Monday, October 8, 2012

सुधार, दरार और इश्तिहार



श्तिहार एक काम तो बाखूबी करते हैं। दीवार पर उनकी मौजूदगी कुछ वक्‍त के लिए दरारें छिपा लेती है। सियासत इश्तिहारों पर भले झूम जाए मगर बात जब अर्थव्‍यवस्‍था की हो तो इशितहारों में छिपी दरारें ज्‍यादा जोखिम भरी हो जाती हैं। भारत के इश्तिहारी आर्थिक सुधारों ने ग्‍लोबल निवेशकों को रिझाने के बजाय कनफ्यूज कर दिया है। सुर्खियों में चमकने वाले सुधारों के ऐलान, देश की आर्थिक सेहत के आंकड़े सामने आते ही सहम कर चुप हो जाते हैं। केलकर और दीपक पारिख जैसी समितियों की रिपोर्टें तो सरकार की सुधार  वरीयताओं की ही चुगली खाती हैं। सरकार सुधारों के पोस्‍टर से संकट की दरारों को छिपाने में लगी है। सुधार एजेंडे का भारत की ताजा आर्थिक चुनौतियों से कोई तालमेल ही हीं दिखता, इसलिए ताजा कोशिशें भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की व्यापक तस्‍वीर को बेहतर करती नजर नहीं आती। उत्‍पादन, ग्रोथ, महंगाई, ब्‍याज दरों, निवेश, खर्च, कर्ज का उठाव, बाजार में मांग और निर्यात के आंकड़ों में उम्‍मीदों की चमक नदारद है। शेयर बाजार में तेजी और रुपये की मजबूती के बावजूद किसी ग्‍लोबल निवेश या रेटिंग एजेंसी ने भारत को लेकर अपने नजरिये में तब्‍दीली नहीं की है।
दरारों की कतार   
वित्‍त मंत्री की घोषणाओं और कैबिनेट से निकली ताजी सुधार सुर्खियों को अगर कोई केलकर समिति की रिपोर्ट में रोशनी में पढ़े तो उत्‍साह धुआं हो जाएगा। केलकर समिति तो कह रही है कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था तूफान में घिरी है। कगार पर टंगी है। भारत 1991 के जैसे संकट की स्थिति में खड़ा है। चालू खाते का घाटा  जो विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी में अंतर दिखाता है, वह जीडीपी के अनुपात में 4.3 प्रतिशत पर है जो कि 1991 से भी ऊंचा स्‍तर है। विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर 1991 जैसे संकट की बात अप्रैल में रिजर्व बैंक गवर्नर डी सुब्‍बाराव ने भी कही थी। ग्‍लोबल वित्‍तीय संकट, भारत के भारी आयात बिल और निवेशकों के अस्थिर रुख के कारण यह दरार बहुत जोखिम भरी है। राजकोषीय संतुलन के मामले में भारत अब गया कि तब

Monday, October 1, 2012

बड़े दांव और गहरे जोखिम



ह इतिहास बनते देखने का वक्‍त है, जो आर या पार के मौके पर बनता है। दोहरी मंदी और वित्‍तीय संकटों की अभूतपूर्व त्रासदी में खौलते अटलांटिक के दोनों किनारों में ऐतिहासिक फैसले शुरु हो गए हैं। यूरोप और अमेरिका में ग्रोथ को वापस लाने की निर्णायक मुहिम शुरु हो चुकी है। जिसकी कमान सरकारों के नहीं बल्कि प्रमुख देशों के केंद्रीय बैंकों के हाथ है। अमेरिकी फेड रिजर्व और यूरोपीय केंद्रीय बैंक अब मंदी और संकट से मुकाबले के आखिरी दांव लगा रहे हैं। केंद्रीय बैंकों के नोट छापाखाने ओवरटाइम में काम करेंगे। मंदी को बहाने के लिए बाजार में अकूत पूंजी पूंजी छोड़ी जाएगी। यह एक नया और अनदेखा रास्‍ता है जिसमें कौन से मोड और मंजिले आएंगी, कोई नहीं जानता। क्‍या पता मंदी भाग जाए या फिर यह भी सकता है कि  सस्‍ते डॉलर यूरो दुनिया भारत जैसी उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के बाजार में पहुंच कर नई धमाचौकड़ी मचाने लगें। या ग्‍लोबल महंगाई नई ऊंचाई छूने लगे। .... खतरे भरपूर हैं क्‍यों कि इतने बड़े जोखिम भी रोज रोज नहीं लिये जाते।
पूंजी का पाइप 
बीते 15 सितंबर को दुनिया के बाजारों में लीमैन ब्रदर्स की तबाही की चौथी बरसी अलग ढंग से मनाई गई। फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नांके ने अमेरिका के ताजा इतिहास का सबसे बड़ा जोखिम लेते हुए बाजार में हर माह 40 अरब डॉलर झोंकने का फैसला किया, यानी क्‍वांटीटिव ईजिंग का तीसरा दौर। तो दूसरी तरफ यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने कर्ज संकट में ढहते यूरोपीय देशों के बांड खरीदने का ऐलान कर दिया। बैंक ऑफ जापान  ने भी बाजार में पूंजी का पाइप खोल दिया। इन खबरों से शेयर बाजार जी उठे और यूरोप और अमेरिका के बांड निवेशकों के चेहरे खिल गए।
अमेरिका को मंदी से उबारने के लिए शुरु हुआ फेड रिजर्व का आपरेशन ट्विस्‍ट कई मामलों में अनोखा और क्रांतिकारी है। पहला मौका है जब

Monday, September 24, 2012

सुधार, समय और सियासत


भारत में एक राजनेता था। आर्थिक नब्‍ज पर उसकी उंगलियां चुस्‍त थीं मगर सियासत और वक्‍त की नब्‍ज से हाथ अक्‍सर फिसल जाता था। 1991 में उसके पहले आर्थिक सुधारों को लेकर देश बहुत आगे निकल गया मगर उस की पार्टी कहीं पीछे छूट गई। बहुत कुछ गंवाने के बाद 2012 में जब दूसरे सुधारो का कौल लिया तो उसकी राजनीतिक ताकत छीज चुकी थी और जनता को इनके फायदे दिखाने का वकत नहीं बचा था। अफसोस! उस राजनेता के साहसी सुधार उसकी पार्टी की सियासत के काम कभी नहीं आए।... आज से एक दशक बाद जब इतिहास में आप यह पढ़ें तो समझियेगा कि डा. मनमोहन सिंह और कांग्रेस का जिक्र हो रहा है। आर्थिक सुधारों के डॉक्‍टर के  समय और सियासत के साथ सुधारों की केमिस्‍ट्री नहीं बना पाते। उनके सुधारों का लाभ उनके राजनीतिक विपक्ष को ही मिलता है।
संकट के सूत्रधार 
पैसों के पेड़ पर लगने का सवाल बड़ा मजेदार है। लेकिन इसे तो सरकार के राजनीतिक नेतृत्‍व से पूछा जाना चाहिए। यूपीए के नए राजनीतिक अर्थशास्‍त्र ने पिछले सात साल में राजकोषीय संतुलन का श्राद्ध कर दिया। इक्‍कीसवीं सदी का भारत जब तरक्‍की के शिखर पर था तब कांग्रेस का आर्थिक चिंतन आठवें दशक की कोठरी में घुस गया। देश की आर्थिक किस्‍मत साझा कार्यक्रमों और राष्ट्रीय सलाहकार परिषदों जैसी सुपर सरकारों ने तय की जिन्‍हें ग्रोथ और सुधार के नाम पर मानो ग्‍लानि महसूस

Monday, September 17, 2012

सुधारों का स्‍वांग



ग्रोथ की कब्र पर सुधारों का जो नया झंडा लगा है उससे उम्‍मीद और संतोष नहीं बलिक ऊब होनी चाहिए। अब झुंझलाकर यह पूछने का वक्‍त है कि आखिर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार इस देश का करना क्‍या चाहती है। देश की आर्थिक हकीकत को लेकर एक अर्थशास्‍त्री प्रधानमंत्री का अंदाजिया अंदाज हद से ज्‍यादा चकित करने वाला है। यह समझना जरुरी है कि जिन आर्थिक सुधारों के लिए डॉक्‍टर मनमोहन‍ सिंह शहीद होना चाहते हैं उनके लिए न तो देश का राजनीतिक माहौल माकूल है और दुनिया की आर्थिक सूरत। देश की अर्थव्‍यवस्‍था को तो पर्याप्‍त ऊर्जा, सस्‍ता कर्ज और थोड़ी सी मांग चा‍हिए ताकि ग्रोथ को जरा सी सांस मिल सके। पूरी सरकार के पास ग्रोथ लाने को लेकर कोई सूझ नहीं है मगर कुछ अप्रासंगिक सुधारों को लेकर राजनीतिक स्‍वांग जरुर शुरु हो गया है, जिससे प्रधानमंत्री की साख उबारने का जतन किया जा रहा है।
कौन से सुधार 
कथित क्रांतिकारी सुधारों की ताजी कहानी को गौर से पढि़ये इसमें आपको सरकार की राजनीति और आर्थिक सूझ की कॉमेडी नजर आएगी। यह भी दिेखेगा कि अर्थव्‍यवस्‍था की नब्‍ज से सरकार का हाथ फिसल चुका है। एक गंभीर और जरुरी राजनीतिक सूझबूझ मांगने वाला सुधार किस तरह अंतरराष्‍ट्रीय तमाशा बन सकता है, खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश इसका नमूना है। दुनिया के किस निवेशक को यह नहीं मालूम कि भारत का राजनीतिक माहौल फिलहाल मल्‍टीब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश के माफिक नहीं है। अपना इकबाल गंवा चुकी एक लुंज पुंज गठबंधन सरकार

Monday, September 10, 2012

ताकतवर होने का डर


क्‍या आपने ऐसे कानून के बारे में सुना है जो अपराध के संदिग्‍धों को ही जांच के दायरे से बाहर रखता हो ? वह टैक्‍स सिस्‍टम कैसा होगा जिसमें बड़े निवेशकों की सुविधा के लिए टैक्‍स का सिद्धांत ही बदल दिया जाए? क्‍या आपने ऐसा दौर कभी देखा है जब पूरी दुनिया वित्‍तीय जरायम को रोकने के लिए अपने टैक्‍स कानूनों को ताकत दे रही हो तब एक उभरती हुई अर्थव्‍यवस्‍था टैक्‍स कानूनों के नख दंत उखाड़ कर उन्‍हें मरियल बनाने में जुट जाए। भारत में ऐसा ही होने जा रहा है। देशी विदेशी रास्‍तों से भारी टैक्‍स चोरी रोकने के नियम यानी जनरल एंटी अवाइंडेस रुल् (गार) का तीन साल के लिए कोल्‍ड स्‍टोरेज में जाना तय है। इसके बाद यह अंदाजना कठिन नहीं है कि काला धन रोकने और टैक्‍स हैवेन से पैसा लाने का सरकारी कौल कितना खोखला और नपुंसक हैमुट्ठी भर विदेशी निवेशक एक संप्रभु देश के टैक्‍स कानून पर भारी हैं।
टैक्‍स हैवेन मॉडल 
गार के टलने के बाद अब दुनिया को एक नए टैक्‍स दर्शन के लिए तैयार हो जाना चाहिए। भारत वित्‍तीय जरायम टैक्‍स चोरी के कानूनों में नया पहलू जोड़ने जा रहा है। भारत के कर कानूनों मे टैक्‍स हैवेन देशों को विशेष आरक्षण मिलेगा।  गार को टालने की सिफारिश करने वाल पार्थसारथी शोम समिति की राय है कि मारीशस से आन वाला निवेश गार की जांच के दायरे से बाहर रहे। यानी कि जिस रास्‍ते से भारत में सबसे ज्‍यादा निवेश आता है और जहां से टैकस चोरी का सबसे बड़ा शक है उसे ही जांच से बाहर रखा जाए। यही नहीं समिति तो यह भी कह रही है कि विदेशी निवेशकों को इस अनोखी छूट के बदले देशी निवेशकों को भी शेयर आदि में निवेश पर टैक्‍स (कैपिटल गेंस) से छूट दे दी जाए। यानी कि विदेशी भी कानून से मुक्‍त और देशी भी। यह तो टैक्‍स हैवेन