मुंबई में दो साल तक काम करने के बाद, सितंबर 2019 में कीर्ति की मेहनत कामयाब हुई, जब उसे लंदन की मर्चेंट बैंकिंग फर्म में नौकरी मिल गई. वह लंदन को समझ पाती इससे पहले कोविड आ गया. नौकरी खतरे में थी. लेकिन अप्रैल में ही उसकी कंपनी सरकार की जॉब रिटेंशन स्कीम (नौकरी बचाओ सब्सिडी) में शामिल हो गई. पगार कुछ कटी लेकिन नौकरी बच गई. बहुत नुक्सान नहीं हुआ.
भारत में उसका भाई सिद्धार्थ इतना खुशकिस्मत नहीं रहा. जिस स्टार्ट-अप में वह तीन साल से काम कर रहा था अप्रैल में वह बंद हो गया. आर्किटेक्ट पिता को कोविड के कारण अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. कीर्ति की नौकरी (यूके सरकार की जॉब रिटेंशन स्कीम) ही थी जो इस आपदा में उसके परिवार के काम आ रही थी.
कोविड की तबाही शुरू हुए छह महीने बीतने के अब आर्थिक फैसलों के असर समझने की कोशिश हो रही है. दुनिया के देशों ने अपने समग्र आर्थिक उपाय रोजगारों को बचाने पर केंद्रित कर दिए हैं, जबकि भारत सरकार छंटनी और बेरोजगारी के विस्फोट पर उपाय तो दूर, सवाल भी सुनना नहीं चाहती.
जानना जरूरी है कि इस संकट में दुनिया के अन्य देश अपने लोगों का कैसे ख्याल रख रहे हैं.
• वेतन संरक्षण या पगार सब्सिडी सरकारों के रोजगार बचाओ अभियानों का सबसे बड़ा हिस्सा है. भारत में जब हर चौथे कर्मचारी की पगार कटी है तब ब्रिटेन की ‘फर्लो’, जर्मनी की कुर्जरबेट जैसी स्कीमों सहित फ्रांस, इटली, कनाडा, मलेशिया, हांगकांग, नीदरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, डेनमार्क और सिंगापुर सहित 35 देशों में कंपनियों को सब्सिडी और फर्लो बोनस दिए जा रहे हैं. अमेरिका में छोटे उद्योगों को तकरीबन मुफ्त कर्ज मिल रहा है ताकि कर्मचारियों की तनख्वाहें न कटें. इन सभी देशों में कर्मचारियों के 70 से 84 फीसद तक वेतन संरक्षित किए गए हैं. इन स्कीमों का लाभ मध्य वर्ग को मिला है जिससे बाजार में मांग बनाए रखने में मदद मिली है. बीमारी में वेतन न काटे जाने व इलाज आदि की रियायतें अलग से हैं.
• अमेरिका, दक्षिण कोरिया, चीन (प्रवासी श्रमिकों के लिए), कनाडा, आयरलैंड, बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देशों ने बेकार हुए लोगों और परिवारों को बेकारी भत्ते दिए हैं या मौजूदा भत्तों की दर बढ़ाई है. इसका लाभ कम आय वालों को मिला है.
• अमेरिका, स्वीडन, डेनमार्क, कनाडा, आयरलैंड, फ्रांस सहित करीब दो दर्जन देशों ने अपने यहां स्वरोजगारों के लिए सब्सिडी और नुक्सान भरपाई की स्कीमें शुरू की हैं, जिनमें उनके हर माह हुए नुक्सान का 60 से 70 फीसद हिस्सा वापस हो रहा है. उनके टैक्स माफ किए गए हैं.
ज्यादातर स्कीमें छोटे उद्योगों में रोजगार बचाने पर केंद्रित हैं जबकि बड़ी कंपनियों को टैक्स रियायतें देकर नौकरियां और वेतन कटौती रोकने के लिए प्रेरित किया गया है. रोजगार बचाने की स्कीमों के कारण लोगों के वेतन संरक्षित हैं इसलिए कोविड का डर बीतते ही मांग लौट आएगी. यूरोप और अमेरिका में तेज वापसी (V) का आकलन इसी पर आधारित है.
1930 की महामंदी के बाद उभरी आर्थिक नीतियों (अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केंज का खुला पत्र) की रोशनी में सरकारों ने यह गांठ बांध ली थी कि रोजगार बचाना और बढ़ाना ही मंदी से उबरने का एकमात्र तरीका है. अप्रैल से लेकर अगस्त के दौरान यूरोप में करीब 5 करोड़ रोजगार बचाए (ओईसीडी रिपोर्ट) गए हैं. अमेरिका में सितंबर के आखिरी सप्ताह तक करीब 2.6 करोड़ बेरोजगारों को बेकारी सहायता मिली. छोटे उद्योगों में वेतन संरक्षण कार्यक्रम के तहत 520 अरब डॉलर के कर्ज (इन्हें बाद में माफ कर दिया जाता है) बांटे जा चुके हैं.
दूसरी तरफ, इसी दौरान भारत में 12.2 करोड़ रोजगार खत्म हुए (सीएमआइई) जिसमें 66 लाख नौकरियां मध्य वर्गीय हैं. करीब 72 लाख करोड़ के खर्च (केंद्र और राज्य), किस्म-किस्म के टैक्स, बैंकों से मनचाहे कर्ज के बावजूद हमारी सरकारों के पास इस सबसे मुश्किल वक्त में हमारे लिए कुछ नहीं है. सरकार ने 20 करोड़ महिला जनधन खातों में तीन माह में केवल 1,500 रुपए (आठ दिन की मनरेगा मजदूरी के बराबर) दी है जिस पर मंत्री और समर्थक लहालोट हुए जा रहे हैं.
भारत में मंदी गहराने के आकलन यूं ही नहीं बरस रहे. वास्तविकता से कोसों दूर खड़ी सरकार बेकारी और महामंदी से परेशान लोगों को कर्ज लेने की राह दिखा रही है या कि भूखों को विटामिन खाने की सलाह दी जा रही है. सबको मालूम है, मांग केवल खपत से आएगी और हर महीने जब बेकारों की तादाद बढ़ रही हो तो कारोबार में नया निवेश कौन करेगा. हमें याद रखना होगा कि सरकारें हमारी बचत और टैक्स पर चलती हैं. और जीविका पर इस सबसे बड़े संकट में हमें हमारे हाल पर छोड़ रही हैं.
शेक्सपियर के जूलियस सीजर में कैसियस और ब्रूटस का संवाद याद आता हैः खोट हमारे सितारों में नहीं है / हम ही गए बीते हैं.