Monday, October 7, 2013

लोकतंत्रों का शटडाउन


परिपक्‍व लोकतंत्रों में सरकार को बंधक बना लेने वाली सियासत एक नया ही परिदृश्य है।ध्रुवीकरण की राजनीति ने लोकतंत्रों को जहरीला कर दिया है

दुनिया के लिए कौन सा लोकतंत्र बेहतर है, वह जहां राजनीतिक दलों की शत्रुता के चलते सरकार बंद हो जाती है या फिर वह लोकतंत्र जहां सियासत की मारी सरकारें काम ही नहीं करती। दुनिया के दो सबसे बड़े दलीय और परिपक्‍व लोकतंत्रों में सरकार को बंधक बना लेने वाली सियासत एक नया ही परिदृश्य है। अमेरिका में संविधान सख्‍त है तो रिपब्‍लिकन डेमोक्रेट के झगड़े में सरकार का खर्चा पानी रुक गया है। भारत में संविधान ढीला है तो सरकारें सिर्फ राजनीतिक एजेंडे साधने में खर्च हो रही हैं। सरकारों का मतलब, भूमिका और योगदान दोनों जगह नदारद है। अमेरिका की जनता अपने फैसले पर शर्मिंदा है जबकि भारत के लोग तो चुनाव के बाद हमेशा सर पीटते हैं। 
राष्‍ट्रपति ओबामा 60 लाख निर्धन अमेरिकियों को सस्‍ता स्‍वास्‍थय बीमा देना चाहते हैं, इस ओबामाकेयर का बोझ अमेरिकी बजट उठायेगा। यह भारत में खाद्य सुरक्षा जैसी राजनीतिक पहल है। हालांकि भारत में ऐसा गतिरोध लोकलुभावन राजनीति पर नहीं बल्कि सुधारों पर

Monday, September 30, 2013

नेताओं के कबीले


चुनाव की तरफ बढ़ते नेता अपराधियों की अगुआई और खून खच्‍चर वाली कबीलाई सियासत के हिंसक आग्रह से भर गए हैं जो बदलते समाज को न समझ पाने की कुंठा व हताशा से उपजा है।

भारत के नेताओं को समाज को बांटने पर नहीं बल्कि इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि वे समाज के विघटन की नई तकनीकें ईजाद नहीं कर सके हैं। किसी भी देश की सियासत समाज को बांटे बिना नहीं सधती। एक समान राजनीतिक विचारधारा वाले समाज सिर्फ तानाशाहों के मातहत बंधते हैं इसलिए दुनिया के लोकतंत्रों की चतुर सियासत ने सत्‍ता पाने के लिए अपने आधुनिक होते समाजों में राजनीतिक प्रतिस्‍पर्धा की नई रचनात्‍मक तकनीकें गढ़ी हैं जो नस्‍लों, जातियों व वर्गों में पहचान, अधिकार व प्रगति के नए सपने रोपती हैं। लेकिन भारत की मौजूदा सियासत तो मजहबी बंटवारे की तरफ वापस लौट रही है, जो राजनीतिक विघटन का सबसे भोंडा तरीका है। इससे तो सत्‍तर अस्सी दशक वाले नेता अच्‍छे थे जो समाज के जातीय ताने बाने से संवाद की मेहनत करते थे और राजनीति को नुमाइंदगी व अधिकारों की उम्‍मीदों से जोड़ते थे। जडों से उखड़े नेताओं की मौजूदा पीढ़ी भारत के बदलते व आधुनिक समाज को समझने की जहमत नहीं उठाना चाहती। उसे तो अपराधियों की अगुआई और खून खच्‍चर वाली कबीलाई सियासत के जरिये चुनावों की कर्मनाशा तैरना आसान लगने लगा है। 
चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक हिंसा दरअसल एक संस्‍थागत दंगा प्रणाली की देन हैं, जो उत्‍तर प्रदेश सहित कई राज्‍यों में सक्रिय हो चुकी है। भारत की सांप्रदायिक हिंसा के सबसे नामचीन अध्‍येता प्रो. पॉल आर ब्रास  ने मेरठ  में 1961 व 1982 के दंगों में पहली बार संगठित सियासी मंतव्‍य पहचाने थे और इसे इंस्‍टीट्यूशनल रॉयट सिस्‍टम कहा था। क्‍यों कि उन दंगो के बाद हुए विधानसभा व नगर निकायों के चुनाव के

Monday, September 23, 2013

जनता की नब्‍ज


पश्चिम में वित्‍तीय पारदर्शिता की निर्णायक मुहिम शुरु हो चुकी है लेकिन भारत में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ जनांदोलन से कुछ नहीं बदला। भारतीय सियासत काले धन के प्रयोग का सबसे बड़ा उत्‍सव मनाने जा रही है जिसे आम चुनाव कहते हैं। 
सियासत की चमड़ी मोटी जरुर होती है लेकिन यह पूरी दुनिया में एक जैसी सख्‍त हरगिज नहीं है। कहीं एक दो आवाजें ही राजनीति की कठोर जिल्‍द पर बदलाव की तहरीर छाप देती हैं तो कहीं आंदोलनों की आंधी और जनता के सतत आग्रहों के बावजूद सियासत की छाल पर सिलवटें नहीं आतीं। बदलावों के ताजा आग्रह सिर्फ जनता की बैचैनी ही नहीं बताते बल्कि यह भी जाहिर करते हैं कि किस मुलक की सियासत कितनी जिद्दी और रुढि़वादी या प्रगतिशील व संवेदनशील है। जनता की नब्‍ज समझन में पश्चिम की सियासत एक बार फिर हमसे इक्‍कीस साबित हुई है। यह वित्‍तीय पारदर्शिता को लेकर ग्‍लोबल अपेक्षाओं की जीत ही थी कि सीरिया के संकट के बावजूद बीते पखवारे जी 20 शिखर बैठक में दुनिया के अगुआ देशों ने टैक्‍स हैवेन पर नकेल डॉलने व टैक्‍स पारदर्शिता के अब तक के सबसे बडे अभियान को मंजूरी दे दी। यूरोप के देश व अमेरिका अगले कुछ माह में जब टैक्‍स की विश्‍वव्‍यापी चोरी रोकने के नए कानून लागू कर रहे होंगे तब भारत की मोदियाई और दंगाई राजनीति, काले धन पर रोक व पारदर्शिता के आग्रहों को कोने में टिकाकर चुनावों की दकियानूसी सियासत में लिथड़ रही होगी। 
सेंट पीटर्सबर्ग में जी20 की ताजा जुटान से काली कमाई के जमाघरों यानी टैक्‍स हैवेन के नकाब नोचने की सबसे दूरदर्शी मुहिम शुरु हुई है। यूरोपीय समुदाय सहित करीब पचास देश 2015 से एक स्‍वचालित प्रक्रिया के तहत कर सूचनाओं का आदान प्रदान करेंगे ताकि कर चोरी और टैक्‍स हैवेन में छिपने के रास्‍ते बंद हो सकें। इस सहमति के बाद दुनिया के कई मुल्को में अमेरिका के फॅारेन अकाउंट टैक्‍स कंप्‍लायंस एक्‍ट (एफएटीसीए) जैसे

Monday, September 16, 2013

ग्रोथ की गर्त


यह ग्रोथ के लिए सबसे बुरा वर्ष होने वाला है। हम बुद्धू लौट कर हिंदू ग्रोथ रेट के उसी पुराने घर पर पहुंच गए हैं जहां दो दूनी चार से फिर शुरुआत करनी होगी।

ह मत समझिये कि रुपये की दुर्दशा, किस्‍म किस्‍म के घाटे और सठियाई राजनीति से घिरा भारत ग्रोथ की ग्‍लोबल बहस से बाहर हो गया है। भारत के इर्द गिर्द एक नई बहस तैयार हो रही है जो दरअसल, भारत में आर्थिक विकास दर की नई गर्त तलाशने की कोशिश है। दिग्‍गज निवेशक, बैंकर और नामचीन विश्‍लेषक किस्‍म किस्‍म के पैमानों के सहारे यह आंकने में जुटे हैं कि भारत में 2013-14 का सूरज 4 फीसद ग्रोथ के साथ डूबेगा या 3.5 फीसद। आक्रामक हताशा वालों को तो ग्रोथ दो फीसद तक गिर जाने की संभावना दिख रही है। इस बहस का इंजन अप्रैल से जून की तिमाही में 4.4 फीसद आर्थिक विकास दर से शुरु हुआ है, जो चार साल की सबसे कमजोर तिमाही है। ग्रोथ के पांच फीसद से नीचे जाने का मतलब है भारत में निवेश का  अकाल और लंबी व गहरी बेकारी। यह आर्थिक उदासी, रुपये की कमजोरी या शेयर बाजारों की तात्‍कालिक उछल कूद से ज्‍यादा बड़ी और कठिन समस्‍या है क्‍यों कि ग्रोथ सबसे बड़ी नेमत है जिसके डूबने से बाकी चुनौतियां तो स्‍वाभाविक हो जाती हैं।
आर्थिक विकास दर का लक्ष्‍य फिलहाल भारत में किसी सरकारी या निजी आर्थिक बहस का विषय नहीं है क्‍यों कि रुपये की मरम्‍मत, आयात पर रोक, पेट्रो ईंधन को महंगा करने की आपा धापी में असली मंजिल

Monday, September 9, 2013

मंदी से बड़ी चुनौती


मध्‍य पूर्व के तेल और अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता, पूरी दुनिया की ऐतिहासिक विवशता है। इनके समाधान के बिना दुनिया के बाजार स्‍वस्‍थ व स्‍वतंत्र नहीं हो सकते।

साहस, समझदारी व सूझबूझ से महामंदी तो टाली जा सकती है लेकिन ऐतिहासिक विवशताओं का समाधान नहीं हो सकता। सीरिया और अमेरिकी मौद्रिक नी‍ति में संभावित बदलावों ने ग्‍लोबल बाजारों को इस हकीकत का अहसास कर दिया है कि अरब देशों का तेल व अमेरिका का डॉलर, मंदी से बड़ी चुनौतियां हैं, और मध्‍य पूर्व के सिरफिरे तानाशाह व दुनिया के शासकों की भूराजनीतिक महत्‍वाकांक्षायें आर्थिक तर्कों की परवाह नहीं करतीं। वित्‍तीय बाजारों को इस ऐतिहासिक बेबसी ने उस समय घेरा है, जब मंदी से उबरने का निर्णायक जोर लगाया जा रहा है। सीरिया का संकट पेट्रो बाजार में फट रहा है जिस ईंधन का फिलहाल कोई विकल्‍प उपलब्‍ध नहीं है जबकि अमेरिकी मौद्रिक नीति में बदलाव वित्‍तीय बाजारों में धमाका करेगा जिनकी किस्‍मत दुनिया की बुनियादी करेंसी यानी अमेरिकी डॉलर से बंधी है। विवशताओं की यह विपदा उभरते बाजारों पर सबसे ज्‍यादा भारी है जिनके पास न तो तेल की महंगाई झेलने की कुव्‍वत है और न ही पूंजी बाजारों से उड़ते डॉलरों को रोकने का बूता है। सस्‍ती अमेरिकी पूंजी की आपूर्ति में कमी और तेल की कीमतें मिलकर उत्‍तर पूर्व के कुछ देशों में 1997 जैसे हालात पैदा कर सकते हैं। भारत के लिए यह 1991 व 1997 की कॉकटेल होगी यानी तेल की महंगाई और कमजोर मुद्रा, दोनों एक साथ।
अमेरिका टॉम हॉक्‍स मिसाइलों को दमिश्‍क में उतारने की योजना पर दुनिया को सहमत नहीं कर पाया। सेंट पीटर्सबर्ग के कांस्‍टेटाइन पैलेस की शिखर बैठक में रुस व अमेरिका के बीच जिस तरह पाले खिंचे वह ग्‍लोबर बाजारों के लिए डरावना है। 1983-84 में सीरियाई शासक असद