
Saturday, September 14, 2019
मंदी के प्रायोजक

Tuesday, February 10, 2015
अच्छे दिन 'दिखाने' की कला
यदि वित्त मंत्री अरुण जेटली को अपनी सरकार के नौ माह को शानदार बताना है तो उन्हें अपने बजट भाषण की शुरुआत कुछ इसी तरह से करनी होगी कि, ''सभापति महोदय, मुझे बेहद प्रसन्नता है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले साल यानी 2013-14 में शानदार ग्रोथ दर्ज की. दुनियाभर में छाई मंदी, भारी महंगाई, देश में ऊंची ब्याज दरों और मांग में कमी के बावजूद पिछले साल कमाई भी बढ़ी और रोजगार भी. इससे एक साल पहले भी स्थिति बहुत खराब नहीं रही थी.'' जाहिर है, इस भाषण में यूपीए के आर्थिक प्रबंधन की तारीफ भी छिपी होगी. और वित्त मंत्री यदि 'पिछले दस वर्षों में सब बर्बाद' की धारणा पर कायम रहते हैं तो फिर जीडीपी की गणना का नया फॉर्मूला ही खारिज हो जाएगा. आंकड़ों की बिल्ली थैले से बाहर आ चुकी है. एक बड़े ग्लोबल निवेशक का कहना था कि सरकार को बुनियादी आंकड़ों को लेकर साफ-सुथरा होना चाहिए. मंदी की जगह ग्रोथ के आंकड़ों के पीछे चाहे जो राजनीति हो लेकिन इससे अब चौतरफा भ्रम फैलेगा. हम अब तक इस बात पर मुतमईन थे कि भारत को मंदी से उबरने की कोशिश करनी है लेकिन अब तो यह भी तय नहीं है कि अर्थव्यवस्था मंदी में है या ग्रोथ दौड़ रही है. नए पैमाने के आधार पर जीडीपी का सबसे ताजा आंकड़ा दिल्ली चुनाव के नतीजे से ठीक एक दिन पहले आएगा जो भारत में आंकड़ों की गुणवत्ता व इनके राजनैतिक इस्तेमाल पर चीन जैसी बहस शुरू कर सकता है जो मोदी सरकार को असहज करेगी.
Monday, August 26, 2013
भरोसे का अवमूल्यन
Monday, September 24, 2012
सुधार, समय और सियासत
Monday, February 27, 2012
सूझ कोषीय घाटा
Monday, May 23, 2011
अब तो ग्रोथ पर बन आई
Monday, December 27, 2010
भूल-चूक, लेनी-देनी
Monday, November 15, 2010
संकटों के नए संस्करण
दुनिया की आर्थिक फैक्ट्रियों से संकटों के नए संस्करण फिर निकलने लगे हैं। ग्रीस के साथ ही यूरोप की कष्ट कथा का समापन नहीं हुआ था, अब आयरलैंड दीवालिया होने को बेताब है और इधर मदद करने वाले यूरोपीय तंत्र का धैर्य चुक रहा है। बैंकिंग संकट से दुनिया को निकालने के लिए हाथ मिलाने वाले विश्व के 20 दिग्गज संरक्षणवाद को लेकर एक दूसरे पर गुर्राने लगे हैं यानी कि बीस बड़ों की (जी-20) बैठक असफल होने के बाद करेंसी वार और पूंजी की आवाजाही पर पाबंदियों का नगाड़ा बज उठा है। सिर्फ यही नहीं, मंदी में दुनिया की भारी गाड़ी खींच रहे भारत, चीन, ब्राजील आदि का दम भी फूल रहा है। यहां वृद्धि की रफ्तार थमने लगी है और महंगाई के कांटे पैने हो रहे हैं। दुनिया के लिए यह समस्याओं की नई खेप है और चुनौतियों का यह नया दौर पिछले बुरे दिनों से ज्यादा जटिल, जिद्दी और बहुआयामी दिख रहा है। समाधानों का घोर टोटा तो पहले से ही है, तभी तो पिछले दो साल की मुश्किलों का कचरा आज भी दुनिया के आंगन में जमा है।
ट्रेजडी पार्ट टू
यूरोप के पिग्स (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस, स्पेन) में दूसरा यानी आयरलैंड ढहने के करीब है। 1990 के दशक की तेज विकास दर वाला सेल्टिक टाइगर बूढ़ा होकर बैठ गया है और यूरोपीय समुदाय से लेकर आईएमएफ तक सब जगह उद्धार की गुहार लगा रहा है। डबलिन, दुबई जैसे रास्ते से गुजरते हुए यहां तक पहुंचा है। जमीन जायदाद के धंधे को कर्ज देकर सबसे बड़े आयरिश बैंक एंग्लो आयरिश और एलाइड आयरिश तबाह हो गए, जिसे बजट से 50 बिलियन यूरो की मदद देकर बचाया जा रहा है। आयरलैंड का घाटा जीडीपी का 32 फीसदी हो रहा है, सरकार के पास पैसा नहीं है और बाजार में साख रद्दी हो गई है। इसलिए बांडों को बेचने का इरादा छोड़ दिया गया है। आयरलैंड के लिए बैंकों को खड़ा करने की लागत 80 बिलियन यूरो तक जा सकती है। करदाताओं को निचोड़कर (भारी टैक्स और खर्च कटौती वाला बजट) यह लागत नहीं निकाली जा सकती। इसलिए ग्रीस की तर्ज पर यूरोपीय समुदाय की सहायता संस्था (यूरोपियन फाइनेंशियल स्टेबिलिटी फैसिलिटी) या आईएमएफ से मदद मिलने की उम्मीद है। लेकिन यह मदद उसे दीवालिया देशों की कतार में पहुंचा देगी। यूरोपीय समुदाय की दिक्कत यह है कि
Monday, August 2, 2010
मेहरबानी आपकी !
दस फीसदी की धार से छीलती महंगाई, महंगा होता कर्ज, अस्थिर खेती, सुस्त निवेश, चरमराता बुनियादी ढांचा और सौ जोखिम भरी वित्तीय दुनिया!!!! फिर भी अर्थव्यवस्था में आठ फीसदी से ऊपर की कुलांचें? ..कुछ भी तो माफिक नहीं है, मगर गाड़ी बेधड़क दौड़े चली जा रही है। किसे श्रेय देंगे आप इस करिश्मे का? ..कहीं दूर मत जाइए, अपना हाथ पीछे ले जाकर अपनी पीठ थपथपाइए!! यह सब आपकी मेहरबानी है। आप यानी भारतीय उपभोक्ता देश की अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया में सबसे पहले मंदी के गर्त से बाहर खींच लाए हैं। दाद देनी होगी हिम्मत की कि इतनी महंगाई के बावजूद हम खर्च कर रहे हैं और उद्योग चहक रहे हैं। यह बात दीगर है कि इस वीरता की कीमत कहीं और वसूल हो रही है। कमाई, उत्पादन और खर्च तीनों बढ़े हैं, लेकिन आम लोगों की बचत में वृद्धि पिछले तीन-चार साल से थम सी गई है। दरअसल खर्च नही, बल्कि शायद आपकी बचत महंगाई का शिकार बनी है।
खर्च का जादू
मंदी से दूभर दुनिया में भारत की अर्थव्यवस्था इतनी जल्दी पटरी पर लौटना हैरतअंगेज है। मांग का यह मौसम कौन लाया है? भारत तो चीन की तरह कोई बड़ा निर्यातक भी नहीं है। यहां तो निर्यात हमेशा से नकारात्मक अर्थात आयात से कम रहा है। दरअसल बाजार में ताजी मांग खालिस स्वदेशी है। माहौल बदलते ही भारत के उपभोक्ताओं ने अपने बटुए व क्रेडिट कार्ड निकाल लिये और आर्थिक विकास दर थिरकने लगी। इस साल जनवरी से मार्च के दौरान भारत में उपभोग फिर 4 से 4.5 फीसदी की गति दिखाने लगा है। खासतौर पर निजी उपभोग खर्च तो मार्च में 10.4 फीसदी पर आ गया है। इसी के बूते रिजर्व बैंक नौ फीसदी की आर्थिक विकास दर की उम्मीद बांध रहा है। करीब 36 फीसदी निर्धन आबादी के बावजूद भारत का 55-60 करोड़ आबादी वाला मध्य वर्ग इतना खर्च कर रहा है कि अर्थव्यवस्था आराम से दौड़ जाए। भारत के बाजार में 60 फीसदी मांग अब विशुद्ध रूप से खपत से निकलती है। पिछले कुछ वर्षो में आय व खर्च में वृद्धि तकरीबन बराबर हो गई है। बल्कि आर्थिक सर्वेक्षण तो बताता है कि हाल की मंदी से पहले के वर्ष (2008-09) में तो प्रति व्यक्ति खर्च, प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि से ज्यादा तेज दौड़ रहा था। अर्थातलोगों ने कर्ज के सहारे खर्च किया। वह दौर भी भारत में उपभोक्ता कर्जो में रिकार्ड वृद्घि का था। मैकेंजी ने एक ताजा अध्ययन में माना है कि अगले एक दशक में भारत का निजी उपभोग खर्च 1500 बिलियन डॉलर तक हो जाएगा। अर्थात खर्च का जादू जारी रहेगा।
खर्च से खुशहाल
पिछले कुछ महीनों के दौरान आए औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े दिलचस्प सूचनाएं बांट रहे हैं। भारत में उपभोक्ता उत्पादों के उत्पादन की वृद्धि दर जनवरी के तीन फीसदी से बढ़कर अप्रैल में 14.3 फीसदी हो गई। इसमें भी कंज्यूमर ड्यूरेबल्स यानी तमाम तरह के इलेक्ट्रानिक सामान आदि का उत्पादन 37 फीसदी की अचंभित करने वाली गति दिखा रहा है और सबूत दे रहा है कि बाजार में नई ग्राहकी आ पहुंची है। भारत में उपभोक्ता खर्च के कुछ हालिया (आर्थिक समीक्षा 2009-10) आंकड़े प्रमाण हैं कि उद्योग क्यों झूम रहे हैं। उपभोक्ताओं के कुल खर्च में परिवहन व संचार पर खर्च का हिस्सा पिछले कुछ वर्षो में 20 फीसदी पर पहुंच गया है। इसे आप सीधे आटोमोबाइल व संचार कंपनियों के यहां चल रहे त्यौहार से जोड़ सकते हैं। यात्रा करने पर खर्च बढ़ने की रफ्तार बीते चार वर्षो में पांच फीसदी से बढ़कर 12.3 फीसदी हो गई है। आटोमोबाइल बढ़ा तो ईधन पर खर्च भी उछल गया। मनोरंजन, चिकित्सा, शिक्षा और यहां तक कि फर्निशिंग जैसे उद्योग उपभोक्ताओं की कृपा से बाग-बाग हुए जा रहे हैं। खाने पर खर्च की वृद्धि दर घट गई है। मार्च में कुल निजी उपभोग खर्च 35.71 लाख करोड़ रुपये रहा है, लेकिन यह भारत मंं उपभोक्ता खर्च की आधी तस्वीर है। भारत के उपभोक्ताओं का बहुत बड़ा खर्च असंगठित खुदरा बाजार में होता है। देश के पूर्व सांख्यिकी प्रमुख प्रनब सेन ने हाल में कहा था कि देश के कुल कारोबार में संगठित खुदरा कारोबार का हिस्सा पांच-छह फीसदी ही है, इसलिए भारत में खपत को सही तरह से आंकना मुश्किल है।
खर्च का शिकार
भयानक महंगाई और फिर भी बढ़ता खर्च? ..उलटबांसी ही तो है, क्योंकि महंगाई तो खर्च को सिकोड़ देती है। भारत में इस संदर्भ में पूरा परिदृश्य बड़ा रोचक है। यहां महंगाई ने खर्च को नहीं बचत को सिकोड़ा है। भारत में उपभोक्तावाद का ताजा दौर 2004-05 के बाद शुरू हुआ था, जब अर्थव्यवस्था ने आठ-नौ फीसदी की रफ्तार दिखाई। उस समय महंगाई की दर चार फीसदी के आसपास थी। आय बढ़ी, बाजार बढ़ा, सस्ते कर्ज मिले तो उपभोक्ताओं ने बिंदास खर्च किया। आय व खर्च का स्वर्ण युग 2008-09 के अंत तक चला। इसी वक्त महंगाई और मंदी ने अपने नख दंत दिखाए, जिससे खपत कुछ धीमी पड़ गई, लेकिन शॉपिंग की नई संस्कृति तो तब तक जम चुकी थी। इसलिए जैसे ही छठवें वेतन आयोग का तोहफा मिला, सरकारी कर्मचारी झोला उठाकर बाजार में पहुंच गए। हालात सुधरते ही बढ़े वेतन के साथ निजी नौकरियों वाले भी शॉपिंग लिस्ट लेकर निकल पड़े। महंगाई ने खर्च के उत्साह को यकीनन तोड़ा है, लेकिन खर्च को नहीं। खर्च के इस मौसम में कुर्बान तो हुई है बचत। उपभोक्तावाद की ऋतु के आने के बाद से आम लोगों की बचत पिछले पांच साल से औसत 22-23 फीसदी (जीडीपी के अनुपात में) पर स्थिर है। वित्तीय बचत भी अर्से से 10-11 फीसदी पर घूम रही है।
इस गफलत में रहने की जरूरत नहीं कि महंगाई असर नहीं करती। महंगाई कम और कमजोर आय वालों का खर्च चाट गई तो मध्यम आय वर्ग की बचत उसके पेट में गई है। अलबत्ता खर्च का त्यौहार जारी है और इसलिए तमाम बाधाओं के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने मंदी की बाजी सबसे पहले पलट दी है। चीन की कामयाबी भारी निर्यात और निवेश से निकली है, मगर भारत खपत व उपभोग की गौरव गाथा लिख रहा है, नया निवेश भी इसी उपभोग का दामन पकड़ कर आ रहा है। ..सरकार तो उपभोक्ताओं को सलाम करने से रही, लेकिन कम से कम आप तो खुद को शाबासी दे ही लीजिए.. महंगाई से जूझते हुए आपने सचमुच करिश्मा किया है।
Monday, June 28, 2010
तौबा, तेरा सुधार !!
पचास पार का पेट्रोल और चालीस पार का डीजल खरीदते हुए कैसा लग रहा है? सुधारों की पैकिंग में कांटो भरा तोहफा। पेट्रो उत्पादों के मामले में सरकारें हमेशा से ऐसा करती आई हैं। कीमतें बढ़ाते हुए हमें (सब्सिडी आंकड़ा दिखा कर) सब्सिडीखोर होने की शर्मिदगी से भर दिया जाता है। अंतरराष्ट्रीय कीमतों की रोशनी में तेल कंपनियों की बेचारगी देखकर हम मायूस हो जाते हैं। अंतत: सुधारों का तिलक लगा कर उपभोक्ता यूं बलिदान हो जाते हैं कि मानो कोई दूसरा जिम्मेदार ही न हो। यह सरकारों का आजमाया हुआ इमोशनल अत्याचार है। वैसे चाहें तो ताजा फैसले की रोशनी में इसे पेट्रो मूल्य प्रणाली में नया सुधार भी कह सकते हैं। मगर पेट्रो उत्पादों को दुगने तिगुने टैक्स से निचोड़ती राज्य सरकारों को कुछ मत कहिए। सब्सिडी का डीजल पी रहे जेनसेटों से घरों बाजारों को चमकने दीजिए, बिजली की कमी की शिकायत मत कीजिए। सार्वजनिक परिवहन की मांग मत करिए, क्या ऑटो कंपनियों की प्रगति से जलते हैं? यह सब सुधार के एजेंडे में नहीं आते हैं। ताजा सुधार तेल कंपनियों को सिर्फ पेट्रोल की कीमत तय करने की आजादी देता है। डीजल को लेकर रहस्य और केरोसिन व एलपीजी पर सब्सिडी कायम है। साथ ही सियासत के दखल का शाश्वत रास्ता भी खुला है, जिसके कारण पेट्रो मूल्य प्रणाली में सुधारों का इतिहास बुरी तरह दागदार रहा है।
मांग के बदले महंगाई
साफ सियासत, रहस्यमय फार्मूले
कल्पना कीजिए, बिहार (अक्टूबर 2010) या बंगाल (मई 2011) में चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है। तभी ईरान को अमेरिका अचानक परमाणु कार्यक्रम का नया पिन चुभो देता है या फिर इजरायल हाल के फ्लोटिला हमले जैसी कोई कारगुजारी कर बैठता है। दुनिया में तेल की कीमतें सातवें आसमान पर हैं, तब क्या होगा? सरकार तेल कंपनियों से कीमतें तय करने की आजादी तत्काल छीन लेगी। पेट्रो मूल्य प्रणाली के ताजा क्रांतिकारी सुधार में यह प्रावधान शामिल है। यही पेंच पेट्रो मूल्य ढांचे में सुधारों की साख को हमेशा से दागी करते हैं। 2002 में भी सरकार ने पेट्रो मूल्यों के नियंत्रण से तौबा की थी। बजट में ऐलान हुआ भी था लेकिन कीमतें सरकार की जकड़ से कभी आजाद नहीं हुई। बस केरोसिन व एलपीजी का घाटा तेल पूल खाते की जगह बजट में पहुंच गया। सुधारों के नए कार्यक्रम में भी सरकार के हस्तक्षेप की जगह और राजनीतिक ईधनों यानी डीजल, केरोसिन और एलपीजी की कीमतों में पुराना असमंजस बरकरार है। कीमतें कब कैसे कितनी बढ़ेंगी या सरकार कब किस मौके पर कैसे दखल देगी, इसके फार्मूले रहस्य के रवायती आवरण में हैं। ऐसी सूरत में सुधारों पर भरोसा जरा मुश्किल है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि सुधार की रोशनी राज्यों के टैक्स ढांचे तक नहीं पहुंचती जो पेट्रो उत्पादों की कीमत दोगुनी कर देते हैं। महंगी कारों में सस्ते ईधन के खेल, तेल कंपनियों की दक्षता, केरोसिन व डीजल की मिलावट के अर्थशास्त्र, संरक्षण की कोशिशों और वैकल्पिक ईधनों की जरूरत जैसे मुद्दों की तरफ भी सुधारों की नजर नहीं जाती। पेट्रो मूल्यों में सुधार का मतलब सियासत के हिसाब से कीमतों में कतर ब्योंत है बस। और इस पैमाने पर यह वक्त सबसे मुफीद था।
बाजार बदला, पैमाने नहीं
सरकार का सस्ता डीजल कहां खप रहा है? सबको पता है कि सस्ता केरोसिन देश में किस काम आता है? पिछले बीस साल में इस देश में ईधन की खपत का पूरा ढांचा बदल गया मगर सरकार के पैमाने नहीं बदले। बुनियादी ढांचे और बुनियादी सेवाओं में कई बुनियादी खामियों की कीमत पेट्रो उत्पाद चुकाते हैं। डीजल दुनिया के लिए ट्रांसपोर्ट फ्यूल है मगर भारत में यह एनर्जी फ्यूल भी है। आवासीय भवनों व शॉपिंग मॉल को रोशन करने वाले दैत्याकार किलोवाटी जनरेटर बिजली कमी से उपजे हैं। शहरों से लेकर गांवों तक अब जरूरत की तिहाई रोशनी डीजल से निकलती है। नए उद्योग सरकारी बिजली भरोसे नहीं बल्कि सस्ते डीजल की बिजली भरोसे आते हैं। पिछले चार साल में डीजल 30 से 40 रुपये प्रति लीटर हो गया लेकिन डीजल की मांग करीब नौ फीसदी सालाना की रिकार्ड दर से बढ़ रही है। देश के ज्यादातर शहर सार्वजनिक परिवहन के मामले में आदिम युग में हैं मगर ऑटो कंपनियां वक्त को पछाड़ रही हैं। कामकाजी आबादी से भरे शहर निजी वाहनों से अटे पड़े हैं और पेट्रोल की मांग 14 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है। बावजूद इसके पेट्रोल चार साल में 43 से 50 रुपये लीटर पर पहुंच गया। सस्ते डीजल और सस्ती बिजली दोनों की तोहमत खेती के नाम है लेकिन खेती में सिंचाई के फिर भी लाले हैं। दरअसल, बढ़ती अर्थव्यवस्था और कमाई ने बिजली, परिवहन सुविधाओं की कमी का इलाज सस्ते पेट्रो उत्पादों में खोज लिया है। इसलिए कीमत बढ़ने से मांग घटने का सिद्धांत यहां सिर के बल खड़ा है।
सरकार ठीक कहती है कि पेट्रो उत्पादों की महंगाई के मामले हम अभी सिंगापुर व थाईलैंड के करीब ही पहुंचे हैं। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस तो बहुत आगे हैं। यह भी सच है कि अरब के कुओं, मैक्सिको की खाड़ी और नार्वे के समुद्र से निकला तेल कीमत के मामले में उपभोक्ताओं के बीच फर्क नहीं करता। लेकिन जरा ठहरिये.. सरकारें चाहें तो फर्क पैदा कर सकती हैं क्योंकि ईधन के मूल्य महंगाई, जनता की आय और अर्थव्यवस्था की स्थिति देखकर ही तय होते हैं। मगर यहां तो सियासत का फार्मूला सब पर भारी है। अब छोड़ भी दीजिये, महंगाई से राहत की उम्मीद का दामन। बेनियाज और बेफिक्र सरकार ने एक नया धारदार सुधार आप पर लाद दिया है। इसलिए .. जोर लगा के हईशा!
बेनियाजी हद से गुजरी, बंदा परवर कब तलक
हम कहेंगे हाले दिल और आप फरमायेंगे क्या (गालिब )
Monday, June 21, 2010
मांग के कंधे पर बैठी महंगाई
कदम रुके थे, पैर में बंधा पत्थर तो जस का तस था। महंगाई गई कहां थी? अर्थव्यवस्था मंदी से निढाल होकर बैठ गई थी इसलिए महंगाई का बोझ बिसर गया था। कदम फिर बढ़े हैं तो महंगाई टांग खींचने लगी है। मुद्रास्फीति का प्रेत नई ताकत जुटा कर लौट आया है। मंदी के छोटे से ब्रेक के बीच महंगाई और जिद्दी, जटिल व व्यापक हो गई है। यह खेत व मंडियों से निकल कर फैक्ट्री व मॉल्स तक फैल गई है। मानसून का टोटका इस पर असर नहीं करता। gमौद्रिक जोड़ जुगत इसके सामने बेमानी है। महंगाई ने मांग में बढ़ोतरी से ताकत लेना सीख लिया है। तेज आर्थिक विकास अब इसे कंधे पर उठाए घूमता है। भारत में आर्थिक मंदी का अंधेरा छंट रहा है। उत्पादन के आंकड़े अच्छी खबरें ला रहे हैं लेकिन नामुराद महंगाई इस उजाले को दागदार बनाने के लिए फिर तैयार है।
लंबे हाथ और पैने दांत
महंगाई अब खेत खलिहान से निकलने वाले खाद्य उत्पादों की बपौती नहीं रही। बीते छह माह में यह उद्योगों तक फैल गई है यानी आर्थिक जबान में जनरलाइज्ड इन्फलेशन। महंगाई मौसमी मेहमान वाली भूमिका छोड़कर घर जमाई वाली भूमिका में आ गई है। उत्पादन का हर क्षेत्र इसके असर में है। कुछ ताजे आंकड़ों की रोशनी में महंगाई के इस नए चेहरे को पहचाना जा सकता है। पिछले साल दिसंबर तक भारत में महंगाई खाद्य उत्पादों की टोकरी तक सीमित थी। गैर खाद्य उत्पाद महज दो ढाई फीसदी की मुद्रास्फीति दिखा रहे थे लेकिन अब सूरत बदल गई है। गैर खाद्य और गैर ईधन (पेट्रोल डीजल) उत्पादों में भी मुद्रास्फीति 8 फीसदी से ऊपर निकल गई है। खाद्य उत्पादों में तो पहले से 11-12 फीसदी की मुद्रास्फीति है। खासतौर पर लोहा व स्टील, कपड़ा, रसायन व लकड़ी उत्पाद के वर्गो में कीमतों में अभूतपूर्व उछाल आया है। यह सभी क्षेत्र कई उद्योगों को कच्चा माल देते हैं इसलिए महंगाई का इन्फेक्शन फैलना तय है। यह महंगाई का नया व जिद्दी चरित्र है। बजट में कर रियायतें वापस हुई तो कीमतें बढ़ाने को तैयार बैठे उद्योगों को बहाना मिल गया। महंगाई का फैक्ट्रियों (मैन्यूफैक्चर्ड उत्पादों) में घर बनाना बेहद खतरनाक है। तभी तो रिजर्व बैंक भी मुद्रास्फीति के बढ़ने को लेकर मुतमइन है। बाजार मान रहा है कि थोक कीमतों वाली महंगाई दहाई के अंकों का चोला फिर पहन सकती है, फुटकर कीमतों की मुद्रास्फीति तो पहले से ही दहाई में हैं। मैन्यूफैक्चर्ड और खाद्य उत्पादों की कीमतें साथ-साथ बढ़ने का मतलब है कि महंगाई के हाथ लंबे और दांत पैने हो गए हैं।
इलाज नहीं खुराक
महंगाई अब मांग के पंखों पर सवारी कर रही है। याद करें कि दो साल पहले 2007-08 की तीसरी तिमाही में जब मुद्रास्फीति ने अपना आमद दर्ज की थी तब भी भारत में आर्थिक विकास दर तेज थी और महंगाई बढ़ने की वजह मांग का बढ़ना बताया गया था। बात घूम कर फिर वहीं आ पहुंची है। आर्थिक वृद्घि का तेज घूमता पहिया महंगाई को उछालने लगा है जबकि आपूर्ति के सहारे महंगाई घटाने की गणित फेल हो गई है। अंतरराष्ट्रीय कारकों के मत्थे तोहमत मढ़ना भी अब नाइंसाफी है। ताजी मंदी के बाद से पिछले कुछ माह में पूरे विश्व के बाजारों में जिंसों यानी कमोडिटीज की कीमतें गिरी हैं लेकिन भारत में कीमतें बढ़ रही हैं। माना कि पिछली खरीफ को सूखा निगल गया था लेकिन रबी तो अच्छी गई। रबी में गेहूं की पैदावार 2009 के रिकॉर्ड उत्पादन 80.68 मिलियन टन से ज्यादा करीब 81 मिलियन टन रही। सरकार ने कहा कि इससे खरीफ का घाटा पूरा हो गया है मगर महंगाई वैसे ही नोचती रही। अंतत: सरकार ने पैंतरा बदला और अब खरीफ पर उम्मीदें टिका दीं। मानसून का आसरा देखा जाने लगा है। दरअसल आर्थिक विकास के पलटी खाते ही मांग बढ़ी है जिसने पूरा गणित उलट दिया। आपूर्ति बढ़ने से महंगाई कुछ हिचकती इससे पहले उसे मांग ने नए सिरे से उकसा दिया है।
सारे तीर अंधेरे में
महंगाई को लेकर सरकार और रिजर्व बैंक के सारे तीर दरअसल अंधेरे में चलते रहे हैं इसलिए महंगाई का इलाज करने के जिम्मेदार भी अब अटकल और अंदाज के सहारे हैं। आंकड़ों में अगर कमी दिखी तो सरकार ने भी ताली बजाई और अगर आंकड़े ने कीमतें बढ़ती बताईं तो सरकार ने भी चिंता की मुद्रा बनाई। सरकार के ं महंगाई नियंत्रण कार्यक्रम में अगला टारगेट दिसंबर है और मानसून ताजा बहाना है। हालांकि अच्छी खरीफ महंगाई का इलाज शायद ही करे। दरअसल पिछले चार फसली मौसमों से जारी महंगाई ने कृषि उपज के बाजार में मूल्य वृद्घि की नींव खोद कर जमा दिया है। खरीफ का समर्थन मूल्य बढ़ाना सियासी मजबूरी थी इसलिए खरीफ में पैदावार के महंगे होने का माहौल पहले से तैयार है। इधर अर्थव्यवस्था में आमतौर पर मांग बढ़ने के साथ ही रबी की बेहतर फसल ने ग्रामीण क्षेत्र में भी उपभोग खर्च बढ़ा दिया है। तभी तो रबी की फसल आते ही उपभोक्ता उत्पादों व दोपहिया वाहनों का बाजार अचानक झूम उठा है। यानी कि अगर बादल कायदे से बरसे तो भी खरीफ की अच्छी फसल महंगाई को डरा नहीं सकेगी। इसके बाद बचती है रिजर्व बैंक की मौद्रिक कीमियागिरी। तो इस मोर्चे पर दिलचस्प उलझने हैं। मंदी से उबरती अर्थव्यवस्था को सस्ते कर्ज का प्रोत्साहन चाहिए और सरकारी उपक्रमों व निजी कंपनियों की ताजी इक्विटी खरीदने के लिए बाजार को भरपूर पैसा चाहिए। इधर यूरोप के बाजारों से जले निवेशक डॉलर यूरो लेकर भारत की तरफ दौड़ रहे हैं। उनके डॉलर आएंगे तो बदले में रुपया बाजार में जाएगा। इसलिए रिजर्व बैंक गवर्नर सुब्बाराव का इशारा समझिये। वह बाजार और उद्योग की नहीं सुनने वाले। उन्हें मालूम है कि बाजार में इस समय पैसा बढ़ाना महंगाई को लाल कपड़ा दिखाना है। अर्थात कर्ज महंगा होकर रहेगा और महंगा कर्ज उद्योगों की लागत बढ़ाकर महंगाई के नाखून और धारदार करेगा।
भारत की अर्थव्यवस्था ने मंदी की मारी दुनिया में सबसे पहले विकास की अंगड़ाई ली है। अर्थव्यवस्था में कई मोर्चो पर सुखद रोशनी फूट पड़ी है। आर्थिक उत्पादन के ताजे आंकड़े उत्साह भर रहे हैं तो सरकारी घाटे को कम करने के सभी दांव (थ्रीजी व ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम की बिक्री और विनिवेश) भी बिल्कुल सही पड़े हैं। रबी के मौसम में खेतों से भी अच्छे समाचार आए हैं और मानसून आशा बंधा रहा है। लेकिन महंगाई इस पूरे उत्सव में विघ्न डालने को तैयार है। और जिस अर्थव्यवस्था में महंगाई मेहमान की जगह मेजबान यानी कि मौसमी की जगह स्थायी हो जाए वहां कोई भी उजाला टिकाऊ नहीं हो सकता। क्योंकि महंगाई का अंधेरा अंतत: हर रोशनी को निगल जाता है।
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Monday, January 11, 2010
चुनौतियों की चकरी
वित्तीय अनुशासन का शीर्षासन
इस साल फरवरी में आने वाला बजट पिछले कुछ दशकों के सबसे अभूतपूर्व राजकोषीय घाटे वाला बजट हो तो चौंकियेगा नहीं। सरकार के आधिकारिक आंकड़ों में राजकोषीय और राजस्व घाटा, जीडीपी के अनुपात मे क्रमश: सात और पांच फीसदी, सत्रह साल के सबसे के सबसे ऊंचे स्तरों पर है। दरअसल दुनिया जब तक मंदी से निबटने की रणनीति बनाती भारत सरकार सांता क्लॉज बन कर वित्तीय रियायतों बांटने निकल पड़ी। चुनाव सामने था और सरकार मंदी को प्रोत्साहन के सहारे तमाम ऐसे खर्चे सब्सिडी और वेतन आयोग की सिफारिशों पर खर्च, ढकने थे जिन पर आम दिनों में वित्तीय सवाल उठ सकते थे। प्रोत्साहन पैकेज से मंदी से कितनी दूर हुई इस पर चर्चा फिर कभी लेकिन खजाना विकलांग हो गया है। उत्पादन व मांग घटने के कारण राजस्व घटा और इधर जुलाई में सरकार ने अब तक का सबसे बड़ा कर्ज , 4,50,000 करोड़ रुपये, कार्यक्रम घोषित किया। ताकि दस लाख करोड़ के खर्च का बजटीय गुब्बारे में हवा भरी जा सके। अचरज नहीं कि मार्च के अंत तक कर्ज इससे भी ऊपर चला जाए क्यों कि लिब्रहान आदि पर बहसों के बीच बीते माह सरकार ने संसद से अपने बढ़े खर्च का बिल पास करा लिया। और राजस्व की हालत पतली है। अगला साल खर्च में कोई रियायत देने नहीं जा रहा क्यों कि सब्सिडी, नरेगा आदि के मुंह पहले से बड़े हो गए हैं। वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों को करों में पहले से ज्यादा हिस्सा देना होगा। पूरी तरह बेहाथ हो चुके घाटे को भरने के लिए अगले वित्त वर्ष में सरकार बाजार से कितना कर्ज उठायेगी, अंदाज मुश्किल है। अब डरिये कि घाटे को देख अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख यानी रेटिंग न घट जाए।
मुंबई वाली मदद
आइये अब मुंबई वाले सूरमा को देखते हैं यानी रिजर्व बैंक जो कि चुनौतियों की इस चकरी को अपनी तरह से रफ्तार देने वाला है। प्रणव बाबू अब रिजर्व बैंक से यह उम्मीद तो नहीं कर सकते कि वह बाजार में घड़े में पानी भरता रहेगा ताकि सरकार को कर्ज मिल सके। रिजर्व बैंक को जो महंगाई दिख रही है वही प्रणव मुखर्जी की भी निगाहों के सामने है। भले ही यह महंगाई मौद्रिक नहीं बल्कि आर्थिक दुर्नीतियों का नतीजा हो लेकिन रिजर्व बैंक की किताब में महंगाई और मौद्रिक उदारता के बीच छत्तीस का फार्मूला है। इसलिए बजट से पहले ही मौद्रिक सख्ती शुरु हो जाएगी और साथ ही बढ़ने लगेंगी ब्याज दरें। महंगाई के बीच अगर ब्याज दरें भी बढ़ गई तो उद्योगों की पार्टी तो खत्म समझिये। एक तो महंगाई ने लोगों की क्रय शक्ति लूट ली ऊपर से अब कर्ज के सहारे ग्राहकी निकलने की उम्मीद भी खत्म क्यों कि महंगा कर्ज लेकर कौन खर्च करेगा? सरकार के लिए मुश्किलें दोहरी हैं। यह माहौल उत्पादन को हतोत्साहित करता है जिससे राजस्व में कमी आती है और दूसरी तरफ खर्च कम करने की कोई गुंजायश नहीं है।
तकाजे का वक्त
मुसीबतों के इस पहिये का सबसे चुनौती भरा मोड़ यह है कि सरकारी खजाने के लिए बेहद कठिन दशक इसी साल से शुरु हो रहा है। बीते सालों के सरकार ने जो जमकर कर्ज जुटाये थे उनकी भारी देनदारी 2010-11 से शुरु हो रही है। सरकारी ट्रेजरी बिलों के संदर्भ में रिजर्व बैंक का आंकड़ा बताता है कि इस साल सरकार को करीब 1,12,000 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाना है। जो कि मौजूदा साल में महज 27000 करोड़ रुपये था। यह भारी तकाजे अगले एक दशक तक चलेगा और हर साल सरकार की देनदारी 70,000 करोड़ रुपये से ऊपर होगी। 2014-15 में तो इसके 1,75,000 करोड़ रुपये तक जाने का आकलन है। इधर ब्याज दर बढ़ने से ब्याज की देनदारी बढ़ेगी से अलग से। मौजूदा साल में खजाना 2,25,000 करोड रुपये का ब्याज दे रहा है यह रकम मौजूदा साल में सरकार को इनकम टैक्स से मिलने वाले राजस्व की दोगुनी और कुल कर राजस्व की लगभग आधी है। ब्याज देनदारी में बढ़ोत्तरी के पिछले आंकड़ों के आधार अगले साल यह तीन लाख करोड़ रुपये आसपास हो सकता । जाहिर इसे चुकाने के लिए सरकार को नया कर्ज चाहिए। इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे कि क्या यह घरेलू ऋण संकट की शुरुआत है? लेकिन यह आंकड़ा जरुर जहन में रखना चाहिए कि जीडीपी के अनुपात में घरेलू कर्ज 60 फीसदी पर पहुंच गया है। दुनिया के कुछ मुल्कों के ताजे दीवालियेपन से डरे दुनिया के निवेशकों को डराने के लिए अब हमारे पास बहुत कुछ है।
बाड़ ने खेत को कितना बचाया तो यह बाद में पता चलेगा लेकिन मंदी रोकने की बाड़ राजकोष के खेत का बड़ा हिस्सा चट जरुर कर गई है। आर्थिक चुनौतियों का यह चरित्र है कि इसमें तात्कालिक उपाय अक्सर दूरगामी समस्या बन जाते हैं। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने बीते सप्ताह कहा है कि वित्तीय संकट अभी टला नहीं है बल्कि नए सिरे से आ रहा है। यकीनन उनका इशारा अब उस संकट की तरफ है जो बैंकों की बैलेंस शीट और निवेशकों के खातों से निकल कर सरकारी खजानों के हिसाब किताब में बैठ गया है। भारत भी इसी नाव में सवार है और हम व आप भी इसी नौका के यात्री हैं। बजट का इंतजार बेशक करिये मगर बहुत उम्मीद के साथ नहीं क्यों चुनौतियों का पहिया थमते-थमते ही थमेगा।
Tuesday, January 5, 2010
बस इतना सा ख्वाेब है
नया साल बहत्तर घंटे बूढ़ा हो चुका है, यानी कि उम्मीदों का टोकरा उतारने में अब कोई हर्ज नहीं हैं। कामनायें और आशायें सर माथे. लेकिन हमारी बात तो अनिवार्यताओं, अपरिहार्यताओं और आकस्मिकताओं से जुड़ी है। यह चर्चा उन उपायों की है जिनके बिना नए साल में काम नहीं चलने वाला, क्यों कि कई क्षेत्रों में समस्यायें, संकट में बदल रही हैं। अगले साल की सुहानी उम्मीदों पर चर्चा फिर करेंगे पहले तो सुरक्षित, शांत और संकट मुक्त रहने के लिए इन उलझनों को सुलझाना जरुरी है। .. दरअसल यह 'दस के बरस' का संकटमोचन या आपत्ति निवारण एजेंडा है। कभी, ताकि सुरक्षा, शांति और संकटों से मुक्ति सुनिश्चित हो सके।
तो खायेंगे क्या ?
कभी आपने कल्पना भी की थी कि आपको सौ रुपये किलो की दाल खानी पड़ेगी। यानी कि उस खाद्य तेल से भी महंगी, जो गरीब की थाली में अब तक सबसे महंगा होता था। भूल जाइये गरीबी हटाने को दावों और हिसाबों को। यह महंगाई गरीबी कम करने के पिछले सभी फायदे चाट चुकी है। खाद्य उत्पादों की महंगाई गरीबी की सबसे बड़ी दोस्त है। दरअसल खेती का पूरा सॉफ्टवेर ही खराब हो गया है। इसका कोड नए सिरे से लिखने की जरुरत है और वह भी युद्धस्तर पर। अगर सरकार को कुछ रोककर भी खेती की सूरत बदलनी पड़े तो कोई हर्ज नहीं है। किसान के सहारे वोटों की खेती तो होती रहेगी लेकिन अगर खेतों में उपज न बढ़ी तो देश की आबादी खाद्य इमर्जेसी की तरफ बढ़ रही है। दस का बरस खाद्य संकट का बरस हो सकता है। एक अरब से ज्यादा लोगों को अगर सही कीमत पर रोटी न मिली तो सब बेकार हो जाएगा।
शहर फट जाएंगे
आपको मालूम है कि इस साल करीब आधा दर्जन नई छोटी कारें भारतीय बाजार में आने वाली हैं। मगर कोई बता सकता है कि वह चलेंगी कहां? शहर फूलकर फटने वाले हैं। पिछले दो दशकों के उदारीकरण ने शहरों को रेलवे प्लेटफार्म बना दिया है। सरकारें गांवों की तरफ देखने का नाटक करती रही और गांव के गांव आकर शहरों में धंस गए। सूरत सुधारने के लिए हर शहर में राष्ट्रमंडल खेल तो हो नहीं सकते लेकिन हर शहर को ढहने से बचने का रास्ता जरुर चाहिए। आबादी के प्रवास से लेकर, शहरी ढांचे की बदहाली व बीमार आबोहवा तक और कानून व्यवस्था की दिक्कतों से लेकर बिजली पानी की जरुरतों तक, शहरों का ताना बाना हर जगह खिंचकर फट रहा है। सिर्फ दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बंगलौर ही देश नहीं है। कानपुर, पटना, नासिक, इंदौर, लुधियाना भी देश में ही है। बरेली, जलगांव, भागलपुर, पानीपत भी उतने ही बेहाल हैं। दस का बरस शहरों के लिए नई और बड़ी दिक्कतों का है।
हवा में है खतरा
मतलब पर्यावरण से कतई नहीं है। बात विमानन क्षेत्र की है। अगर हवाई यात्रा करते हों इस साल बहुत संभल कर चलने की जरुरत है। देश का उड्डयन ढांचा चरमरा गया है। पिछले बरस लगभग हर माह कोई बड़ा हादसा हुआ है या होते-होते बचा है। हेलीकॉप्टर गिर रहे हैं, जहाज जमीन पर रनवे छोड़ कर गड्ढों में उतर रहे हैं, पायलट नशे में डूब कर सैकड़ो जिंदगियों के साथ एडवेंचर कर रहे हैं। जहाजों की तकनीकी खराबियां खौफ पैदा करने लगी हैं। विमानों को ऊपर वाला ही मेंटेन कर रहा है। दरअसल पूरा विमानन क्षेत्र एक गंभीर किस्म के खतरे में है और वह भी उस समय जब कि देश में विमान यात्रियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है और नए हवाई मार्ग खुले हैं। विमानन सेवाओं को सुधारने के लिए पता नहीं किस अनहोनी का इंतजार है। दस के बरस में यहां संकट बढ़ सकता है।
इंसाफ का तकाजा
आर्थिक स्तंभ में न्यायिक सुधारों की चर्चा पर चौंकिये मत? दुनिया में कोई अर्थव्यवस्था चाहे कितनी समृद्ध क्यों न हो, कानून के राज के बिना नहीं चलती। जहां सरकार के मंत्री अदालतों की निष्क्रियता और दागी साख को अराजकता बढ़ने की वजह बता रहे हो वहां कौन निवेशक अदालतों पर भरोसा करेगा। मुश्किल नहीं है यह समझना जिन इलाकों व राज्यों में न्याय और कानून व्यवस्था ठीक है वहां निवेशक अपने आप चले आते हैं। न्यायिक तंत्र में सुधार इसलिए जरुरी है क्यों कि यह लोकतंत्र के अन्य हिस्सों को जल्दी सुधार सकता है। वक्त का तकाजा है कि इंसाफ करने वाला पूरा तंत्र सुधारा जाए और वह भी बहुत तेजी से। यह सिर्फ लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनिवार्य नहीं है बल्कि आर्थिक प्रगति के लिए भी अपरिहार्य है। .. नया साल अदालतों से बहुत से सवाल करने वाला है।
बस एक पहचान
आखिर इस देश के सभी लोगों को एक पहचान पत्र देने के लिए कितने कर्मचारी और कितना पैसा चाहिए? लाखों बाबुओं की फौज और लाखों करोड़ के बजट वाला यह देश अगर चाहे तो एक या दो साल में पूरी परियोजना लागू नहीं कर सकता? मामला पैसे या संसाधनों का नहीं है, करने की जिद का है। अगर आतंकी हमले न हुए होते तो शायद नागरिक पहचान पत्र को लेकर कोई गंभीर नहीं होता। लेकिन वह संजीदगी भी किस काम की, जो वक्त पर नतीजे न दे सके। सुरक्षा संबंधी चाक चौबंदगी के लिए ही नहीं बल्कि लोगों को एक आधुनिक और वैधानिक पहचान भी चाहिए ताकि वह सरकारी सेवाओं तक और सरकारी सेवायें उन तक पहुंच सकें। यह परियोजना सरकार की इच्छा शक्ति की सबसे बड़ी परीक्षा है। इसमें देरी का नतीजा सिर्फ नुकसान है। दिसंबर में पूछेंगे कि हमें आपको पहचान देने की यह मुहिम फाइलों से कितना बाहर निकली?
नए साल में इस खुरदरे और अटपटे एजेंडे के लिए माफ करियेगा। हम जानते हैं कि यह नूतन वर्ष की रवायती शुभकामनाओं के माफिक नहीं है लेकिन यह हम सबकी उलझनों के माफिक जरुर है जो नए साल की पहली सुबह से ही हमें घेर कर बैठ गई हैं। तो नए साल में सिर्फ इतनी सी ख्वाहिश है कि सुधार अगरचे धीमे हों लेकिन संकटों के इलाज में सरकारें जल्दी दिखायेंगी। यह उम्मीद भी हमने सिर्फ इसलिए की है क्यों कि उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। इसके बाद इंतजार के अलावा और क्या हो akataa है। ..तुम आए हो, न शबे इंतजार गुजरी है , तलाश में है सहर, बार-बार गुजरी है। (फैज)
Monday, December 28, 2009
बोया पेड़ बबूल का..
सरासर गलत दिलासे
हम आपको आटा दाल का भाव क्या बताएं? हम तो आपको उन दिलासों की असलियत बताना चाहते हैं जो महंगाई की जिम्मेदारी से बचने के लिए दिए जाते हैं। सरकार का चेहरा छिपाने वाली अंतरराष्ट्रीय पेट्रो कीमतें गिर चुकी हैं, मगर महंगाई चढ़ी हुई है। अब तो इस महंगाई से मुद्रा के प्रवाह का भी कोई रिश्ता नहंी रहा। यह अब तक की सबसे पेचीदा और कडि़यल महंगाई है, जिसे कई अहम क्षेत्रों की लंबी उपेक्षा ने गढ़ा है। भारत ने इससे पहले भी महंगाई के दौर देखे हैं। सत्तर, अस्सी, नब्बे के दशक औसतन सात से नौ फीसदी की महंगाई के थे। 1974-75 में महंगाई 25 फीसदी तक गई थी और 80-81 में 18.2 फीसदी व 91-92 में 13.2 फीसदी तक। लेकिन ताजी महंगाई उनसे फर्क है। 1974 की महंगाई सूखे में खरीफ की तबाही से उपजी थी, जबकि अस्सी की महंगाई को खेती की असफलता व तेल की कीमतों में तेजी ने गढ़ा था। मत भूलिए कि पिछले साल देश में दशक का सबसे अच्छा खाद्यान्न उत्पादन हुआ था, मगर तब भी खाने की कीमतें मार रही थीं और अब जब खरीफ कुछ नरम-गरम रही, तब भी महंगाई का कहर जारी है। भारत में महंगाई अब आम लोगों को मारने के लिए मौसम या दुनिया के बाजार की मोहताज नहीं है। सरकार के नीतिगत अपकर्मो ने उसे बला की ताकत दे दी है।
..आम कहां से खाय
भारतीय कृषि की करुण कथा बहुत लंबी है। हम इसे सुनाना भी नहीं चाहते। आप केवल खेती की चर्चा के जरिए ताजी महंगाई के कांटों की जड़ें देखिए। जिनकी तलाश के लिए कोई खुर्दबीन नहीं चाहिए। हिसाब बड़ा साफ है कि पिछले दो दशकों में देश की आबादी 20 से 24 फीसदी की (1991 में करीब 24 और 2000 में 22 फीसदी) प्रति दशक गति से बढ़ी, मगर अनाज उत्पादन बढ़ने की दर दो दशकों में 11 व 18 फीसदी रही है। भूल जाइए कि अधिकांश सांसद अपना पेशा किसान बताते हैं, भारत में (3124 किग्रा) एक हेक्टेअर जमीन में तो बांग्लादेश (3904 किग्रा) के बराबर भी धान नहीं पैदा होता। गेहूं की प्रति हेक्टेअर उपज में मरुस्थलीय इजिप्ट (6455 किग्रा) हमसे ढाई गुना आगे है। बीस साल में भूखे पेटों की आबादी दोगुना करने वाले देश में कुल बुवाई क्षेत्र तीन दशक से 140 से 141 मिलियन हेक्टेअर पर लटका है। हैरत में पड़ना जरूरी है कि भारत में अनाज की प्रति व्यक्ति वार्षिक उपलब्धता 1991 में 171 किग्रा से घटकर अब 150 किग्रा पर आ गई है। यह बात सिर्फ गेहूं चावल की है। दालें तो वर्षो से पतली हैं। 1.3 अरब पेटों को पाल रहे चीन में प्रति व्यक्ति 404 किग्रा अनाज उपलब्ध है। करीब डेढ़ दशक पहले तक विश्व खाद्य कार्यक्रम के तहत अनाज का दान लेने वाला चीन खेती की सूरत बदल कर दुनिया के अनाज बाजार बड़ा खिलाड़ी बन गया है और आज अनाज उत्पादन बढ़ाने की प्रयोगशाला है। इसके विपरीत भारत खाने की स्थायी किल्लत का केंद्र बनता जा रहा है। भारत ने पिछले दो दशकों में अपने खेतों में बदहाली उगाई और बाजार में मांग। आय, खपत व बाजार बढ़ा मगर पैदावार, खेत, अनुसंधान घट गया। रोटियों की जिद्दोजहद तो होनी ही है।
महंगाई का उदारीकरण
दो दशकों में देश के कुल आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा लगभग तीन गुना (52 फीसदी से 18 फीसदी) घट जाना आपको अचरज में नहीं डालता? उगाने वाले और खाने वाले हाथों के बीच संतुलन अब बिगड़ गया है। असंतुलन पहले भी था, मगर तब आय कम थी। उद्योग व सेवा क्षेत्रों के बूते बढ़ी आय ने लोगों को ताजी क्रय शक्ति दे दी है, जिसे वह किल्लत वाले खाद्य बाजार पर चलाकर मांग व आपूर्ति के संतुलन को कायदे से बिगाड़ रहे हैं। उत्पादन कम हो तो उदार बाजार मुश्किलों का सौदा करता है। खाद्य प्रसंस्करण, स्नैक्स और कृषि उपज आधारित मूल्य वर्धित उत्पादों का बाजार अनाज का विशाल व संगठित, नया ग्राहक है। सबको निवाला न दे पाने वाली खेती इन्हें भी आपूर्ति करती है। इन्हें खूब मुनाफा होता है। वक्त के साथ जमाखोरी के ढंग बदल रहे हैं। किल्लत की दुनिया में वायदा बाजार भी खूब चमकता है और मुश्किलें बढ़ाता है। यह महंगाई का उदारीकरण है। खेती में उत्पादक व उपभोक्ता के हितों के बीच संतुलन की बहस अंतरराष्ट्रीय है। भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था में उत्पादक घटे हैं, जबकि उपभोक्ता बढ़ रहे हैं। आदर्श स्थिति में नीतियां उपभोक्ताओं के हित में होनी चाहिए क्योंकि उत्पादक भी किसी न किसी स्तर पर उपभोग करता है। लेकिन यहां तो साफ ही नहीं कि खेती की किस्मत लिखने वाली नीतियां किसानों के लिए हैं या उपभोक्ताओं के लिए। अगर पूरी राजनीति खेती के हक में है तो उत्पादकों को बाजार खाद्य सामग्री से भर देने चाहिए। फिर दाल, रोटी, सब्जी की आपूर्ति कम क्यों है? महंगाई क्यों निचोड़ रही है? और अगर खेती का उत्पादन नहीं बढ़ सकता तो फिर आयात खुलना चाहिए जैसा कि दुनिया के कई मुल्क करते हैं। भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता पिसता है और उत्पादक का राजनीतिक इस्तेमाल होता है। .. कोई तीसरा है जो मालामाल होता है? हमने कभी पूछा नही कि यह तीसरा आदमी कौन है?. बस शांति के साथ महंगाई सहने की आदत डाल ली है। तो आइए, खुद को शाबासी तो दीजिए..आने वाली पीढि़यां आपके त्यागकी कथाएं गाएंगी!
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