Monday, January 30, 2012

सियासत चुनेंगे या सरकार

प्रकाश सिंह बादल कह सकते हैं पुल सड़कें गिनिये, पारदर्शिता के सवालों में क्‍या रखा है! मायावती कहेंगी कि स्थिरता दी न, दागी मंत्रियों को क्‍यों बिसूरते हैं। राहुल बोलेंगे घोटालों की फिक्र छोडि़ये, मनरेगा और सस्‍ता मोबाइल मिल तो रहा है न। खंडूरी बतायेंगे कि ग्रोथ देखिये, भ्रष्‍टाचार को क्‍या रोना। सियासत समझा रही है कि भ्रष्‍टाचार के पेड़ों पर सर मत फोडि़ये, तरक्‍की के आम खाइये। वोटरों का असमंजस लाजिमी है। तरक्‍की की रोशनी में स्‍याह और सफेद का फर्क धुंधला गया है क्‍यों कि ग्रोथ की अखिल भारतीय छलांगों का असर हर जगह है। ऊपर से जब चुनाव घोषणापत्रों की अच्‍छे अच्‍छे वादे एक ही टकसाल से निकले हों तो नीतियों की क्‍वालिटी में फर्क और भी मुश्किल हो जाता है। तो वोट किस आधार पर गिरे ? चतुर सुजान वोटर ऐसे माहौल में नेताओं की गुणवत्‍ता पर फैसला करते हैं यानी कि यानी सियासत नहीं बल्कि गवर्नेंस का चुनाव। पंजाब, उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तराखंड तो वैसे भी ग्रोथ के नहीं बल्कि गवर्नेंस के मारे हैं। यहां की तरक्‍की खराब गवर्नेंस के कारण दागी और सीमित रह गई है। इसलिए इम्‍तहान तो वोटरों की प्रगतिशीलता का है, क्‍यों कि सियासत की जात तो बदलने से रही। पंजाब और उत्‍तराखंड के वोटर आज अपने लोकतांत्रिक प्रताप का इस्‍तेमाल करते हुए क्‍या यह ध्‍यान रखेंगे कि उनके सामने नीतियों की नहीं बल्कि लायक नेताओं की कमी है।
तरक्‍की का कमीशन
चालाक सियासत ने वोटरों की अपेक्षाओं के मुताबिक अपने भ्रष्‍टाचार को समायोजित कर लिया है। पिछले दो दशकों के खुलेपन जनता को तरक्‍की के लिए लिए बेचैन कर दिया नतीजतन नब्‍बे के दशक में कई सरकारें उड़ीं तो लौटी ही नहीं या फिर दस-दस साल बाद वापसी हुई। अपेक्षाओं इस तूफान ने नेताओं को सड़क, पुल, बिजली, शहर जैसे विकास के पैमानों पर गंभीर होने के लिए मजबूर किया। वक्‍त ने साथ दिया क्‍यों कि यही दौर भारत में तेज ग्रोथ का था। ग्रोथ अपने साथ ससती पूंजी (ईजी मनी), बढ़ती आय व उपभोक्‍ता खर्च और निजी निवेश व कारोबार में वृद्धि लेकर आई। पिछले पांच साल में हर राज्‍य का राजस्‍व में अभूतपूर्व बढ़ोत्‍तरी हुई है, इसलिए सरकारों के खर्च भी बढ़े। जिसने विकास की उम्‍मीदों पर काम करने के लिए संसाधनों की किल्‍लत नहीं रही। बेहतरी का यह मौसम सियासत के लिए भ्रष्‍टाचार का बसंत , निजी कंपनियां निवेश करती हैं मगर सबकी एक कीमत है जो सियासत वसूलती है। ग्रोथ के एक रुपये से कालिख का दो रुपया निकलता है, इसलिए पिछले एक दशक में ग्रोथ जितनी बढ़ी है गवर्नेंस उतनी गिरी है। सस्‍ते मोबाइल से लेकर चमकते शहरों तक विकास का हर प्रतिमान राजनीतिक भ्रष्‍टाचार का बेधड़क व पुख्‍ता बिजनेस मॉडल है इसलिए टिकट लेने लेकर चुनाव लड़ने तक सियासत में निवेश और कमाई का अचूक हिसाब लगाया जाता है। शुक्र है कि विकास की चमक के बावजूद हम सियासत के इस प्रॉफिट-लॉस अकाउंट को समझने लगे हैं।
 सरकारी संसाधनों की बहुतायत और निजी निवेश के होड़ में राजनीति माल कूट रही है। अब खूब पुल बनते हैं सड़कें बिछती हैं। सियासत सबमें कमीशन लेती है।
गवर्नेंस का गड्ढा
नीतियों की गुणवत्‍ता उतनी बडी चुनौती नहीं है क्‍यों कि नसीहतें व जरुरतें खुद ब खुद नीतियां बदल देती है। यह बदलाव भारत में भी हो रहे हैं। राजनीतिक दल विकास अब वंचितों को सीधे (नकद सहायता, सुविधायें) मदद देने और छोटे छोटे लाभार्थी समूहों (बालिका, बुनकर, असंगठित मजदूर) के लिए नीतियों की बात कर रहे हैं। यह सामाजिक विकास स्‍कीमों के बदलते स्‍वरुप में बदलाव का प्रमाण है। गरीबी उन्‍मूलन और शिक्षा की योजनाओं की तीसरी पीढ़ी इन्‍हीं रासतों पर चल कर हम तक आई है, जहां अब सरकार संवैधानिक गारंटी दे रही है। यानी नीतियों की फैक्‍ट्री में का हाल बुरा नहीं है, विसंगति कहीं दूसरी जगह है। पिछले एक दशक में इन स्‍कीमों के जरुरतमंद घटे हैं, मगर आवंटन कई गुना बढ़ चुका है। इन्‍हें चलाने वालों आय व वेतन बढ़े हैं मगर हर नई स्‍कीम के साथ भ्रष्‍टाचार की गारंटी बढ़ जाती है। यह समस्‍या गवर्नेंस की है। बुंदेलखंड, झारखंड सहित देश से अति‍ पिछ़ड़े इलाकों के लिए अब भरपूर संसाधन, दर्जनों नीतियां व श्रेष्‍ठतम तकनीक मौजूद है मगर गवर्नेंस की जगह खाली है। भारत में आर्थिक उदारीकरण की हर सफल कहानी से घोटालों से कलंकित है। हमें उदारीकरण के फायदे (सस्‍ता संचार, वित्‍तीय सेवायें, परिवहन, तेज उत्‍पादन, ऊंची आय) मिले लेकिन भारी भ्रष्‍टाचार की कीमत पर। क्‍यों कि आर्थिक उदारीकरण ने सियासत को कमाई की नई स्‍कीमें समझा दीं। नेता आज हमें विकास के प्रमाण दे सकते हैं इसलिए वह भ्रष्‍टाचार पर बेशर्म हो जाते हैं। मगर कोई भी समझदार देश भ्रष्‍टाचार में लिपटा विकास पचा नहीं सकता। उसे ग्रोथ व अच्‍छी गवर्नेंस दोनों ही चाहिए।
तरक्‍की बड़ी पेचीदा है। इसी पहली छलांग तेज व बेरोक टोक होती है, मगर दूसरी उछाल बेहद मुश्किल हो जाती है। दबे बंधे भारत की पहली बड़ी छलांग तरक्‍की तो लेकर आई मगर हमारी गवर्नेंस की पोल भी खुल गई। यह दागी गवर्नेंस हमारी छलांग में सबसे बड़ी बाधा है। भारत को जल्‍द से जल्‍द दूसरी छलांग लगानी है। नहीं तो अधिकांश राजय मध्‍यम आय व मझोले विकास के दुष्‍चक्र (मिडिल इनकम ट्रैप) फंस जाएंगे। जिसमें ग्रोथ व कमाई एक औसत स्‍तर पर ठहर जाती है। लैटिन अमेरिका व पूर्वी एशिया कुछ देश (चिली, थाईलैंड,ब्राजील) इसी दुष्‍चक्र में फंसे हैं। इस शिकंजे से निकलना मुश्किल होगा है क्‍यों कि कुछ दशकों में भारत के कामगारों की आबादी में युवा व बुजुर्ग का अनुपात भी बदलने लगेगा। सियासत तो पूरी दुनिया में एक जैसी है, उबाऊ और कुटिल। मगर एक तरक्‍की पसंद वोटर सियासत को पीछे धकेल कर सरकार चुनते हैं यानी एक ऐसा शासन जो उन्‍हें ग्रोथ की अगली सीढी पर ले जा सके। इसलिए वोट डालते हुए यह ध्‍यान रखना जरुरी है कि हमें अपने लिए सियासत नहीं बल्कि एक सरकार चुननी है। जो अगर अचछी न हुई तो हमें ऐसा डुबाएगी कि हम कहीं के नहीं रहेंगे।
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