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Monday, October 3, 2011

पलटती बाजी

ह यूरोप और अमेरिका के संकटों का पहला भूमंडलीय तकाजा था, जो बीते सपताह भारत, ब्राजील, कोरिया यानी उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के दरवाजे पर पहुंचा। इस जोर के झटके में रुपया, वॉन (कोरिया), रिएल (ब्राजील), रुबल, जॉल्‍टी(पोलिश), रैंड (द.अफ्रीका) जमीन चाट गए। यह 2008 के लीमैन संकट के बाद दुनिया के नए पहलवानों की मुद्राओं का सबसे तेज अवमूल्‍यन था। दिल्‍ली, सिओल, मासको,डरबन को पहली बार यह अहसास हुआ कि अमेरिका व यूरोप की मुश्किलों का असर केवल शेयर बाजार की सांप सीढ़ी तक सीमित नहीं है। वक्‍त उनसे कुछ ज्‍यादा ही बडी कीमत वसूलने वाला है। निवेशक उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में उम्‍मीदों की उड़ान पर सवार होने को तैयार नहीं हैं। शेयर बाजारों में टूट कर बरसी विदेशी पूंजी अब वापस लौटने लगी है। शेयर बाजारों से लेकर व्‍यापारियों तक सबको यह नई हकीकत को स्‍वीकारना जरुरी है कि उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के लिए बाजी पलट रही है। सुरक्षा और रिर्टन की गारंटी देने वाले इन बाजारों में जोखिम का सूचकांक शिखर पर है।
कमजोरी की मुद्रा
बाजारों की यह करवट अप्रत्याशित थी, एक साल पहले तक उभरते बाजार अपनी अपनी मुद्राओं की मजबूती से परेशान थे और विदशी पूंजी की आवक पर सख्‍ती की बात कर रहे थे। ले‍किन अमेरिकी फेड रिजर्व की गुगली ने उभरते बाजारों की गिल्लियां बिखेर दीं। फेड  का ऑपरेशन ट्विस्‍ट, तीसरी दुनिया के मुद्रा बाजार में कोहराम की वजह बन गया। अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने देश को मंदी से उबारने के लिए में छोटी अवधि के बांड बेचकर लंबी अवधि के बांड खरीदने का फैसला किया। यह फैसला बाजार में डॉलर छोडकर मुद्रा प्रवाह बढाने की उम्‍मीदों से ठीक उलटा था। जिसका असर डॉलर को मजबूती की रुप में सामने आया। अमेरिकी मुद्रा की नई मांग निकली और भारत, कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील के केद्रीय बैंक जब तक बाजार का बदला मिजाज समझ पाते तब तक इनकी मुद्रायें डॉलर के मुकाबले चारो खाने चित्‍त

Monday, April 18, 2011

डॉलर-राज से बगावत

मौद्रिक बाजार के बादशाह के खिलाफ बगावत हो गई है। दुनिया की नई आर्थिक ताकतों (ब्रिक्सं) ने मिलकर अमेरिकी डॉलर के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया है और यूरो सेना को सदमें में डाल दिया है। विकसित दुनिया को इसकी उम्मीद नहीं थी ब्राजील,रुस,भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका यह अनोखा गुट अपने जन्म के दो साल ( 2009 में येकतरिनबर्ग से शुरुआत) के भीतर अपनी मुद्राओं में आपसी कारोबार का अद्भुत पैंतरा चल देगा। मतलब यह कि दुनिया के उभरते बाजारों से अमेरिकी डॉलर अब लगभग बेदखल हो जाएगा। 4.6 ट्रिलियन डॉलर के साझा उत्पादन वाले इन नए सूरमाओं ने यह मुनादी कर दी है कि उभरती अर्थव्यवस्थायें अमेरिकी डॉलर की पालकी ढोने को तैयार नहीं है। ब्रिक्स ने दरअसल दुनिया को एक नई रिजर्व करेंसी देने की बहस को जड़, जमीन व आसमान दे दिया है।
डगमग डालर
विश्व के सरकारी विदेशी मुद्रा भंडारों में 61 फीसदी अमेरिकी डॉलर हैं जबकि 85 फीसदी विदेशी विनिमय सौदे, 45 फीसदी अंतरराष्ट्रीय निवेश और लगभग 50 फीसदी निर्यात डॉलर में होता है। यानी डॉलर बेशक दुनिया रिजर्व करेंसी व मौद्रिक प्रणाली का आधार है। डॉलर को यह ताज किस्मत से मिला था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की मुद्रा धराशायी थी और दुनिया का 50 फीसदी उत्पादन अमेरिका के हाथ में था, इसलिए डॉलर कारोबार की प्रमुख मुद्रा बन गया और क्रमश: अपने वित्तीय बाजारों की गहराई और मजबूत वैश्विक मुद्राओं की कमी ने इसे दुनिया की रिजर्व करेंसी बना दिया। विकसित होती दुनिया को ऐसी मुद्रा चाहिए थी जो

Monday, December 27, 2010

भूल-चूक, लेनी-देनी

अर्थार्थ
शुक्र है कि हम सुर्खियों से दूर रहे। आर्थिक दुनिया ने दस के बरस में जैसी डरावनी सुर्खियां गढ़ी उनमें न आने का सुकून बहुत गहरा है। करम हमारे भी कोई बहुत अच्छेह नहीं थे। हमने इस साल सर ऊंचा करने वाली सुर्खियां नहीं बटोरीं लेकिन ग्रीस, आयरलैंड, अमेरिका के मुकाबले हम, घाव की तुलना में चिकोटी जैसे हैं। अलबत्ता इसमें इतराने जैसा भी कुछ नहीं है। वक्त, बड़ा काइयां महाजन है। उसके खाते कलेंडर बदलने से बंद नही हो जाते हैं बल्कि कभी कभी तो उसके परवाने सुकून की पुडि़या में बंध कर आते हैं। मंदी व संकटों से बचाते हुए वक्त हमें आज ऐसी हालत में ले आया है जहां गफलत में कुछ बड़ी नसीहतें नजरअंदाज हो सकती हैं। दस के बरस बरस का खाता बंद करते हुए अपनी भूल चूक के अंधेरों पर कुछ रोशनी डाल ली जाए क्यो कि वक्त की लेनी देनी कभी भी आ सकती है।
लागत का सूद
सबसे पहले प्योर इकोनॉमी की बात करें। भारत अब एक बढती लागत वाला मुल्क हो गया है। पिछले कुछ वर्षों की तेज आर्थिक विकास दर ने हमें श्रम (लेबर कॉस्ट) लागत को ऊपर ले जाने वाली लिफ्ट में चढ़ा दिया है। सस्ता श्रम ही तो भारत की सबसे बड़ी बढ़त थी। वैसे इसमें कुछ अचरज नहीं है क्यों कि विकसित होने वाली अर्थव्यरवस्थाओं में श्रम का मूल्यं बढ़ना लाजिमी है। अचरज तो यह है कि हमारे यहां लागत हर तरफ से बढ़

Monday, November 8, 2010

असमंजस की मुद्रा

अर्थार्थ
साख बचे तो (आर्थिक) सेहत जाए? ताज मिले तो ताकत जाए? एक रहे तो भी कमजोर और बिखर गए तो संकट घोर?? बिल्कुल ठीक समझे आप, हम पहेलियां ही बुझा रहे हैं, जो दुनिया की तीन सबसे बड़ी मुद्राओं अर्थात अमेरिकी डॉलर, चीन का युआन और यूरो (क्रमश:) से जुड़ी हैं। दरअसल करेंसी यानी मुद्राओं की पूरी दुनिया ही पेचीदा उलटबांसियों से मुठभेड़ कर रही है। व्यापार के मैदान में अपनी मुद्रा को कमजोर करने की जंग यानी करेंसी वार का बिगुल बजते ही एक लंबी ऊहापोह बाजार को घेर को बैठ गई है। कोई नहीं जानता कि दुनिया की रिजर्व करेंसी का ताज अमेरिकी डॉलर के पास कब तक रहेगा? युआन को कमजोर रखने की चीनी नीति पर कमजोर डॉलर कितना भारी पड़ेगा? क्या माओ के उत्तराधिकारियों की नई पीढ़ी युआन को दुनिया की रिजर्व करेंसी बनाने का दांव चलेगी? यूरो का जोखिम कितना लंबा खिंचेगा। क्या दुनिया में अब कई रिजर्व करेंसी होंगी? दुनिया के कुछ हिस्से आठवें दशक के लैटिन अमेरिका की तरह दर्जनों विनिमय दरों का अजायबघर बन जाएंगे? ... सवालों की झड़ी लगी है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार असमंजस में नाखून चबा रहा है।
दुविधा का नाम डॉलर
विश्व के करीब 60 फीसदी विदेशी मुद्रा भंडारों में भरा ताकतवर अमेरिकी डॉलर ऊहापोह की सबसे बड़ी गठरी है। अमेरिकी नीतियों ने डॉलर को हमेशा ताकत की दवा दी ताकि अमेरिकी उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति महंगाई से महफूज रहे। मजबूत डॉलर, सस्ते आयात व नियंत्रित मुद्रास्फीति अमेरिका के मौद्रिक प्रबंधन की बुनियाद है। सस्ते उत्पादन और अवमूल्यित मुद्रा के महारथी चीन ने इसी नीति का फायदा लेकर अमेरिकी बाजार को अपने उत्पादों से पाटकर अमेरिका को जबर्दस्त व्यापार घाटे का तोहफा दिया है। सस्ते आयात को रोकने के लिए विश्व व्यापार में डॉलर को प्रतिस्पर्धात्मक रखना अमेरिकी नीति का दूसरा पहलू है। अलबत्ता 1980-90 में जापान ने इसे सर के बल खड़ा किया था और अब चीन इसे दोहरा रहा है। इस अतीत को पीठ पर लादे विश्व की यह सबसे मजबूत रिजर्व करेंसी अब तक की सबसे जटिल चुनौतियों से मुकाबिल है। जीडीपी के अनुपात में 62 फीसदी विदेशी कर्ज (अमेरिकी बांडों में विदेशी निवेश) अमेरिका के भविष्य पर

Monday, October 25, 2010

संकट की पूंजी

अर्थार्थ
यह भी खूब रही। भारत, चीन, रूस, ब्राजील वाली दुनिया समझ रही थी कि संकट के सभी गृह नक्षत्र यूरो और डॉलर जोन के खाते में हैं, उनका संसार तो पूरी तरह निरापद है। लेकिन संकट इनके दरवाजे पर भी आ पहुंचा। यह पिछड़ती दुनिया जिस विदेशी पूंजी केजरिए उभरती दुनिया (इमर्जिंग मार्केट) में बदल गई वही पूंजी इनके आंगन में संकट रोपने लगी है। मंदी से हलकान अमेरिका व यूरोप अपने बाजारों को सस्ती पूंजी की गिजा खिला रहे हैं। यह पूंजी लेकर विदेशी निवेशक उभरते वित्तीय बाजारों में शरणार्थियों की तरह उतर रहे हैं। तीसरी दुनिया के इन मुल्कों की अच्छी आर्थिक सेहत ही इनके जी का जंजाल हो गई है। शेयर बाजारों में आ रहे डॉलरों ने इनके विदेशी मुद्रा भंडारों को फुला कर इनकी मुद्राओं को पहलवान कर दिया है। जिससे निर्यातक डर कर दुबक रहे हैं। विदेशी पूंजी की इस बाढ़ से शेयर बाजारों और अचल संपत्ति का बाजार गुब्बारा फिर फूलने लगा है। कई देशों में मुद्रास्फीति (भारत में पहले से) मंडराने लगी है। हमेशा से चहते विदेशी निवेशक अचानक पराए हो चले हैं। कोई ब्याज दरें बढ़ाकर इन्हें रोक रहा है तो कोई सीधे-सीधे विदेशी पूंजी पर पाबंदिया आयद किए दे रहा है। 1997 के मुद्रा संकट जैसे हालात उभरते बाजारों की सांकल बजा रहे हैं।
कांटेदार पूंजी
पूंजी का आना हमेशा सुखद ही नहीं होता। दुनिया अगर असंतुलित हो, पूंजी अचानक कांटे चुभाने लगती है। ताजी मंदी और उसके बाद ऋण संकट के चलते अमेरिका व यूरोप के केंद्रीय बैंकों ने अपने बाजारों में पैसे का मोटा पाइप खोल दिया। ब्याज दरें तलहटी (अमेरिका में ब्याज दर शून्य) पर आ गईं ताकि निवेशक और उद्योगपति सस्ता कर्ज ले अर्थव्यवस्था को निवेश की खुराक देकर खड़ा करें। अव्वल तो इस सस्ते कर्ज से इन देशों में कोई बड़ा निवेश नहीं हुआ और जो हुआ वह भी निर्यात के लिए था, मगर वहां दाल गलनी मुश्किल थी क्योंकि कमजोर युआन की खुराक पचा कर चीन

Monday, October 18, 2010

कमजोरी की ताकत

अर्थार्थ
कमजोरी में भी बिंदास ताकत होती है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार जल्द ही कमजोर मुद्राओं (करेंसी) की करामात देखेगा जब मुद्राओं के अवमूल्यन से निकले सस्ते निर्यात लेकर दुनिया के देश एक दूसरे के बाजारों पर चढ़ दौड़ेंगे। मंदी ने सारा संयम तोड़ दिया है, करेंसी को कमजोर करने की होड़ में शेयर बाजारों के चहेते विदेशी निवेशक पराए होने लगे हैं। उनके डॉलर अब उल्टा असर (विदेशी पूंजी की भारी आवक मतलब देशी मुद्रा को ज्यादा ताकत) कर रहे हैं। उदार विश्व व्यापार की कसमें टूटने लगी हैं। अपने बाजारों के दरवाजे बंद रखने में फायदे देख रहा विश्व मुक्त बाजार का जुलूस फिलहाल रोक देना चाहता है। दुनिया में ट्रेड या करेंसी वार का मैदान तैयार है। एक ऐसी जंग जिसमें पराए बाजार को कब्जाने और अपने को बचाने के लिए सब कुछ जायज है। इसे रोकने की एक बड़ी कोशिश (मुद्राकोष-विश्व बैंक की ताजा बैठक) हाल में ही औंधे मुंह गिरी है। इसलिए अब दुनिया के देशों ने अपने-अपने पैंतरों का रिहर्सल शुरू कर दिया है। इस जंग में पैंतरे ही अलग हो सकते हैं, लड़ाई की रणनीति तो एक ही है- जिसकी मुद्रा जितनी कमजोर वह उतना बड़ा सीनाजोर।

मांग रे मांग
भारत व चीन जैसी किस्मत सबकी कहां? इनके यहां तेज आर्थिक वृद्धि की रोशनी, लेकिन दुनिया के बड़ों के यहां गहरा अंधेरा है। कई बड़ी अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह पेंदी में बैठ गई हैं। अमेरिका, जापान, जर्मनी, फ्रांस, इटली, यूके में इस साल की दूसरी तिमाही इतनी खराब रही है कि खतरे के ढोल बजने लगे हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं दरअसल पिछले दस साल के औसत रुख से ज्यादा कमजोर हैं। अमेरिका और यूरोजोन में उत्पादन ठप है और मांग घटने के कारण मुद्रास्फीति एक

Wednesday, April 21, 2010

चीन है तो चैन कहां रे?

यह अखाड़ा कुछ फर्क किस्म का है। यहां कमजोर भी जीतते हैं, वह भी सीना ठोंक कर। यह लड़ाई बाजार की है जिसमें कमजोर होना एक बड़ा रणनीतिक दांव है। देखते नहीं कि महाकाय, बाजारबली चीन ने अपनी मुद्रा युआन (आरएमबी) की कमजोरी के सहारे चचा सैम के मुल्क सहित दुनिया के बाजार पर इस तरह कब्जा कर लिया कि अब नौबत अमेरिका व चीन के बीच ट्रेड वार की है। अमेरिका चीन को आधिकारिक रूप से धोखेबाज यानी (करेंसी मैन्युपुलेटर) घोषित करते-करते रुक गया है। चीनी युआन का तूफान इतना विनाशक है कि उसने अमेरिकी बाजार से रोजगार खींचकर अमेरिका के खातों में भारी व्यापार घाटा भर दिया है। पाल क्रुगमैन जैसे अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि दुनिया के बाजार में छाया 'मेड इन चाइना' चीन की मौद्रिक धोखेबाजी का उत्पाद है। सस्ते युआन के सहारे चीन दुनिया के अन्य व्यापारियों को बाजार से दूर खदेड़ रहा है। अमेरिकी संसद में चीन के इस मौद्रिक खेल के खिलाफ कानून लाने की तैयारी चल रही है। अमेरिका के वित्त मंत्री गेटनर, हू जिंताओ को समझाने की कोशिश में हैं। क्योंकि करेंसी मैन्युपुलेटर के खिताब से नवाजे जाने के बाद चीन के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी। वैसे बाजार को महक लग रही है कि शायद चीन अपनी इस मारक कमजोरी को कुछ हद तक दूर करने पर मान भी सकता है।
बाजारबली की मारक दुर्बलता
चीन को यह बात दशकों पहले समझ में आ गई थी कि कूटनीति और समरनीति की दुनिया भले ही ताकत की हो, लेकिन बाजार की दुनिया में कमजोर रहकर ही दबदबा कायम होता है। यानी कि निर्यात करना है और दुनिया के बाजारों को अपने माल से पाट कर अमीर बनना है तो अपनी मुद्रा का अवमूल्यन ही अमूल्य मंत्र है। 1978 में अपने आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही चीन ने निर्यात का मैदान मारने के लिए मुद्रा अवमूल्यन के प्रयोग शुरू कर दिए थे। आठवें दशक में चीन का निर्यात बुरी तरह कमजोर था। सस्ती मुद्रा का विटामिन मिलने के बाद यह चढ़ने और बढ़ने लगा। इसे देख कर अंतत: 1994 में एक व्यापक बदलाव के तरह चीन ने डालर व युआन की विनिमय दर को स्थिर कर दिया, जो कि इस समय 6.82 युआन प्रति डालर पर है। चीन का युआन, डालर व यूरो की तरह मुक्त बाजार की मुद्रा नहीं है। इसकी कीमत चीन के व्यापार की स्थिति या मांग-आपूर्ति पर ऊपर नीचे नहीं होती, बल्कि चीन सरकार इसका मूल्य तय करती है, जिसके पीछे एक जटिल पैमाना है। चीन की सरकार बाजार में डालरों की आपूर्ति को बढ़ने नहीं देती। चीनी निर्यातक जो डालर चीन में लाते हैं उन्हें चीन का केंद्रीय बैंक खरीद लेता है, जिससे युआन डालर के मुकाबले कम कीमत पर बना रहता है। अमेरिका का आरोप है कि चीन अपने यहां उपभोग को रोकता और बचत को बढ़ावा देता है, जिससे चीन के बाजारों में अमेरिकी माल की मांग नहीं होती, लेकिन अमेरिकी बाजार में सब कुछ मेड इन चाइना नजर आता है। अमेरिका का यह निष्कर्ष उसके व्यापार के आंकड़ों में दिखता है। पिछले साल चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 227 अरब डालर था, जो अभूतपूर्व है। चीन ने अमेरिका को 296 अरब डालर का निर्यात किया, जबकि अमेरिका से चीन को केवल 70 अरब डालर का निर्यात हो सका। चीन का विदेशी मुद्रा भंडार भी इसका सबूत है कि जो पिछले एक दशक में पूरी दुनिया में जबर्दस्त निर्यात के सहारे 2,500 अरब डालर बढ़ चुका है और चीन के सकल घरेलू उत्पादन का 50 फीसदी है। दुनिया के सबसे बडे़ बाजार अमेरिका से साथ व्यापार संतुलन पक्ष में, इतना विशाल विदेशी मुद्रा भंडार और दुनिया एक तरफ मगर युआन की दर एक तरफ वाली नीति। छोटे निर्यात प्रतिस्पर्धी युआन की आंधी में कहां टिकेंगे? ....चीन ने दुर्बल मुद्रा से दुनिया के बाजारों को रौंद डाला है।
महाबली की बेजोड़ विवशता
महाबली इस समय ड्रैगन के जादू में बुरी तरह उलझ गया है। चीन इस महाबली को कर्ज से भी मार रहा और व्यापार से भी। अमेरिका के अर्थशास्त्री क्रुगमैन का हिसाब कहता है कि चीन के मौद्रिक खेल के कारण हाल के कुछ वषरे में अमेरिका करीब 14 लाख नौकरियां गंवा चुका है। उनके मुताबिक चीन अगर युआन को लेकर ईमानदारी दिखाता तो दुनिया की विकास दर पिछले पांच छह सालों में औसतन डेढ़ फीसदी ज्यादा होती। चीन ने सस्तंी मुद्रा से अन्य देशों की विकास दर निगल ली। अमेरिकी सीनेटर शुमर व कुछ अन्य सांसद चीन को मौद्रिक धोखेबाज घोषित करने और व्यापार प्रतिबंधों का विधेयक ला रहे हैं। अमेरिका के वित्त विभाग को बीते सप्ताह अपनी रिपोर्ट जारी करनी थी जिसमें चीन को मौद्रिक धोखेबाज का दर्जा मिलने वाला था, लेकिन अंतिम मौके पर रिपोर्ट टल गई। .. टल इसलिए गई क्योंकि महाबली बुरी तरह विवश है। चीनी युआन की कमजोर ताकत बढ़ाने में अमेरिका की बड़ी भूमिका है। चीन जो डालर एकत्र कर रहा है, उनका निवेश वह अमेरिका के बांडों व ट्रेजरी बिलों में करता है। यह निवेश इस समय 789 अरब डालर है, जो कि अमेरिकी सरकार के बांडों का 33 फीसदी है। दरअसल अमेरिका के लोगों ने बचत की आदत छोड़ दी है। सरकार कर्ज पर चलती है जो कि बांडों में चीन के निवेश के जरिए आता है। अगर चीन निवेश न करे तो अमेरिका में ब्याज दरें आसमान छूने लगेंगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मौद्रिक प्रवाह का पहिया इस समय चीन से घूमता है। अमेरिका के वित्तीय ढांचे में चीन के इस निवेश के अपने खतरे हैं, सो अलग लेकिन अगर मौद्रिक धोखेबाजी की डिग्री मिलने के बाद चीन ने निवेश रोक दिया तो चचा सैम के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी। लेकिन अगर अमेरिका युआन की कमजोरी को चलने देता है तो अमेरिका के उद्योग ध्वस्त हो जाएंगे। ... अमेरिका के लिए कुएं और खाई के बीच एक को चुनना है।
दुनिया में दोहरा असमंजस
पांच छह साल पहले मुद्राओं की कीमतों को मोटे पर अंदाजने के लिए एक बिग मैक थ्योरी चलती थी, जिसमें दुनिया के प्रमुख शहरों में बर्गर की तुलनात्मक कीमत को डालर में नापा जाता था। तब भी युआन सबसे अवमूल्यित और स्विस फ्रैंक अधिमूल्यित मुद्रा थी। लेकिन अब बात बर्गर के हिसाब जितनी आसान नहीं है, बल्कि ज्यादा पेचीदा है। चीन के लिए दस फीसदी व्यापार बढ़ने का मतलब है कि अमेरिका के रोजगारों में दस फीसदी की कमी, लेकिन अगर चीन अपने युआन या आरएमबी को 25 फीसदी महंगा करता है तो उसे अपनी 2.15 फीसदी जीडीपी वृद्घि दर गंवानी होगी। दुनिया को उबारने में चीन का बड़ा हाथ है, इसलिए यह गिरावट उन देशों को भारी पड़ेगी जो मंदी से परेशान हैं और चीन उनका बड़ा बाजार है। इन देशों में आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड प्रमुख होंगे। इस सबके बाद भी दुनिया में यह मानने वाले बहुत नहीं है कि ताकतवर युआन महाबली की समस्याएं हल कर देगा। अमेरिका में बचत शून्य है और निर्यात ध्वस्त। जिसे ठीक करने में युआन की कीमत की मामूली भूमिका होगी। अलबत्ता इतना जरूर है कि भारत, ताईवान, कोरिया, मलेशिया जैसों को बाजारबली चीन की प्रतिस्पर्धा से कुछ राहत मिल जाएगी।
दुनिया का सबसे सफल युद्ध वह है, जिसमें शत्रु को बिना लड़े पराजित कर दिया जाता है। ..यही तो कहा था ढाई हजार साल पहले चीन के प्रख्यात रणनीतिकार सुन त्जू ने। चीन ने दुनिया के बाजार को बड़ी सफाई के साथ बिना लड़े जीत कर सुन त्जू को सही साबित कर दिया। पूरी दुनिया युआन की खींचतान का नतीजा जानने को बेचैन है। नतीजा वक्त बताएगा, लेकिन दिख यह ही रहा है कि बाजार में खेल के नियम फिलहाल बीजिंग से तय होंगे। चीन अपनी शर्तो पर ही युआन के तूफान पर लगाम लगाएगा, क्योंकि भारी कर्ज और ध्वस्त वित्तीय तंत्र के कारण दुनिया के महाबलियों की तिजोरियां तली तक खाली हैं, जबकि चीन अपनी कमजोर मुद्रा के साथ इस समय महाशक्तिशाली है। दुनिया का ताजा आर्थिक विकास मेड इन चाइना है, जबकि दुनिया का ताजा आर्थिक विनाश मेड इन अमेरिका और यूरोप।.. जाहिर है कि दुनिया मूर्ख नहीं है अर्थात वह विकास को ही चुनेगी, यानी चीन की ही शर्ते सुनेगी।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच, सातोरी)