Thursday, December 30, 2010

वर्षार्थ - बेरहम वक्त : मरहम वक्त

क्त की शाख से दस का पत्ता टूट कर गिर रहा है। कलेवर बदलेगा या नहीं क्या पता मगर कैलेंडर तो बदलेगा ही। दो हजार दस का पहला सूरज को देखकर किसने सोचा कि वक्ते इतना बेरहम होगा कि अर्थव्यवस्थायें,संस्थायें,साख और लोग ...बस घाव गिनते रह जाएंगे। काल का गाल बड़ा विकराल है और समय की अपनी एक निपट अबूझ,अप्रत्याशित और शाश्‍वत गति है। इसलिए तारीख बदलने से अतीत कभी नहीं मरता। वह तो वर्तमान के तलवे में कांटे की तरह धंसा है। दस की चोटों से ग्यारह जरुर लंगड़ायेगा। मगर  भरोसा रखिये, यही वक्त उन चोटों पर मरहम भी लगायेगा।

वक्त सौ मुंसिफों का मुंसिफ है, वक्त आएगा इंतजार करो।।

वक्त की बेरहमी को याद करने के लिए और उम्मीद के मरहम तलाशने के लिए प्रस्तु्त है पिछले एक साल के अर्थार्थ का चुनिंदा वर्षार्थ। ( चुनना जरा मुश्किल था। ... निज कवित्त केहि लाग न नीका.... लेकिन ब्लॉगर से मिले पेजव्यूज और पोस्ट के आंकड़ों ने मदद की। मेल-ओ-मोबाइल से आई प्रतिक्रियाओं ने भी रास्ता दिखाया। यह संकलन सबसे ज्यादा पढ़े गए और संदर्भ से दृष्टि से अहम लेखों का संचयन है।)

आप सब अपने अपने स्नेह और आशीष से अर्थार्थ को पोसते रहे हैं। आशीर्वाद बनाये रखियेगा। बड़ा संबल मिलता है। निराला जी ने लिखा है ... पुन: सवेरा एक बार फेरा है जी का... वक्त का फेरा      ग्यारह का सवेरा लेकर दरवाजे पर पहुंचा है। दरवाजा खोलिये! स्वागत करिये!
 2011 सुखद, सुरक्षित और मांगलिक हो।

अर्थार्थ का वर्षार्थ

नीतीश होने की मजबूरी ... जाति प्रमाण पत्रो की राजनीति बनाम आय प्रमाण पत्रों की राजनीति। ब्लॉगर रेटिंग में यह सबसे ज्यादा पढ़ा गया लेख।


निवाले पर आफत ... नए साल पर बर्फ से ढंका न्यूयार्क बंद है। इस साल मौसम बड़ा बेरहम रहा। रुस की आग, यूरोप की ठंड, पाकिस्तान की बाढ़ से रोटी चौपट हो गई। ब्लॉगर की रेटिंग के अनुसार सबसे ज्यादा पढ़ा गया लेख।


दो नंबर का दम .. इस साल चीन, अमेरिका के बाद, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यसवस्था हो गया। हमारे पूर्वी पड़ोसी की ताकत अकूत है। ब्लॉगर रेटिंग के आधार पर।
साथ में पढ़ें चीन है तो चैन कहां रे और चाइनीज चेकर भी




दाग और दुर्गंध की दोस्ती.. हमारे यहां कार्बाइड उनके यहा बीपी। मगर दोहरे पैमाने। कार्बाइड माफ और मैक्सिको खाड़ी में पर्यावरण विनाश रचने वाली बीपी का टेंटुआ दबाकर हर्जाने की वसूली। यह भी ब्लॉगगर की रेटिंग के आधार पर।


मेहरबानी आपकी .. भारतीय उपभोक्ताओ की शौर्य गाथा। महंगाई के बावजूद खर्च का जोखिम। अपनी पीठ तो थपथपाइये। स्रोत ब्लॉ.गर रेटिंग।


जागते रहे.. वेदांत पर सख्ती। ताकतवर स्वयंसेवी संगठनों का उभार। एक नए किस्म की सामाजिक आर्थिक सक्रियता। स्रोत ब्लॉगर रेटिंग।


सियासत के सलीब ... सजा की सियासत। जनता गुस्सायी तो सरकारें दोषियों से याराना छोड़ सजा देने निकल पड़ीं। बैंक सूली पर टंगे। सियासत का दोहरा चेहरा। .. स्रोत ब्लॉगर रेटिंग।


फजीहत का गोल्ड मेडल.. बदनामी का कॉमनवेल्थ ... जलवा दिखाने के लिए खेल में जलालत। हमारे नेताओं को फजीहत कराने के कायदे सिखाने का स्कूल खोलना चाहिए। स्रोत ब्लॉगर रेटिंग।

संकटों के नए संसकरण ... ग्रीस के डूबने के बाद बात खत्म- नहीं हुई। नई संकट कथाओं का खुलासा। संयोग कि इस स्तंकभ के कुछ दिनों बाद आयरलैंड में ट्रेजडी का शो शुरु हो गया।



अमेरिका यूरोप संकट  समग्र

डूबे तो उबरेंगे ... यूरोप और यूरो के डूबने की बात अप्रैल में .. साल बीतते आशंकायें असलियत में तब्दील हो गईं

ऐसा भी हो सकता है .... अमेरिका और ब्रिटेन में ऋण संकट के पसरने का आकलन मई में। वक्त उसी तरफ ले जा रहा है1


महात्रासदी का ग्रीक कोरस... ग्रीस के डूबने की त्रासदी। अर्थार्थ में 2009 से ग्रीस का पीछा कर रहा था।


शाएलाकों से सौदेबाजी ... संप्रभु कर्ज संकट यानी देशों के दीवालिया होने की विभीषिका। दर्द भरा इतिहास और जटिल वर्तमान


पछतावे की परियोजनायें ... संकटों का प्रायश्चित। सरकारी संपत्तियों की बिक्री। नए टैक्सों से जनता की आफत


सिद्धांतों का शीर्षासन ... एक संकट और कई सिद्धांत सर के बल। यूरोप लोक कल्या.णकारी राज्ये धराशायी


घट घट में घाटा ... घाटों का अभूतपूर्व जमघट। पूरी दुनिया की सरकारों के बजटों में भयानक घाटे।



मुद्रास्फीति की महादशा ... अमेरिका में डॉलर छपाई मशीन के खतरे। हाइपरइन्फ्लेशन का डर



साख नहीं तो माफ करो .... महाबलशाली बांड बाजार की यूरोप व अमेरिका को घुड़की



बजट के रंग

आपके जमाने का बजट या बाप के जमाने का ... बजटों का अतीत और वर्तमान, प्रौढ़ लोकतंत्र जवान अर्थव्यवस्था


बजट में जादू है ... बजटों में बहुत कुछ खो जाता है। जो मिलता है वह मिलता नजर नहीं आता।


बजट की बर्छियां ... बजट बहुत चुभते हैं। कई अदृश्य कीलें होंती हैं बजट में।


वाह क्या गुस्सा है .. वित्त मंत्री गुस्साये तो खर्च के अभियान जमीन पर आए।



बुरा न मानो बजट है ... बजट की होली। वित्तत मंत्री की शानदार ठिठोली


बजट की षटपदी ... एक शोधपूर्ण आयोजन.. बजट में कर्ज और खर्च की वास्तhविकता। करों के पुराने चाबुक और खर्च के अंधे कुएं। इस श्रंखला को काफी पढ़ा और डाउनलोड किया गया।



लूट और झूठ का राज

झूठ के पांव ... सूचनायें छिपाने का कारोबार। क्रियेटिव अकाउंटिंग। अपारदर्शिता का कारोबारी साम्राज्य


भ्रष्टाचार का मुक्त बाजार .. उदारीकरण से बढ़ा लूट का बाजार। निजीकरण ने दी नेताओं को अकूत ताकत। कंपनियां यानी देने वाले हजारों हाथ।


पर्दा जो उठ गया .. सच बोलने की नई परंपरायें। संदर्भ विकीलीक्स। झूठ की भरमार के बीच सच का महंगा बाजार

डुबाने वाले किनारे (बैंक)

ऊंटों के सर पहाड़ .. दुनिया को नचाने वाली वित्तीय संस्था ओं के बुरे दिन। बैंकों पर भारी टैक्सों की तलवार

इंस्पेक्टर राज इंटरनेशनल .. कठोरतम वित्तीय कानूनों का दौर। बैंकिंग उद्योग बतायेंगे कि कैसे मरेंगे यानी प्रॉविजन ऑफ फ्यूनरल प्ला्न ( अमेरिका का नया वित्तीय कानून)



हमको भी ले डूबे ... डूबने की फितरत यानी बैंकों की आदत। आयरलैंड से लेकर अमेरिका तक बैंकों को श्रद्धांजलि



....कुछ अलग से

बस इतना सा ख्वाब है... यह 2010 का पहला लेख था।


बीस साल बाद ... उदारीकरण के दो दशक के बाद भी कहां कहा .. जहां के तहां


भूल चूक लेनी देनी ... 2010 का अंतिम आलेख ... बढ़ती लागत, घटती साख और असंतुलित विकास का तकाजा



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Monday, December 27, 2010

भूल-चूक, लेनी-देनी

अर्थार्थ
शुक्र है कि हम सुर्खियों से दूर रहे। आर्थिक दुनिया ने दस के बरस में जैसी डरावनी सुर्खियां गढ़ी उनमें न आने का सुकून बहुत गहरा है। करम हमारे भी कोई बहुत अच्छेह नहीं थे। हमने इस साल सर ऊंचा करने वाली सुर्खियां नहीं बटोरीं लेकिन ग्रीस, आयरलैंड, अमेरिका के मुकाबले हम, घाव की तुलना में चिकोटी जैसे हैं। अलबत्ता इसमें इतराने जैसा भी कुछ नहीं है। वक्त, बड़ा काइयां महाजन है। उसके खाते कलेंडर बदलने से बंद नही हो जाते हैं बल्कि कभी कभी तो उसके परवाने सुकून की पुडि़या में बंध कर आते हैं। मंदी व संकटों से बचाते हुए वक्त हमें आज ऐसी हालत में ले आया है जहां गफलत में कुछ बड़ी नसीहतें नजरअंदाज हो सकती हैं। दस के बरस बरस का खाता बंद करते हुए अपनी भूल चूक के अंधेरों पर कुछ रोशनी डाल ली जाए क्यो कि वक्त की लेनी देनी कभी भी आ सकती है।
लागत का सूद
सबसे पहले प्योर इकोनॉमी की बात करें। भारत अब एक बढती लागत वाला मुल्क हो गया है। पिछले कुछ वर्षों की तेज आर्थिक विकास दर ने हमें श्रम (लेबर कॉस्ट) लागत को ऊपर ले जाने वाली लिफ्ट में चढ़ा दिया है। सस्ता श्रम ही तो भारत की सबसे बड़ी बढ़त थी। वैसे इसमें कुछ अचरज नहीं है क्यों कि विकसित होने वाली अर्थव्यरवस्थाओं में श्रम का मूल्यं बढ़ना लाजिमी है। अचरज तो यह है कि हमारे यहां लागत हर तरफ से बढ़

Monday, December 20, 2010

हमको भी ले डूबे !

अर्थार्थ
“तुम नर्क में जलो !! सत्यानाश हो तुम्हारा !! .दुनिया याद रखे कि तुमने कुछ भी अच्छा नहीं किया !!”....डबलिन में एंग्लो आयरिश बैंक के सामने चीखती एक बूढ़ी महिला के पोस्टर पर यह बददुआ लिखी है। ...बैंकों से नाराज लोगों का गुस्सा एक बड़ा सच बोल रहा है। बैंकों ने दुनिया का कितना भला किया यह तो पता नहीं मगर मुश्किलों की महागाथायें लिखने में इन्हे महारथ हासिल है। आधुनिक वित्तीय तंत्र का यह जोखिमपसंद, मनमाना और बिगड़ैल सदस्य दुनिया की हर वित्तीय त्रासदी का सूत्रधार या अभिनेता रहा है। बैंक हमेशा डूबे हैं और हमको यानी हमारे जैसे लाखों को भी ले डूबे हैं। इनके पाप बाद में सरकारों ने अपने बजट से बटोरे हैं। अमेरिका सिर्फ अपने बैंकों के कारण औंधे मुंह बैठ गया है। इन्हीं की मेहरबानी से यूरोप के कई देश दीवालिया होने की कगार पर हैं। इसलिए तमाम नियामक बैंकों को रासते पर लाने में जुट गए हैं। डरा हुआ यूरोप छह माह में दूसरी बार बैंकों को स्ट्रेस टेस्ट (जोखिम परीक्षण) से गुजारने जा रहा है। बैंकिंग उद्योग के लिए नए बेहद सख्त कानूनों से लेकर अंतरराष्ट्री य नियमों (बेसिल-तीन) की नई पीढ़ी भी तैयार है। मगर बैंक हैं कि मानते ही नहीं। अब तो भारत के बैंक भी प्रॉपर्टी बाजार (ताजा बैंक-बिल्डर घोटाला) में हाथ जलाने लगे हैं।
डूबने की फितरत
गिनती किसी भी तरफ से शुरु हो सकती है। चाहें आप पिछले दो साल में डूबे 315 अमेरिकी बैंकों और यूरोप में सरकारी दया पर घिसट रहे बैंकों को गिनें या फिर 19 वीं शताब्दी का विक्टोरियन बैंकिंग संकट खंगालें। हर कहानी में बैंक नाम एक चरित्र जरुर मौजूद है, खुद डूबना व सबको डुबाना जिसकी फितरत है। 1970 से लेकर 2007 तक दुनिया में 124 बैंकिंग संकट आए हैं और कई देशों में तो यह तबाही एक से ज्या दा बार

Monday, December 13, 2010

साख नहीं तो माफ करो!

अर्थार्थ
साख नहीं तो माफ करो! .. दुनिया का बांड बाजार अर्से बाद जब इस दो टूक जबान में बोला तो लंदन, मैड्रिड, रोम, ब्रसेल्स और न्यूयॉर्क, फ्रैंकफर्ट, बर्लिन और डबलिन में नियामकों व केंद्रीय बैंकों की रीढ़ कांप गई। दरअसल जिसका डर था वही बात हो गई है। वित्तीय बाजारों के सबसे निर्मम बांड निवेशकों ने यूरोप व अमेरिका की सरकारों की साख पर अपने दांत गड़ा दिए हैं। घाटे से घिरी अर्थव्यवस्थाओं से निवेशक कोई सहानुभूति दिखाने को तैयार नहीं हैं। ग्रीस व आयरलैंड को घुटनों के बल बिठाकर यूरोपीय समुदाय से भीख मंगवाने के बाद ये निवेशक अब स्पेन की तरफ बढ़ रहे हैं। स्पेन, यूरोप की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, क्या आयरलैंड व ग्रीस की राह पर जाएगा? सोच कर ही यूरोप की सांस फूल रही है। लेकिन यह बाजार तो स्पेन के डेथ वारंट पर दस्तखत करने लगा है, क्योंकि इस क्रूर बाजार में बिकने वाली साख यूरोप की सरकारों के पास नहीं है और तो और, इस निष्ठुर बाजार ने अमेरिका की साख को भी खरोंचना शुरू कर दिया है।
खतरे की खलबली
पूरी दुनिया में डर की ताजा लहर बीते हफ्ते यूरोप, अमेरिका व एशिया के बांड बाजारों से उठी, जब सरकारों की साख पर गहरे सवाल उठाते हुए निवेशकों ने सरकारी बांड की बिकवाली शुरू कर दी और सरकारों के लिए कर्ज महंगा हो गया। बीते मंगलवार अमेरिकी सरकार के (दस साल का बांड) बाजार कर्ज की लागत सिर्फ कुछ घंटों में

Monday, December 6, 2010

पर्दा जो उठ गया !

अर्थार्थ
रा देखिये तो शर्म से लाल हुए चेहरों की कैसी अंतरराष्ट्रीय नुमाइश चल रही है। अमेरिका से अरब तक और भारत से यूरोप तक मुंह छिपा रहे राजनयिकों ने नहीं सोचा था कि विकीलीक्स ( एक व्हिसिल ब्लोइंग वेबसाइट) सच की सीटी इतनी तेज बजायेगी कि कूटनीतिक रिश्तों पर बन आएगी। दुनिया के बैंक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर सब उनकी कारोबारी गोपनीयता को उघाड़ क्यों देना चाहते हैं। कहीं (भारत में) कारोबारी लामबंदी बनाम निजता बहस की गरम है क्यों कि कुछ फोन टेप कई बड़े लोगों को शर्मिंदा कर रहे हैं। अदालतें सरकारी फाइलों में घुस कर सच खंगाल रही हैं। पूरी दुनिया में पारदर्शिता के आग्रहों की एक नई पीढ़ी सक्रिय है, जो संवेदनशीलता, गोपनीयता,निजता की मान्यताओं को तकनीक के मूसल से कूट रही है और सच बताने के पारंपरिक जिम्मेंदारों को पीछे छोड़ रही है। कूटनीति, राजनीति, कारोबार सभी इसके निशाने पर हैं। कहे कोई कुछ भी मगर, घपलों, घोटालों, संस्थागत भ्रष्टाचार और दसियों तरह के झूठ से आजिज आम लोगों को यह दो टूक तेवर भा रहे हैं। दुनिया सोच रही है कि जब घोटाले इतने उम्दा किस्म के हो चले हैं तो फिर गोपनीयता के पैमाने पत्थर युग के क्यों हैं ?
खतरनाक गोपनीयता
ग्रीस की संप्रभु सरकार अपने कानूनों के तहत ही अपनी घाटे की गंदगी छिपा रही थी। पर्दा उठा तो ग्रीस ढह गया। ग्रीस के झूठ की कीमत चुकाई लाखों आम लोगों ने, जो पलक झपकते दीवालिया देश के नागरिक बन गए । यूरोप अमेरिका की वित्तीय संस्थामओं ने नीतियों के पर्दे में बैठकर तबाही रच दी। अमेरिका लेकर आयरलैंड तक आम लोग अपने बैंकों के दरवाजे पीट कर यही तो पूछ रहे हैं कि यह कैसी कारोबारी गोपनीयता थी जिसमें उनका सब कुछ लुट