Monday, April 18, 2011

डॉलर-राज से बगावत

मौद्रिक बाजार के बादशाह के खिलाफ बगावत हो गई है। दुनिया की नई आर्थिक ताकतों (ब्रिक्सं) ने मिलकर अमेरिकी डॉलर के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया है और यूरो सेना को सदमें में डाल दिया है। विकसित दुनिया को इसकी उम्मीद नहीं थी ब्राजील,रुस,भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका यह अनोखा गुट अपने जन्म के दो साल ( 2009 में येकतरिनबर्ग से शुरुआत) के भीतर अपनी मुद्राओं में आपसी कारोबार का अद्भुत पैंतरा चल देगा। मतलब यह कि दुनिया के उभरते बाजारों से अमेरिकी डॉलर अब लगभग बेदखल हो जाएगा। 4.6 ट्रिलियन डॉलर के साझा उत्पादन वाले इन नए सूरमाओं ने यह मुनादी कर दी है कि उभरती अर्थव्यवस्थायें अमेरिकी डॉलर की पालकी ढोने को तैयार नहीं है। ब्रिक्स ने दरअसल दुनिया को एक नई रिजर्व करेंसी देने की बहस को जड़, जमीन व आसमान दे दिया है।
डगमग डालर
विश्व के सरकारी विदेशी मुद्रा भंडारों में 61 फीसदी अमेरिकी डॉलर हैं जबकि 85 फीसदी विदेशी विनिमय सौदे, 45 फीसदी अंतरराष्ट्रीय निवेश और लगभग 50 फीसदी निर्यात डॉलर में होता है। यानी डॉलर बेशक दुनिया रिजर्व करेंसी व मौद्रिक प्रणाली का आधार है। डॉलर को यह ताज किस्मत से मिला था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की मुद्रा धराशायी थी और दुनिया का 50 फीसदी उत्पादन अमेरिका के हाथ में था, इसलिए डॉलर कारोबार की प्रमुख मुद्रा बन गया और क्रमश: अपने वित्तीय बाजारों की गहराई और मजबूत वैश्विक मुद्राओं की कमी ने इसे दुनिया की रिजर्व करेंसी बना दिया। विकसित होती दुनिया को ऐसी मुद्रा चाहिए थी जो

Monday, April 11, 2011

जीत के जोखिम

मोटी खालों में जुंबिश मुबारक ! कानों पर जूं रेंगना मुबारक ! सन्नाटे का टूटना मुबारक! सबसे ज्यांदा मुबारक हो वह मौका जो बड़ी मुश्किल से बना है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बनते माहौल और घुटनों के बल सरकार को देखना अनोखा है। मगर ठहरिये, इस जीत में  एक जोखिम है!!! व्य वस्था बदलने की यह बहस व्यक्तियों को चुनने की बहस में सिमट सकती है। हमें किसी छोटे से बदलाव से भरमाया भी जा सकता है क्यों कि भ्रष्टाचार हद दर्जे का चालाक, पेचीदा और पैंतरेबाज दुश्मन है। भ्रष्टा चार से लड़ाई ही का शास्त्र् ही उलटा है, यहां व्यवस्था के खिलाफ खड़े कुछ लोग नहीं बल्कि कुछ भ्रष्ट व्यक्तियों से निरंतर लड़ने वाली एक व्यवस्था की दरकार है जिसमें लोकपाल बस छोटी सी एक कड़ी मात्र है। लोहा गरम है... भ्रष्टाचार के खिलाफ रणनीति की बहस राजनीति, सरकार, उद्योग, कंपनी, स्वयंसेवियों सभी में पारदर्शिता को समेटती हुए होनी चाहिए ताकि मजबूत व्यवस्था बन सकें। इस लड़ाई में हम दुनिया में अकेले नहीं हैं। विश्‍व के देश जतन के साथ सिस्टम गढ़ कर भ्रष्टाचार से जूझ रहे है क्यों कि भ्रष्टाचार एक दिन का आंदोलन या एक मुश्त आजादी नहीं बल्कि रोजाना की लड़ाई है।
मोर्चे और रणनीतियां
आइये भ्रष्टा चार के खिलाफ रणनीति की बहस को दूर तक ले चलें। भ्रष्टा‍चार से लड़ती दुनिया लगातार नई तैयारियों के साथ इस दुश्मन को घेर रही है। तजुर्बे बताते हैं कि जीत की गारंटी के लिए राजनीति, कानून, अदालत, जन पहरुए, तरह तरह की आजादी, खुलापन सबका सक्रिय होना जरुरी है। मगर भारत तो इस लड़ाई में नीतिगत और रणनीतिक तौर पर सिरे से दरिद्र है। लिथुआनिया, रोमानिया जैसों के पास भी

Monday, April 4, 2011

खुशी का हिसाब-किताब

दो अप्रैल की रात ग्यारह बजे अगर भारत के किसी भी शहर में अगर कोई प्रसन्नता का राष्ट्रीय उत्पादन नाप रहा होता तो हम उस समय दुनिया में खुशी सबसे बड़े उत्पादक साबित होते। यह सौ टंच सामूहिक खुशी थी यानी कि नेशनल हैपीनेस इंडेक्स में अभूतपूर्व उछाल। हैपीनेस इंडेक्‍स या सकल राष्ट्रीय प्रसन्ऩता जैसे शब्द जीत के जोश में नहीं गढ़े गए है बल्कि हकीकत में पूरी दुनिया प्रसन्ऩता की पैमाइश को विधियों और आंकड़ों की बोतल में कैद करने का बेताब है। कसरत कठिन है क्यों कि समाज की प्रसन्नता का यह शास्त्र बड़ा मायावी है, आय व खर्च के आर्थिक आंकड़ों में इसका आधा ही सच दिखता है। प्रसन्न समाज का बचा हुआ रहस्य गुड़ खाये गूंगे की खुशी की तरह गुम हो जाता है। प्रसन्नता,  दरअसल आनंद के गहरे दार्शनिक स्तरों से शुरु होकर, समृद्धि, प्रगति के आर्थिक पैमानों, सुविधाओं के सामाजिक सरोकारों और संतुष्टि व समर्थन के राजनीतिक मूल्यों तक फैली है जिसका गुप्त मंत्र साधने की कोशिश अब सरकारें कर रही हैं। मनोविज्ञान, समाजशास्त्र , अर्थशास्त्र, सांख्यिकी, जन नीति व प्रशासन और राजनीति सबको एक सार कर सामूहिक प्रसन्न्ता को अधिकतम बनाने वाला फार्मूला तैयार करने की कोशिश शुरु हो चुकी है। इस समय आधा दर्जन से अधिक बड़े देश अपने लोगों की प्रसन्नता का स्तर ठोस ढंग से चाहते हैं। क्यों कि हर व्यक्तिगत, सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक उपक्रम का अंतिम मकसद तो एक संतुष्ट और प्रसन्न‍ समाज ही है और यह कतई जरुरी नहीं कि प्रसन्न समाज बहुत समृद्ध  भी हो।
प्रसन्‍नता का अर्थशास्त्र
आर्थिक समृद्धि, खुशी की गारंटी नहीं है यह बहस तो तब से ही शुरु हो गई थी जब विश्‍व में पहली बार राष्ट्रींय आय की गणना शुरु हुई। 1930 की महामंदी के बाद अमेरिका को राष्ट्रीय आय नापने का ढांचा देने वाले प्रख्यात अर्थविद सिमोन कुजनेत्स ने ही कहा था कि किसी देश की खुशहाली केवल राष्ट्रीय आय के आंकड़ों से नहीं नापी जा सकती। मगर दुनिया 1970 अर्थशास्त्री रिचर्ड ईस्टंरलिन के सनसनीखेज खुलासे के बाद

Monday, March 28, 2011

सेंडाई का साया

ह दूसरी सुनामी थी जो सेंडाई में जमीन डोलने और पगलाये समुद्र की प्रलय लीला के ठीक सात दिन बाद उठी। क्षत विक्षत और तबाह जापान की मुद्रा येन पर वित्ती य बाजारों के सट्टेबाज सुनामी की मानिंद चढ़ दौड़े। जबर्दस्त मांग से येन रिकार्ड ऊंचाई पर यानी जापान के निर्यात को गहरा धक्का , त्रासदी से उबरने की संभावनाओं पर ग्रहण और शेयर बाजार जमीन पर। अंतत: ग्याकरह साल बाद वित्तीय बाजारों में एक अनोखी घटना घटी। सात सबसे अमीर देशों (जी 7) के बैंकों को 25 अरब येन बेचकर जापानी मुद्रा को उबारना पड़ा। ... इस एकजुटता को सलाम! मगर वित्ती़य बाजारों ने अपने इरादों का इशारा कर दिया है। लंबी मंदी, बुढ़ाती आबादी और लंबी राजनीतिक अस्थिरता (चार साल में पांच प्रधानमंत्री) वाले जापान को लेकर बाजार बुरी तरह बेचैन है। हादसे के बाद उभरे तथ्यों और नाभिकीय संयंत्रों की हालत देखने के बाद ऐसा मानने वाले बहुत हैं कि सब कुछ ठीक होने के अति आत्मोविश्वास में जापान ने अपनी सचाई दुनिया से छिपाई है। आधुनिक तकनीक से लदे फंदे देश की इस लाचारी पर दुनिया का झुंझलाना लाजिमी है क्यों कि पूरा विश्‍व अपनी वर्तमान और भविष्यअ में कई बेहद जरुरी चीजों के लिए जापान पर निर्भर है। त्रासदी से उबरने की दंतकथायें बना चुके जापान की जिजीविषा में इस बार दुनिया का भरोसा जम नहीं रहा है।
नियति या नियत
भरोसा हिलने की जायज वजह है, फटी हुई धरती ( भूगर्भीय दरारें), ज्वालामुखियों की कॉलोनी और भूकंपों की प्रयोगशाला वाले जापान में 55 न्यूक्लियर रिएक्टर होना आसानी से निगला नहीं जा सकता। तेल व गैस पर निर्भरता सीमित रखने और ऊर्जा की लागत घटाने के लिए जापान ने नाभिकीय ऊर्जा पर दांव लगाया था। लेकिन 1995 में करीब बीस हजार इमारतों और 6000 से जयादा लोगों को निगल जाने वाले कोबे के भयानक भूकंप के बाद भी जापान अगर अपने नाभिकीय संयंत्रों की भूकंपीय सुरक्षा को

Monday, March 14, 2011

हसन अली का स्वर्ग

अथार्थ
मुंबई की अदालत में मिंट चबा रहा हसन अली दरअसल भारत के कानून को चबा रहा था। हसन अली को जमानत देते हुए अदालत पूरी दुनिया को बता रही थी कि भारत की जांच एजेंसियों का डायनासोरी तंत्र अपने सबसे पुराने और मशहूर कर चोर व काले धन के सरगना के खिलाफ एक कायदे का मुकदमा भी नहीं बना सकता। दो माह पहले वित्त मंत्री बड़े भोलेपन के साथ विश्‍व को बता चुके हैं कि हसन अली के स्विस बैंक खाते तो खाली हैं। होने भी चाहिए, काले धन पर इतनी चिल्ल-पों के बाद के बाद कोई अहमक ही खातों में पैसा रखेगा। हसन अली हमारी व्यावस्था की  शर्मिंदगी का शानदार प्रतीक है। स्विस बैंक की गर्दन दबाकर अमेरिका अपने 2000 हसन अलियों का सच उगलवा लेता है और प्रख्यात टैक्स हैवेन केमैन आइलैंड का धंधा ही बंद करा देता है। फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के डपटने पर लीचेंस्टीन, वर्जिन आइलैंड पैसा व जानकारी समर्पित कर देते हैं लेकिन हसन अली का देश यानी भारत तो दुनिया में उन देशों में शुमार है, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में जिनका रिकार्ड संदिग्ध है क्यों कि भारत ने आज तक भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय संधि पर दस्तंखत नहीं किये हैं। इस संधि के बिना किसी कर स्वर्ग से जानकारी कैसे मिलेगी। दरअसल हसन अली ने जो छिपाया है उससे ज्यादा खोल दिया है वह कालेधन, कर चोरी, हथियारों की दलाली और वित्तीय जरायम से निबटने की हमारी क्षमताओं का नंगा सच उघाड़ रहा है। हसन अलियों के लिए भारत स्वर्ग यूं ही नहीं बन गया है।
हसन अली के मौके
एक्साइज इंस्पेक्टर का बेटा हसन अली भारत में सर्वसुलभ रास्तों पर चल कर काले धन दुनिया का सितारा बना है। काले धन के उत्पादन पर उपलब्धं टनों शोध व अध्ययनों के मुताबिक कर चोरी काले धन की पैदावार का सबसे बड़ा जरिया है। याद कीजिये भारत में तस्करी की दंतकथायें कर कानूनों के कारण ही बनी थीं। कर नियमों में स्थिरता और पारदर्शिता कर चोरी रोकती है। मगर भारत में तो हर वित्त मंत्री अपने हर बजट में कर कर व्यवस्था मनचाहे ढंग से कहीं भी