सिमेंस, बीएई सिस्टम्स, ल्युसेंट, केलाग्स ब्राउन, सन माइक्रोसिस्टम्स और रायल डच शेल में क्या समानता है? यह सभी बहुराष्ट्रीय दिग्गज रिश्वत देने वाली कंपनियों की सूची (अमेरिकी जस्टिस विभाग) के सरताज हैं। फर्डिनांडो मार्कोसों और अल्बर्तो फुजीमोरियों से लेकर मधु कोड़ाओं तक की गिनती लगाते हुए हम यह भूल ही गए कि देने वाले हाथ भी होते हैं। यह नाम देने वाले दिग्गज हाथों में से कुछ के हैं जो यह आर्थिक उदारीकरण के नए और बहुरूप चेहरों से नियंत्रित होते हैं। यह पूरा परिदृश्य भ्रष्टाचार के बड़े राजनीतिक चेहरों के बीच गुम जाता है, क्योंकि उदारीकरण के गुन गाते और भ्रष्टाचार को गरियाते हम यह यह तलाशना भी भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार को कहीं उदारीकरण से पोषण तो नहीं मिलने लगा है? दरअसल अगर लाइसेंस परमिट राज भ्रष्टाचार का पूर्णत: सरकारी और केंद्रित स्वरूप था तो उदारीकरण, कई संदर्भो में, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार जैसे धतकरमों के विकेंद्रीकृत और अभिनव प्रयोग लेकर आया है। देने वाले और लेने वाले हाथ तो वही हैं, लेकिन लेन-देन के ढंग ढर्रे ज्यादा चुस्त, चतुर और पेचीदा हो गए हैं। पूरी दुनिया वित्तीय कुकर्मो की इस नई पीढ़ी से हलकान है अलबत्ता लेने-देने वालों की पौ-बारह है।
गरम मुट्ठी लाख
कीब्रिटेन की हथियार निर्माता बीएई सऊदी अरब में जेट का सौदा हथियाने के लिए अरबों डालर की रिश्वत दे डालती है। मामला ब्रिटेन के सीरियस फ्राड आफिस के पास है। जर्मन कंपनी औद्योगिक दिग्गज सिमेंस ठेके लेने के लिए दुनिया में एक अरब डालर की रिश्वत बांट पता नहीं कितनों को भ्रष्ट कर देती है। केलाग्स नाइजीरियन नौकरशाहों को रिश्वत की लत लगा देती है तो ल्युसेंट चीन के भ्रष्टाचार पोषक माहौल में खुलकर खेलती है। ..यह सूची बहुत लंबी है और इसमें दर्ज नामों में दिग्गजों की कमी नहीं है। अमेरिका का जस्टिस विभाग ऐसी 120 कंपनियों के खिलाफ जांच कर रहा है, जिन्होंने दुनिया में बहुतों का ईमान बिगाड़ा है। ओईसीडी हर साल एक रिपोर्ट जारी कर दुनिया को कारोबारी दुनिया में रिश्वतखोरी की डरावनी तस्वीर दिखाता है और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल हर साल सर पीटता है, मगर देने वाले हाथ हमेशा लंबे और मजबूत साबित होते हैं। संभावनामय बाजारों के दरवाजे पर नीतियों की मुहर लेकर बैठे राजनेता और नौकरशाह इनके आसान निशाने हैं। यह राजनेता इन कंपनियों को सिर्फ इसलिए हाथों-हाथ नहीं लेते क्योंकि यह उनकी समृद्धि की ललक को पूरा करती हैं, बल्कि यह दिग्गज इसलिए भी अपना काम करा ले जाते हैं, क्योंकि यह निवेश, रोजगार, विकास के अग्रदूत बन कर आते हैं। विकास व निवेश के भूखे विकासशील देशों के लिए यह देने वाले हाथ किसी महादानी के हाथों से कम नहीं होते इसलिए तीसरी दुनिया के नीति निर्माता इन दिग्गजों की दागदार दुनिया पर निगाह भी नहीं डालते।
और हिचक किस बात की?
पूरी दुनिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ब्राइबिंग के बिजनेस को इतना चुस्त व चतुर कर दिया है कि नेताओं के लिए इनसे डील करना ज्यादा सुरक्षित हो गया है। दर्जनों तरीके हैं, काम कराने से लेकर पैसा देने वाली एजे¨सयों की कई पर्ते हैं और हित साधने के साधन पूरी दुनिया में फैले हैं। ओईसीडी परेशान है कि आखिर इन बीच की एजेंसियों का क्या किया जाए जो कि देने वाले दिग्गजों और लेने वाले लालचियों के बीच इतनी सफाई से काम करती हैं कि पकड़ना मुश्किल हो जाता है। दरअसल यह लेन-देन को तरह-तरह के नायाब और वैध आवरण पहनाना अब एक कंसल्टेंसी है, जो बाजार में आसानी से मिलती है। इसीलिए तो विदेश में रिश्वत के खिलाफ दुनिया के जिन देशों में कानून भी हैं वहां भी कंपनियों पर शिकंजा कसना मुश्किल होता है। तभी तो एक बहुराष्ट्रीय दिग्गज ने चीन के अधिकारियों को लास वेगास की सैर कराकर अपना काम करा लिया और काफी वक्त तक कोई पकड़ नहीं सका। पूरी दुनिया उदारीकरण की दीवानी है। इस दीवानगी में हर देश अपने कानूनों को बदल रहा है ताकि उसकी जनता को विकास और समृद्धि मिले। यह मिलती भी है, लेकिन इसके साथ देने वाले हाथों की चालाकी भी आती है। यह हाथ ऐसे कानून बनवाने व बदलवाने में माहिर हैं, जिनसे विकास की जरुरतें भी पूरी होती हों और उनके कारोबारी हित भी सध जाएं। जाहिर जब दोनों काम एक साथ हो रहे हों और राजनेताओं को बोनस में मेहनताना मिल रहा हो तो फिर हिचक किस बात की?
भ्रष्टाचार का उदारीकरण
एक बड़ा पेचीदा सवाल है कि उदारीकरण से भ्रष्टाचार मिटता है या बढ़ता है। लाइसेंस परमिट राज के परम भ्रष्ट दौर को देख चुके लोग उदार नियमों को भ्रष्टाचार का इलाज मानते हैं मगर जरा भारत पर गौर फरमाइए। जिन बड़े वित्तीय व आर्थिक घोटाले उदारीकरण के पिछले करीब दो दशकों में हुए हैं, उतने पहले के चालीस वर्षो में नहीं हुए। शेयर बाजार, कंपनी प्रबंधन, सरकारी अनुबंध, निवेश कानून, वित्तीय सेवाएं, अचल संपत्ति, लाइसेंस परमिट लगभग हर जगह एक न एक बड़ा घोटाला दर्ज हो चुका है। रोचेस्टर इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी के आर्थिक विभाग ने कुछ वर्ष पहले एक अध्ययन में यह पाया था कि उदारीकरण भ्रष्टाचार दूर करने की दवा नहीं है, बल्कि तीसरी दुनिया के कई देशों में उदारीकरण ने भ्रष्टाचार को खाद पानी दे दिया है। नियम ढीले हुए हैं, प्रतिस्पर्धा बढ़ी है, नए अवसर आए हैं और निवेशकों ने बाजार की तरफ रुख किया है तो राजनेताओं की मुट्ठियां ज्यादा गरम हुई हैं क्योंकि अब दांव बड़े हैं और खिलाड़ी कई। कई जगह यह पाया गया है कि जिन देशों में लोकतंत्र और उदारीकरण एक साथ आया, वहां भ्रष्टाचार कम पनपा मगर जिन देशों में लोकतंत्र पहले आया और अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे काफी समय बाद खुले वहां उदारीकरण ने लेने और देने वाले हाथों के लिए चांदी काटने का इंतजाम कर दिया है। भारत के संदर्भ में अभी इस रिश्ते की पड़ताल होनी है।
भ्रष्टाचार की गुत्थी पहले से कडि़यल है, राजनीति व नौकरशाही ने इसे हमेशा कसा है और अब दिग्गज कंपनियां इसमें एडहेसिव डाल कर इसे और सख्त कर रही हैं। दरअसल भारत में लेने वाले हाथ इतने बड़े हैं कि उन की ओट में देने वाले हाथ छिप जाते हैं या फिर बेदाग नजर आते हैं। इसलिए हम इस तंत्र के दूसरे पक्ष की तरफ नहीं देख पाते मगर दुनिया ने अब कंपनियों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। जल्द ही हमें भी इन अपवित्र दानियों की तरफ देखना होगा। तब तक भ्रष्टाचार में फंसे नेता, अच्छे संदर्भो में लिखे गए, रहीम के इस दोहे के सहारे अपना बचाव कर सकते हैं.. देनहार कोई और है भेजत है दिन रैन, लोग भरम हम पर करें तासे नीचे नैन।