Monday, January 17, 2011

हाकिम जी, सरकार खो गई !

अथार्थ
कितने बेचारे हैं हमारे हाकिम!.. एक मंत्री कहते हैं बाबा माफ करो, हमसे नहीं थमती महंगाई।.. बोरा भर कानून और भीमकाय अफसरी ढांचे वाली सरकार की यह मरियल विकल्पहीनता तरस के नहीं शर्मिंदगी के काबिल है। तो एक दूसरे हाकिम महंगाई से कुचली जनता को निचोड़ने के लिए तेल कंपनियों को खुला छोड़ देते है कोई चुनाव सामने जो नहीं है ! …. करोड़ो की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार की यह अभूतपूर्व निर्ममता उपेक्षा के नहीं क्षोभ के काबिल है। एक तीसरे हाकिम को संवैधानिक संस्था (सीएजी) की वह रिपोर्ट ही फर्जी लगती है, जिस के आधार पर मंत्री, संतरी और कंपनियों तक को सजा दी जा चुकी है।... सरकार की यह बदहवासी हंसी के नहीं हैरत के काबिल है। सरकार के मंत्री अब काम नहीं करते बल्कि लड़ते हैं, कैबिनेट की बैठकों में उनके झगड़े निबटते हैं और जिम्मेदार महकमे अब एक दूसरे को उनकी सीमायें (औकात) दिखाते हैं सरकार में यह बिखराव आलोचना के नहीं दया के काबिल है। इतनी निरीह, निष्प्रभावी, बदहवास, बंटी, बिखरी और नपुंसक गवर्नेंस या सरकार आपने शायद पहले कभी नहीं देखी होगी। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर सेना और सुप्रीम कोर्ट से लेकर सतर्कता आयोग तक देश की हर उच्च संस्था की साख इतना वीभत्स जुलूस भी पहली बार ही निकला है और इतना दिग्भ्रमित, निष्प्रयोज्य, नगण्य और बेअसर विपक्ष भी हमने पहली बार देखा है। ...यह अराजकता अद्भुत है। हम बेइंतिहा बदकिस्म्त हैं। हमारी सरकार कहीं खो गई है।
गलाघोंट गठबंधन
राजनीति में युवा उम्मीद (?) राहुल गांधी कहते हैं कि महंगाई रोकने में गठबंधन आड़े आता है। अभी तक तो हम गठबंधन की राजनीति का यशोगान सुन रहे थे। विद्वान बताते थे कि गठबंधन एक दलीय दबदबे को संतुलित करते हैं और क्षेत्रीय राजनीति को केंद्र में स्वर देते हैं। सुनते थे कि भारत ने गठबंधन की राजनीति का सुर साध लिया है और अब राज्यों की सरकारों को भी यह संतुलित रसायन उपलबध हो गया है। लेकिन महंगाई थामने में बुरी तरह हारी कांग्रेस को गठबंधन गले की फांस लगने लगा। गठबंधन की राजनीति के फायदों का तो पता नहीं अलबत्ता महंगाई और भ्रष्टाचार से क्षतविक्षत जनता से यह देख रही है कि राजनीतिक गठजोड़ अब लाभों के

Monday, January 10, 2011

हमने कमाई महंगाई !

अर्थार्थ
पने खूब कमाया इसलिए महंगाई ने आपको नोच खाया !!...हजम हुई आपको वित्त मंत्री की सफाई ?...नहीं न? हो भी कैसे। हम ताजे इतिहास की सबसे लंबी और जिद्दी महंगाई का तीसरा साल पूरा कर रहे हैं और सरकार हमारे जखमों पर मिर्च मल रही है। हमारी भी खाल अब दरअसल मोटी जो चली है क्यों कि पिछले दो ढाई वर्षों में हमने हर रबी-खरीफ, होली-ईद, जाड़ा गर्मी बरसात, सूखा-बाढ़, आतंक-शांति, चुनाव-घोटाले और मंदी-तेजी महंगाई के काटों पर बैठ कर शांति से काट जो चुके है। वैसे हकीकत यह है कि उत्पादन व वितरण का पूरा तंत्र अब पीछे से आई महंगाई को आगे बांटने की आदत डाल चुका है। उत्पादक, निर्माता, व्यापारी और विक्रेता महंगाई से मुनाफे पर लट्टू हैं नतीजतन बेतहाशा मूल्य वृद्धि अब भारत के कारोबार स्थायी भाव है। यह सब इसलिए हुआ है क्यों कि पिछले दो वर्षों में अर्थव्यंवस्था के हर अहम व नाजुक पहलू पर बारीकी और नफासत के साथ महंगाई रोप दी गई है। कहीं यह काम सरकारों ने जानबूझकर किया और तो कहीं इसे बस चुपचाप हो जाने दिया है। लद गए वह दिन जब महंगाई मौसमी, आकस्मिक या आयातित ( पेट्रो मूल्य) होती थी अब महंगाई स्थायी, स्वाभाविक, सुगठित और व्यवस्थागत है। छत्तीस करोड़ अति‍ निर्धनों, इतने ही निर्धनों और बीस करोड़ निम्न मध्य‍मवर्ग वाले इस देश में कमाई से महंगाई बढ़ने का रहस्य तो सरकार ही बता सकती है आम लोग तो बस यही जानते हैं कि महंगाई उनकी कमाई खा रही है और लालची व्यापारियों व संवेदनहीन सत्ता तंत्र की कमाई की बढ़ाने के काम आ रही है।
कीमत बढ़ाने का कारोबार
महंगाई की सूक्ष्म कलाकारी को देखना जरुरी है क्यों कि निर्माता, व्यापारी और उपभोक्तां इसके टिकाऊ होने पर मुतमइन हैं। जिंस या उत्पाद को कुछ बेहतर कर उसका मूल्य यानी वैल्यूं एडीशन आर्थिक खूबी या सद्गुण है लेकिन किल्लत वाली अर्थव्यवस्‍थाओं में यह बुनियादी जिंसों की कमी कर देता है। भारत में खाद्य उत्पाद इसी दुष्‍चक्र के शिकार हो चले हैं क्यों कि बुनियादी जिंसों की पैदावार पहले ही मांग से बहुत कम है। संगठित रिटेल ने बहुतों को रोजगार और साफ सुथरी शॉपिंग का मौका भले ही दिया हो लेकिन वह इसके बदले वह

Monday, January 3, 2011

ग्रोथ की सोन चिडि़या

अर्थार्थ 2011
दुनिया अपने कंधे सिकोड़ कर और भौहें नचाकर अगर हमसे यह पूछे कि हमारे पास डॉलर है ! यूरो है ! विकसित होने का दर्जा है! बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं ! ताकत हैं! हथियार हैं! दबदबा है !!.... तुम्हा़रे पास क्या् है ??? ... तो भारत क्या कहेगा ? यही न कि कि (बतर्ज फिल्म दीवार) हमारे पास ग्रोथ है !!! भारत के इस जवाब पर दुनिया बगले झांकेगी क्यों कि हमारा यह संजीदा फख्र और सकुचता हुआ आत्मविश्वास बहुत ठोस है। ग्रोथ यानी आर्थिक विकास नाम की बेशकीमती और नायाब सोन चिडि़या अब भारत के आंगन में फुदक रही है। यह बेहद दुर्लभ पक्षी भारत की जवान (युवा कार्यशील आबादी) आबो-हवा और भरपूर बचत के स्वा्दिष्ट चुग्गे पर लट्टू है। विकास, युवा आबादी और बचत की यह रोशनी अगर ताजा दुनिया पर डाली जाए एक अनोखी उम्मीद चमक जाती है। अमेरिका यूरोप और जापान इसके लिए ही तो सब कुछ लुटाने को तैयार हैं क्यों कि तेज विकास उनका संग छोड़ चुका है, बचत की आदत छूट गई है और आबादी बुढ़ा ( खासतौर पर यूरोप) रही है। दूसरी तरफ भारत ग्रोथ, यूथ और सेविंग के अद्भुत रसायन को लेकर उदारीकरण के तीसरे दशक में प्रवेश

Thursday, December 30, 2010

वर्षार्थ - बेरहम वक्त : मरहम वक्त

क्त की शाख से दस का पत्ता टूट कर गिर रहा है। कलेवर बदलेगा या नहीं क्या पता मगर कैलेंडर तो बदलेगा ही। दो हजार दस का पहला सूरज को देखकर किसने सोचा कि वक्ते इतना बेरहम होगा कि अर्थव्यवस्थायें,संस्थायें,साख और लोग ...बस घाव गिनते रह जाएंगे। काल का गाल बड़ा विकराल है और समय की अपनी एक निपट अबूझ,अप्रत्याशित और शाश्‍वत गति है। इसलिए तारीख बदलने से अतीत कभी नहीं मरता। वह तो वर्तमान के तलवे में कांटे की तरह धंसा है। दस की चोटों से ग्यारह जरुर लंगड़ायेगा। मगर  भरोसा रखिये, यही वक्त उन चोटों पर मरहम भी लगायेगा।

वक्त सौ मुंसिफों का मुंसिफ है, वक्त आएगा इंतजार करो।।

वक्त की बेरहमी को याद करने के लिए और उम्मीद के मरहम तलाशने के लिए प्रस्तु्त है पिछले एक साल के अर्थार्थ का चुनिंदा वर्षार्थ। ( चुनना जरा मुश्किल था। ... निज कवित्त केहि लाग न नीका.... लेकिन ब्लॉगर से मिले पेजव्यूज और पोस्ट के आंकड़ों ने मदद की। मेल-ओ-मोबाइल से आई प्रतिक्रियाओं ने भी रास्ता दिखाया। यह संकलन सबसे ज्यादा पढ़े गए और संदर्भ से दृष्टि से अहम लेखों का संचयन है।)

आप सब अपने अपने स्नेह और आशीष से अर्थार्थ को पोसते रहे हैं। आशीर्वाद बनाये रखियेगा। बड़ा संबल मिलता है। निराला जी ने लिखा है ... पुन: सवेरा एक बार फेरा है जी का... वक्त का फेरा      ग्यारह का सवेरा लेकर दरवाजे पर पहुंचा है। दरवाजा खोलिये! स्वागत करिये!
 2011 सुखद, सुरक्षित और मांगलिक हो।

अर्थार्थ का वर्षार्थ

नीतीश होने की मजबूरी ... जाति प्रमाण पत्रो की राजनीति बनाम आय प्रमाण पत्रों की राजनीति। ब्लॉगर रेटिंग में यह सबसे ज्यादा पढ़ा गया लेख।


निवाले पर आफत ... नए साल पर बर्फ से ढंका न्यूयार्क बंद है। इस साल मौसम बड़ा बेरहम रहा। रुस की आग, यूरोप की ठंड, पाकिस्तान की बाढ़ से रोटी चौपट हो गई। ब्लॉगर की रेटिंग के अनुसार सबसे ज्यादा पढ़ा गया लेख।


दो नंबर का दम .. इस साल चीन, अमेरिका के बाद, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यसवस्था हो गया। हमारे पूर्वी पड़ोसी की ताकत अकूत है। ब्लॉगर रेटिंग के आधार पर।
साथ में पढ़ें चीन है तो चैन कहां रे और चाइनीज चेकर भी




दाग और दुर्गंध की दोस्ती.. हमारे यहां कार्बाइड उनके यहा बीपी। मगर दोहरे पैमाने। कार्बाइड माफ और मैक्सिको खाड़ी में पर्यावरण विनाश रचने वाली बीपी का टेंटुआ दबाकर हर्जाने की वसूली। यह भी ब्लॉगगर की रेटिंग के आधार पर।


मेहरबानी आपकी .. भारतीय उपभोक्ताओ की शौर्य गाथा। महंगाई के बावजूद खर्च का जोखिम। अपनी पीठ तो थपथपाइये। स्रोत ब्लॉ.गर रेटिंग।


जागते रहे.. वेदांत पर सख्ती। ताकतवर स्वयंसेवी संगठनों का उभार। एक नए किस्म की सामाजिक आर्थिक सक्रियता। स्रोत ब्लॉगर रेटिंग।


सियासत के सलीब ... सजा की सियासत। जनता गुस्सायी तो सरकारें दोषियों से याराना छोड़ सजा देने निकल पड़ीं। बैंक सूली पर टंगे। सियासत का दोहरा चेहरा। .. स्रोत ब्लॉगर रेटिंग।


फजीहत का गोल्ड मेडल.. बदनामी का कॉमनवेल्थ ... जलवा दिखाने के लिए खेल में जलालत। हमारे नेताओं को फजीहत कराने के कायदे सिखाने का स्कूल खोलना चाहिए। स्रोत ब्लॉगर रेटिंग।

संकटों के नए संसकरण ... ग्रीस के डूबने के बाद बात खत्म- नहीं हुई। नई संकट कथाओं का खुलासा। संयोग कि इस स्तंकभ के कुछ दिनों बाद आयरलैंड में ट्रेजडी का शो शुरु हो गया।



अमेरिका यूरोप संकट  समग्र

डूबे तो उबरेंगे ... यूरोप और यूरो के डूबने की बात अप्रैल में .. साल बीतते आशंकायें असलियत में तब्दील हो गईं

ऐसा भी हो सकता है .... अमेरिका और ब्रिटेन में ऋण संकट के पसरने का आकलन मई में। वक्त उसी तरफ ले जा रहा है1


महात्रासदी का ग्रीक कोरस... ग्रीस के डूबने की त्रासदी। अर्थार्थ में 2009 से ग्रीस का पीछा कर रहा था।


शाएलाकों से सौदेबाजी ... संप्रभु कर्ज संकट यानी देशों के दीवालिया होने की विभीषिका। दर्द भरा इतिहास और जटिल वर्तमान


पछतावे की परियोजनायें ... संकटों का प्रायश्चित। सरकारी संपत्तियों की बिक्री। नए टैक्सों से जनता की आफत


सिद्धांतों का शीर्षासन ... एक संकट और कई सिद्धांत सर के बल। यूरोप लोक कल्या.णकारी राज्ये धराशायी


घट घट में घाटा ... घाटों का अभूतपूर्व जमघट। पूरी दुनिया की सरकारों के बजटों में भयानक घाटे।



मुद्रास्फीति की महादशा ... अमेरिका में डॉलर छपाई मशीन के खतरे। हाइपरइन्फ्लेशन का डर



साख नहीं तो माफ करो .... महाबलशाली बांड बाजार की यूरोप व अमेरिका को घुड़की



बजट के रंग

आपके जमाने का बजट या बाप के जमाने का ... बजटों का अतीत और वर्तमान, प्रौढ़ लोकतंत्र जवान अर्थव्यवस्था


बजट में जादू है ... बजटों में बहुत कुछ खो जाता है। जो मिलता है वह मिलता नजर नहीं आता।


बजट की बर्छियां ... बजट बहुत चुभते हैं। कई अदृश्य कीलें होंती हैं बजट में।


वाह क्या गुस्सा है .. वित्त मंत्री गुस्साये तो खर्च के अभियान जमीन पर आए।



बुरा न मानो बजट है ... बजट की होली। वित्तत मंत्री की शानदार ठिठोली


बजट की षटपदी ... एक शोधपूर्ण आयोजन.. बजट में कर्ज और खर्च की वास्तhविकता। करों के पुराने चाबुक और खर्च के अंधे कुएं। इस श्रंखला को काफी पढ़ा और डाउनलोड किया गया।



लूट और झूठ का राज

झूठ के पांव ... सूचनायें छिपाने का कारोबार। क्रियेटिव अकाउंटिंग। अपारदर्शिता का कारोबारी साम्राज्य


भ्रष्टाचार का मुक्त बाजार .. उदारीकरण से बढ़ा लूट का बाजार। निजीकरण ने दी नेताओं को अकूत ताकत। कंपनियां यानी देने वाले हजारों हाथ।


पर्दा जो उठ गया .. सच बोलने की नई परंपरायें। संदर्भ विकीलीक्स। झूठ की भरमार के बीच सच का महंगा बाजार

डुबाने वाले किनारे (बैंक)

ऊंटों के सर पहाड़ .. दुनिया को नचाने वाली वित्तीय संस्था ओं के बुरे दिन। बैंकों पर भारी टैक्सों की तलवार

इंस्पेक्टर राज इंटरनेशनल .. कठोरतम वित्तीय कानूनों का दौर। बैंकिंग उद्योग बतायेंगे कि कैसे मरेंगे यानी प्रॉविजन ऑफ फ्यूनरल प्ला्न ( अमेरिका का नया वित्तीय कानून)



हमको भी ले डूबे ... डूबने की फितरत यानी बैंकों की आदत। आयरलैंड से लेकर अमेरिका तक बैंकों को श्रद्धांजलि



....कुछ अलग से

बस इतना सा ख्वाब है... यह 2010 का पहला लेख था।


बीस साल बाद ... उदारीकरण के दो दशक के बाद भी कहां कहा .. जहां के तहां


भूल चूक लेनी देनी ... 2010 का अंतिम आलेख ... बढ़ती लागत, घटती साख और असंतुलित विकास का तकाजा



---------



Monday, December 27, 2010

भूल-चूक, लेनी-देनी

अर्थार्थ
शुक्र है कि हम सुर्खियों से दूर रहे। आर्थिक दुनिया ने दस के बरस में जैसी डरावनी सुर्खियां गढ़ी उनमें न आने का सुकून बहुत गहरा है। करम हमारे भी कोई बहुत अच्छेह नहीं थे। हमने इस साल सर ऊंचा करने वाली सुर्खियां नहीं बटोरीं लेकिन ग्रीस, आयरलैंड, अमेरिका के मुकाबले हम, घाव की तुलना में चिकोटी जैसे हैं। अलबत्ता इसमें इतराने जैसा भी कुछ नहीं है। वक्त, बड़ा काइयां महाजन है। उसके खाते कलेंडर बदलने से बंद नही हो जाते हैं बल्कि कभी कभी तो उसके परवाने सुकून की पुडि़या में बंध कर आते हैं। मंदी व संकटों से बचाते हुए वक्त हमें आज ऐसी हालत में ले आया है जहां गफलत में कुछ बड़ी नसीहतें नजरअंदाज हो सकती हैं। दस के बरस बरस का खाता बंद करते हुए अपनी भूल चूक के अंधेरों पर कुछ रोशनी डाल ली जाए क्यो कि वक्त की लेनी देनी कभी भी आ सकती है।
लागत का सूद
सबसे पहले प्योर इकोनॉमी की बात करें। भारत अब एक बढती लागत वाला मुल्क हो गया है। पिछले कुछ वर्षों की तेज आर्थिक विकास दर ने हमें श्रम (लेबर कॉस्ट) लागत को ऊपर ले जाने वाली लिफ्ट में चढ़ा दिया है। सस्ता श्रम ही तो भारत की सबसे बड़ी बढ़त थी। वैसे इसमें कुछ अचरज नहीं है क्यों कि विकसित होने वाली अर्थव्यरवस्थाओं में श्रम का मूल्यं बढ़ना लाजिमी है। अचरज तो यह है कि हमारे यहां लागत हर तरफ से बढ़