Monday, September 2, 2013

बाजार का इंसाफ

बाजार ने भारतीय राजनीति का निर्मम इलाज शुरु कर दिया है। 991 के सुधार भी राजनीतिक सूझबूझ से नहीं बल्कि संकट और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों पर निकले थे। 

भारत की शुतुरमुर्गी सरकार, अहंकारी राजनेता और परजीवी नौकरशाह पहली बार खुले बाजार के उस निर्मम व विकराल चेहरे से मुकाबिल हैं जो गलती होने पर माफ नहीं करता। किस्‍मत ही है कि पिछले दो दशकों में भारत ने बाजार की इस क्रूर ताकत का सामना नहीं किया जो सर्वशक्तिमान व संप्रभु देशों को कुछ हफ्तों दुनिया की मदद का मोहताज बना देती है। वित्‍त मंत्री बजा फरमाते हैं , 68-69 रुपया, अमेरिकी डॉलर की वास्‍तविक कीमत नहीं है लेकिन उनकी सुनने वाला कौन है। 70-75 रुपये के डॉलर और भारतीय शेयर बाजार की नई तलहटी पर  दांव लगा रहे ग्‍लोबल निवेशक तो दरअसल पिछले चार वर्ष के राजकाज को सजा सुनाते हुए भारत में 1997 का थाईलैंड व इंडोनेशिया रच रहे हैं जब इन मुल्‍कों की घटिया नीतियों के कारण इनकी मुद्रायें सटोरियों के ग्‍लोबल चक्रवात में फंस कर तबाह हो गईं थीं। ग्‍लोबल निवेशक पूंजी पलायन से निबटने में भारत की ताकत को तौल रहे हैं इसलिए सात माह की जरुरत का विदेशी मुद्रा भंडार होने के बावजूद अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष से मदद की गारंटी लेने की नौबत आने वाली है। यह गारंटी ही शायद देश की आत्‍मघाती राजनी‍ति को सुधारों की वापसी पर मजबूर करेगी। 
दो जुलाई 1997 को थाइलैंड ने जब अपनी मुद्रा भाट का अवमूल्‍यन किया तब तक सटोरिये सरकार की गलतियों की सजा थाई करेंसी

Monday, August 26, 2013

भरोसे का अवमूल्‍यन


 भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं।

यह कमाई का सुनहरा मौका है। बचत को डॉलर में बदलकर बाहर लाइये। रुपये के और गिरने का इंतजार करिये। 70 रुपये का डॉलर होने पर मुनाफा कमाइये  भारत के नौदौलतियों के बीच विदेशी बैंकरों, ब्रोकरों और वेल्‍थ मैनेजरों के ऐसे ई मेल पिछले कुछ महीनों से तैर रहे हैं। भारतीय कंपनियां भी डॉलर देश से बाहर ले जाने ले जाने के हर संभव मौके का इस्‍तेमाल कर रही हैं। यकीनन भारत लै‍टिन अमेरिकी मुल्‍कों की तरह बनाना रिपब्लिक नहीं है लेकिन इस भगदड़ ने एक विशाल मुल्‍क को बेहद बोदा साबित कर दिया है। यह एक अनोखी असंगति है कि किस्‍म किस्‍म के आर्थिक दुष्चक्रों के बावजूद ग्‍लोबल रे‍टिंग एजेंसियों की निगाह में भारत की साख नहीं गिरी है। भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं। इन्‍हे रोकने के लिए ही डॉलरों को विदेश ले जाने पर पाबंदियां लगाई गईं, जो मुसीबत को बढाने वाली साबित हुईं। इस बेचैनी ने भारत का एक ऐसा चेहरा उघाड़ दिया हैजिस पर अविश्‍वासअवसरवाद व आशंकाओं की छाया तैर रही है।
बहुतों को यह पचाने में मुश्किल हो रही है कि सात माह के विदेशी मुद्रा भंडार, ठीक ठाक सोना रिजर्व और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष से मदद की संभावनाएं रहते हुए भारत को कैपिटल कंट्रोल क्‍यों लागू करने पड़े, जो बाजार के मनोविज्ञान पर खासे भारी पड़े। अभी तो विदेश में बांड जारी करने या अनिवासियों को डॉलर लाने के लिए प्रोत्‍साहन देने के कदम भी नहीं उठाये गए और डॉलर बाहर ले जाने पर पाबंदियां बढ़ा दी गईं,  जो अंतिम विकल्‍प होना चाहिए था। दरअसल भारत से  नए किस्‍म का पूंजी पलायन

Monday, August 19, 2013

बादलों में बंद रोशनी

हम अवमूल्‍यन के घाट पर फिसल ही गए हैं तो अब कायदे से गंगा नहा लेनी चाहिए। भारत के लिए रुपये की कमजोरी को निर्यात की ताकत में बदलने का मौका सामने खड़ा है। 
ड़ी मुसीबतों में एक बेजोड़ चमक छिपी होती है। इनसे ऐसे दूरगामी परिवर्तन निकलते हैं, सामान्‍य स्थिति में जिनकी कल्‍पना का साहस तक मुश्किल है। किस्‍म किस्‍म के आर्थिक दुष्‍चक्रों के बावजूद भारत के लिए घने बादलों की कोर पर एक विलक्षण रोशनी झिलमिला रही है। रुपये में दर्दनाक गिरावट ने भारत के ग्रोथ मॉडल में बड़े बदलावों की शुरुआत कर दी है। भारत अब चाहे या अनचाहे, निर्यात आधारित ग्रोथ अपनाने पर  मजबूर हो चला है क्‍यों कि रुपये की रिकार्ड कमजोरी निर्यात के लिए अकूत ताकत का स्रोत है। भारत का कोई अति क्रांतिकारी वित्‍त मंत्री भी निर्यात बढ़ाने के लिए रुपये के इस कदर अवमूल्‍यन की हिम्‍मत कभी नहीं करता, जो अपने आप हो गया है। साठ के दशक में जापान व कोरिया और नब्‍बे के दशक में चीन ने ग्‍लोबल बाजार को जीतने के लिए यही काम सुनियोजित रुप से कई वर्षों तक किया था। रुपया, निर्यात में प्रतिस्‍पर्धी देशों की मुद्राओं के मुकाबले भी टूटा है इसलिए भारत में ग्रोथ व निवेश की वापसी कमान निर्यातकों के हाथ आ गई है। जुलाई में निर्यात में 11 फीसद की बढ़त संकेत है कि सरकार को रुपये को थामने के लिए डॉलर में खर्च या आयात पर पाबंदी जैसे दकियानूसी व नुकसानदेह प्रयोग को छोड़ कर औद्यो‍गिक नीति में चतुर बदलाव शुरु करने चाहिए ता‍कि रुपये में गिरावट का दर्द, ग्रोथ की दवा में बदला जा सके।

भारत ने निर्यात की ग्‍लोबल ताकत बनने का सपना कभी नहीं देखा। आर्थिक उदारीकरण के जरिये  भारत ने अपने  विशाल देशी बाजार को सामने रखकर निवेश आकर्षित किया जबकि इसके विपरीत चीन सहित पूर्वी एशिया के देशों ने विदेशी निवेश इस्‍तेमाल अपने निर्यात इंजन की गुर्राहट

Monday, August 5, 2013

1991 बनाम 2013


2013 की चुनौतियां इक्‍यानवे की तुलना में ज्‍यादा कठिन और भारी हैं। 1991 का घाव तो तुरंत के इलाज से भर गया था, 2013 की टीस लंबी चलेगी।

र्थिक चुनौतियों की फितरत बदल चुकी है। मुसीबतों की नई पीढ़ी यकायक संकट बन कर फट नहीं पड़ती बल्कि धीरे धीरे उपजती है और जिद्दी दुष्‍चक्र बनकर चिपक जाती है। भारत के लिए 1991 व 2013 के बीच ठीक वही फर्क है जो अंतर संकट और दुष्‍चक्र के बीच होता है। संकट कुछ कीमत वसूल कर गुजर जाता है मगर दुष्‍चक्र लंबी यंत्रणा के बाद पीछा छोड़ता है।  भारत में 1991 के तर्ज पर विदेशी मुद्रा संकट दोहराये जाने का डर नहीं है लेकिन उससे ज्‍यादा विकट दुष्‍चक्र की शुरुआत हो चुकी है। रुपये को बचाने के लिए ग्रोथ, रोजगार, लोगों की बचत व क्रय शक्ति की कुर्बानी शुरु हो गई है। तीन माह में आठ रुपये महंगा पेट्रोल तो बानगी भर है दरअसल रुपये में मजबूती लौटने की कोई गुंजायश नहीं है इसलिए पेट्रो उत्‍पाद, खाद्य तेल, कोयला से इलेक्‍ट्रानिक्‍स तक जरुरी चीजों लिए आयात पर निर्भरता, अब रह रह कर घायल करेगी।
डॉलरों की कमी भारत पुराना व सबसे बड़ा खौफ है इसलिए विदेशी मुद्रा मोर्चे पर आपातकाल का ऐलान हो गया है। तीन माह में 12 फीसदी गिर चुके रुपये को बचाने के लिए दर्दनाक असर वाले सीधे उपायों की

Monday, July 29, 2013

गरीबी की गफलत


गरीबी में कमी न स्‍वीकारने का राजनीतिक आग्रह भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती।

योजना आयोग के मसखरेपन का भी जवाब नहीं। जब उसे राजनीति को झटका देना होता है तो वह गरीबी घटने के आंकड़े छोड़ देता है और देश की लोकलुभावन सियासत की बुनियाद डगमगा जाती है। गरीबी भारत के सियासी अर्थशास्‍त्र का गायत्री मंत्र है। यह देश का सबसे बड़ा व संगठित सरकारी उपक्रम है जिसमें हर साल अरबों का निवेश और लाखों लोगों के वारे-न्‍यारे होते है। भारत की सियासत  हमेशा से मुफ्त रोजगार, सस्‍ता अनाज देकर वोट खरीदती है और गरीबी को बढ़ता हुआ दिखाने की हर संभव कोशिश करती है ताकि गरीबी मिटाने का उद्योग बीमार न हो जाए। गरीबी में कमी न स्‍वीकारने का राजनीतिक आग्रह भारत में इतना मजबूत है कि जीवन जीने की लागत की ईमानदार पैमाइश तक नहीं होती। यही वजह है कि योजना आयोग, जब निहायत दरिद्र सामाजिक आर्थिक आंकड़ो के दम पर गरीबी घटने का ऐलान करता है तो सिर्फ एक भोंडा हास्‍य पैदा होता है।
भारत गरीबी के अंतरविरोधों का शानदार संग्रहालय है जो राजनीति, आर्थिकी से लेकर सांख्यिकी तक फैले हैं। आर्थिक नीतियों का एक चेहरा पिछले एक दशक से गरीबी को बढ़ता हुआ