Monday, March 11, 2013

वो और हम



 क्‍या हम दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि एक उदार तानाशाही हमारे जैसे लोकतंत्र से ज्‍यादा बेहतर है?

म्‍मीद की रोशनी की तलाशती दुनिया ने महज एक सप्‍ताह के भीतर विश्‍व की दो उभरती ताकतों की दूरदर्शिता को नाप लिया। भारत व चीन अपने भविष्‍य को कैसे गढ़ेंगे और उनसे क्‍या उम्‍मीद रखी जानी चाहिए, इसका ब्‍लू प्रिंट सार्वजनिक हो गया है। भारत में बजट पेश होने तीन दिन बाद ही चीन की संसद में वहां की आर्थिक योजना पेश की गई। जो चीन के आर्थिक सुधारों के नए दौर का ऐलान थी। ग्‍लोबल बाजारों ने रिकार्ड तेजी के साथ एडि़यां बजाकर इसे सलाम भेजा। अमेरिकी बाजार व यूरोपीय बाजारों के लिए यह चार साल की सबसे बड़ी तेजी थी। दूसरी तरफ भारत के ठंडे व मेंटीनेंस बजट पर रेटिंग एजेंसियों ने  उबासी ली और उम्‍मीदों की दुकान फिलहाल बढ़ा दी
यथार्थ को समझना सबसे व्‍यावहारिक दूरदर्शिता है और ग्‍लोबल बाजार दोनों एशियाई दिग्‍गजों से इसी सूझ बूझ उम्‍मीद कर रहे थे। हू जिंताओं व वेन जियाबाओ ने ली शिनपिंग और ली केक्विंग को सत्‍ता सौंपते हुए जो आर्थिक योजना पेश की, वह चीन की ताजा चुनौतियों को स्‍वीकारते हुए समाधानों की सूझ सामने लाती है। जबकि इसके बरक्‍स भारत का डरा व बिखरा बजट केवल आंकड़ों की साज संभाल में लगा था। महंगाई, बड़ी आबादी, ग्रोथ, बराबरी, भूमि का अधिकार, खेती, नगरीकरण, ऊर्जा, अचल संपत्ति और व्‍यापक भ्रष्‍टाचार... चुनौतियों के मामले भारत व चीन स्‍वाभाविक

Monday, March 4, 2013

अलविदा गेम चेंजर



यह बजट आर्थिक विकास के उस मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया।

खेद प्रगट का करने इससे भव्‍य तरीका और क्‍या हो सकता है कि एक पूरे बजट को वी आर सॉरी का आयोजन में बदल दिया जाए। यूपीए का दसवां बजट पछतावे की परियोजना है। यह बजट आर्थिक विकास के उस मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया। प्रायश्चित तो मौन व सर झुकाकर होते हैं और इसलिए बजट से कोई उत्‍साह आवंटित नहीं हुआ। चिदंबरम खुल कर जो नहीं कह सके उसे आंकडों के जरिये बताया गया। यह बजट पिछले एक दशक के ज्‍यादातर लोकलुभावन प्रयोगों को अलविदा कह रहा है। वह स्‍कीमें जिन्‍हें यूपीए कभी गेम चेंजर मानती थी अंतत: जिनके कारण ग्रोथ व वित्‍तीय संतुलन का घोंसला उजड़ गया।

Monday, February 25, 2013

भूल सुधार बजट



भरोसा जुटाने के लिए चिदंबरम को निर्ममता के साथ पिछले वित्‍त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बजटों को गलत साबित करना होगा।

ह महासंयोग कम ही बनता है जब सियासत के पास खोने के लिए कुछ न हो और अर्थव्‍यवस्‍था भी अपना सब कुछ गंवा चुकी हो। भारत उसी मुकाम पर खड़ा है जहां सत्‍तारुढ़ राजनीति अपनी साख व लोकप्रियता गंवा चुकी है और अर्थव्‍यवस्‍था अपनी बढ़त व ताकत। 2013 का बजट इस दुर्लभ संयोग की रोशनी में देश के सामने आएगा। यह अपने तरह का पहला चुनाव पूर्व बजट है जिससे निकलने वाले राजनीतिक फायदे इस तथ्‍य पर निर्भर होंगे बजट के बाद आर्थिक संकट बढ़ते हैं या उनमें कमी होगी। इस बजट के लिए आर्थिक सुधारों का मतलब दरअसल पिछले बजटों की गलतियों का सुधार है। चिदंबरम मजबूर हैं, वोटर और निवेशक, दोनों का भरोसा जुटाने के लिए उन्‍हें निर्ममता के साथ पिछले वित्‍त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बजटों को गलत साबित करना होगा। मुखर्जी ने तीन साल में करीब एक लाख करोड़ के नए टैक्‍स थोपे थे जिनसे जिद्दी महंगाई, मरियल ग्रोथ, रोजगारों में कमी और वित्‍तीय अनुशासन की तबाही निकली है। प्रणव मुखर्जी के आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा करने के बाद ही चिदंबरम

Monday, February 18, 2013

सुधार पुरुष का आखिरी मौका



स यह बजट और !! .... इसके बाद उस नामवर शख्सियत की इतिहास में जगह अपने आप तय हो जाएगी जिसने 24 जुलाई 1991 की शाम, फ्रेंच लेखक विक्‍टर ह्यूगो की इस पंक्ति के साथ, भारत को आर्थिक सुधारों की सुबह सौंपी थी कि दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसके साकार होने का समय आ गया है। लेकिन सुधारों का वह विचार अंतत:  रुक गया और 1991 जैसे संकटों का प्रेत फिर वापस लौट आया। सुधारों के सूत्रधार की अगुआई में ही भारत की ग्रोथ शिखर से तलहटी पर आ गई जो अवसरों का अरबपति रहा है। आने वाला बजट पी चिदंबरम के लिए एक और मौका नहीं है, यह तो भारत के सुधार पुरुष के लिए अंतिम अवसर है। यह डा. मनमोहन सिंह का आखिरी बजट है।  
पांच साल वित्‍त मंत्री और दस साल प्रधानमंत्री अर्थात आर्थिक सुधारों के बाइस साल में पंद्रह साल तक देश की नियति का निर्धारण। डा मनमोहन सिंह से ज्‍यादा मौके शायद ही किसी को मिले होंगे। संयोग ही है कि प्रख्‍यात अर्थशास्‍त्री और सुधारों के प्रवर्तक ने 1991 में इकतीस पेज के बजट भाषण में भारत के तत्‍कालीन संकट की जो भी वजहें गिनाई थीं, देश नए संदर्भो में उन्‍हीं को

Monday, February 11, 2013

नए समाज का पुराना बजट


स पर मायूस हुआ जा सकता है कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को पिछले एक दशक के सबसे बुरे वक्‍त में जो बजट मिलने जा रहा है वह संसद से निकलते ही चुनाव के मेले में खो जाएगा। वैसे तो भारत के सभी बजट सियासत के नक्‍कारखानों में बनते हैं इसलिए यह बजट भी लीक पीटने को आजाद है। अलबत्‍ता पिछले बीस साल में यह पहला मौका है जब वित्‍त मंत्री के पास  लीक तोड कर बजट को अनोखा बनाने की गुंजायश भी मौजूद है जो लोग सडकों पर उतर कर कानून बनवा या बदलवा रहे हैंवही लोग बजटों के पुराने आर्थिक दर्शन पर भी झुंझला रहे हैं। बीस साल पुराने आर्थिक सुधारों में सुधार की बेचैनी सफ दिखती है  क्‍यों कि बजट बदलते वक्‍त से पिछड़ गए हैं। बजट, लोकतंत्र का सबसे महतत्‍वपूर्ण आर्थिक राजनीतिक आयोजन है और संयोग से इसका रसायन बदलने के लिए मांगमूड और मौका तीनों ही मौजूद हैं।  
बजटों में बदलाव का पहला संदेशा नई आबादी से आया है। भारत एक दशक में शहरों का देश हो जाएगा। बजट, इस जनसांख्यिकीय सचाई से कट गए हैं। 2001 से 2011 के बीच नगरीय आबादी करीब 31 फीसदी की गति से बढी जो गांवों का तीन