इससे पहले कि आप मोदी की किसान सहायता और राहुल की न्यूनतम इनकम गारंटी पर कुश्ती में उतरें, यह जान लेना जरूरी है कि देश के सभी राजनैतिक दलों ने यह मान लिया है कि सरकारी स्कीमों की बारात से देश के गरीबों की जिंदगी में कोई रोशनी नहीं पहुंची है
यही वजह है कि रिकॉर्ड फसल समर्थन मूल्य के ऐलान के बाद मोदी सरकार किसान नकद सहायता (छोटे सीमांत किसानों को प्रति परिवार 6,000 रुपए सालाना) देने पर मजबूर हुई और गरीबों के लिए कांग्रेस को 6,000 रुपए प्रति माह की आय का वादा करना पड़ा.
यह सवाल बेमानी है कि इस तरह की स्कीमें मौजूदा सब्सिडी के साथ कैसे लागू की जाएंगी? दुनिया से जुड़ा भारत का स्वतंत्र वित्तीय बाजार किसी भी नेता से ज्यादा ताकतवर है. घाटे के चलते साल के बीच में खर्च काटने वाली सरकारों को ऐसी स्कीमों के लिए खर्च का गणित बदलना होगा चाहे वह मोदी की किसान सहायता हो या कांग्रेस की इनकम गारंटी.
इसलिए, इस बहस को आगे बढ़ाते हैं.
प्रतिस्पर्धी राजनीति भारत को ऐसे सुधार की दहलीज पर ले आई है जिसकी चर्चा से ही सरकारें डरती हैं. स्कीमों पर खर्च के ढांचे में बदलाव से सरकारी विभागों का भीमकाय भ्रष्टाचारी ढांचा यानी मैक्सिमम गवर्नमेंट खत्म किया जा सकता है.
इसलिए इनकम गारंटी की बहस उर्फ स्कीमों की असफलता का इलहाम बेहद कीमती है, जो अगर नतीजे तक पहुंची तो सबसे बड़ा सुधार हकीकत बन सकता है
मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी, दोनों ही एक घाट फिसले हैं. सरकारी स्कीमों की भीड़ बढ़ती गई और नतीजे रहे सिफर... आर्थिक समीक्षा (2016-17) के हवाले से कुछ नमूने पेश हैं
- आखिरी गिनती तक करीब 950 केंद्रीय स्कीमें केंद्र के बजट की गोद में खेल रही थीं, जिन पर जीडीपी (वर्तमान मूल्य) के अनुपात में 5 फीसदी (करीब 7 लाख करोड़ रुपए) का बजट आवंटन होता है. इनमें 11 बड़ी स्कीमें (मनरेगा, अनाज सब्सिडी, मिड डे मील, ग्राम सड़क, प्रधानमंत्री आवास, फसल बीमा, स्वच्छ भारत, सर्व शिक्षा आदि) सबसे ज्यादा आवंटन हासिल करती हैं. केंद्र सरकार की स्कीमों में कुछ तो 15 साल और कुछ 25 साल पुरानी हैं. राज्यों की स्कीमों को जोडऩे के बाद संख्या खासी बड़ी हो जाती है.
- यह दर्द पुराना है कि स्कीमों के फायदे जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचते. सरकार का अपना हिसाब बताता है कि छह प्रमुख स्कीमों (आवास योजना, सर्व शिक्षा, मिड डे मील, ग्राम सड़क, मनरेगा, स्वच्छ भारत) के सबसे कम फायदे उन जिलों को मिले जहां सबसे ज्यादा गरीब बसते हैं, जबकि जहां गरीब कम थे वहां ज्यादा संसाधन पहुंचे.
- यही वजह है कि करीब 40 फीसदी लक्षित लोगों को राशन प्रणाली और 65 फीसदी जरूरतमंदों को मनरेगा का लाभ नहीं मिलता. यही हालत अन्य स्कीमों की भी है यानी सीधी चोरी.
- मोदी सरकार की ताजा स्कीमों (उज्ज्वला, सौभाग्य) के आंकड़े भी इसकी तस्दीक करते हैं.
अगर सियासी दल इनकम गारंटी की हिम्मत कर रहे हैं तो पांच बड़ी सब्सिडी स्कीमें बंद करने का साहस भी दिखाएं. केवल पेट्रो और अनाज सब्सिडी पर जीडीपी का 1.48 फीसदी खर्च होता है. ऐसा करते ही लोगों के हाथ में सीधे धन पहुंचाने का रास्ता खुल सकता है और सरकार का विशाल ढांचा सीमित हो जाएगा.
अगर राज्यों को संसाधनों के आवंटन को भी इससे जोड़ा जाए और राज्यों के स्कीम खर्च को सीमित किया जाए तो यह सुधार खर्च बढ़ाने के बजाए दरअसल बजटीय अनुशासन लेकर आएगा.
लोगों के खाते में सीधे धन पहुंचाने की व्यवस्था (डीबीटी) स्थापित हो चुकी है. बैंक खाते में एलपीजी सब्सिडी की सफलता सबसे बड़ा प्रमाण है. इस तर्क के समर्थन में पर्याप्त अध्ययन उपलब्ध हैं कि लोगों के हाथ में धन अर्थव्यवस्था में मांग को बढ़ाता है
गरीबों को न्यूनतम आय के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जरूरी सेवाओं में निजी प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ताओं के लिए लागत में कमी जरूरी है. इसे नीतिगत व नियामक उपायों से सुरक्षित किया जा सकता है. यह सुधार भी लंबे समय से लटका हुआ है. सरकार के खर्च में और बाजार का पारदर्शी विनियमन, अर्थव्यवस्था को बस यही तो चाहिए.
जिस तरह 1991 में भारत की आर्थिक नीतियां लगभग चरमरा चुकी थीं, ठीक वही हालत सरकारी खर्च और कल्याण स्कीमों की है. इस कोशिश की सबसे बड़ी चुनौती इनका प्रतीकवाद है. स्कीमों की भीड़ के कारण कुछ सौ रुपए की पेंशन, छोटी-सी सहायता या मामूली सा बीमा ही मुमकिन है. इसलिए इनमें लोगों की रुचि नहीं होती है.
देश को तेज आर्थिक विकास के साथ अधिकतम एक या दो बड़े हितलाभ वाली कल्याण स्कीमें चाहिए. कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह काम मोदी करें या कांग्रेस लेकिन यह सुधार अपरिहार्य है.