Monday, December 2, 2013

बड़ी सूझ का पुर्नजन्‍म


गरीबी बनाम सब्सिडी और बजट घाटे बनाम जनकल्‍याण की उलझन के बीच बेसिक इनकम की पांच सदी पुरानी आदर्शवादी कल्‍पना नए सिरे से चमक उठी है। 

ह जनमत संग्रह अगर कामयाब हुआ तो स्विटजरलैंड को काले धन की जन्‍नत या खूबसूरत कुदरत के लिए ही नही बल्कि एक ऐसी अनोखी शुरुआत के लिए भी जाना जाएगा जो गरीबी उन्‍मूलन की पुरातन बहसों का सबसे बड़ा आइडिया है। स्विटजरलैंड अपनी जनता में हर अमीर-गरीब, मेहनती-आलसी, बेकार-कामगार, बुजर्ग-जवान को सरकारी खजाने से हर माह बिना शर्त तनख्‍वाह देने पर रायशुमारी करने वाला है। अर्थ और समाजशास्त्र इसे यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी सरकारी खर्च पर जनता की न्‍यूनतम नियमित आय कहता है। बजट घाटों से परेशान एंग्‍लो सैक्‍सन सरकारों को लगता है कि किस्‍म किस्‍म की सब्सिडी की जगह हर वयस्‍क को बजट से नियमित न्‍यूनतम राशि देना एक तर्कसंगत विकल्‍प है जबकि समाजशास्त्रियों के लिए तो यह गरीबी मिटाने की विराट सूझ के पुनर्जन्‍म जैसा है। इसलिए जनकल्‍याण के अर्थशास्‍त्र की यह पांच सदी पुरानी आदर्शवादी कल्‍पना नए सिरे से चमक उठी है
बेसिक इनकम की अवधारणा कहती है कि सरकार को प्रत्येक वयस्‍क नागरिक को बिना शर्त प्रति माह जीविका भर का पैसा देना चाहिए, इसके बाद लोग अपनी कमाई बढ़ाने के लिए स्‍वतंत्र हैं। स्विटजरलैंड में हर वयस्‍क को प्रतिमाह 2500 फ्रैंक दिये

Monday, November 25, 2013

चीन का चोला बदल

दुनिया का सबसे बड़ा अधिनायक मुल्‍क तीसरी क्रांति का बटन दबाकर व्‍यवस्‍था को रिफ्रेश कर रहा है।
देंग श्‍याओं पेंग ने कहा था आर्थिक सुधार चीन की दूसरी क्रांति हैं लेकिन यह बात चीन को सिर्फ 35 साल में ही समझ आ गई कि हर क्रांति की अपनी एक एक्‍सपायरी डेट भी होती है और घिसते घिसते सुधारों का मुलम्‍मा छूट जाता है। तभी तो शी चिनफिंग को सत्‍ता में बैठते यह अहसास हो गया कि चमकदार ग्रो‍थ के बावजूद एक व्‍यापक चोला बदल चीन की मजबूरी है। चीनी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के तीसरे प्‍लेनम से बीते सप्‍ताह, सुधारों का जो एजेंडा निकला है उसमें विदेशी निवेशकों को चमत्‍कृत करने वाला खुलापन या निजीकरण की नई आतिशबाजी नहीं है बल्कि चीन तो अपना आर्थिक राजनीतिक डीएनए बदलने जा रहा है। दिलचस्‍प्‍ा है कि जब दुनिया का सबसे ताकतवर लोकतंत्र अमेरिका अपने राजनीतिक वैर में फंस कर थम गया है और विश्‍व की सबसे बड़ी लोकशाही यानी भारत अपनी विभाजक व दकियानूसी सियासत में दीवाना है तब दुनिया का सबसे बड़ा अधिनायक मुल्‍क तीसरी क्रांति का बटन दबाकर व्‍यवसथा को रिफ्रेश कर रहा है।
चीन की ग्रोथ अब मेड इन चाइना की ग्‍लोबल धमक पर नहीं बल्कि देश की भीतरी तरक्‍की पर केंद्रित होंगी। दो दशक की सबसे कमजोर विकास दर के बावजूद चीन अपनी ग्रोथ के इंजन में सस्‍ते युआन व भारी निर्यात का ईंधन नहीं डालेगा। वह अब देशी मांग का ईंधन चाहता है और धीमी विकास दर से उसे कोई तकलीफ

Monday, November 18, 2013

महंगाई का यंगिस्‍तान

बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्‍या मानने वाली दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्‍याशास्‍त्र बनता देख रही है।

दिल्‍ली के तख्‍त का ताज किसे मिलेगा यह उतना बड़ा सवाल नहीं है जितनी बड़ी पहेली यह है कि क्‍या भारत की सबसे बडी नेमत ही दरअसल उसकी सबसे बड़ी मुसीबत बनने वाली है। भारत की सबसे बड़ी संभावना के तौर

चमकने वाली युवा आबादी अब, समृद्धि की जयगाथा नहीं बल्कि मुसीबतों का नया अर्थशास्‍त्र लिखने लगी है। भारत की लंबी और जिद्दी महंगाई में इस यंगिस्‍तान की भूमिका अचानक बड़ी होने लगी है। एक तरफ उत्‍पादन व उत्‍पादकता में गिरावट और दूसरी तरफ खपत की क्षमताओं से लैस इस कार्यशील आबादी ने ताजा महंगाई को एक जटिल सामाजिक परिघटना बना दिया है। भारत में लोगों की कमाई को कोई पंख नहीं लगे हैं, लेकिन खपत में सक्षम आबादी बढ़ने से महंगाई की नींव में मांग व आपूर्ति में स्‍थायी असंतुलन का सीमेंट भर गया है। तभी तो रिकार्ड कृषि उत्‍पादन और ब्‍याज दरों में लगातार वृ‍द्धि के बावजूद जिद्दी महंगाई पिछले पांच साल से जीत का अट्टहास कर रही है और बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्‍या मानने वाली दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्‍याशास्‍त्र बनता देख रही है।
मिल्‍टन फ्रीडमैन ने बड़े ठोस विश्‍वास के साथ कहा था कि मुद्रास्‍फीति हर जगह और हमेशा एक मौद्रिक परिघटना है। खुले बाजार व मु्द्रास्‍फीति के विशेषज्ञ अमेरिकी अर्थविद फ्रीडमैन मानते थे कि सरकारें जितनी ज्‍यादा करेंसी छापेंगी मुद्रास्‍फीति उतनी ही बढ़ेगी। लेकिन बीसवीं सदी के इस वैचारिक पुरोधा को इक्‍कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में गलत

Monday, November 11, 2013

पटाखेबाजी के बाद

 इस बार बहुत से लोगों ने 69-70 रुपये के डॉलर पर दांव लगाकर दीपावली का शगुन किया है। 
टाखों के बारे में एक नई खोज यह है इनका प्रचलन सिर्फ त्‍योहारों की दुनिया में ही नहीं, बाजारों की दुनिया में भी होता है। वित्‍तीय बाजारों में भी जोरदार आवाज और चमक वाली आतिशबाजियां होती हैं जिनके बाद सब धुंआ धुंआ रह जाता है। दीवाली के दिये जलने से पहले शेयर बाजारों में ऐसी ही पटाखेबाजारी उतरी थी जिस पीछे न कहीं ठोस ठोस आर्थिक कारण थे तेजी बनने की तर्कसंगत उम्‍मीदें। इसलिए त्‍योहारों के बाद जैसे मन जीवन को

एक अनमनापन और उदासी घेर लेती है ठीक उसी तरह शेयरों में तेजी की गैस चुकते ही वित्‍तीय बाजार पुरानी चिंताओं से गुंथ गए हैं। रुपये की सेहत का सवाल नई ताकत के साथ वापस लौट आया है।  विदेशी निवेशकों की मेहरबानी से डॉलरों की आमद के बावजूद रुपये में गिरावट शुरु हो गई है। विदेशी मु्द्रा बाजार में तेज  उतार-चढ़ाव का इशारा करने वाले सूचकांक मई के मुकाबले ज्‍यादा सक्रिय हैं क्‍यों कि रुपये को ढहने से बचाने वाले सहारे हटाये जा रहे हैं। इधर अमेरिकी फेड रिजर्व के प्रोत्‍साहन पैकेज की वापसी

Monday, November 4, 2013

खर्च की अमावस



 भारत की खर्च लक्ष्‍मी इस बार इतनी रुठी और अनमनी थी कि उपभोक्‍ता खर्च सबसे बड़ा भारतीय उत्‍सव, कंजूसी की अमावस बन कर गुजर गया।

स दीवाली अधिकांश भारतीय जब गणेश लक्ष्‍मी को गुहार रहे थे ठीक उस समय दुनिया की तमाम कंपनियां और निवेशक भारतीयों की खर्च लक्ष्‍मी को मनाने में जुटे थे। इस दीप पर्व पर भारतीय उपभोक्‍ताओं ने जितनी बार जेब टटोल कर खरीद रोकी या असली शॉपिंग को विंडो शॉपिंग में बदल दिया, उतनी बार निवेशकों के दिमाग में यह पटाखा बजा कि आखिर भारतीयों की खरीदारी दिया बाती, गणेश लक्ष्‍मी, खील बताशे से आगे क्‍यों नहीं बढ़ी ? कारपोरेट और निवेश की दुनिया में इस सवाल की गूंज उस धूम धड़ाके से ज्‍यादा जोरदार है जो दीवाली के ऐन पहले शेयरों में रिकार्ड तेजी बन कर नमूदार हुआ था। यह पिछले एक दशक की पहली ऐसी दीपावली थी जब भारतीयों ने सबसे कम खर्च किया। भारी महंगाई व घटती कमाई के कारण भारत की खर्च लक्ष्‍मी इस बार इतनी रुठी और अनमनी थी कि उपभोक्‍ता खर्च सबसे बड़ा भारतीय उत्‍सव, कंजूसी की अमावस बन कर गुजर गया। 
शेयरों में तेजी की ताजा फुलझड़ी तो विेदेशी पूंजी के तात्‍कालिक प्रवाह और भारत में बुरी तरह गिर चुकी शेयरों की कीमत से मिलकर बनी थी जो दीवाली साथ खतम हो गई।  इसलिए पटाखों का धुआं और शेयरों में तेजी की धमक बैठते ही निवेशक वापस भारत में उपभोग खर्च कम होने के सच से