Monday, December 24, 2012

मोदी का डर

गुजरात की वोटिंग मशीनें से जिस दिन चुनाव का नतीजा उगलने वालीं थीं ठीक उसके एक दिन पहले , मारुति सुजुकी ने गुजरात में 500 एकड़ जमीन का नया पट्टा मिला और मारुति ने हरियाणा में नए निवेश से तौबा कर ली। नवंबर के आखिरी सप्‍ताह में जब गुजरात चुनाव प्रचार की गरमी से तप रहा था तब तमिलनाडु के कपड़ा उद्यमी गुजरात में नया ठिकाना बनाने की तैयारी में जुटे थे। अगस्त में जब कांग्रेस व भाजपा चुनाव की बिसात बिछा रहे थे तब नोएडा के उद्यमी के गुजरात सरकार को पत्र लिखकर मेहसाणा में जगह मांग रहे थे और सितंबर में जब चुनावी प्रत्‍याशियों का गुणा भाग चल रहा था तब पंजाब का फास्‍टनर उद्योग गुजरात में 1000 करोड़ रुपये का क्‍लस्‍टर बिठाने की जुगाड़ में था। ..... नरेंद्र दामोदरदास मोदी की तीसरी जीत से डरना चाहिए, अल्‍पसंख्‍यकों को नहीं बल्कि भूपिंदर सिंह हुड्डा, जयललिता, अखिलेश यादवों और प्रकाश सिंह बादलों को। नए निवेशकों का पसंद तो अलग गुजरात, अगले पांच साल में पता नहीं देश के कितने सूबों में जमे जमाये  औ़द्योगिक इलाकों को वीरान कर देगा। यदि तरक्‍की, निवेश और रोजगार ही चुनावी सफलता का नया मंत्र हैं तो  नरेंद्र मोदी अब कई राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रियों के सबसे बड़े सियासी दुशमन हैं।
किसकी जीत 
मोदी की तारीफों के तूफान से बाहर निकलना जरुरी है ताकि गुजरात पर आर्थिक राजनीति के नए संदर्भों की रोशनी डाली जा सके। आर्थिक विकास के समग्र राष्‍ट्रीय परिप्रेक्ष्‍य में गुजरात की सफलता दरअसल शेष भारत की गहरी विफलता है। आर्थिक उदारीकरण के दूसरे दशक में औद्योगिक निवेश का जो राष्‍ट्रीय बंटवारा हुआ उसमें गुजरात को बड़ा हिस्‍सा मिला है। विकास का यह असंतुलन अंतत: उन राजयों के सामाजिक, आर्थिक ढांचे पर पर भारी पड़ा जो तरक्‍की के मुकाबले गुजरात से खेत

Monday, December 17, 2012

कैश फॉर वोट

नोट के बदले वोटसियासत में जीत का यह सबसे लोकप्रिय ग्‍लोबल फार्मूला है, जो परोक्ष रुप से दुनिया के हर देश में काम करता है। भारत में इसका प्रत्‍यक्ष और सरकारी अवतार एक जनवरी से प्रकट हो जाएगा। जनता को सीधे नकद पैसा देने की स्‍कीम यानी डायरेक्‍ट बेनीफिट ट्रांसफर पर जमीनी तैयारियां शुरु हो   चुकी हैं। आम जनता को सुविधाओं के बजाय बड़े पैमाने पर संगठित रुप से नकद पैसा देने की इस स्‍कीम में देश का सबसे विवादित राजनीतिक आर्थिक प्रयोग बनने की गुंजायश छिपी है। यह स्‍कीम राजनीतिक समर्थन के लिए बजट के खुले इस्तेमाल की एक ऐसी नई परंपरा शुरु कर सकता है जिसमें राज्‍य सरकारें लोककल्‍याणकारी राज्‍य को वोट कल्‍याणकारी राज्‍य में बदल देंगी। लोगों को नकद सब्सिडी देने के पैरोकार इस दो टूक निष्‍कर्ष के लिए माफ करेंगे लेकिन हकीकत यह है कि इससे सब्सिडी की बर्बादी रुकने और सही लोगों तक केंद्रीय स्‍कीमों का पैसा पहुंचने की कोई गारंटी नहीं है अलबत्‍ता इसका चुनावी इस्‍तेमाल होना शत प्रतिशत तय है। 
कंडीशनल की जगह डायरेक्‍ट    

जरुरतमंद लोगों को बडे पैमाने पर सरकारी बजट से नकद पैसा देने के प्रयोग पूरी दुनिया में विवादित और राजनीतिक तौर पर अस्‍वीकार्य रहे हैं। इस तरह के प्रयोगों में राजनीतिक लाभ का लेने का संदेह हमेशा छिपा होता है। यही वजह है कि दुनिया में कैश ट्रांसफर हमेशा इस शर्त पर होते हैं कि लाभार्थी स्‍वास्‍थ्‍य व शिक्षा की संस्‍थागत सुविधाओं को

Monday, December 10, 2012

बाजार खुलने के बाद


बाजार खुल गया है। अब सौदे शुरु होने का वक्‍त है। भारत की सियासत ने अपने सबसे बड़े कारोबार को विदेशी पूंजी के लिए ऐसे अनोखे अंदाज में खोला है कि अब बाजार के भीतर नए बाजार खुलने वाले हैं। अरबों के डॉलर के खुदरा खेल में देश के मुख्‍यमंत्री सबसे बडी ताकत बन गए हैं। विदेशी पूंजी के बड़े फैसले अब राज्‍यों की राजधानियों में होंगे जहां वाल मार्ट, टेस्‍को, कार्फू जैसे ग्‍लोबल रिटेल दिग्‍गज, नीतियों को  ‘प्रभावित ’ करने की अपनी क्षमता का इम्‍तहान देंगे और नतीजे इस बात पर निर्भर होंगे कौन सा मुख्‍यमंत्री कब और कैसे प्रभावित होता है। सौदों का दूसरा बाजार खुद देशी रिटेल उद्योग होने वाला है। ताजा बहस में हाशिये पर रहे करीब 1150 अरब रुपये के देशी संगठित रिटेल उद्योग में कंपनियों व ब्रांडों की मंडी लगने वाली है जिसमें ग्‍लोबल रिटेलर कंप‍नियां ही ग्राहक होंगी।
मंजूरियों का बाजार 
खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी पर संसद की बहस का से देश का इतना तो अंदाज हो ही गया है कि ग्‍लोबल रिटेल का सौदा फूल और कांटों का मिला जुला कारोबार है। बाजार खुलने के बाद अब विदेशी पूंजी के गुण दोष की बहस बजाय इन फूल कांटों का हिसाब करना ज्‍यादा समझदारी है। विदेशी निवेश को लेकर यह शायद यह पहला फैसला है जिसमें राज्‍य सरकारें विदेशी कंपनियों की आमद तय करेंगी। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर जो फैसला संसद की दहलीज से बाहर आया है उसे भारत के नक्‍शे पर रखकर देखने के बाद रिटेल की राजनीतिक तस्‍वीर

Monday, December 3, 2012

महाबहस का मौका


  ह महाबहस का वक्‍त है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की बहस को महाबहस होना भी चाहिए क्‍यों कि इससे बड़ा कारोबार भारत में है भी कौन सा समृद्ध व्‍यापारिक अतीत, नए उपभोक्‍ता और खुलेपन की चुनौ‍तियों को जोड़ने वाला यही तो एक मुद्दा है, जो तेज तर्रार, तर्कपूर्ण लोकतां‍त्रिक महाबहस की काबिलियत रखता है। संगठित बहुराष्‍ट्रीय खुदरा कारोबार राक्षस है या रहनुमा ? करोड़ो उपभोक्‍ताओं के हित ज्‍यादा जरुरी हैं या लाखों व्‍यापारियों के? देश के किसानों को बिचौलिये या आढ़तिये ज्‍यादा लूटते हैं या फिर बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां ज्यादा लूटेंगी? बहुतों की दुकाने बंद होने का खौफ सच है या रोजगार बाजार के गुलजार होने की उम्‍मीदें ?... गजब के ताकतवर प्रतिस्‍पर्धी तर्कों की सेनायें सजी हैं। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि संसद रिटेल में विदेश निवेश पर क्‍या फैसला देगी यह देखना भी महत्‍वपूर्ण होगा कि भारत की संसद गंभीर मुद्दों पर कितनी गहरी है और सांसद कितने समझदार। या फिर भारत के नेता राजनीतिक अतिसाधारणीकरण में इस संवेदनशील सुधार की बहस को नारेबाजी में बदल देते हैं।
आधुनिक अतीत 
यह देश के आर्थिक उदारीकरण की पहली ऐसी बहस हैं जिसमें सियासत भारत के मध्‍य वर्ग से मुखातिब होगी। वह मध्‍यवर्ग जो पिछले दो दशक में उभरा और तकनीक व उपभोक्‍ता खर्च जिसकी पहचान है। भारत की ग्रोथ को अपने खर्च से सींचने वाले इस नए इं‍डिया को इस रिटेल (खुदरा कारोबार) के रहस्‍यों की जानकारी देश के नेताओं से कहीं ज्‍यादा है। यह उपभोक्‍ता भारत संगठित रिटेल को अपनी नई पहचान से जोड़ता है। इसलिए मध्‍य वर्ग ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की चर्चाओं में सबसे दिलचस्पी

Monday, November 26, 2012

असफलता का अर्ध सत्‍य

ह एक अनोखा दृश्‍य था। सरकार दूरसंचार स्‍पेकट्रम की नीलामी की असफलता का उत्‍सव मना रही थी। सरकार के तीन वरिष्‍ठ मंत्री वित्‍त, संचार और सूचना प्रसारण, इस नाकामी की सहर्ष घोषणा कर रहे थे कि दुनिया के सबसे तेज बढ़ते दूरसंचार बाजार में कंपनियां अपना कारोबार बढ़ाने में दिलचस्‍पी खो चुकी हैं। उन्‍हें अब दूरसंचार का बुनियादी कच्‍चा माल अर्थात स्‍पेक्‍ट्रम खरीदने में रुचि नही है जिसके जरिये उनके मुनाफे और कारोबार में तरक्‍की होनी है। हकीकत यह है कि स्‍पेक्‍ट्रम की नीलामी असफल नहीं हुई। इस नीलामी में कंपनियों ने चतुराई के साथ भविष्‍य की ग्रोथ और सस्‍ते स्‍पेक्‍ट्रम को चुनते हुए मुनाफे का माल उठा लिया। यह सरकार के लिए दूरसंचार बाजार की हकीकत का कड़वा अहसास था।  दरअसल सरकार और दूरसंचार नियामक ने बाजार को समझने में फिर चूक की थी मगर सरकार के काबिल मंत्रियों इसे एक संवैधानिक संस्‍था पर जीत के बावले जश्‍न में बदल दिया। अंधिमुत्थु राजा के घोटाले से हुए नुकसान के ऑडिट आकलन की पराजय का नगाड़ा बज गया। मजा देखिये फायदा फिर कंपनियों के खाते में गया।
नाकामी का जश्‍न 
आंकड़े खंगालने और कंपनियों की कारोबारी सूझबूझ को समझने के बाद  नीलामी के असफल होने के ऐलान पर शक होने लगेगा। सरकार ने 28000 करोड़ की न्‍यूनतम कीमत वाला जीएसएम सेल्‍युलर (1800 मेगाहर्ट्ज) स्‍पेक्‍ट्रम की नीलामी के लिए रखा था। इसके साथ सीडीएमए (800 मेगाहर्ट्ज) स्‍पेक्‍ट्रम भी था। दोनों की बिक्री से कुल 40,000 करोड़ रुपये के राजसव का अंदाज किया गया था, क्‍यों कि बोली ऊंची आने की उम्‍मीद थी। नीलामी में करीब 9407.6 करोड़ रुपये का स्‍पेक्‍ट्रम बिका जो जीएसएम रिजर्व प्राइस के आधार पर संभावित राजस्‍व  का लभगग 35 फीसदी है। सीडीएमए का कोई ग्राहक नहीं था क्‍यों कि बाजार बढ़ने की उम्‍मीद सीमित है। टाटा ने बोली से नाम वापस ले लिया जबकि रिलायंस व एमटीएस को स्‍पेक्‍ट्रम की जरुरत नहीं थी। इसलिए यह नीलामी केवल केवल जीएसएम स्‍पेक्‍ट्रम