- ट्विटर रोज दस लाख फर्जी अकाउंट खत्म कर रहा है और कंपनी का शेयर गिर रहा है.
- व्हाट्सऐप अब हर मैसेज पर प्रचार और विचार का फर्क (फॉरवर्ड फंक्शन) बताता है और इस्तेमाल में कमी का नुक्सान उठाने को तैयार है.
- रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से फेसबुक रूस से भारत तक विवादित और झूठ से सराबोर सामग्री खत्म करने में लगी है. इससे कंपनी की कमाई में कमी होगी.
यह सब मुनाफों को दांव पर लगा रहे हैं ताकि झूठे होने का कलंक न लगे.
क्यों?
जवाब नीत्शे के पास है जो कहते थे, ''मैं इससे परेशान नहीं हूं कि तुमने मुझसे झूठ बोला. मेरी दिक्कत यह है कि अब मैं तुम पर भरोसा नहीं कर सकता.''
नीत्शे का कथन बाजार पर सौ फीसदी लागू होता है और सियासत पर एक फीसदी भी नहीं.
नीत्शे से लेकर आज तक सच-झूठ का, जो निजी और सामूहिक मनोविज्ञान विकसित हुआ है उसके तहत झूठ ही सियासत की पहचान हैं. लेकिन झूठे बाजार पर कोई भरोसा नहीं करता. बाजार को तपे हुए खरे विश्वास पर चलना होता है.
फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर यानी सोशल नेटवर्कों की बधाई बजने से पहले पूरी दुनिया में लोग इस हकीकत से वाकिफ थे कि सियासत महाठगिनी है. वह विचार, प्रचार, व्यवहार, भावना में लपेट कर झूठ ही भेजेगी लेकिन बाजार को हमेशा यह पता रहना चाहिए कि झूठ का कारोबार नहीं हो सकता है. लोगों को बार-बार ठगना नामुमकिन है.
कंपनियां अपने उत्पाद वापस लेती हैं, माफी मांगती हैं, मुकदमे झेलती हैं, सजा भोगती हैं, यहां तक कि बाजार से भगा दी जाती हैं क्योंकि लोग झूठ में निवेश नहीं करते. उधर, सियासत हमेशा ही बड़े और खतरनाक झूठ बोलती रही है, जिन्हें अनिवार्य बुराइयों की तरह बर्दाश्त किया जाता है.
झूठ हमेशा से था लेकिन अचानक तकनीक कंपनियां राशन-पानी लेकर झूठ से लडऩे क्यों निकल पड़ी हैं? इसलिए क्योंकि राजनीति का चिरंतन झूठ एक नए बाजार पर विश्वास के लिए खतरा है.
सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं. तकनीक की ताकत से लैस यह लोकशाही नब्बे के दशक में आर्थिक आजादी और ग्लोबल आवाजाही के साथ उभरी. दोतरफा संवाद बोलने की आजादी का चरम पर है जो इन नेटवर्कों के जरिए हासिल हो गई.
बेधड़क सवाल-जवाब, इनकार-इकरार, समूह में सोचने की स्वाधीनता, और सबसे जुडऩे का रास्ता यानी कि अभिव्यक्ति का बिंदास लोकतंत्र! यही तो है फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप का बिजनेस मॉडल. इसी के जरिए सोशल नेटवर्क और मैसेजिंग ऐप अरबों का कारोबार करने लगे.
सियासत के झूठ की घुसपैठ ने इस कारोबार पर विश्वास को हिला दिया है. अगर यह नेटवर्क, कुटिल नेताओं से लोगों की आजादी नहीं बचा सके तो इनके पास आएगा कौन?
झूठ से लड़ाई में सोशल नेटवर्क को शुरुआती तौर पर कारोबारी नुक्सान होगा. इन्हें न केवल तकनीक, अल्गोरिद्म (कंप्यूटर का दिमाग) बदलने, झूठ तलाशने वाले रोबोट बनाने में भारी निवेश करना पड़ रहा है बल्कि विज्ञापन आकर्षित करने के तरीके भी बदलने होंगे. सोशल नेटवर्कों पर विज्ञापन, प्रयोगकर्ताओं की रुचि, व्यवहार, राजनैतिक झुकाव, आदतों पर आधारित होते हैं. इससे झूठ के प्रसार को ताकत मिलती है. इसमें बदलाव से कंपनियों की कमाई घटेगी.
फिर भी, कोई अचरज नहीं कि खुद पर विश्वास को बनाए रखने के लिए सोशल नेटवर्क राजनैतिक विज्ञापनों को सीमित या बंद कर दें. अथवा राजनैतिक विचारों के लिए नेटवर्क के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी जाए
सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. अभिव्यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है इसलिए यह अपनी पूरी शक्ति के साथ अपने राजनैतिक इस्तेमाल के खिलाफ खड़ा हो रहा है.
तकनीक बुनियादी रूप से मूल्य निरपेक्ष (वैल्यू न्यूट्रल) है. लेकिन रसायन और परमाणु तकनीकों के इस्तेमाल के नियम तय किए गए ताकि कोई सिरफिरा नेता इन्हें लोगों पर इस्तेमाल न कर ले. सोशल नेटवर्किंग अगली ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार खुद इसके इस्तेमाल के नियम तय करेगा.
बाजार सियासत के झूठ को चुनौती देने वाला है!
राजनीति के लिए यह बुरी खबर है.
सियासत के लिए बुरी खबरें ही आजादी के लिए अच्छी होती हैं.