Monday, July 18, 2011

ग्रोथ पर हमला

हूलुहान मुंबई के जीवट को सराहिये, अपनी लाचारी व खिसियाहट छिपाने के लिए यही एक रास्ता है। मुंबई के लोग मजबूरी के मरजीवड़े हैं कयों कि रोजी छिनने का खौफ मौत के खौफ से ज्यादा बड़ा है मुंबई के साहस में यह सच कतई नहीं छिपता हम एक असुरक्षित और लचर मुल्क हैं, इसलिए आतंक हमारी ग्रोथ को चबाने लगा है। जान माल की हिफाजत है ही नहीं इसलिए आर्थिक विकास पर बारुद पर बैठा है। किस्मत से हम एक बड़े मुल्क हैं नहीं तो इतना खून किसी भी अर्थव्यवस्था। को ( पाकिस्ता न नजीर है) जड़ से उखाड़ सकता है। जिस देश की आर्थिक नब्ज अठारह साल में सोलह धमाके और छह साल में चार सौ मौतें झेल चुकी हो, वहां जान देकर कारोबार करने का जीवट कौन दिखाना चाहेगा।
आतंक का आर्थिक असर
यदि हम देश व राज्यों की तरह शहरों का आर्थिक उत्पादन नाप ( 9/11 के बाद न्यूयार्क के ग्रॉस सिटी प्रोडक्ट की गणना) रहे होते, तो मुंबई की आर्थिक तबाही आंकड़ों में बोलती। काबुल व कराची के बाद आतंक से सबसे ज्यादा मौतें देखने वाली मुंबई की कारोबारी साख बिखर रही है। हम मौतों पर सियासत करते हैं जबकि दुनिया ग्रोथ पर आतंक के असर से कांप रही है। 2001 से 2003 के बीच आतंकी हमलों के कारण इजरायल ने आर्थिक विकास  में 10 फीसदी की गिरावट की झेली थी। सैंटा मोनिका (अमेरिका) के मिल्केन इंस्टीट्यूट का आंकड़ाशुदा निष्कर्ष है कि एक आतंकी हमला किसी देश की जीडीपी वृद्धि दर को 0.57 फीसदी तक
घटा देता है। यानी कि भारत की करीब तीन फीसदी ग्रोथ को आतंक हर साल चाट जाता है, क्योंी कि पिछले पांच वर्ष में हमने करीब 21 बड़े आतंकी हमले झेले हैं। मिल्केन इंस्टी ट्यूट ने आर्थिक विकास पर आतंक के असर को नापने के लिए, हमलों को प्रति दस लाख आबादी या एक अरब डॉलर के जीडीपी के औसत पर बांटा है। भारत में ( 1968 से 2004) प्रति दस लाख आबादी पर 1.5 आतंकी हमले और करीब दस मौतें या घायल का हिसाब बैठता है जबकि प्रति एक अरब डॉलर जीडीपी पर 14 मौतें और दो हमलों का औसत है। पिछले पांच साल भारत में प्रति आतंकी हमला मौतें बीस से ऊपर निकल गई हैं। मिल्केन की रिसर्च मानती कि निजी लोगों पर जितने ज्याबदा हमले होते हैं अर्थव्यवस्था में प्रति व्यक्ति पूंजी निर्माण उतना ही घटता है। हर साल सैकड़ों आतंकी हमले झेलने वाला पाकिस्तान आतंक ध्वस्त विकास की जिंदा नजीर है। पिछले एक दशक में पाकिसतान तबाह (2004-09 के बीच 2000 अरब डॉलर का नुकसान) व दीवालिया हो गया है। जम्मू् कश्मीर व उत्तर पूर्व आतंक कारण बदहाली का देशी प्रमाण हैं। पंजाब की ग्रोथ आज भी लंगड़ा रही है। महाराष्ट्र् ( राज्य में आतंक से छह साल से पांच सौ मौतें) और मुंबई का आर्थिक विकास अब जोखिम में है।
त्रासदी का हिसाब
मुंबई में नागरिक संतुष्टि सर्वेक्षण (लाइफ सैटिसफेक्शन सर्वे) बता सकता है कि आतंक का खौफ कितने गहरे तक पैठा है। आतंकी हमलों के शिकार पेरिस (1975 से नब्बे के अंत तक विमान अपहरण, मेट्रो पर हमले, बंधक समस्या आदि) और धमाकों से हलकान उत्तवरी आयरलैंड में कुछ सर्वेक्षणों से आतंक के मनोवैज्ञानिक असर को आंका गया था और डरी हुई जिंदगी के आश्चर्यजनक चेहरे सामने आए थे। जीवन की कीमत बताना असंगत व क्रूर है लेकिन आतंक के आर्थिक असर नापने के लिए यह निष्ठुर गणित भी लगाई जा रही है। 2005 में अंतरराष्ट्री य आतंक में हुई 550 मौतों की आर्थिक कीमत करीब 27 लाख डॉलर थी। औसत आयु के आधार पर यह भी आंका गया कि यह लोग यदि जीवित होते तो अपने पूरे जीवन में करीब 4.3 करोड़ डॉलर का आर्थिक योगदान करते। अमेरिका में 9/11 के हमले के बाद आकलन किया गया था कि मारे गए लोगों के रुप में करीब 8.7 अरब डॉलर की आय संभावनाओं का नुकसान हुआ। बुधवार के धमाकों में जान गंवाने वाले 21 लोग अगर जीवित रहते तो एक आर्थिक इकाई के रुप में मुंबई को बहुत कुछ देते। आतंक के आर्थिक असर और भी गहरे हैं। अक्सुर संपत्ति को सीधे की नुकसान की बात होती है, बीमा की लागत में बढ़ोत्तरी, चीजों की आपूर्ति में असंतुलन, सुरक्षा संबंधी जांच में उत्पामदक समय की बर्बादी को तो हम गिनते ही नहीं। आतंकी खतरा बढ़ने के बाद दुनिया के हवाई अड्डों पर जांच में प्रति व्य क्ति एक घंटा अधिक समय लगता है। इस कामकाजी घंटे कीमत करीब 20 डॉलर है। दुनिया के जीडीपी के 1.5 फीसदी के बराबर का हिस्सा आतंक की परोक्ष लागत (फॉरच्यून 2002-फ्रिक्श।न इकोनॉमी) में जा रहा है। भारत में इस आर्थिक असर की कोई गणना ही नहीं है।
असुरक्षा का अभिशाप
आतंक से हिफाजत मुश्किल होने की बात राहुल गांधी जैसा कोई ‘समझदार’ नेता ही कह सकता है। सुरक्षा को लेकर हमारा असमंजस ऐतिहासिक है। आतंक हमें निचोड़ रहा है, आंतरिक असुरक्षा जानलेवा है और हम किसी मुल्क से एक काल्पनिक युद्ध की तैयारी में अरबों फूंक रहे हैं। बजट हर साल दो लाख्‍ा करोड़ सेनाओं को देता है आंतरिक सुरक्षा पर खर्च इसका चौथाई भी नहीं है। पिछले एक दशक में पूरी दुनिया ने अपनी आंतरिक सुरक्षा तैयारी सिरे से बदल दी। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद, अमेरिका ने 29 अरब डॉलर लगाकर आपरेशन नोबल ईगल के जरिये खुद को अभेद्य बना लिया। हम अपने नेताओं की अमेरिका में जामा तलाशी पर बयान फेंकते रह गए और मगर अमेरिका ने तय कर दिया कि आतंक दोबारा उनके यहां न पहुंचे। चीन आंतरिक सुरक्षा पर फौज से ज्या दा खर्च कर रहा है। ताजे बजट तहत पुलिस पर सालाना 95 अरब डॉलर खर्च होंगे जबकि सेना पर 91 अरब डॉलर। भारत ने सुरक्षित होने की फिक्र शुरु करने के लिए 26/11 का इंतजार किया, अब फाइलें सुरक्षित की जा रही हैं।
आतंक ने पिछले पैंतीस सालों में पूरी दुनिया में करीब 21000 हमले किये हैं और एक लाख जानें ली हैं। इसलिए आतंक के खिलाफ हर सफल रणनीति, बेहद सख्त सुरक्षा, आतंक को आतंकित करने वाले कानून और निर्मम कार्रवाई पर आधारित होती है। अफगान, पाक इजरायल के हालात फर्क हैं इनके अलावा अन्‍य देश एक दो तजुर्बों के बाद आतंक के खिलाफ विवादों की हद तक कठोर हो गए है नतीजन जिंदगी महफूज है। मगर हमारे यहां कभी किसी भी चौराहे पर मौत नाच सकती है। पुलिस सुरक्षा में नहीं, शव प्रबंधन में माहिर है। राजनीति कफन को झंडा बना देती है। हम सिर्फ लाशें गिनते हैं और अपने आत्मघाती जीवट पर न्योछावर हो जाते हैं।... ग्रोथ क्या खाक बचेगी !!
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