वह जादूगर यकीनन करामाती
था। उसने सवाल उछाला। कोई है जो बीता वक्त लौटा सके। .. मजमे में सन्नाटा खिंच
गया। जादूगर ने मेज से यूपीए सरकार के पिछले बजट उठाये और पढ़ना शुरु किया। भारी
खर्च वाली स्कीमें, अभूतपूर्व घाटे,
भीमकाय सब्सिडी बिल, किस्म किस्म के
लाइसेंस परमिट राज, प्रतिस्पर्धा पर पाबंदी,.... लोग धीरे धीरे पुरानी यादों में उतर गए और अस्सी के दशक की समाजवादी
सुबहें, सब्सिडीवादी दिन और घाटा भरी शामें जीवंत हो उठीं।
यह जादू नही बल्कि सच है। उदार और खुला भारत अब अस्सी छाप नीतियों में घिर गया है।
यह सब कुछ सुनियोजित था या इत्तिफाकन हुआ अलबत्ता संकटों की इस ढलान से लौटने के
लिए भारत को अब बानवे जैसे बड़े सुधारों की जरुरत महसूस होने लगी है। इन सुधारों के
लिए प्रधानमंत्री को वह सब कुछ मिटाना होगा जो खुद उनकी अगुआई में पिछले आठ साल
में लिखा गया है।
बजट दर बजट
ढहना किसे कहते हैं इसे जानने के लिए हमें 2005-06 की रोशनी में 2011-12 को देखना चाहिए। संकटों के सभी प्रमुख सूचकांक इस
समय शिखर छू रहे हैं। जो यूपीए की पहली शुरुआत के वक्त अच्छे खासे सेहत मंद थे।
राजकोषीय घाटा दशक के सर्वोच्च स्तर पर (जीडीपी के अनुपात में छह फीसद) है और
विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का अंतर यानी चालू खाते का घाटा बीस साल के सबसे
ऊंचे स्तर (4.5 फीसद) पर। ग्रोथ भी दस साल के गर्त में है। राजकोषीय संयम और
संतुलित विदेशी मुद्रा प्रबंधन भारत की दो सबसे बडी ताजी सफलतायें थीं,
जिन्हें हम पूरी तरह गंवा चुके हैं। ऐसा
क्यों हुआ इसका जवाब यूपीए के पिछले आठ बजटों में दर्ज है। उदारीकरण के सबसे तपते
हुए वर्षों में समाजवादी कोल्ड स्टोरेज से निकले पिछले बजट ( पांच चिदंबरम –चार प्रणव) भारत की आर्थिक बढ़त को कच्चा खा गए। बजटों की बुनियाद यूपीए
के न्यूनतम साझा कार्यक्रम ने तैयार की थी। वह भारत का पहला राजनीतिक दस्तावेज
था जिसने देश के आर्थिक संतुलन को मरोड़ कर