Monday, September 3, 2012

सीनाजोरी का अर्थशास्‍त्र



मेरी कमाई देश में है। एक भी पैसा देश से बाहर से नहीं गया यानी सरकार को कोई घाटा नहीं हुआ। क्‍या मैं टैक्‍स देने से मना कर सकता हूं ?? कंपनियों को मुफ्त में कोयला खदान देने से देश को नुकसान न होने की सरकारी दलील पर अगर आपके दिमाग में ऐसा कोई सवाल उठे तो आप कतई गलत नहीं हैं। कंपनियों को मिली खदानों कोयला धरती के गर्भ में सुरक्षित होने से सरकार को कोई यदि नुकसान नहीं दिखता तो फिर आप भी कमाइये, देश में खर्च कीजिये और टैक्‍स मत दीजिये। सरकार को क्‍या नुकसान हो रहा है। पैसा तो देश में ही है। कोयला खदानों की मुफ्त बंदरबांट में देश को हानि न होने की यह सूझ उस नए अर्थशास्‍त्र का हिस्‍सा है जिसे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की टीम देश के गले उतारना चाहती है। यह दागदार हिसाब संपत्तियों के मूल्‍यांकन के शास्‍त्रीय से लेकर बाजारवादी सिद्धांतों तक का गला घोंट देता है और राजस्‍व का नुकसान आंकने के बजटीय सिद्धांतों को दफ्न कर देता है। सरकार के समझदार मंत्री देश को शर्मिंदा करने वाला यह अर्थशास्‍त्र सिर्फ इसलिए पढ़ा रहे हैं ताकि प्राकृतिक संसाधनों को बांटने के अधिकार की कीमत वसूलने वाले नेताओं (रेंट सीकिंग) और उनकी चहेती कंपनियों (क्रोनी कैपटिलिज्‍म) के बीच  गठजोड़ को सही साबित किया जा सके। यह चोरी के बाद सीनाजोरी का अर्थशास्‍त्र है।
दागी गणित 
सरकार और कांग्रेस देश को शायद सिरे से मूर्ख समझती है। वह देश के सामान्‍य आर्थिक ज्ञान का मखौल बना रही है। सदियों से बाजारी, कारोबारी और संपत्ति के हिसाब  में तपे हुए इस देश का एक अदना सा किसान भी जानता है कि

Monday, August 27, 2012

संविधान से डरी सरकार


संवैधानिक संस्‍थाओं से डरी हुई सरकार देखी है आपने। भारत में आजकल ऐसी सरकार की नुमाइश चल रही है। डा.भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा की बहस में जिस ऑडिटर जनरल को संविधान का सबसे महत्‍वपूर्ण अधिकारी कहा था। सरकार की कमाई खर्च के निगहबान इस अधिकारी का दायित्‍व, अंबेडकर की निगाह मेंन्‍यायपालिका से भी ज्‍यादा बड़ा था, उसने पूरी सरकार को डर से भर  दिया है। खिसियाये मंत्री सरकारी ऑडीटर को ही उसकी सीमायें बता रहे हैं। मंत्रियों को जेल भेजता, जांच एजेसियों लताड़ता,  अधिकारियों को हटाता , पीएमओ को सवालों में घेरता, राज्यपालों को संविधान सिखाता और जंग लगे कानूनों को नकारता सुप्रीम कोर्ट का एक शुभ संकेत है। लेकिन सरकार अदालत से इस कदर घबराई है कि न्‍यायपालिका को सबक देने की जुगत में है। देश इस समय गवर्नेंस की उलटबांसी पढ़ रहा है। उदारीकरण के बाद बेताब हुए बाजार को संभालने के लिए ताकतवर, दो टूक, पारदर्शी, प्रभावी और निष्‍पक्ष, नई संस्‍थायें तो मिली नहीं अलबत्‍ता सरकार खुद संविधान और उसकी पारंपरिक संस्‍थाओं की नीयत पर सवाल उठाने लगी है। बदलते आर्थिक परिवेश के बीच इन पुरानी संस्‍थाओं की नई सक्रियता ने सियासत को अनजाने हादसों के डर से भर दिया है। संविधान से डरी सरकारें बड़ी जोखिम भरी होती है।
ऑडिट का खौफ 
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के ऑडिट आज सरकार की आफत क्‍यों बन गए? सीएजी तो भारत में ब्रितानी ताज का राज शुरु होने के बाद खुले सबसे पहले दफ्तरों में एक था। तब से हजारों ऑडिट हो चुके हैं। अभी कुछ दो तीन वर्ष पहले तक सीएजी उबाऊ, आंकड़ाबाज और हिसाबी किताबी संस्थान माना जाता था। उसकी रिपोर्ट  संसदीय औपचारिकता थीं और ऑडिट टिप्पणियों पर सरकारी विभाग उबासी लेते थे। मगर सरकारी ऑडीटर सरकार के लिए इतना खौफनाक हो गया कि खुद वित्‍त मंत्री कोयला खदान आवंटन पर सीएजी की उस रिपोर्ट को खारिज कर रहे हैं जो अब संसद की संपत्ति बन चुकी है। दरअसल हमें संविधान निर्माताओं पर रश्‍क करना चाहिए कि उन्‍होंने एक मुनीम जैसी संस्‍था

Monday, August 20, 2012

उदारीकरण का ऑडिट


प्राकृतिक संसाधनों की खुली बंदरबांट, कुछ भी करने को तैयार निजी क्षेत्र और एक एक कंपनी टर्नओवर के बराबर संपत्ति वाले राजनेता !!!!  यह सब देखकर अगर आर्थिक उदारीकरण को बिसूरने का मन करता है तो आप गलत नहीं है। गुलाम अतीत, राजनीति से बोझिल व्यवस्था, लचर कानून, जरुरी सुविधाओं की कमी और जबर्दस्त अवसरों वाले समाज में उदारीकरण शायद ऐसी ही आफत लाता है। प्राकृतिक संसाधन किसी भी देश की तरक्की की बुनियाद होते हैं लेकिन संसाधनों को संभालने वाले कानून अगर बोदे हों और निगहबान भ्रष्ट, तो खुला बाजार दरअसल खुली लूट बन जाता है। संवैधानिक संस्थाओं का शुक्रगुजार होना चाहिए वह हमें हमारे आर्थिक खुलेपन का बदसूरत चेहरा दिखा रही हैं। सीएजी की रिपोर्टें भारत के उदारीकरण की दो टूक समीक्षा हैं।
अराजक राज
खदान, खनिज, जमीन, स्पेक्‍ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधन आर्थिक विकास की बुनियादी जरुरत हैं। श्रम और पूंजी देश से बाहर से लाए सकते है मगर प्राकृतिक संसाधनों का आयात नहीं हो सकता। इसलिए पूंजी सबसे पहले इनके पीछे दौड़ती है ताकि इन्हें लेकर बाजार में बढ़त हासिल की जा सके। समझदार सरकारें देश के प्राकृतिक संसाधनों को बाजार के साथ बड़ी चतुराई से बांटती हैं। संसाधनों की वाणिज्यिक कीमत का तथ्यांत्मक व शोधपरक आकलन होता है‍। भविष्य की संभावनाओं का पूरा गुणा भाग करते हुए यह आंका जाता है कितने संसाधन विकास की जरुरत हैं और कितने बाजार की। इनके आधार पर सरकारें बाजार से इसकी सही कीमत कीमत तय करती है और बाजार से वह कीमत वसूली जाती है क्यों कि बाजार इनके इस्तेमाल की कीमत उपभोक्ता से लेता है। प्राकृतिक संसाधन, बाजार और पूंजी का यह ग्लोबल रिश्ता , उदारीकरण के साथ भारत भी पहुंचा मगर यहां एक अनोखा

Monday, August 13, 2012

ब्रिटेन की अगली मेजबानी



जाने भी दीजिये ब्रांड लंदन !!! हमें तो यह देखना है ब्रिटेन की मेजबानी में ओलंपिक के बाद क्‍या होने वाला है …!  एक ग्‍लोबल कंपनी के मुहफट मुखिया ने यह बात ठीक उस समय कही जब प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन ओलंपिक को ब्रिटेन की आर्थिक तरक्‍की का मुकुट बता रहे थे। कैमरुन सरकार  ओलंपिक मेडल्‍स में ब्रिटेन की खेल ताकत दिखा रही थी तो निवेशक लंदन की वित्‍तीय साख पर दागों की लिस्‍ट बना रहे थे और ओलंपिक के भव्‍य उद्घाटन से निगाहें हटाकर ब्रिटेन की भयानक मंदी की आंकड़े पढ़ रहे थे। शताब्दियों से पूरी दुनिया के बैंकर रहे लंदन के बैंक घोटालों की नई नई किस्‍मे ईजाद कर रहे हैं और ब्रिटेन की अर्थव्‍यवस्‍था की यूरोजोन से जयादा बुरी हालत में है। ब्रिटेन विश्‍व की वित्‍तीय नब्‍ज संभालता है इसलिए बाजारो में डर की नई सनसनी है। यूरोप की चुनौतियां यूरोजोन से बाहर निकल कर ब्रिटेन के रास्‍ते ग्‍लोबल बैकिंग में फैल रहीं हैं। ओलंपिक के बाद यूरोपीय संकट की जो पदक तालिका बनेगी उसमें ब्रिटेन सबसे ऊपर होगा।
तालियों का टोटा
अमेरिका व चीन के बाद ओलंपिक की तीसरी ताकत होते हुए भी ब्रिटेन दरअसल तालियों को तरस गया। क्‍यों कि ऐन ओलंपिक के मौके पर लंदन दुनिया को तरह तरह के घोटाले और अपनी साख ढहने की खबरें बांट रहा था। 241 ग्‍लोबल बैंकों का गढ़ लंदन विश्‍व का वित्‍तीय पावर हाउस है। यहां हर रोज करीब 1.4 ट्रिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा और ब्‍याज दर सौदे होते हैं, जो इस तरह के विश्‍व कारोबार का का 46 फीसदी है। बैंकरों, बीमा कंपनियों, हेज फंड, ब्रोकरों, रिसर्च फर्म से लंद फंदे लंदन के वित्‍तीय कारोबारी जोन (फाइनेंशियल डिस्टि्क्‍ट) में सेकेंडों में अरब डॉलर इधर से उधर होते है। बीते सप्‍ताह जब ओलंपिक का झंडा चढ़ रहा था तब ब्रिटेन वित्‍तीय पारदर्शिता का परचम उतरने

Monday, August 6, 2012

सूखे का मौका


सूखा आ गया है यानी सरकारों को महसूस करने का मौका आ गया है।  पिछले दो साल में हमें सरकारें नहीं दिखीं हैं या अगर दिखीं हैं तो सिर्फ अपना मुंह छिपाती हुई। लेकिन अब  अगर देश में सरकारें हैं तो उन्‍हें अब खुद को साबित करने के लिए सड़क पर आ जाना चाहिए। पिछले एक दशक में यह तीसरा सूखा है जो सबसे अलग, बेहद पेचीदा किस्‍म का है। नीतियों के शून्‍य, ग्रोथ की ढलान, बहुआयामी उलझनों के बीच नियति ने चुनौती की कहानी को एक नया ट्विस्‍ट दिया है। यह सूखा खेत से निकल कर सरकार के खजाने तक जाएगा और बैंकों के खातों से होता हुआ बाजार तक आएगा। इसलिए यह सरकारों के बुद्धि और विवेक का सबसे तगड़ा इम्‍तहान लेने वाला है। केंद्र की गैरहाजिर और प्रभावहीन सरकार के लिए यह आपदा दरअसल लोगों से जुड़ने का एक अवसर है। वरना तो भारत के इतिहास में सूखा दरअसल लूट का नया मौका ही होता है।
तब और अब 
अपने 137 साल के इतिहास में भारतीय मौसम विभाग कभी भी मानसून की विफलता नहीं बता सका। पिछले सौ वर्षों में 85 फीसदी मानूसन सामान्‍य रहे हैं इसलिए मानूसन को सामान्‍य कहना मौसम विभाग आदत बन गई है। इस मानसून का झूठ हमें देर तक सुनना पड़ा, क्‍यों कि देश को सूखा बताने का फैसला भी सियासत करती है यह पिछले एक दशक का तीसरा सूखा है। 2002-03 और 2009 की तुलना में यह हीं से कमजोर नहीं है। सूखे की गंभीरता को सामान्‍य से कम बारिश से स्‍तर से नापते हैं। इस अगस्‍त तक सामान्‍य से औसतन 19 फीसदी कम पानी बरसा है जबकि देश की अनाज पट्टी में बारिश की कमी 37 फीसदी तक है। अभी सितंबर बाकी है, जब अल निनो (समुद्री सतह के तापमान में वृद्धि) असर करेगा। पिछले 40 साल में जो पांच बड़े सूखे