें पलट दीं। तीन साल की इस पूरी हाय तौबा में कहीं यह बात बिसर गई कि मुकिश्‍लों का खाता आर्थिक सुस्‍ती

Monday, May 14, 2012

डरे कोई भरे कोई


णनीति बन चुकी थी। मोर्चा तैयार था। फौजी कमर कस चुके थे। अचानक बहादुर सेनापति (वित् मंत्री) ने ऐलान किया कि मोर्चा वापस ! अब हम एक साल बाद लड़ेंगे ! सब चौंक उठे। सेनापति  बोला यह मत समझना कि हम डर गए हैं ! हमें किसी परिणाम की चिंता नहीं है!  बस, हम  बाद में लड़ेंगे !!.... यह कालेधन खिलाफ भारत की लड़ाई की कॉमेडी थी जो बीते सप्ताह लोकसभा से प्रसारित हुई। इनकम टैक् के जनरल एंटी अवाइंडेस रुल् (गार) , पर अमल रोक दिया गया। इन नियमों से देशी विदेशी कंपनियों के लिए भारती टैकस कानूनों से बचने के मौके बंद हो रहे थे, इसलिए अभूतपूर्व लामबंदी हुई। डरना तो टैक्‍स चोरों को था मगर डर गई सरकार। वित् मंत्री झुके और टैक्  चोरी काली कमाई रोकने की एक दूरगामी और हिम्मती पहल बड़े औचकसंदिग् तरीके से वापस हो गई।  पूरी दुनिया ने देखा कि टैकस चोरी रोकने की कोशिश करने पर भारत को शर्मिंदा होना पड़ सकता है। गार की वापसी से देश के टैक्‍स कानून की साख को मजबूत करने की एक बड़ी कोशिश भी खत्‍म हो गई। आयकर विभाग अब दीन हीन छोटे टैकसपेयर पर अपनी बहादुरी दिखायेगा।
रीढ़ कहां है
 टैक्स कानूनों की कसौटी पर कसे जाने के बाद च्छे कारोबार के भीतर आर्थिक जरायम और टैक्‍स चोरी निकलती हैं। टैकस कानूनों ने तमाम कथित साफ सुथरे कारोबारों के पीछे कालेधन के गोदाम पकड़े हैं, जिन की सड़कें टैक् हैवेन तक जाती हैं। जनरल एंटी अवाइंडेस रुल् यानी गार की रोशनी दरअसल इन्हीं अंधेरे कोनों के लिए थी। भारत में टैक् चोरी को साबित करने के तरीके पुराने हैं। आयकर विभाग को टैक् चोरी से निबटने के लिए अदालत का सहारा लेना पड़ता है। जनरल एंटी अवाइंडेस रुल् कानूनों की नई पीढ़ी है। यदि किसी कंपनी या निवेशक ने कोई ऐसी प्रक्रिया अपनाई है जिसका मकसद सिर्फ टैकस बचाना है, उससे कोई कारोबारी लाभ नहीं है तो आयकर विभाग खुद खुद इन नियमों को अमल में लाकर कंपनी पर शिकंजा कस सकता है। भारत में तो गार और जरुरी है क्यों कि ज्यादातर विदेशी निवेश

Monday, May 7, 2012

दोहरी मंदी की दस्‍तक


स्‍पेनी डुएंडे ने अमरिकी ब्‍लैकबियर्ड घोस्‍ट (दोनो मिथकीय प्रेत) से कहा .. अब करो दोहरी ड्यूटी। यह दुनिया वाले चार साल में एक मंदी खत्‍म नहीं कर सके और दूसरी आने वाली है। ... यह प्रेत वार्ता जिस निवेशक के सपने में आई वह शेयर बाजार की बुरी दशा से ऊबकर अब हॉरर फिल्‍में देखने लगा था। चौंक कर जागा तो सामने टीवी चीख रहा था कि 37 सालों में पहली बार ब्रिटेन में डबल डिप (ग्रोथ में लगातार गिरावट) हुआ  है। स्‍पेन यूरोजोन की नई विपत्ति है। यूरोप की विकास दर और नीचे जा रही  है अमेरिका में  ग्रोथ गायब है। यानी कि देखते देखते चार साल (2008 से) बीत गए। सारी तकनीक, पूंजी और सूझ, के बावजूद दुनिया एक मंदी से निकल नहीं सकी और दूसरी दस्‍तक दे रही है। पिछले साल की शुरुआत से ही विश्‍व बाजार यह सोचने और भूल जाने की कोशिश में लगा था कि ग्रोथ दोहरा गोता नहीं लगायेगी। मगर अब डबल डिप सच लग रहा है। अर्थात मंदी के कुछ और साल। क्‍या एक पूरा दशक बर्बाद होने वाला है।
स्‍पेन में कई आयरलैंड
स्‍पेन की हकीकत सबको मालूम थी  मगर कहे कौन कि यूरोजोन की चौथी सबसे बड़ी अर्थवयवस्‍था दरक रही है। इसलिए संकट के संदेशवाहकों (स्‍टैंडर्ड एंड पुअर रेटिंग डाउनग्रेड) का इंतजार किया गया। स्‍पेन का बहुत बड़ा शिकार है। ग्रीस, पुर्तगाल और आयरलैंड की अर्थव्‍यवस्‍थाओं को मिलाइये और फिर उन्‍हें दोगुना कीजिये। इससे जो हासिल होगा वह स्‍पेन है इसलिए सब मान रहे थे कि कुछ तो ऐसा होगा जिससे ग्रीस और आयरलैंड, स्‍पेन में नहीं दोहरा जाएंगे। मगर अब यह साबित हो गया कि प्रापर्टी, बैंक और कर्ज की कॉकटेल में स्‍पेन दरअसल आयरलैंड का सहोदर ही नहीं है वरन वहां तो कई आयरलैंड कर्ज देने वाले बैंक डूब रहे हैं। यूरोप का सबसे बड़े मछलीघर (एक्‍वेरियम) और सिडनी जैसा ऑपेरा हाउस से लेकर हॉलीवुड की तर्ज पर मूवी स्‍टूडियो सजा स्‍पेनी शहर वेलेंशिया देश पर बोझ बन गया है। वेंलेंशिया में 150 मिलियन यूरो की लागत वाले एक एयरपोर्ट को लोग बाबा का हवाई अड्डा (ग्रैंड पा एयरपोर्ट) कहते हैं। बताते हैं कि स्‍पेन के कैस्‍टेलोन क्षेत्र के नेता कार्लोस फाबरा ने इसे उद्घाटन के वक्‍त अपने नाती पोतों से पूछा था कि बाबा का हवार्इ अड्डा कैसा लगा। भ्रष्‍टाचार के आरोपों में घिरे फाबरा के इस हवाई अड्डे पर अब तक वाणिज्यिक उड़ाने शुरु नहीं हुई हैं।  बैंक, प्रॉपर्टी, राजनीति की तिकड़ी स्‍पेन को डुबा रही है।  प्रॉपर्टी बाजार पर झूमने वाले कई और दूसरे शहरों में भी दुबई और ग्रेट डबलिन (आयरलैंड) की बुरी आत्‍मायें दौड़ रही हैं। स्‍पेन सरकार पर बोझ बने इन शहरों के पास खर्चा चलाने तक का पैसा नहीं है। नए हवाई अड्डों व शॉपिंग काम्‍प्‍लेक्‍स और बीस लाख से ज्‍यादा मकान खाली पड़े हैं। यूरोपीय केंद्रीय बैंक से स्‍पेनी बैंकों को जो मदद मिली थी, वह भी गले में फंस गई है। अगर स्‍पेन अपने बैंकों को उबारता है तो खुद डूब जाएगा क्‍यों कि देश पर 807 अरब यूरो का कर्ज है, जो देश के जीडीपी का 74 फीसद है। युवाओं में 52 फीसद की बेरोजगारी दर वाला स्‍पेन बीते सप्‍ताह स्‍पष्‍ट रुप से मंदी में चला गया है। पिछले 150 साल में करीब 18 बड़े आर्थिक संकट (इनमें सबसे जयादा बैंकिंग संकट) देखने वाला स्‍पेन आर्थिक मुसीबतों का अजायबघर है।  प्रसिद्ध स्‍पेनी कवि गार्सिया लोर्का ने कहा था कि दुनिया के किसी भी देश ज्‍यादा मुर्दे स्‍पेन में जीवित हैं। इसलिए स्‍पेन की खबर सुनकर यूरोप में दोहरी मंदी की आशंका को नकारने वाले  पस्‍त हो  गए है।

Monday, April 30, 2012

सफलता की शहादत

ए भारत के महानायक की कथा अब एक त्रासदी की तरफ बढ रही है। महानायक व्‍यक्ति ही हो, यह जरुरी नहीं है। अपने हाथ या जेब में मौजूद उस यंत्र को देखिये जिसे मोबाइल कहते हैं। यह उदार भारत की सबसे बड़ी सफलता और नए इंडिया सबसे अनोखी पहचान है। अफसोस, अब इसकी ट्रेजडी लिखी जा रही है। अगर क्रांतियां अच्‍छी होती हैं तो भारत के ताजा इतिहास में दूरसंचार से ज्‍यादा असरदार क्रांति कोई नहीं दिखती। अगर तकनीकें चमत्‍कारी होती हैं तो फिर इस चमतकार का कोई सानी नहीं है क्‍यों कि इस एकलौते मोबाइल ने करोड़ों की जिंदगी (जीवन पद्धति) से लेकर जेब (आय व कारोबार) तक सब कुछ बदल दिया। और यदि खुले बाजार फायदे का सौदा होते हैं, भारत में दूरसंचार बाजार के उदारीकरण से सफल केस स्‍टडी दुनिया में मिलना मुश्किल है। मगर अब यह पूरी क्रांति, करिशमा और फायदा सर बल खड़ा होने जा रहा है। सस्‍ती दरों और शानदार ग्रोथ से जगमगाती दूरसंचार क्रांति अब जिस तरफ बढ रही है वहां चालीस फीसद तक महंगी फोन कॉल, कम ग्राहक और कमजोर तकनीक वाला बिजनेस मॉडल इसका हमसफर होगा। मनमाने स्‍पेक्‍ट्रम राज और अंदाजिया नियामक (टीआरएआई की प्रस्‍तावित स्‍पेक्‍ट्रम दरें) की कृपा से मोबाइल बाजार की पूरी बाजी ही पलटने वाली है। अरस्‍तू ने ठीक ही लिखा था महानायकों की त्रासदी उनकी अपनी गलतियों निकलती है। दूरसंचार क्षेत्र में गलतियों का स्‍टॉक  तो कभी खत्‍म ही नहीं होता।
दमघोंट नीतियां
भारत अपनी सफलताओ का गला घोंटने में माहिर है। इसका अहसास हमें जल्‍द होगा जब मोबाइल बिल और रिचार्ज करंट मारने लगेगें,  मोबाइल कंपनियां बाजार छोड़ने लगेंगी (रोजगार घटें) और नेटवर्क की क्‍वालिटी खराब होगी। दूरसंचार क्षेत्र में नीतियों का तदर्थवाद और नियामकों के अबूझ तौर तरीके हमें इस मुकाम पर ले आए हैं। पहले भ्रष्‍ट मंत्रियों ने मनमाने कीमत पर स्‍पेक्‍ट्रम बांटा, जब सुप्रीम कोर्ट ने लाइसेंस रद (2जी घोटाला) किये तो टीआरएआई इतनी ऊंची कीमतों पर स्‍पेक्‍ट्रम बेचने की सूझ लेकर आई, कि बाजार का पूरा गणित ही बदल गया है। स्‍पेक्‍ट्रम (वायु तरंगे) मोबाइल संचार का कच्‍चा माल हैं। यह समझना बहुत मुश्किल है कि आखिर सरकार और नियामक मिल कर इस कच्‍चे माल को आज के मुकाबले 13 गुना कीमती पर क्‍यों

Monday, April 23, 2012

इक्‍यानवे का प्रेत

शवंत सिन्‍हा देश को बता रहे हैं कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली है। सोना गिरवी रखा जाएगा। विदेशी मुद्रा कोष (आईएमएफ) से कर्ज लिया जा रहा है। रुपया बुरी तरह गिरा है। ... वह युवा निवेशक पसीने लथपथ होकर जाग गया ! कितना बुरा सपना था ! 1991 वाला। अचानक उसे याद आया कि उसने कल ही तो रिजर्व बैंक के ताजे आंकडे पलटे थे और यह भी पढ़ा था कि गवर्नर सुब्‍बाराव 1991 के दुर्दिन की याद कर रहे हैं। विदेशी मुद्रा भंडार का तेजी से गिरना, व्‍यापार घाटे (आयात निर्यात का अंतर) में अभूतपूर्व उछाल, रुपये पर दबाव, छोटी अवधि के विदेशी कर्जों का विस्‍फोटक स्‍तर और साथ में ऊंचा राजकोषीय घाटा यानी कि जुड़वा घाटों की विपत्ति। तकरीबन ऐसा ही तो था 1991। बस अंतर सिर्फ यह है कि तब भारत ग्‍यारह लाख करोड़ की (जीडीपी) अर्थव्‍यवस्‍था था और जो आज 50 लाख करोड़ की है। अर्थव्‍यवस्‍था बड़ी होने से संकट छोटा नहीं हो जाता इसलिए विदेशी मुद्रा बाजार से लेकर बैंकों के गलियारों तक खौफ की ठंडी लहरें दौड़ रही हैं। मगर दिल्‍ली के राजनीतिक कानों पर रेंगने लिए शायद हाथी जैसी जूं चाहिए, इसलिए दिल्‍ली बेफिक्र ऊंघ रही है।
विस्‍फोटक आंकड़े
याददाश्‍त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि संकट ही याद न रहे। अभी 21 साल पहले की ही बात है जब जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम रह गया यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया। निर्यातों को प्रतिस्‍पर्धात्‍मक बनाने के लिए तीन दिन में रुपये का 24 फीसदी अवमूल्‍यन हुआ। आईएमएफ से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लिया गया और 67 टन सोना बैंक ऑफ इंग्‍लैंड व यूनियन बैंक ऑफ सिवटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डॉलर उठाये गए, तब आफत टली। ... यह खौफनाक अतीत जिस परिस्थिति से निकला था आज के आंकड़े उससे जयादा खराब