इतिहास से हम क्या सीखते हैं? यही न, कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा है। इतिहास दरअसल खुद को नहीं दोहराता बल्कि गलतियों का इतिहास स्वयं को दोहराता है। नहीं तो लेहमन ब्रदर्स सहित शताधिक बैंकों को गंवाने के बाद दुनिया बदल न जाती ? चौंकिये और झुंझलाइये! दुनिया ने 2008 की शुरुआत से लेकर अब तक शेयर बाजारों में 30 खरब डॉलर गंवाये हैं और घरों आदि अचल संपत्तियों में 11 खरब डॉलर का चूना लगा है। यह पूरा नुकसान दुनिया के जीडीपी यानी कुल आर्थिक उत्पादन का 75 फीसदी है। मगर रत्ती भर बदलाव दिखा है कहीं? दुनिया के मुल्कों ने तो उन कारणों का इलाज तक नहीं किया जिनके कारण यह विपदा फट पड़ी थी। बैंक व निवेश संस्थायें फिर उसी पुराने ढर्रे पर हैं। नियामक पहले की तरह लड़ रहे हैं। राजनेताओं के एजेंडे पर अब वित्तीय संकट के कारणों का इलाज है ही नहीं। यानी सब कुछ हस्ब-मामूल है। खैर मनाइये क्यों कि मंदी के बाद की दुनिया जोखिमों से भरपूर है।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ?
टू बिग टु फॉल .. यही तो मुहावरा इस्तेमाल करती थी न्यूयार्क की वाल स्ट्रीट, लेहमैनों जैसे नामचीन महाकाय निवेश बैंकों के बारे में जिन्हे वित्तीय संकट के सैलाब ने इतिहास के गटर में डाल दिया। अचरज इस बात पर नहीं कि संकट से पहले दुनिया यह समझती थी कि वित्तीय दिग्गज अपराजेय हैं, आश्चर्य इस पर है कि आज भी ऐसा ही माना जा रहा है। इसलिए ही तो सुधार के नाम पर दुनिया ने अपने बैंकों को और बड़ा कर दिया। मेरिल लिंच, बैंक ऑफ अमेरिका में घुस गया। अब बैंक ऑफ अमेरिका 2.7 खरब डॉलर की संपत्ति वाला भीमकाय वित्तीय संस्थान है। अमेरिका के वेल्स फार्गो ने 12.7 अरब डॉलर खर्च कर वाचोविया बैंक को निगल लिया। अमेरिका के केमिकल बैंक को चेज मैनहट्टन पचा गया तो यूरोप ड्रेसनर बैंक को ड्यूश बैंक। मंदी के बाद अमेरिका लेकर ऑस्ट्रेलिया तक और जापान से लेकर ब्राजील तक वित्तीय संस्थायें छोटी नहीं बल्कि बड़ी हुई हैं और वह भी संकट के मौके पर मिली सरकारी व केंद्रीय बैकों की मदद के सहारे।ध्यान दीजिये मेरिंल लिंच का उद्धार बैंक ऑफ अमेरिका ने अमेरिकी खजाने व फेड रिजर्व की कृपा से किया। दरअसल लेहमैनों, वाचोविया, फेनी मे आदि की बर्बादी के बाद दुनिया ने माना यह थी बड़ी वित्तीय संस्थाओं वाले मॉडल में जोखिम ज्यादा है क्यों कि इनकी बर्बादी बड़ी तबाही लाती है लेकिन सुधारों के नाम वित्तीय बाजारों के गले में और बड़े पत्थर बांध दिये गए। अब अगर किसी संकट में बैंक ऑफ अमेरिका डूबा तो तबाही देखकर दुनिया डर जाएगी।
संहार का सामान
इस मंदी में अगर आपने शेयर बाजार में पैसा गंवाया है या बाजार में रोजगार, तो आपका पूरा हक बनता है दुनिया के कर्णधारों से यह पूछने का कि मंदी के बाद क्या सुधरा है? अब तक तो वित्तीय दुनिया यह कायदे से जान गई है कि जटिल और हवाई वित्तीय उपकरणों ने उसे तबाह कर दिया लेकिन इन उपकरणों का इस्तेमाल कहीं बंद नहीं हुआ। सब कुछ वैसा ही है, खतरनाक, अपारदर्शी और विस्फोटक। वित्तीय जनसंहार के हथियारों के नाम से पारिभाषित वित्तीय डेरीवेटिव्स फलफूल रहे हैं। अपनी जेब संभालिये क्यों कि 2009 की दूसरी पहली छमाही तक अमेरिका के पांच बैंकों ने करीब 190 खरब डॉलर के डेरीवेटिव्स संजो रखे थे। यह घोर सट्टेबाजी पर आधारित डेरीवेटिव्स हैं और इस तरह के कुल डेरीवेटिव्स की मालकियत में इन पांच बैंकों हिस्सा करीब 25 फीसदी है। आइये आपका डर और बढ़ाते हैं। दुनिया के बैंकों ने निवेश के लिए ओवर ड्राफ्ट देना जारी रखा हुआ है। 2009 में दुनिया भर के प्रमुख बैंक अकेले ओवर ड्राफ्ट फीस से करीब 38 अरब डॉलर कमायेंगे। ध्यान दीजिये 2008 के संकट के बाद दुनिया ने गंगाजली उठा कर यह माना था कि अगर कर्ज के धन से अति निवेश या सट्टेबाजी होती है तो वह सिर्फ तबाही लाती है। मगर किससे पूछें कि दुनिया के शेयर बाजारों में हाल के महीनों में जो तेजी दिखी यह फिर उसी गलती का दोहराया जाना नहीं है? आखिर बताने वाला है कौन?
कौन चाहे सुधरना?
जी 20 के मंचों पर चिंता जताते, ओबामाओं, गार्डन ब्राउनों और मनमोहन सिंहों देखकर आप किसी भुलावे में तो नहीं पड़ गए? क्या आपको मालूम है कि लेहमैन के ढहने के बाद अमेरिका की संसद ने वित्तीय नियमों को चुस्त करने के कितने कानून पारित किये हैं? .. एक भी नहीं। जी हां सच में एक भी नहीं। दरअसल अमेरिका में संपत्ति मॉर्टगेज की समस्या के हल के लिए एक छोटा सा कानूनी प्रयास भी बैंकों की लामबंदी के कारण अमेरिकी संसद में इस तरह हारा कि एक सदस्य को कहना पड़ा कि बैंकों ने अमेरिकी कांग्रेस पर कब्जा कर लिया है। अमेरिका में कंज्यूमर फाइनेंशियल प्रोटेक्शन एजेंसी बनाने का प्रस्ताव भी मर चुका है। 2008 के संकट के बद पूरी दुनिया में सिस्टमिक रेगुलेटर बनाने की बहस शुरु हुई थी मगर यह कहीं नहीं पहुंची। किसी देश में वित्तीय नियमन में न कोई बड़ा बदलाव आया है और न ही कहीं कोई ऐसा नियामक बना जो कि दुनिया को आगाह करे कि पूरी प्रणाली में कहां खतरा है। भारत को ही देखिये इस संकट के बाद यहां भी कुछ नहीं बदला। वित्तीय तंत्र को मिली नसीहतें लागू करने के लिए कोई ठोस उपाय पिछले एक साल में नजर नहीं आए हैं।
मंदी खुद में बहुत बड़ी नसीहत थी लेकिन अब एक साल बाद की हालत देखकर लगता है कि मंदी जाते हुए शायद ज्यादा बड़ी नसीहतें छोड़ रही है। दुनिया अपनी रवानी में है। हम वही सब कुछ फिर करने लगे हैं जिसे हम एक साल पहले कोस रहे थे। न्यूटन ने कहा था कि वह ग्रहों की चाल की गणना कर सकते हैं लेकिन आदमी के पागलपन की नहीं। न्यूटन ने भी ब्रिटेन में 1711 के साउथ सी बबल नाम के मशहूर शेयर घोटाले में हाथ जलाये थे। जिसमें लोगों ने फर्जी कंपनियों के शेयर एक दूसरे को बेच दिये थे। न्यूटन से लेकर आज तक की दुनिया शायद कई मामलों एक जैसी है। इसलिए सतर्क रहिये, तबाही फिर मारेगी। क्यों कि इतिहास से हमने यही सीखा है कि इतिहास हमने कुछ नहीं सीखा। ====
Tuesday, October 27, 2009
Monday, October 19, 2009
मंदी के बाद की दुनिया
दीवाली मनाई, दुख दलिद्दर को झाड़ू दिखाई, साथ में मंदी खत्म होने की उम्मीद भी नजर आई..तो अब क्या सोच रहे हैं? यही न कि अब तो दुख भरे दिन बीते रे भैया.. मंदी गई तो सब कुछ पहले जैसा होने वाला है? वैसे ही नौ दस फीसदी की मंजिलों को लांघती आर्थिक विकास की गति, बाजार में ढेर सारा पैसा और खूब सारे उत्पाद? यही तो उम्मीद है न???? माफ करिएगा बस यहीं आप कुछ ज्यादा आशावादी हो गए है। मंदी तो जा रही है लेकिन इसके बाद सब कुछ वैसा ही नहीं होने वाला है, जैसा इस नामुराद के आने के पहले था। मंदी के बाद दुनिया हैरतअंगेज ढंग से बदली है और अगर आप बाजार की परख रखते हैं तो आप बदलाव देख सकते हैं। मंदी जैसे जैसे अपने पंजे हटाएगी बाजार की बदली हुई सूरत और मुखर होकर सामने आएगी।
ईजी मनी का सूखता सागर
अब आर्थिक उत्पादन के उस अमेरिकी माडल के दिन लद गए हैं जिसमें सस्ता कर्ज झोंक उद्योगों को खड़ा किया जाता है।1980 से लेकर 2008 तक अमेरिका ईजी मनी में तैरता रहा और उसे देखकर यूरोप, जापान व एशिया के कुछ देशों ने भी यही माडल पकड़ा। दरअसल, पिछले एक दशक में अमेरिकी बैंकों ने कर्ज को अपनी बैलेंस शीट में रखा ही नहीं बल्कि उसे रहस्यमय व जटिल प्रतिभूतियों में बदलकर ऊधो से लेकर माधो तक सबको बेच दिया। खासतौर पर अमेरिका और सामान्यतौर पर पूरी दुनिया में पिछले एक दशक की तेज विकास दर सस्ते कर्ज के ईधन की बदौलत आई है। कभी यह कर्ज बैंकों के जरिए सीधे उद्योगों को गया है तो कभी निवेशकों ने इसके जरिए प्रतिभूतियां खरीदी हैं। हेज फंड, निवेशक बैंक, सब प्राइम मार्टगेज आदि सभी इसी सस्ते कर्ज सागर के जीव जंतु रहे हैं जिन्होंने खूब ऐश की। लेकिन अब यह सब खत्म हो गया। अत्यधिक सस्ते कर्ज को दुनिया अलविदा कहने वाली है क्योंकि वह कर्ज खोखले वित्तीय तंत्र की देन है। इस समय बाजार में धन की भरमार को यानी उदार मौद्रिक नीतियों को देखकर चौंकिए मत.. यह पाइप तो संकट के गड्ढे भरने के लिए खोले गए थे ताकि लेहमनों, बियर स्टन्र्सो सहित दुनिया भर के बैंकों को बचाया जा सके। यह धन प्रवाह उपभोक्ता व उद्योगों के लिए स्नान पान के लिए था ही नहीं जो कि शुभ और सकारात्मक माहौल में इस नदी के किनारे आते हैं संकट के वक्त वह कर्जपान क्यों करेंगे। इसलिए सस्ते कर्ज के बाद भी पूरी दुनिया में कर्ज की मांग लगतार घटी है। उदार मौद्रिक नीति की यह बैसाखियां हटने वाली हैं। इसके बाद अब कर्ज होगा महंगा और कर्ज के व्यापारी होंगे सतर्क क्योंकि कर्ज बाजार के गरम दूध ने उनकी जीभ क्या हलक तक जला दिया है।
उधार प्रेम की कैंची है
कर्ज चाहिए? माफ करिए.. कुछ शर्ते हैं। उपभोक्ता जी .. बैंक अब कुछ इस अंदाज में बात करेंगे।
माफ करिए अब बैंक सस्ता कर्ज लेकर आपके पीछे नहीं दौड़ेंगे। देखा नहीं मंदी के पिछले एक साल में आपको चिढ़ाने झुंझलाने वाली फोन कालें कितनी कम हो गई हैं। दरअसल अमेरिकी उपभोक्ताओं ने सस्ते कर्ज के सहारे दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को खूब चलाया। यह इस सस्ते कर्ज का खेल था कि अमेरिका में लोगों की व्यक्तिगत बचत दर जो 1970 में दस फीसदी थी 2008 में घटकर दो फीसदी से भी कम हो गई। आखिर बैंक कर्ज देने को तैयार थे तो बचत का झंझट कौन लेता? लेकिन अब न वहां बैंक सस्ता कर्ज दे रहे है और न भारत में। अकेले अमेरिका के 416 बड़े बैंकों को कर्ज न दे पाने वाली सूची में डाल दिया गया है जबकि 80 बैंक बंद हो चुके हैं। पूरी दुनिया के आलिम फाजिल मान रहे हैं कि जब कर्ज नहीं होगा तो अमेरिका व यूरोप के उपभोक्ताओं का खर्च कम होगा जो दुनिया में मांग को उतना नहीं बढ़ने देगा जितनी की उम्मीद है। यह मांग सिर्फ उपभोक्ता उत्पादों की नहीं बल्कि वित्तीय उत्पादों या अचल संपत्ति की भी है। यानी अगर समझदार उद्योग मंदी खत्म होने की झोंक में आंख बंद कर उत्पादन नहंीं बढ़ाएंगे, तो निवेश भी वित्तीय बाजार में अब कुछ सतर्क होकर आएंगे यानी कंजूसी से काम।
धीरे.धीरे.धीरे
ऊपर के विश्लेषण से अंदाज पा रहे हैं आपकी आखिर क्या होने वाला है? ..ठीक समझे आप? भूल जाइए कि मंदी के बाद दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं उसी रफ्तार पर पहुंच जाएंगी जैसे कि वह 2007 में थीं। मांग बढ़ेगी और विकास की गति भी लेकिन धीरे धीरे। इसके कई स्पष्ट कारण हैं। उत्पादक सतर्क हैं, वह अब मांग को बहुत करीब से देखेंगे और मार्जिन पर नजर रखेंगे। घाटे निकालने की कोशिश होगी। ध्यान दीजिए कि पूरी दुनिया में पिछले कुछ वर्षो में जरूरी चीजों के उत्पादन में उतनी वृद्धि नहीं हुई है जितनी कि मांग में। मंदी से उबरने की उम्मीद देखकर जिंस बाजार चढ़ने लगा है। मौसम का परिवर्तन पूरी दुनिया की खेती को परेशान कर रहा है यानी कि उत्पादन कम है। मंदी से उबरती दुनिया अब सतर्क होकर कारोबार करेगी। यानी महंगाई है और बनी रहेगी। तो एक तरफ आसान और सस्ते पैसे की कमी तो दूसरी तरफ आपूर्ति सीमित। आप खुद समझ सकते हैं कि मांग के बल्लियों उछलने की उम्मीद छलावा हैं। इसलिए विशेषज्ञ मंदी से उबरी विश्व अर्थव्यवस्था में विकास की रफ्तार को दुनिया में विकास की रफ्तार को तीन फीसदी से ज्यादा नहीं आंक रहे हैं और भारत में भी फिलहाल अगले एक दो साल छह-सात फीसदी की विकास दर की ही उम्मीद है।
मंदी जा रही है, देश के औद्योगिक उत्पादन ने 7.8 फीसदी की विकास दर दिखाई है। दीवाली से ठीक पहले आया यह आंकड़ा राहत देता है। लेकिन अगर किसी ने दीवाली के बाजार को गौर से देखा हो तो उसे यह जरूर महसूस हुआ होगा कि उम्मीद तो जगी है उत्साह नहीं। लाजिमी भी है मंदी ने इतना मारा है कि उत्साह जुटते वक्त लगेगा। संकटों के बाद सतर्कता बढ़ जाती है। इस संकट के बाद तो बहुत कुछ बदलना चाहिए क्योंकि इस मंदी ने कई पहलुओं पर आईना दिखाया है।. ..माफ कीजिए, हम आपकी खुशियां नहीं घटाना चाहते। हमारी कामना है कि लक्ष्मी आपके घर सदैव विराजें और आपको सभी खुशियों से नवाजें मगर हकीकत की जमीन पर पैर टिकाइए और जरा संभल कर उम्मीदें जगाइए। बाजार बहुत निर्मम है और उसकी तबाही का किस्सा अभी सिर्फ एक साल पुराना हुआ है।
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ईजी मनी का सूखता सागर
अब आर्थिक उत्पादन के उस अमेरिकी माडल के दिन लद गए हैं जिसमें सस्ता कर्ज झोंक उद्योगों को खड़ा किया जाता है।1980 से लेकर 2008 तक अमेरिका ईजी मनी में तैरता रहा और उसे देखकर यूरोप, जापान व एशिया के कुछ देशों ने भी यही माडल पकड़ा। दरअसल, पिछले एक दशक में अमेरिकी बैंकों ने कर्ज को अपनी बैलेंस शीट में रखा ही नहीं बल्कि उसे रहस्यमय व जटिल प्रतिभूतियों में बदलकर ऊधो से लेकर माधो तक सबको बेच दिया। खासतौर पर अमेरिका और सामान्यतौर पर पूरी दुनिया में पिछले एक दशक की तेज विकास दर सस्ते कर्ज के ईधन की बदौलत आई है। कभी यह कर्ज बैंकों के जरिए सीधे उद्योगों को गया है तो कभी निवेशकों ने इसके जरिए प्रतिभूतियां खरीदी हैं। हेज फंड, निवेशक बैंक, सब प्राइम मार्टगेज आदि सभी इसी सस्ते कर्ज सागर के जीव जंतु रहे हैं जिन्होंने खूब ऐश की। लेकिन अब यह सब खत्म हो गया। अत्यधिक सस्ते कर्ज को दुनिया अलविदा कहने वाली है क्योंकि वह कर्ज खोखले वित्तीय तंत्र की देन है। इस समय बाजार में धन की भरमार को यानी उदार मौद्रिक नीतियों को देखकर चौंकिए मत.. यह पाइप तो संकट के गड्ढे भरने के लिए खोले गए थे ताकि लेहमनों, बियर स्टन्र्सो सहित दुनिया भर के बैंकों को बचाया जा सके। यह धन प्रवाह उपभोक्ता व उद्योगों के लिए स्नान पान के लिए था ही नहीं जो कि शुभ और सकारात्मक माहौल में इस नदी के किनारे आते हैं संकट के वक्त वह कर्जपान क्यों करेंगे। इसलिए सस्ते कर्ज के बाद भी पूरी दुनिया में कर्ज की मांग लगतार घटी है। उदार मौद्रिक नीति की यह बैसाखियां हटने वाली हैं। इसके बाद अब कर्ज होगा महंगा और कर्ज के व्यापारी होंगे सतर्क क्योंकि कर्ज बाजार के गरम दूध ने उनकी जीभ क्या हलक तक जला दिया है।
उधार प्रेम की कैंची है
कर्ज चाहिए? माफ करिए.. कुछ शर्ते हैं। उपभोक्ता जी .. बैंक अब कुछ इस अंदाज में बात करेंगे।
माफ करिए अब बैंक सस्ता कर्ज लेकर आपके पीछे नहीं दौड़ेंगे। देखा नहीं मंदी के पिछले एक साल में आपको चिढ़ाने झुंझलाने वाली फोन कालें कितनी कम हो गई हैं। दरअसल अमेरिकी उपभोक्ताओं ने सस्ते कर्ज के सहारे दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को खूब चलाया। यह इस सस्ते कर्ज का खेल था कि अमेरिका में लोगों की व्यक्तिगत बचत दर जो 1970 में दस फीसदी थी 2008 में घटकर दो फीसदी से भी कम हो गई। आखिर बैंक कर्ज देने को तैयार थे तो बचत का झंझट कौन लेता? लेकिन अब न वहां बैंक सस्ता कर्ज दे रहे है और न भारत में। अकेले अमेरिका के 416 बड़े बैंकों को कर्ज न दे पाने वाली सूची में डाल दिया गया है जबकि 80 बैंक बंद हो चुके हैं। पूरी दुनिया के आलिम फाजिल मान रहे हैं कि जब कर्ज नहीं होगा तो अमेरिका व यूरोप के उपभोक्ताओं का खर्च कम होगा जो दुनिया में मांग को उतना नहीं बढ़ने देगा जितनी की उम्मीद है। यह मांग सिर्फ उपभोक्ता उत्पादों की नहीं बल्कि वित्तीय उत्पादों या अचल संपत्ति की भी है। यानी अगर समझदार उद्योग मंदी खत्म होने की झोंक में आंख बंद कर उत्पादन नहंीं बढ़ाएंगे, तो निवेश भी वित्तीय बाजार में अब कुछ सतर्क होकर आएंगे यानी कंजूसी से काम।
धीरे.धीरे.धीरे
ऊपर के विश्लेषण से अंदाज पा रहे हैं आपकी आखिर क्या होने वाला है? ..ठीक समझे आप? भूल जाइए कि मंदी के बाद दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं उसी रफ्तार पर पहुंच जाएंगी जैसे कि वह 2007 में थीं। मांग बढ़ेगी और विकास की गति भी लेकिन धीरे धीरे। इसके कई स्पष्ट कारण हैं। उत्पादक सतर्क हैं, वह अब मांग को बहुत करीब से देखेंगे और मार्जिन पर नजर रखेंगे। घाटे निकालने की कोशिश होगी। ध्यान दीजिए कि पूरी दुनिया में पिछले कुछ वर्षो में जरूरी चीजों के उत्पादन में उतनी वृद्धि नहीं हुई है जितनी कि मांग में। मंदी से उबरने की उम्मीद देखकर जिंस बाजार चढ़ने लगा है। मौसम का परिवर्तन पूरी दुनिया की खेती को परेशान कर रहा है यानी कि उत्पादन कम है। मंदी से उबरती दुनिया अब सतर्क होकर कारोबार करेगी। यानी महंगाई है और बनी रहेगी। तो एक तरफ आसान और सस्ते पैसे की कमी तो दूसरी तरफ आपूर्ति सीमित। आप खुद समझ सकते हैं कि मांग के बल्लियों उछलने की उम्मीद छलावा हैं। इसलिए विशेषज्ञ मंदी से उबरी विश्व अर्थव्यवस्था में विकास की रफ्तार को दुनिया में विकास की रफ्तार को तीन फीसदी से ज्यादा नहीं आंक रहे हैं और भारत में भी फिलहाल अगले एक दो साल छह-सात फीसदी की विकास दर की ही उम्मीद है।
मंदी जा रही है, देश के औद्योगिक उत्पादन ने 7.8 फीसदी की विकास दर दिखाई है। दीवाली से ठीक पहले आया यह आंकड़ा राहत देता है। लेकिन अगर किसी ने दीवाली के बाजार को गौर से देखा हो तो उसे यह जरूर महसूस हुआ होगा कि उम्मीद तो जगी है उत्साह नहीं। लाजिमी भी है मंदी ने इतना मारा है कि उत्साह जुटते वक्त लगेगा। संकटों के बाद सतर्कता बढ़ जाती है। इस संकट के बाद तो बहुत कुछ बदलना चाहिए क्योंकि इस मंदी ने कई पहलुओं पर आईना दिखाया है।. ..माफ कीजिए, हम आपकी खुशियां नहीं घटाना चाहते। हमारी कामना है कि लक्ष्मी आपके घर सदैव विराजें और आपको सभी खुशियों से नवाजें मगर हकीकत की जमीन पर पैर टिकाइए और जरा संभल कर उम्मीदें जगाइए। बाजार बहुत निर्मम है और उसकी तबाही का किस्सा अभी सिर्फ एक साल पुराना हुआ है।
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Monday, October 12, 2009
बैसाखियों पर बहस
क्या बैसाखियां हटा ली जानी चाहिए? कौन सी बैसाखियां? अरे वही, जो दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों और सरकारों ने मंदी से लड़खड़ाती अपनी अर्थव्यवस्थाओं के कंधे तले लगाईं थीं।.. तो क्या मंदी गुजर गई?...शायद..पता नहीं.कह नहीं सकते..लगता तो है। .. दुनिया जब मंदी जाने के सवाल पर नाखून चबा रही हो तो बैसाखियों को हटाने और बनाऐ रखने पर विकट असमंजस लाजिमी है। बैसाखियां मतलब दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों की बाजार में पैसा छोड़ो नीतियां और सरकारों के भारी खर्च कार्यक्रम। किसी को लगता है कि अब बैसाखियां आदत बिगाड़ेंगी तो कुछ डरते हैं कि बैसाखियां अचानक हटने से अर्थव्यवस्थाएं फिर औंध जाएंगी। इसलिए कुछ देश मंदी को अब गुजर गया मान बैठे हैं जबकि कुछ देश और मुतमइन होना चाहते हैं।
किस मुर्गे की बांग सुनें?
मंदी की रात बीतने की बांग कौन लगाता है? कोई तो होगा जो मंदी समाप्त होने का सार्टिफिकेट देता होगा? वैसे दुनिया के पास इसका इंतजाम है, भरोसा करना आपकी मर्जी। बांग लगाने वाले कई हैं, अलबत्ता आवाजें एक जैसी नहीं हैं। चचा सैम के मुल्क में नेशनल ब्यूरो आफ इकोनामिकरिसर्च नामक एजेंसी है जो मंदी आने या जाने का आधिकारिक ऐलान करती है, लेकिन यह गजब की कंजूस और धीमी है। इसने पिछले साल दिसंबर में माना कि मंदी आ गई। जो इसी एजेंसी के मुताबिक एक साल पहले यानी दिसंबर 2007 में शुरू हुई थी। इसलिए पता नहीं कब यह मंदी खत्म होने की बांग देगी? लेकिन विकसित देशों का मशहूर संगठन ओईसीडी बोल पड़ा है कि मंदी गई। अमेरिका के फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नाके को लगता है ''मंदी के खत्म होने की संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं।'' आईएमएफ भी इसी तरह संभल कर बोला है। इसके बाद तो आगे जितनी मुंह उतनी बातें।
मंदी थमी या तेजी लौटी
यह वाक् चातुर्य नहीं है। मंदी का थमना एक अलग बात है और ग्रोथ यानी अर्थव्यवस्था का रफ्तार पकड़ना एक दूसरी बात। इस पैमाने पर बड़ा दिलचस्प नजारा है। अमेरिकी विशेषज्ञ मान रहे हैं कि मंदी थम गई है, मगर तेजी नहीं लौटी क्योंकि आवास, श्रम व उपभोक्ता बाजार उठा नहीं है। दो साल में करीब 65 लाख रोजगार गंवाने वाली और 1930 के बाद सबसे तेज बेरोजगारी वृद्धि दर वाले अमेरिका को मंदी जाने का ऐलान करने के लिए काफी हिम्मत चाहिए। इसीलिए फेड रिजर्व भी सतर्क है। मगर ओईसीडी का दावा है कि दुनिया की ग्यारह बड़ी (अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी जापान आदि) और चार सबसे तेज (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) अर्थव्यवस्थाओं में सुधार शुरू हो गया है। शेयर बाजार तो हद के मजेदार हैं। अमेरिकी शेयर बाजार मार्च के बाद से अब तक 44 फीसदी बढ़े हैं, जबकि भारतीय बाजार 20 फीसदी। मंदी जाने के गुण गाने वालों के लिए तर्क मौजूद हैं मगर अमेरिकियों से पूछिए! वह तो इसमें उलझे हैं कि मंदी जाने की उम्मीद में बाजार बढ़ रहा है या फिर मंदी वास्तव में चली गई है इसलिए कि बाजार तेज है??? दोनों बातों में फर्क है मगर आप मत उलझिए। इनकी भी सुनिए जो कहते हैं बस अर्थव्यवस्थाओं में गिरावट थमी है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। दरअसल इस बात के कद्रदान तो कई हैं मंदी थमी है मगर रफ्तार की वापसी को स्वीकार करने में हिचक है क्योंकि उसके बाद तो बैसाखियां हटानी पड़ जाएंगी।
और सहारा कब तक?
उदार मौद्रिक नीति और घाटे के जोखिम पर अर्थव्यवस्था में पैसा झोंकने की बैसाखियां हटाने की बहस इस समय की सबसे बड़ी बहस है। बाजार में मुद्रा का प्रवाह मुद्रास्फीति को ईधन दे रहा है और प्रोत्साहन पैकेजों का खर्च सरकारी खजानों को खोखला कर रहा है, इसलिए हर देश 'एक्जिट स्ट्रेटजी' की बात करने लगा है। यानी उदार मौद्रिक नीति खत्म करने की तैयारी। मगर दुनिया में बहुत से देश डरे हैं इसलिए इंतजार करना चाहते हैं। अमेरिका इनमें शामिल है। नतीजतन बर्नाके हिचक रहे हैं, जापान भी सुस्त है, लेकिन आस्ट्रेलिया ने मंदी खत्म करने का ऐलान करते हुए ब्याज दर 25 प्रतिशतांक तक बढ़ा दी है। दक्षिण कोरिया ने ब्याज दरों में कमी रोक दी है। यूरोजोन की अर्थव्यवस्थाओं में भी अब यह मान लिया गया है कि ब्याज दरों में कमी का दौर खत्म हो गया। बहुसंख्यक देशों के केंद्रीय बैंक आस्ट्रेलिया का रास्ता भले ही न पकड़ें मगर ब्याज दरों में कमी को अब अलविदा कहा जा रहा है। बस जरा सा कर्ज कार्यक्रम पूरा हो जाए, भारतीय रिजर्व बैंक भी यही करेगा क्योंकि मुद्रास्फीति से दुनिया का हर केंद्रीय बैंक डरता है।
बैसाखियां हटने की बहस शुरू है और दुनिया का मुद्रा बाजार मचलने लगा है। आस्ट्रेलियाई डालर फूल गया है। रुपया भी ताकत दिखा रहा है। फिर भी यह एक सामान्य मनोविज्ञान है कि आर्थिक संकट के आने का अहसास जितनी जल्दी होता है, उसके जाने पर भरोसा करने में उतना ही वक्त लगता है। दरअसल पूरी दुनिया अपने-अपने मुर्गो की बांग पर जगना चाहती है। क्योंकि कोई यह नहीं जानता कि बैसाखियां हटने के बाद क्या होगा? इसलिए कुछ बेहतर होते माहौल का आनंद लीजिए मगर सतर्कता के साथ क्योंकि बाजार और अर्थव्यवस्थाओं के मामले में पिछला प्रदर्शन भविष्य की गारंटी नहीं होता।
और अन्यर्थ ( the other meaning ) के लिए स्वागत है
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच) पर
किस मुर्गे की बांग सुनें?
मंदी की रात बीतने की बांग कौन लगाता है? कोई तो होगा जो मंदी समाप्त होने का सार्टिफिकेट देता होगा? वैसे दुनिया के पास इसका इंतजाम है, भरोसा करना आपकी मर्जी। बांग लगाने वाले कई हैं, अलबत्ता आवाजें एक जैसी नहीं हैं। चचा सैम के मुल्क में नेशनल ब्यूरो आफ इकोनामिकरिसर्च नामक एजेंसी है जो मंदी आने या जाने का आधिकारिक ऐलान करती है, लेकिन यह गजब की कंजूस और धीमी है। इसने पिछले साल दिसंबर में माना कि मंदी आ गई। जो इसी एजेंसी के मुताबिक एक साल पहले यानी दिसंबर 2007 में शुरू हुई थी। इसलिए पता नहीं कब यह मंदी खत्म होने की बांग देगी? लेकिन विकसित देशों का मशहूर संगठन ओईसीडी बोल पड़ा है कि मंदी गई। अमेरिका के फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नाके को लगता है ''मंदी के खत्म होने की संभावनाएं बहुत ज्यादा हैं।'' आईएमएफ भी इसी तरह संभल कर बोला है। इसके बाद तो आगे जितनी मुंह उतनी बातें।
मंदी थमी या तेजी लौटी
यह वाक् चातुर्य नहीं है। मंदी का थमना एक अलग बात है और ग्रोथ यानी अर्थव्यवस्था का रफ्तार पकड़ना एक दूसरी बात। इस पैमाने पर बड़ा दिलचस्प नजारा है। अमेरिकी विशेषज्ञ मान रहे हैं कि मंदी थम गई है, मगर तेजी नहीं लौटी क्योंकि आवास, श्रम व उपभोक्ता बाजार उठा नहीं है। दो साल में करीब 65 लाख रोजगार गंवाने वाली और 1930 के बाद सबसे तेज बेरोजगारी वृद्धि दर वाले अमेरिका को मंदी जाने का ऐलान करने के लिए काफी हिम्मत चाहिए। इसीलिए फेड रिजर्व भी सतर्क है। मगर ओईसीडी का दावा है कि दुनिया की ग्यारह बड़ी (अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी जापान आदि) और चार सबसे तेज (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) अर्थव्यवस्थाओं में सुधार शुरू हो गया है। शेयर बाजार तो हद के मजेदार हैं। अमेरिकी शेयर बाजार मार्च के बाद से अब तक 44 फीसदी बढ़े हैं, जबकि भारतीय बाजार 20 फीसदी। मंदी जाने के गुण गाने वालों के लिए तर्क मौजूद हैं मगर अमेरिकियों से पूछिए! वह तो इसमें उलझे हैं कि मंदी जाने की उम्मीद में बाजार बढ़ रहा है या फिर मंदी वास्तव में चली गई है इसलिए कि बाजार तेज है??? दोनों बातों में फर्क है मगर आप मत उलझिए। इनकी भी सुनिए जो कहते हैं बस अर्थव्यवस्थाओं में गिरावट थमी है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। दरअसल इस बात के कद्रदान तो कई हैं मंदी थमी है मगर रफ्तार की वापसी को स्वीकार करने में हिचक है क्योंकि उसके बाद तो बैसाखियां हटानी पड़ जाएंगी।
और सहारा कब तक?
उदार मौद्रिक नीति और घाटे के जोखिम पर अर्थव्यवस्था में पैसा झोंकने की बैसाखियां हटाने की बहस इस समय की सबसे बड़ी बहस है। बाजार में मुद्रा का प्रवाह मुद्रास्फीति को ईधन दे रहा है और प्रोत्साहन पैकेजों का खर्च सरकारी खजानों को खोखला कर रहा है, इसलिए हर देश 'एक्जिट स्ट्रेटजी' की बात करने लगा है। यानी उदार मौद्रिक नीति खत्म करने की तैयारी। मगर दुनिया में बहुत से देश डरे हैं इसलिए इंतजार करना चाहते हैं। अमेरिका इनमें शामिल है। नतीजतन बर्नाके हिचक रहे हैं, जापान भी सुस्त है, लेकिन आस्ट्रेलिया ने मंदी खत्म करने का ऐलान करते हुए ब्याज दर 25 प्रतिशतांक तक बढ़ा दी है। दक्षिण कोरिया ने ब्याज दरों में कमी रोक दी है। यूरोजोन की अर्थव्यवस्थाओं में भी अब यह मान लिया गया है कि ब्याज दरों में कमी का दौर खत्म हो गया। बहुसंख्यक देशों के केंद्रीय बैंक आस्ट्रेलिया का रास्ता भले ही न पकड़ें मगर ब्याज दरों में कमी को अब अलविदा कहा जा रहा है। बस जरा सा कर्ज कार्यक्रम पूरा हो जाए, भारतीय रिजर्व बैंक भी यही करेगा क्योंकि मुद्रास्फीति से दुनिया का हर केंद्रीय बैंक डरता है।
बैसाखियां हटने की बहस शुरू है और दुनिया का मुद्रा बाजार मचलने लगा है। आस्ट्रेलियाई डालर फूल गया है। रुपया भी ताकत दिखा रहा है। फिर भी यह एक सामान्य मनोविज्ञान है कि आर्थिक संकट के आने का अहसास जितनी जल्दी होता है, उसके जाने पर भरोसा करने में उतना ही वक्त लगता है। दरअसल पूरी दुनिया अपने-अपने मुर्गो की बांग पर जगना चाहती है। क्योंकि कोई यह नहीं जानता कि बैसाखियां हटने के बाद क्या होगा? इसलिए कुछ बेहतर होते माहौल का आनंद लीजिए मगर सतर्कता के साथ क्योंकि बाजार और अर्थव्यवस्थाओं के मामले में पिछला प्रदर्शन भविष्य की गारंटी नहीं होता।
और अन्यर्थ ( the other meaning ) के लिए स्वागत है
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच) पर
Monday, September 28, 2009
गलातियों को सुधारने का बाजार
आदमी की पेचीगदी भी कम नहीं, वह झीलों को सुखा देता है और मरुस्थल में फूल खिला देता है... मगर इससे पहले कि आप पर्यावरणवादियों की तरह संजीदा हो जाएं पूरी बात पढ़ लीजिये... क्योंकि बात चाहे रेगिस्तान में बहार लाने की हो या झीलों को सुखाने की, मामला दरअसल पैसे का है। समृद्धि के लिए पहले हमने हवा-पानी को बिगाड़ा अब हम इसे सुधारने में पैसा गंवायेंगे और कमायेंगे। आखिर दुनिया को कोई बड़ा काम तो चाहिए न, वरना कमाई व खर्च के नए रास्ते कहां से आएंगे। इसलिए अमेरिकी डॉलर अब अपने एक उपनाम ग्रीनबैक को सार्थक करने वाला है। हो सकता है कि इस सप्ताह पर्यावरण को लेकर आप कुछ ज्यादा चिंतित हो गए हों जब आपने दुनिया के दिग्गजों को बड़े गंभीर और भावनात्मक लहजे में हवा-पानी पर बात करते सुना हो। इसी मुद्दे पर दिसंबर में कोपेनहेगन में दुनिया की पंचायत लगेगी और तब तक यह चख-चख और बढ़ जाएगी। मगर मुगालते में मत रहिये। दरअसल अब मामला हवा पानी को बचाने के अर्थशास्त्र का है। यह पूरी मगजमारी हकीकत में एक नए बाजार से ताल्लुक रखती है जो पर्यावरण को बचाने के लिए तैयार हो रहा है। यह गलतियों के सुधार का बाजार है। जाहिर है कि दुनिया ने प्रकृति को बिगाड़ कर काफी महंगी गलतियां की हैं, इसलिए सुधार भी अब हजार और लाख नहीं बल्कि खरबों डॉलर की कीमत का होगा।
हर चीज की कीमत है...
कुदरत इस बात की फिक्र नहीं करती कि आपकी आर्थिक हैसियत क्या है-अभिनेत्री वूपी गोल्डबर्ग।.... डॉलर पौंड यूरो में सोचने वाली दुनिया को समझ में आ गया है कि उसने अगर करीब 61 ट्रिलियन डॉलर की विश्व अर्थव्यवस्था हासिल की है तो वह हर साल करीब 20 ट्रिलियन डॉलर की कीमत का पर्यावरण भी गंवा रही है। यह नुकसान का मोटा आंकड़ा है जो मौसम के बदलाव से खेती, संपत्ति और जीवन को होने वाला सीधा नुकसान गणित पर आधारित है। पारिस्थितिकी को होने वाले परोक्ष नुकसान, लोगों आव्रजन या पानी या खाने की कमी की गणना इसमें शामिल नहीं है। धरती का तापमान पहले ही करीब 0.6 डिग्री बढ़ चुका है। बाढ़, सूखा व तूफानों की सूरत में मौसम में अप्रत्याशित बदलाव शुरु हो गए हैं और दुनिया के मुनीम नुकसान का आकलन कर हैरत में पड़ रहे हंैं। स्विटजरलैंड की रिइंश्योरेंस कंपनी स्विस री कहती है कि मौसमी आपदाओं से दुनिया हर साल करीब 200 अरब डॉलर की संपत्ति गंवा रही है। एसोसिएशन ऑफ ब्रिटिश इंश्योरर्स ने आंका है कि बढ़ती गर्मी के असर से अगर इस सदी के अंत तक समुद्रों का जल स्तर अगर एक मीटर बढ़ गया तो करीब 1.5 खबर डॉलर की संपत्ति समुद्री तूफानों के सीधे खतरे में पहुंच जाएगी। भारत के संदर्भ में तो यह गुणा भाग काफी भयानक है। अकेला महाराष्ट्र एक साल के सूखे में राज्य का करीब 30 फीसदी कृषि उत्पादन गंवा देता है। कोई लंबा सूखा भारत की खेतिहर अर्थव्यवस्था को कुछ माह में सात अरब डॉलर की चपेट दे सकता है। दरअसल पर्यावरण के नुकसान का हिसाब किताब इतना डरावना है कि अब इसे बचाने का कोई भी हिसाब के किताब छोटा लगता है।
...महंगा है बचाव
जब इस कदर गंवा रहे हैं तो बचाना महंगा पड़ेगा ही। दुनिया पिछले कई वर्षो से खुद को बदलने की लागत हिसाब किताब लगातार बदल रही है। संयुक्त राष्ट्र की समिति अर्थात यूएनएफसीसी ने आंका था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए 2030 तक दुनिया को 40 से 170 अरब डॉलर खर्च करने होंगे मगर ब्रिटिश शोधकर्ताओं के ताजे आकलन के मुताबिक यह आंकड़ा सही नहीं है, लागत इससे कई गुना ज्यादा होगी। और अगर ऊर्जा, मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल, खनन आदि उद्योगों में बड़े बदलावों की लागत जोड़ ली जाए तो कोई भी आंकड़ा छोटा है। यूएनएफसीसी ने आंका था कि बाढ़ रोकने पर करीब 11 अरब डॉलर खर्च होंगे मगर ताजा आकलन कहता है गर्मी के कारण होने वाली पानी की कमी दूर करने की लागत इसमें जोडऩे पर खर्च बहुत बढ़ जाएगा। इसी तरह मौसम से असर से पैदा होने वाली बीमारियों से बचने का खर्च पांच अरब डॉलर से बहुत ज्यादा होगा क्यों कि शुरुआती आकलन में यूएनएफसीसी ने केवल चुनिंदा बीमारियों को आधार बनाया था। इसी तरह जलवायु परिवर्तन के हिसाब से बुनियादी ढांचा ठीक करने पर खर्च 1000 अरब डॉलर, समुद्र तटीय क्षेत्र को बचाने पर खर्च 33 अरब डॉलर और पारिस्थितिकी को बचाने पर 350 अरब डॉलर तक खर्च हो सकता है। गलतियों को सुधारने का बिल कितना बड़ा होगा यह तो वक्त बतायेगा लेकिन गलतियों के सुधार का यह बाजार काफी बड़ा होने वाला है।
दर्द देने वाले अब दवा बेचेंगे...
ग्रीन इन्वेस्टमेंट आने वाले दौर का सबसे दिलचस्प धंधा है और क्लीन टेक्नोलॉजी सबसे हॉट उत्पाद। अमेरिकी ऊर्जा एजेंसी मानती है कि धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी रोकने के लिए ऊर्जा क्षेत्र में अगले दो दशक में दो खरब डॉलर का निवेश होगा। विकसित देशों को सिर्फ बाढ़ रोकने, सूखे में उगने वाली फसलों और बीमारियों से बचाव आदि को लेकर तीसरी दुनिया में 16 खरब डॉलर का बाजार दिख रहा है। निवेश शुरु हो चुका है, दक्षिण कोरिया ने इस गलती सुधार बाजार में अपने जीडीपी के दो फीसदी के बराबर निवेश का निर्णय किया है जो कि 107 खरब वॉन है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाली तकनीकें, उत्पाद, सेवाएं अगले एक दशक में जगह बिकेंगी। अमेरिकी रिसर्च फर्म क्लीनटेक बताती है कि इन तकनीकों को विकसित करने के लिए 2008 में निवेशक दुनिया के बाजार से करीब 8.4 अरब डॉलर जुटा चुके हैं। दरअसल इस गलती सुधार बाजार में करीब 86 फीसदी निवेश निजी क्षेत्र ही करेगा। वही तकनीक बनाएगा और वही खरीदेगा। इस तरह की तकनीकों के लिए चीन अगर एक खरब डॉलर का बाजार है तो भारत भी छोटा बाजार नहीं है। दूसरी तरफ विकासशील देश इस खर्च के बदले कार्बन विनिमय के अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने लिये मुनाफा देख रहे हैं। अर्थात वह कम प्रदूषण फैलायेंगे और प्रदूषक पश्चिम से मुनाफा कमायेंगे।
कुला मिलाकर यह पूरा खेल काफी दिलचस्प हो चला है। पर्यावरण भविष्य का सबसे बड़ा बाजार है, जिसमें एक टन ऑक्सीजन और कार्बन डाइ आक्साइड से लेकर एक वर्ग किलोमीटर की मिट्टी तक का अपना मूल्य है। दुनिया इस नए हरे भरे हिसाब-किताब में गर्मी सर्दी, हवा- पानी, धुआं-धूल, हरियाली-मरुस्थल, बाढ़-सूखा, जीव-जीवन केवल प्रकृति के रंग ही नहीं हैं, बल्कि अब इनका अपना अर्थशास्त्र है और इन्हें रोकने, बढ़ाने या बचाने की एक मोटी लागत है। इसलिए हवा पानी की चर्चा अब वस्तुत: निवेश, कर्ज, लाभ, हानि, विनिमय, लेन-देन और वित्तीय उपकरणों की चर्चा है। तो देखिये जरा ...हम कितने नासमझ हैं कि हमने खुद को ही बर्बाद कर लिया और हम कितने समझदार हैं कि बर्बादी से उबरने के लिए हमने एक बाजार गढ़ लिया। ....सच में इंसान बेहद पेचीदा जीव है!!!
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हर चीज की कीमत है...
कुदरत इस बात की फिक्र नहीं करती कि आपकी आर्थिक हैसियत क्या है-अभिनेत्री वूपी गोल्डबर्ग।.... डॉलर पौंड यूरो में सोचने वाली दुनिया को समझ में आ गया है कि उसने अगर करीब 61 ट्रिलियन डॉलर की विश्व अर्थव्यवस्था हासिल की है तो वह हर साल करीब 20 ट्रिलियन डॉलर की कीमत का पर्यावरण भी गंवा रही है। यह नुकसान का मोटा आंकड़ा है जो मौसम के बदलाव से खेती, संपत्ति और जीवन को होने वाला सीधा नुकसान गणित पर आधारित है। पारिस्थितिकी को होने वाले परोक्ष नुकसान, लोगों आव्रजन या पानी या खाने की कमी की गणना इसमें शामिल नहीं है। धरती का तापमान पहले ही करीब 0.6 डिग्री बढ़ चुका है। बाढ़, सूखा व तूफानों की सूरत में मौसम में अप्रत्याशित बदलाव शुरु हो गए हैं और दुनिया के मुनीम नुकसान का आकलन कर हैरत में पड़ रहे हंैं। स्विटजरलैंड की रिइंश्योरेंस कंपनी स्विस री कहती है कि मौसमी आपदाओं से दुनिया हर साल करीब 200 अरब डॉलर की संपत्ति गंवा रही है। एसोसिएशन ऑफ ब्रिटिश इंश्योरर्स ने आंका है कि बढ़ती गर्मी के असर से अगर इस सदी के अंत तक समुद्रों का जल स्तर अगर एक मीटर बढ़ गया तो करीब 1.5 खबर डॉलर की संपत्ति समुद्री तूफानों के सीधे खतरे में पहुंच जाएगी। भारत के संदर्भ में तो यह गुणा भाग काफी भयानक है। अकेला महाराष्ट्र एक साल के सूखे में राज्य का करीब 30 फीसदी कृषि उत्पादन गंवा देता है। कोई लंबा सूखा भारत की खेतिहर अर्थव्यवस्था को कुछ माह में सात अरब डॉलर की चपेट दे सकता है। दरअसल पर्यावरण के नुकसान का हिसाब किताब इतना डरावना है कि अब इसे बचाने का कोई भी हिसाब के किताब छोटा लगता है।
...महंगा है बचाव
जब इस कदर गंवा रहे हैं तो बचाना महंगा पड़ेगा ही। दुनिया पिछले कई वर्षो से खुद को बदलने की लागत हिसाब किताब लगातार बदल रही है। संयुक्त राष्ट्र की समिति अर्थात यूएनएफसीसी ने आंका था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए 2030 तक दुनिया को 40 से 170 अरब डॉलर खर्च करने होंगे मगर ब्रिटिश शोधकर्ताओं के ताजे आकलन के मुताबिक यह आंकड़ा सही नहीं है, लागत इससे कई गुना ज्यादा होगी। और अगर ऊर्जा, मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल, खनन आदि उद्योगों में बड़े बदलावों की लागत जोड़ ली जाए तो कोई भी आंकड़ा छोटा है। यूएनएफसीसी ने आंका था कि बाढ़ रोकने पर करीब 11 अरब डॉलर खर्च होंगे मगर ताजा आकलन कहता है गर्मी के कारण होने वाली पानी की कमी दूर करने की लागत इसमें जोडऩे पर खर्च बहुत बढ़ जाएगा। इसी तरह मौसम से असर से पैदा होने वाली बीमारियों से बचने का खर्च पांच अरब डॉलर से बहुत ज्यादा होगा क्यों कि शुरुआती आकलन में यूएनएफसीसी ने केवल चुनिंदा बीमारियों को आधार बनाया था। इसी तरह जलवायु परिवर्तन के हिसाब से बुनियादी ढांचा ठीक करने पर खर्च 1000 अरब डॉलर, समुद्र तटीय क्षेत्र को बचाने पर खर्च 33 अरब डॉलर और पारिस्थितिकी को बचाने पर 350 अरब डॉलर तक खर्च हो सकता है। गलतियों को सुधारने का बिल कितना बड़ा होगा यह तो वक्त बतायेगा लेकिन गलतियों के सुधार का यह बाजार काफी बड़ा होने वाला है।
दर्द देने वाले अब दवा बेचेंगे...
ग्रीन इन्वेस्टमेंट आने वाले दौर का सबसे दिलचस्प धंधा है और क्लीन टेक्नोलॉजी सबसे हॉट उत्पाद। अमेरिकी ऊर्जा एजेंसी मानती है कि धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी रोकने के लिए ऊर्जा क्षेत्र में अगले दो दशक में दो खरब डॉलर का निवेश होगा। विकसित देशों को सिर्फ बाढ़ रोकने, सूखे में उगने वाली फसलों और बीमारियों से बचाव आदि को लेकर तीसरी दुनिया में 16 खरब डॉलर का बाजार दिख रहा है। निवेश शुरु हो चुका है, दक्षिण कोरिया ने इस गलती सुधार बाजार में अपने जीडीपी के दो फीसदी के बराबर निवेश का निर्णय किया है जो कि 107 खरब वॉन है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाली तकनीकें, उत्पाद, सेवाएं अगले एक दशक में जगह बिकेंगी। अमेरिकी रिसर्च फर्म क्लीनटेक बताती है कि इन तकनीकों को विकसित करने के लिए 2008 में निवेशक दुनिया के बाजार से करीब 8.4 अरब डॉलर जुटा चुके हैं। दरअसल इस गलती सुधार बाजार में करीब 86 फीसदी निवेश निजी क्षेत्र ही करेगा। वही तकनीक बनाएगा और वही खरीदेगा। इस तरह की तकनीकों के लिए चीन अगर एक खरब डॉलर का बाजार है तो भारत भी छोटा बाजार नहीं है। दूसरी तरफ विकासशील देश इस खर्च के बदले कार्बन विनिमय के अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने लिये मुनाफा देख रहे हैं। अर्थात वह कम प्रदूषण फैलायेंगे और प्रदूषक पश्चिम से मुनाफा कमायेंगे।
कुला मिलाकर यह पूरा खेल काफी दिलचस्प हो चला है। पर्यावरण भविष्य का सबसे बड़ा बाजार है, जिसमें एक टन ऑक्सीजन और कार्बन डाइ आक्साइड से लेकर एक वर्ग किलोमीटर की मिट्टी तक का अपना मूल्य है। दुनिया इस नए हरे भरे हिसाब-किताब में गर्मी सर्दी, हवा- पानी, धुआं-धूल, हरियाली-मरुस्थल, बाढ़-सूखा, जीव-जीवन केवल प्रकृति के रंग ही नहीं हैं, बल्कि अब इनका अपना अर्थशास्त्र है और इन्हें रोकने, बढ़ाने या बचाने की एक मोटी लागत है। इसलिए हवा पानी की चर्चा अब वस्तुत: निवेश, कर्ज, लाभ, हानि, विनिमय, लेन-देन और वित्तीय उपकरणों की चर्चा है। तो देखिये जरा ...हम कितने नासमझ हैं कि हमने खुद को ही बर्बाद कर लिया और हम कितने समझदार हैं कि बर्बादी से उबरने के लिए हमने एक बाजार गढ़ लिया। ....सच में इंसान बेहद पेचीदा जीव है!!!
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Monday, September 21, 2009
पड़ गई न आदत !!!
भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति में सबसे नया परिवर्तन क्या है? ..मंदी को लेकर दिमागी ऊर्जा मत गंवाइये। इस फ्लू में तो हम पूरी दुनिया के साथ ही छींक-खांस रहे हैं। बदलाव दरअसल यह है कि भारत अब एक महंगे उपभोक्ता बाजार वाला मुल्क बन गया है। .. चौंकिये मत! लंबी व स्थाई महंगाई अर्थव्यवस्था का सबसे नया व बड़ा परिवर्तन है। महंगाई अब मौसम के मिजाज पर अपना मूड नहीं बदलती। महंगाई अब मांग व आपूर्ति के समीकरणों पर कान नहीं देती। महंगाई रिजर्व बैंक की मौद्रिक कोशिशों को ठेंगे पर रखती है। उपभोग के बदलते ढंग व बाजार ने महंगाई की गुत्थी को पिछले डेढ़ साल में काफी सख्त कर दिया है। सरकार थक कर निढाल हो गई हैं और हमें महंगाई की आदत पड़ गई है।
..रहे हमेशा संग
एक दो नहीं पूरे अठारह माह... ( महंगाई के ताजे चरण 2008 मार्च में पड़े थे) महंगाई का यह संग कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। उपभोक्ता मूल्यों की महंगाई पिछले अठारह माह के दौरान औसतन दस फीसदी से ऊपर रही है। यह महंगाई अतीत के मुकाबले अनोखी व वर्तमान से पूरी तरह अप्रभावित है। पिछले साल देश में रिकार्ड अनाज उत्पादन हुआ। औद्योगिक उत्पादन भी बढ़ा (वृद्धि दर कम थी), मगर महंगाई रिकार्ड बनाती रही। यानी कि आपूर्ति कम हो या ज्यादा, महंगाई के ठेंगे से। पिछला साल मंदी, यानी कि मांग कम होने का था। मांग कम हो तो कीमतें घटती हैं मगर महंगाई नहीं घटी। अर्थात न इस पर मांग कम होने की कला चली और न आपूर्ति बढऩे की। महंगाई ने अपना मौसमी चरित्र भी छोड़ दिया। अब वह एक रहस्यमय ताकत के साथ जमी है और बढ़ रही है।
हार गए सूत्रधार
विद्वान कहते हैं कि मुद्रास्फीति यानी महंगाई एक मौद्रिक परिदृश्य है। इस जमात का मानना है कि रिजर्व बैंक मुद्रा आपूर्ति के नल को खोल-बंद कर महंगाई को अपनी उंगलियों पर नचा सकता है। मांग आपूर्ति और मौसमी समीकरण तो बेअसर हुए ही मुद्रा आपूर्ति के सूत्रधार भी इस महंगाई से हार गए। नवंबर 2007 से लेकर अभी हाल तक रिजर्व बैंक कितनी बार पैंतरा बदल चुका है। महंगाई आती देख बैंक ने नवंबर 2007 में मुद्रा आपूर्ति पर सीआरआर का ढक्कन कसा और यह दर बढ़ते-बढ़ते अगस्त 2008 में नौ फीसदी हो गई। मगर इसके बाद उसने सीआरआर घटाई और अप्रैल 2009 में यह पांच फीसदी पर आ गई। रिजर्व बैंक ने करीब अठारह में माह अपना पूरा नीतिगत कत्थक कर लिया मगर महंगाई टस से मस नहीं हुई। अंतत: रिजर्व बैंक ने मान लिया खाने पीने की चीजों की महंगाई पर उसके मौद्रिक मंत्रों का कोई असर नहीं होता।
निवाले के लाले
महंगाई की ताजी प्रकृति हैरतअंगेज है। सारी तेजी मानों निवाले पर पर फट पड़ी है। क्या आपको पता है कि थोक मूल्यों वाली महंगाई, जो अभी शून्य पर थी उसमें खाद्य उत्पादों का सूचकांक करीब 15 फीसदी की वृद्धि दिखा रहा था जो कि इस दशक का सबसे ऊंचा स्तर है। अप्रैल तक बारह माह के दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर खाने पीने की चीजों में महंगाई दर 13 फीसदी थी जो महंगाई की आग मिले सूखे के ईंधन के बाद 26 फीसदी के आसपास पहुंच रही है। अंतररराष्ट्रीय कारक औद्योगिक उत्पादों की महंगाई बढ़ा सकते हैं क्यों कि कच्चे माल, ईंधन, पूंजी आदि दुनिया के बाजार के इशारे पर नाचते हैं। मगर मगर खाने पीने की बुनियादी चीजों का स्रोत तो देशी है। सरकार कच्चे तेल की कीमतें बढऩे जैसे बोदे तर्कों के पीछे खुद को छिपा लेती है, लेकिन उसके ज्ञानी गुणवंत यह नहीं बता पाते कि पिछले अठारह माह में हर कोशिशें के बावजूद खाने पीने की चीजें सस्ती क्यों नहीं हुईं। जबकि पिछले एक साल के दौरान वह अच्छे कृषि उत्पादन, कर दरों में रियायत, उदार आयात का आदि का ढोल बजाती रही है।
रहस्य क्या है?
पिछले अठारह माह में मांग आपूर्ति, मौद्रिक प्रयास, कर रियायतें, उत्पादन आदि लगभग सभी मोर्चों पर एक साथ बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिससे महंगाई घटनी चाहिए थी मगर यह नामुराद कुछ ज्यादा जिद्दी हो गई। आखिर वजह क्या है? दरअसल महंगाई में अब प्रत्यक्ष के बजाय परोक्ष कारक ज्यादा बड़ी भूमिका निभा रहे हैं जो मांग व आपूर्ति या मौद्रिक चश्मे से महंगाई को देखने पर नजर नहीं आते। पहला कारण- देश में लगभग हर तरह के कारोबार की लागत सेवाओं का बड़ा हिस्सा है और माल ढोने से लेकर पैकिंग, वितरण, फोन तक सेवायें भी सैकड़ों किस्म की है। उपभोक्ताओं के उपभोग खर्च में अब आधे से ज्यादा पैसा सेवाओं पर जाता है। कीमतें इनकी भी बढ़ी हैं,जो उत्पादों की महंगाई में जुड़ती हैं मगर हमें नहीं दिखतीं। दूसरा कारण- बुनियादी ढांचे की अपनी एक परोक्ष लागत है। जो महंगी बिजली, खराब सडक़ों, ट्रैफिक में ईंधन की खपत आदि से बनती है और जिंसों व उत्पाद की कीमत में जुड़ जाती है। तीसरा कारण- सरकार बाजार से हार गई है। बाजार अब उसकी नहीं सुनता। सूचनाओं के तेज प्रवाह के कारण व्यापारी बाजार को पहले भांप लेते हैं। जमाखोरी के नए रास्ते व तकनीकें मौजूद हैं। थोक और खुदरा बाजार के बीच की विभाजक रेखा धुंधली हो रही है। रिटेल में प्रतिस्पर्धा और प्रोसेस्ड व पैकेज्ड खाद्य सामग्री के चलन ने मोटी जेब वाले थोक ग्राहकों का एक नया वर्ग खड़ा कर दिया है। जिनके पास सूचना, साधन और सुविधा सब कुछ है।
मूल्यवृद्धि एक पेचीदा आर्थिक तत्व है। कमाई व निवेश के लिए इसका होना जरुरी है, मगर बेहाथ होना जोखिम भरा। जिस देश में 30 फीसदी आबादी के लिए दो जून का जुगाड़ ही जिंदगी हो वहां निवाले का लगातार कीमती होते जाना खतरनाक है। बढ़ती कीमतें हमेशा बढ़ी हुई आय के फायदे चाट जाती हैं। इसलिए महंगाई गरीबी की पक्की दोस्त होती है। गरीबी से निजात मिलने में हमें देर लगेगी क्यों कि हम स्थाई महंगाई आदी हो चले हैं। अमीर खुसरो होते तो कुछ ऐसी पहेली पूछते...... दूर रहे तो भी न भावै, प्यार बढ़ावै बहुत सतावै, रहे हमेशा संग लगाई, कहु सखि पत्नी? नहिं महंगाई।
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..रहे हमेशा संग
एक दो नहीं पूरे अठारह माह... ( महंगाई के ताजे चरण 2008 मार्च में पड़े थे) महंगाई का यह संग कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। उपभोक्ता मूल्यों की महंगाई पिछले अठारह माह के दौरान औसतन दस फीसदी से ऊपर रही है। यह महंगाई अतीत के मुकाबले अनोखी व वर्तमान से पूरी तरह अप्रभावित है। पिछले साल देश में रिकार्ड अनाज उत्पादन हुआ। औद्योगिक उत्पादन भी बढ़ा (वृद्धि दर कम थी), मगर महंगाई रिकार्ड बनाती रही। यानी कि आपूर्ति कम हो या ज्यादा, महंगाई के ठेंगे से। पिछला साल मंदी, यानी कि मांग कम होने का था। मांग कम हो तो कीमतें घटती हैं मगर महंगाई नहीं घटी। अर्थात न इस पर मांग कम होने की कला चली और न आपूर्ति बढऩे की। महंगाई ने अपना मौसमी चरित्र भी छोड़ दिया। अब वह एक रहस्यमय ताकत के साथ जमी है और बढ़ रही है।
हार गए सूत्रधार
विद्वान कहते हैं कि मुद्रास्फीति यानी महंगाई एक मौद्रिक परिदृश्य है। इस जमात का मानना है कि रिजर्व बैंक मुद्रा आपूर्ति के नल को खोल-बंद कर महंगाई को अपनी उंगलियों पर नचा सकता है। मांग आपूर्ति और मौसमी समीकरण तो बेअसर हुए ही मुद्रा आपूर्ति के सूत्रधार भी इस महंगाई से हार गए। नवंबर 2007 से लेकर अभी हाल तक रिजर्व बैंक कितनी बार पैंतरा बदल चुका है। महंगाई आती देख बैंक ने नवंबर 2007 में मुद्रा आपूर्ति पर सीआरआर का ढक्कन कसा और यह दर बढ़ते-बढ़ते अगस्त 2008 में नौ फीसदी हो गई। मगर इसके बाद उसने सीआरआर घटाई और अप्रैल 2009 में यह पांच फीसदी पर आ गई। रिजर्व बैंक ने करीब अठारह में माह अपना पूरा नीतिगत कत्थक कर लिया मगर महंगाई टस से मस नहीं हुई। अंतत: रिजर्व बैंक ने मान लिया खाने पीने की चीजों की महंगाई पर उसके मौद्रिक मंत्रों का कोई असर नहीं होता।
निवाले के लाले
महंगाई की ताजी प्रकृति हैरतअंगेज है। सारी तेजी मानों निवाले पर पर फट पड़ी है। क्या आपको पता है कि थोक मूल्यों वाली महंगाई, जो अभी शून्य पर थी उसमें खाद्य उत्पादों का सूचकांक करीब 15 फीसदी की वृद्धि दिखा रहा था जो कि इस दशक का सबसे ऊंचा स्तर है। अप्रैल तक बारह माह के दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर खाने पीने की चीजों में महंगाई दर 13 फीसदी थी जो महंगाई की आग मिले सूखे के ईंधन के बाद 26 फीसदी के आसपास पहुंच रही है। अंतररराष्ट्रीय कारक औद्योगिक उत्पादों की महंगाई बढ़ा सकते हैं क्यों कि कच्चे माल, ईंधन, पूंजी आदि दुनिया के बाजार के इशारे पर नाचते हैं। मगर मगर खाने पीने की बुनियादी चीजों का स्रोत तो देशी है। सरकार कच्चे तेल की कीमतें बढऩे जैसे बोदे तर्कों के पीछे खुद को छिपा लेती है, लेकिन उसके ज्ञानी गुणवंत यह नहीं बता पाते कि पिछले अठारह माह में हर कोशिशें के बावजूद खाने पीने की चीजें सस्ती क्यों नहीं हुईं। जबकि पिछले एक साल के दौरान वह अच्छे कृषि उत्पादन, कर दरों में रियायत, उदार आयात का आदि का ढोल बजाती रही है।
रहस्य क्या है?
पिछले अठारह माह में मांग आपूर्ति, मौद्रिक प्रयास, कर रियायतें, उत्पादन आदि लगभग सभी मोर्चों पर एक साथ बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिससे महंगाई घटनी चाहिए थी मगर यह नामुराद कुछ ज्यादा जिद्दी हो गई। आखिर वजह क्या है? दरअसल महंगाई में अब प्रत्यक्ष के बजाय परोक्ष कारक ज्यादा बड़ी भूमिका निभा रहे हैं जो मांग व आपूर्ति या मौद्रिक चश्मे से महंगाई को देखने पर नजर नहीं आते। पहला कारण- देश में लगभग हर तरह के कारोबार की लागत सेवाओं का बड़ा हिस्सा है और माल ढोने से लेकर पैकिंग, वितरण, फोन तक सेवायें भी सैकड़ों किस्म की है। उपभोक्ताओं के उपभोग खर्च में अब आधे से ज्यादा पैसा सेवाओं पर जाता है। कीमतें इनकी भी बढ़ी हैं,जो उत्पादों की महंगाई में जुड़ती हैं मगर हमें नहीं दिखतीं। दूसरा कारण- बुनियादी ढांचे की अपनी एक परोक्ष लागत है। जो महंगी बिजली, खराब सडक़ों, ट्रैफिक में ईंधन की खपत आदि से बनती है और जिंसों व उत्पाद की कीमत में जुड़ जाती है। तीसरा कारण- सरकार बाजार से हार गई है। बाजार अब उसकी नहीं सुनता। सूचनाओं के तेज प्रवाह के कारण व्यापारी बाजार को पहले भांप लेते हैं। जमाखोरी के नए रास्ते व तकनीकें मौजूद हैं। थोक और खुदरा बाजार के बीच की विभाजक रेखा धुंधली हो रही है। रिटेल में प्रतिस्पर्धा और प्रोसेस्ड व पैकेज्ड खाद्य सामग्री के चलन ने मोटी जेब वाले थोक ग्राहकों का एक नया वर्ग खड़ा कर दिया है। जिनके पास सूचना, साधन और सुविधा सब कुछ है।
मूल्यवृद्धि एक पेचीदा आर्थिक तत्व है। कमाई व निवेश के लिए इसका होना जरुरी है, मगर बेहाथ होना जोखिम भरा। जिस देश में 30 फीसदी आबादी के लिए दो जून का जुगाड़ ही जिंदगी हो वहां निवाले का लगातार कीमती होते जाना खतरनाक है। बढ़ती कीमतें हमेशा बढ़ी हुई आय के फायदे चाट जाती हैं। इसलिए महंगाई गरीबी की पक्की दोस्त होती है। गरीबी से निजात मिलने में हमें देर लगेगी क्यों कि हम स्थाई महंगाई आदी हो चले हैं। अमीर खुसरो होते तो कुछ ऐसी पहेली पूछते...... दूर रहे तो भी न भावै, प्यार बढ़ावै बहुत सतावै, रहे हमेशा संग लगाई, कहु सखि पत्नी? नहिं महंगाई।
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