चुनाव की तरफ बढ़ते नेता अपराधियों की अगुआई और खून खच्चर वाली कबीलाई सियासत के हिंसक आग्रह से भर गए हैं जो बदलते समाज को न समझ पाने की कुंठा व हताशा से उपजा है।
भारत के नेताओं को समाज को बांटने पर नहीं बल्कि
इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि वे समाज के विघटन की नई तकनीकें ईजाद नहीं कर सके
हैं। किसी भी देश की सियासत समाज को बांटे बिना नहीं सधती। एक समान राजनीतिक
विचारधारा वाले समाज सिर्फ तानाशाहों के मातहत बंधते हैं इसलिए दुनिया के
लोकतंत्रों की चतुर सियासत ने सत्ता पाने के लिए अपने आधुनिक होते समाजों में
राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की नई रचनात्मक तकनीकें गढ़ी हैं जो नस्लों, जातियों व वर्गों में पहचान, अधिकार व प्रगति के नए सपने रोपती हैं। लेकिन
भारत की मौजूदा सियासत तो मजहबी बंटवारे की तरफ वापस लौट रही है, जो राजनीतिक विघटन का सबसे भोंडा तरीका है। इससे
तो सत्तर अस्सी दशक वाले नेता अच्छे थे जो समाज के जातीय ताने बाने से संवाद की
मेहनत करते थे और राजनीति को नुमाइंदगी व अधिकारों की उम्मीदों से जोड़ते थे।
जडों से उखड़े नेताओं की मौजूदा पीढ़ी भारत के बदलते व आधुनिक समाज को समझने की
जहमत नहीं उठाना चाहती। उसे तो अपराधियों की अगुआई और खून खच्चर वाली कबीलाई
सियासत के जरिये चुनावों की कर्मनाशा तैरना आसान लगने लगा है।
चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक हिंसा दरअसल एक
संस्थागत दंगा प्रणाली की देन हैं, जो उत्तर प्रदेश
सहित कई राज्यों में सक्रिय हो चुकी है। भारत की सांप्रदायिक हिंसा के सबसे
नामचीन अध्येता प्रो. पॉल आर ब्रास ने मेरठ में 1961 व 1982 के दंगों में पहली बार संगठित
सियासी मंतव्य पहचाने थे और इसे इंस्टीट्यूशनल रॉयट सिस्टम कहा था। क्यों कि
उन दंगो के बाद हुए विधानसभा व नगर निकायों के चुनाव के