Monday, November 19, 2012

यूरोप की बड़ी दरार



ग्‍लोबल इकोनॉमी के इमर्जेंसी वार्ड अर्थात यूरोप में चेतावनी के सायरन फिर बज उठे हैं। यूरोप जैसे कि इस इंतजार में ही था कि कब अमेरिका व चीन में सियासत की रैलियां खत्‍म हों और संकट के नए अध्‍याय शुरु किये जाएं। ग्रीस व स्‍पेन वेंटीलेटर पर थे ही इस बीच अधिकांश यूरोपीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं में मंदी की महामारी आ जमी है। लेकिन यह सब कुछ पीछे है, सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि यूरोपीय संघ टूटने को तैयार है। ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर जाने की दहलीज पर है। यूरोप की बड़ी राजनीतिक व आर्थिक ताकत ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच एक साल से चौडी हो रही दरार का नतीजा इस सप्‍ताह ब्रसेल्‍स की शिखर बैठक में सामने आ सकता है। 22 नवंबर की इस बैठक में यूरोपीय संघ का बजट पारित होना है। ग्‍लोबल बैंकिंग पर यूरोपीय संघ की सख्‍ती से उखड़ा ब्रिटेन बजट में किसी भी बढ़ोत्‍तरी को रोकने का ऐलान कर चुका है। बैंकिंग व वित्‍तीय सेवायें बर्तानवी अर्थव्‍यवस्था की जान हैं। इसलिए ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से बाहर होने के पक्ष में सियासत काफी गरम है।
ब्रिटिश समस्‍या 
नवंबर के दूसर सप्‍ताह में अमेरिका में जब राष्‍ट्रपति बराक ओबामा अपने दूसरे कार्यकाल के लिए शिकागो से वाशिंगटन डीसी रवाना हो रहे थे और बीजिंग में चीन के नए मुखिया श्‍यी जिनपिंग की ताजपोशी शुरु हो रही थी ठीक उस दौरान लंदन की दस डाउनिंग स्‍्ट्रीट में यूरोपीय संघ का विघटन रोकने की अंतिम कवायद चल रही थी। जर्मन चांसलर एंजला मर्केल लंदन में थीं और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरुन को यूरोपीय संघ के बजट में बढ़ोत्‍तरी पर राजी करने की कोशिश कर रही थीं। दावत अच्‍छी थी मगर बात नहीं बनी। फैसला इस सपताह ब्रसेल्‍स में होगा।
ब्रिटेन यूरो मुद्रा संघ का सदस्‍य नहीं है, यानी यूरोजोन से बाहर है वह यूरोपीय संघ की एकल वीजा शेंजन प्रणाली का हिस्‍सा भी नहीं है अर्थात वह संघ में आधा शामिल है। लेकिन इससे यूरोप की आर्थिक राजनीति में ब्रिटेन की अहमियत कम नहीं होती। जर्मनी और फ्रांस के बाद यूरोप की तीसरी सबसे बडी अर्थव्‍यवस्‍था ब्रिटेन यूरोपीय संघ की एकजुटता

Monday, November 12, 2012

फोर मोर इयर्स

श्‍यी जिनपिंग और बराक ओबामा 

फोर मोर इयर्स !!!!! यकीनन यह नारा बराक ओबामा की सत्‍ता में वापसी का ही है ले‍किन जरा इस नारे को अमेरिकी सियासत के खांचे से निकाल कर ग्‍लोबल फ्रेम में बिठाइये और उस पर चीन की रोशनी डालिये। फोर मोर इयर्स बिलकुल नए अर्थों के साथ चमक उठेगा। अमेरिकी नारे को चीन की रोशनी में इसलिए देखना चाहिए क्‍यों कि अगले चार साल तक अमेरिका और चीन के हैं।  चीन और अमेरिका अपनी घरेलू मुश्किलों के जो भी समाधान निकालेंगे उनसे ग्‍लोबल आर्थिक एजेंडा तय होगा। और फिर चीन के अमेरिका से आगे निकलने में भी तो अब चार ही वर्ष बचे हैं। ओईसीडी (विकसित देशो का संगठन) के ताजे आकलन के मुताबिक 2016 मे चीन अमेरिका को पछा़ड़ कर दुनिया की नंबर एक अर्थव्‍यवस्‍था हो जाएगा। 
सियासी संदर्भ  
अमेरिका और चीन अपने सियासी और आर्थिक संस्‍कारों में खांटी तौर पर अलग हैं लेकिन परिवर्तन की राह पर दोनों की कदमताल एक शानदार दृश्यावली है। यह संयोग कम ही बनता है कि जब दुनिया के आर्थिक जेट को उड़ा रहे दो सबसे बड़े इंजनों ने अपनी राजनीतिक ओवरहॉलिंग एक साथ पूरी की है। बराक ओबामा चार साल के लिए व्‍हाइट हाउस लौट आए हैं ज‍बकि चीन की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में दशकीय सत्‍ता परिवर्तन हो रहा है। ओबामा जनवरी में औपचारिक तौर पर दोबारा राष्‍ट्रपति बनेंगे जबकि श्‍यी जिनपिंग मार्च में हू जिंताओ की जगह देश की कमान संभालेंगे। दुनिया की पहली और दूसरी सबसे बडी अर्थव्‍यवस्‍थाओं

Monday, November 5, 2012

सियासत बनाम सिद्धांत


भारत का आर्थिक प्रबंधन सिद्धांत और सियासत के बीच फंस गया है। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार वित्‍त मंत्रालय और रिजर्व बैंक दो अलग अलग ध्रुवों पर खड़े हैं। इस सच से मुंह छिपाने से कोई फायदा नही कि देश की अर्थव्‍यवस्‍था चलाने पर राजकोषीय नियामक और मौद्रिक नियामक के बीच सैद्धांतिक मतभेद हैं। केंद्र सरकार सस्‍ते कर्ज की पार्टी चाहती है, ता‍कि शेयर सूचकांक में उछाल सरकारी आर्थिक प्रबंधन की साख कुछ तो सुधर जाए। अलबतता रिजर्व बेंक मौद्रिक सिद्धांत पर पर कायम हैं, वह ब्‍याज दरों को लेकर लोकलुभावन खेल नहीं करना चाहता। रिजर्व बैंक नजरिये पर वित्‍त मंत्री की झुंझलाहट लाजिमी है। सुब्‍बाराव ने अपने  मौ‍द्रिक आकलन पर टिके रह कर दरअसल ताजा आर्थिक सुधारों के गुब्‍बारे में पिन चुभा दी है और भारत की बुनियादी आर्थिक मुसीबतों को फिर बहस के केंद्र में रख दिया है। टीम मनमोहन सुधारों का संगीत बजाकर इस बहस से बचने कोशिश की कर रही थी।  
सुधारों की हकीकत   
रिजर्व बैंक ने ग्रोथ आकलन को ही सर के बल खडा कर दिया है। इस वित्‍त वर्ष में देश की आर्थिक विकास दर 6.5 फीसद नहीं बलिक 5.8 फीसद रहेगी। यह आंकडा़  सरकार के चियरलीडर योजना आयोग के उत्साही अनुमानों को हकीकत की जमीन सुंघा देता है । ठीक इसी केंद्रीय बैंक मान रहा है कि थोक मूल्‍यों की महंगाई इस साल 7 फीसदी से बढ़कर 7.5 फीसदी हो जाएगी। मतलब यह है कि खुदरा कीमतों में महंगाई की आग और भडकेगी। मौ‍द्रिक समीक्षा कहती है कि महंगाई के ताजे तेवर  खाद्य, पेट्रो उत्‍पादों दायरे से बाहर के हैं यानी कि अब मैन्‍युफैक्‍चरिंग क्षेत्र से महंगाई आ रही है जो एक जटिल चुनौती है। रिजर्व बैंक ने वित्‍त मंत्री चिंदबरम की फील गुड पार्टी की योजना ही खत्‍म

Monday, October 29, 2012

अमेरिका की संकट मशीन


मेरिका भीतर से बेचैन और डरा हुआ है। इसलिए नहीं कि उसकी सियासत  उसे कौन सा रहनुमा देगी बल्कि इसलिए कि अमेरिका की वित्‍तीय संकट मशीन पूरी रफ्तार से काम रही है और राजनीति के पास इसे रोकने की कोई जुगत नहीं है।  दुनिया की महाशक्ति एक अभूतपूर्व वित्‍तीय संकट से कुछ कदम दूर है। अमेरिका में कर्ज और घाटे से जुड़ी मुसीबतों का टाइम बम दिसंबर मे फटने वाला है और अमेरिका के पांव में सबका पांव है सो टाइम बम की टिक टिक वित्‍तीय दुनिया के लिए मुसीबत के ढोल से कम नही है। घाटे को कम करने के राजनीतिक कोशिशों की अं‍तिम समय सीमा दिसंबर में ख्‍त्‍म हो रही है। एक जनवरी 2013 को अमेरिका का आटोमेटिक संवैधानिक सिस्‍टम सरकारी खर्च में कमी भारी कमी व टैक्‍स में जोरदार बढ़ोत्‍तरी का बटन दबा देगा। इस संकट से बचना अमेरिकी सियासत की असली अग्नि परीक्षा है। यह सिथति अमेरिका को सुनिश्‍चत मंदी और विश्‍व को नए तरह की मुसीबत में झोंक देगी।
फिस्‍कल क्लिफ
अमेरिका एक बडे संकट की कगार पर टंगा है। वित्‍तीय दुनिया इस स्थि‍ति को फिस्‍कल क्लिफ के नाम से बुला रही है। अमेरिका की सरकारों ने पिछले वर्षों में जो तरह तरह की कर रियायतें दी थीं उनके कारण घाटा बुरी तरह बढ़ा है। इन रियायतों को वापस लेने का वक्‍त आ गया है। अमेरिकी बजटीय कानून घाटा कम करने लिए सरकार के राजस्‍व में बढोत्‍तरी और खर्च में कमी की सीमायें तय करता है, जैसा कि भारत के राजकोषीय उत्‍तरदायित्‍व कानून में प्रावधान किया गया है। इस कानून के मुताबिक अमेरिकी सरकार को 2013 के लिए प्रस्‍तावित  घाटे को आधा कम करना है। जो सरकार के कुल राजसव में चार से पांच फीसदी की बढ़त और खर्च में एक फीसदी कमी के जरिये हो सकेगा। मतलब यह कि अमेरिका को 665 अरब डॉलर की

Monday, October 22, 2012

मौत बांटने वाली लूट


हाराष्‍ट्र में पवारों, गडकरियों, कांग्रेस और शिव सेना मौसरे भाई वाले रिश्‍तों पर क्‍या चिढ़ना,  भ्रष्‍टाचार का दलीय कोआपरेटिव तो मराठी राजनीति का स्‍थायी भाव है, गुस्‍सा तो सियासत की निर्ममता पर आना चाहिए। जिसने भारत के इतिहास के सबसे नृशंस भ्रष्‍टाचार को अंजाम दिया है। मत भूलिये कि अब हम राजनीतिक भ्रष्‍टाचार के एक जानलेवा नमूने से मुखातिब हैं। महाराष्‍ट्र को दुनिया भारत में सबसे अधिक किसान आत्‍महत्‍या वाले राज्‍य के तौर पर जानती है। सिंचाई के पैसे, बांध की जमीनों और कीमती पानी की लूट का इन आत्‍महत्‍याओं से सीधा रिश्‍ता है। महाराष्‍ट्र का सिंचाई घोटाला दरअसल देश की सबसे बड़ी खेतिहर त्रासदी की पटकथा है।
पानी की लूट
महाराष्‍ट्र देश का इकलौता राज्‍य है जहां पिछले कई दशकों में सिंचाई पर किसी भी राज्‍य से ज्‍यादा खर्च हुआ है। राज्‍य की पिछली डेवलपमेंट रिपोर्ट बताती है कि नवीं योजना तक महाराष्‍ट्र में सिंचाई पर खर्चपूरे देश में कुल सिंचाई खर्च का 18 फीसदी था। आगे की योजनाओं में यह और तेजी से बढ़ा। खेतों को पानी देने पर खर्च के मामले में उत्‍तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े खेतिहर राज्‍य यकीनन महाराष्‍ट्र के सामने पानी भरते हैं। महाराष्‍ट्र में राजनेताओं के लिए सिंचाई सबसे मलाईदार विभाग