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Wednesday, January 12, 2022

असंभव मुद्रा !


 




कभी कभी ही होता है एसा, जब पूरी दुनिया महीनों की मगजमारी के बावजूद किसी सवाल का जवाब न तलाश पाए.

आप समझ रहे हैं कि हमारा इशारा किस तरफ है ? वैक्‍सीन, वायरस, ब्‍याज दर,जीडीपी, महंगाई !! कतई नहीं.. इनके जवाब तो मिल गए हैं, सबके बारे में कुछ न कुछ पता है 

पता नहीं है तो बस इतना ही क‍ि क्र‍िप्‍टोकरेंसी, तेरा क्‍या होगा

क्र‍िप्‍टोकरेंसी और डिजिटल मुद्रा का भविष्‍य का सवाल बीते 24 महीनों से हमें छका रहा है. अब यह सवाल तैर कर 2022 में पहुंच गया है और मुसीबत यह है कि वक्‍त बीतने के साथ सवालों की गांठ खुलने के बजाय कसती जा रही है

अगर क्र‍िप्‍टो दीवाने नहीं है तो जरा ध्‍यान से देखि‍ये किप्‍टो और डिजिटल मुद्राओं के सवाल अब ब्‍लॉकचेन से ज्‍यादा जट‍िल हो चले हैं मसलन 

-         नई तकनीकों को लपक कर अपना लेने वाली दुन‍िया डिज‍िटल करेंसी पर इतनी सशंक‍ित क्‍यों है?

-         मुद्रा के संचालन को संभालने वाले विश्‍व के केंद्रीय बैंक करेंसी के इस तकनीकी अवतार पर रह रह कर खतरे के अलार्म क्‍यों बजा रहे हैं?

-         केंद्रीय बैंकों की खुली चेतावन‍ियों के बावजूद सरकारें डिजिटल और क्रिप्‍टोकरेंसी को लेकर असंमजस के आसमानी झूले में क्‍यों सवार हैं?

दुनिया में बहुत से आश्‍चर्य हुए हैं लेकिन क्रिप्‍टो जैसा तमाश वित्‍तीय दुनिया में दुर्लभ है. कहते हैं लोग पैसा सोच समझ कर लगाते हैं. दूध के जले लस्‍सी भी रखकर पीते हैं लेक‍िन यहां तो नियामकों न‍िवेशकों के बीच एक जंग छिड़ी है. न‍ियामक कह रहे हैं यह खतरनाक है और निवेशक पैसा झोंकते जा रहे है यह मानकर क‍ि सरकारें चाहे जो पहलू बदलें, लेकिन क्रिप्‍टो को कानूनी बनाना ही होगा. यही तो वजह है कि  इतनी चेतावन‍ियो के बावजूद 2022 का पहला सूर्य उगने से पहले तक क्रिप्‍टो में निवेश 2 ट्रि‍ल‍ि‍यन डॉलर तक पहुंच गया था यानी 2020 से दस गुना ज्‍यादा.

डिजट‍िल करेंसी भी मुश्‍कि‍ल

अगर किसी को लगता है क्रिप्‍टो दीवानों की चिल्‍ल पों के बाद  दुन‍िया के बैंक तेजी से डिजिटल करेंसी लाने जा रहे हैं तो उसे ठहर कर आईएमएफ की बात सुननी चाह‍िए. अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष कह रहा है  कि रुपया डॉलर युआन या यूरो के डिजिटल अवतार ही नामुमक‍िन हैं यानी इनके डि‍ज‍िटल संस्‍करणों को कानूनी टेंडर का दर्जा ही मिलना असंभव है.

आईएमएफ ने अपने 174 सदस्‍य देशों के मौद्रिक कानूनों का अध्‍ययन करने के बाद यह संप्रभु मुद्राओं के ड‍िजिटल अवतारों की संभावना को खार‍िज किया है. मुद्रा कोष की निष्‍कर्ष जानने से पहले कुछ तकनीकी बातें जानना जरुरी है.

व्‍यवहार‍िकता का सवाल

मुद्रा जारी करना केंद्रीय बैंकों जैसे भारतीय रिजर्व बैंक या फेडरल रिजर्व का बुनियादी दाय‍ित्‍व है. मौद्रिक कानूनों में मनी या धन जारी करना एक तरह से कर्ज है जो केंद्रीय बैंकों सरकार को देते हैं. इसल‍िए बेहद मजबूत कानूनी ढांचे के साथ यह काम केवल केंद्रीय बैंकों को दिया जाता है. सेंट्रल या फेडरल बैंकिंग को इसी मकसद से तैयार किया गया था. सनद रहे कि 17 वीं सदी का एक्‍सचेंज बैंक ऑफ एम्‍सटर्डम आज के केंद्रीय बैंकों का पुरखा है.

अगर करेंसी जारी करना केंद्रीय बैंकों का काम है तो फिर डि‍ज‍िटल करेंसी में क्‍या दिक्‍कत है.  इस सवाल के जवाब केइ लिए आईएमएफ ने दुनिया भर मौद्र‍िक प्रणाल‍ियों की पड़ताल की.  किसी करेंसी को लीगल टेंडर इसलिए कहा जाता है कि इसके जरिये कर्ज लेने वाला कर्जदाता को अपने कर्ज चुका जा सकता है. नतीजतन करेंसी का दर्जा केवल उसी उपकरण को मिलता है जो सबको सुलभ हो. यही वजह है कि रुपये और सिक्‍के सबसे प्रचल‍ित करेंसी हैं.

डिजिटल करेंसी के लिए डिज‍िटल साधन ( कंप्‍यूटर, इंटरनेट) जरुरी है. कोई भी सरकार अपने नागरिकों को यह सब रखने के लिए बाध्‍य नहीं कर सकती.  इसल‍िए संप्रभु मुद्राओं का  डिजिटल करेंसी अवतार मुश्‍कि‍ल है. आईएमएफ के विशेषज्ञ मानते हैं कि भुगतान के ल‍िए कई तरह के उपकरणों (मसलन फूड कोर्ट में मि‍लने वाले टोकेन) का प्रयोग हो सकता है लेकिन वे करेंसी या लीगल टेंडर नहीं है

कैसी चलेगी यह ड‍िज‍िटल करेंसी

केंद्रीय बैंकों की उलझन एक और बड़ा पहलू है कि डिजिटल करेंसी का कानूनी स्‍वरुप क्‍या होगा. क्‍या रिजर्व बैंकों जैसों के खातों में मौजूद धन का डि‍ज‍िटाइजेशन होगा या फिर अलग समानांतर डि‍ज‍िटल टोकेन जारी होंगे. ड‍िजिटल टोकेन के लिए कानूनी ढांचा उपलब्‍ध नहीं है. केंद्रीय बैंकों को यह पता भी नहीं है कि इस पर भरोसा बनेगा या नहीं.

डिजिटल करेंसी थोक संचालनों में काम आएगी या आम लोगों के ल‍िए भी होगी? आईएमएफ का कहना है कि केंद्रीय बैंकों के संचालन वाण‍िज्‍य‍िक बैंकों के साथ होते हैं. ग्राहक इन बैंकों के साथ संचालन करते हैं, डिजिटल करेंसी की स्‍थि‍त‍ि में क्‍या आम लोग सीधे केंद्रीय बैंक से लेन देन करेंगे. इस तरह की  व्‍यवस्‍था के ल‍िए पूरा कानूनी ढांचा नए सिरे से तैयार करना होगा. 

डिजिटल करेंसी को लेकर अभी टैक्‍स, प्रॉपर्टी, अनुबंध, दीवाल‍ियापन, भुगतान प्रणाली, साइबर सुरक्षा जैसे और भी जटिल  कानूनी सवालों  पर चर्चा भी नहीं शुरु हुई है. अभी तो बैंकिंग व मुद्रा प्रणाला का बुन‍ियादी स्‍वरुप ही इसके लिए तैयार नहीं दि‍खता.

भारत में रिजर्व बैंक भले ही सेंट्रल बैंक डि‍ज‍िटल करेंसी (सीबडीसी) की चर्चा कर रहा हो लेकिन मुद्रा कोष का अध्‍ययन कहता है कि विश्‍व के 174 प्रमुख देशों के 131 केंद्रीय बैंकों के कानून उन्‍हें केवल नोट और सिक्‍के जारी करने की छूट देते हैं, ड‍िज‍िटल करेंसी की कोई व्‍यवस्‍था ही नहीं है.

सबसे बडा सवाल यह है कि यदि लीगल टेंडर के दर्जे, भुगतान की सुव‍िधा और अन्‍य प्रामाणि‍कताओं के साथ डिजिटल करेंसी अपनाई जानी है तो यह काम पूरी दुनिया के केंद्रीय बैंकों व सरकारों को एक साथ करना होगा क्‍यों संप्रभु मुद्रायें अंतरराष्‍ट्रीय एक्‍सचेंज  का हिस्‍सा होती हैं. यद‍ि सभी देश एक साथ अपने कानून नहीं बदलते यह प्रणाली शुरु ही नहीं हो पाएगी.

अब समझा सकता है कि आखि‍र विश्‍व के केंद्रीय बैंक, क्र‍िप्‍टोकरेंसी पर इतने  सवाल क्‍यों उठा रहे हैं. क्रि‍प्‍टो को करेंसी का दर्जा मिलना तो खैर लगभग असंभव ही है यहां तो रुपया, डॉलर, येन, युआन, लीरा, पाउंड के डि‍ज‍िटल संस्‍करण भी असंभव लगते हैं. पुरानी कहावत है कि विश्‍वास या साख सबसे ज्‍यादा मूल्‍यवान है, यही साख या भरोसा सभी मुद्राओं यानी करेंसी का जनक है. विश्‍व के बैंक अपनी मुद्राओं के ड‍िजिटलावतार में इसी साख के टूटने का खतरा देख कर दुबले हो रहे हैं.  

 

Saturday, January 16, 2021

भविष्य की मुद्रा

 


इतिहास, बड़ी घटनाओं से नहीं बल्कि उनकी प्रति‍क्रिया में हुए बदलावों से बनता है. दूसरा विश्व युद्ध घोड़े की पीठ पर बैठकर शुरू हुआ था लेकिन खेमे उखड़ने तक एटम दो हिस्सों में बांटा जा चुका था. इतिहास बनाने वाले असंख्य बड़े आवि‍ष्कार इसी युद्ध के खून-खच्चर से निकले थे.

कोविड के दौरान भी पूर्व और पश्चि‍म, दोनों ही जगह नई वित्तीय दुनिया की नींव रख दी गई है. सितंबर-अक्तूबर में जब भारत मोबाइल ऐप्लिकेशन पर प्रतिबंध जरिए चीन को 'सबक सि‍खा रहा था उस वक्त कई अर्थव्यवस्थाएं निर्णायक तौर पर डिजिटल और क्रिप्टो मुद्राओं की तरफ बढ़ चली थीं.

चीन ने इस बार भी चौंकाया. अक्तूबर में शेनझेन में पीपल्स बैंक ऑफ चाइना (चीन का रिजर्व बैंक) ने डिजि‍टल युआन का पहला परीक्षण किया. दक्षि‍णी चीन की तकनीक व वित्तीय गतिवि‍धि‍यों का केंद्र, शेनझेन चीन के सबसे नए शहरों में एक है. शहर के प्रशासन ने 15 लाख डॉलर की एक लॉटरी निकाली. विजेताओं को मोबाइल पर डिजिटल युआन का ऐप्लिकेशन मिला, जिसके जरिए वे शेनझेन की 3,000 दुकानों पर खरीदारी कर सकते थे.

यह संप्रभु डिजिटल करेंसी की शुरुआत थी. इधर, सितंबर में अमेरिका के नैसडैक में सूचीबद्ध कंपनी माइक्रोस्ट्रेटजी को शेयर बाजार नियामक (एसईसी) अपने फंड्स (425 मिलियन डॉलर) बिटक्वाइन में रखने की छूट दे दी और इस तरह अमेरिका में क्रिप्टोकरेंसी को आधि‍कारिक मान्यता मिल गई.

दिसंबर 2020 आते आते बिटक्वाइन की कीमत एक साल में 295 फीसद बढ़ गई क्योंकि महामारी के दौरान निवेशकों ने अपने फंड्स का एक हिस्सा सोने की तरह बिटक्वाइन में रखना शुरू कर दिया.

क्रिप्टोकरेंसी 2009 से सक्रिय हैं. बिटक्वाइन (ब्लॉकचेन तकनीक आधारित) एक कोऑपरेटिव करेंसी (इस जैसी 6000 और) है.

ई-करेंसी बाजार का सबसे संभावनामय घटनाक्रम यह है कि दुनिया के करीब आधा दर्जन देशों के केंद्रीय बैंक डिजिटल करेंसी (सीबीडीसी) की तैयारी शुरू कर रहे हैं. यही वजह है महामारी के दौरान, चीन और अमेरिका के घटनाक्रम क्रिप्टो व डिजि‍टल करेंसी के भविष्य का निर्णायक मोड़ बन गए हैं.

स्वीडन का रिक्सबैंक (दुनिया का सबसे पुराना केंद्रीय बैंक) ई-क्रोना का परीक्षण कर रहा है. सिंगापुर की मौद्रिक अथॉरिटी ने सरकारी निवेश कंपनी टेमासेक और जेपी मॉर्गन चेज के साथ ई-करेंसी का परीक्षण पूरा कर लिया है. बहामा और वेनेजुएला भी रास्ते हैं. इन सबमें चीन सबसे आगे है.

दुनिया के केंद्रीय बैंक ई-करेंसी ला क्यों रहे हैं? इसलिए क्योंकि ऑनलाइन पेमेंट की व्यवस्था कुछ ही कंपनियों के हाथ (क्रेडिट कार्ड, मोबाइल वालेट) केंद्रि‍त हो रही है जो मौद्रिक व्यवस्था की लिए चुनौती बन सकती है. आइएमएफ का नया अध्ययन बताता है कि ई-करेंसी से वित्तीय संचालनों को सस्ता कर बड़ी आबादी तक बैंकिंग सुविधाएं पहुंचाई जा सकती हैं और महंगाई  पूंजी का प्रवाह संतुलित कर मौद्रिक नीति को प्रभावी बनाया जा सकता है.

केंद्रीय बैंक ई-करेंसी की डिजाइन, कानूनी बदलाव, साइबर सिक्योरिटी और निजता के सुरक्षा के जटिल मुद्दों पर काम कर रहे हैं.

तकनीकों के इस सुबह के बीच डि‍जिटल इंडिया बदहवास सा है. 2018 में जब कई देशों में डिजिटल करेंसी पर काम शुरू हुआ तब रिजर्व बैंक ने क्रिप्टोकरेंसी के सभी संचालनों पर रोक लगा दी. क्रिप्टोकरेंसी खरीदना-बेचना अवैध हो गया.

सुप्रीम कोर्ट को यह प्रति‍बंध नहीं जंचा. इंटरनेट मोबाइल एसोसिएशन जो भारत में क्रिप्टो एक्सचेंज चलाते हैं उनकी याचिका पर मार्च 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने रिजर्व बैंक के आदेश को रद्द कर दिया. अदालत ने कहा कि भारत में क्रिप्टोकरेंसी के लिए कोई कानून ही नहीं है इसलिए प्रतिबंध नहीं लग सकता. कारोबार फिर शुरू हो गया. ताजा खबरों के मुताबिक, स्थानीय क्रिप्टो एक्सचेंज में कारोबार दस गुना बढऩे की खबर थी.

बीते अगस्त में सुना गया था कि सरकार एक कानून बनाकर क्रिप्टोकरेंसी पर पाबंदी लगाना चाहती है जबकि दिसंबर में यह खबर उभरी कि बिटक्वाइन कारोबार पर जीएसटी लग सकता है.

इधर, बीती जनवरी में नीति आयोग ने एक शोध पत्र में ब्लॉकचेन तकनीकों का समर्थन करते हुए बताया कि इनके जरिए भारत में 2030 तक 3 ट्रिलियन डॉलर के कारोबार किया जा सकता है.

संप्रभु ई-करेंसी अब दूर नहीं हैं. स्टैंडर्ड ऐंड पुअर अगले साल क्रिप्टोकरेंसी इंडेक्स लाने जा रहा है लेकिन भारत के निजाम का असमंजस खत्म नहीं होता.

हम कम से कम चीन-सिंगापुर से तो सीख ही सकते हैं, क्योंकि इतिहास बताता है कि तकनीकों की बस में जो पहले चढ़ते हैं वही आगे रहते हैं.

मार्को पोलो लिखता है कि 13वीं सदी में कुबलई खान ने शहतूत की छाल से बने कागज पर पहली बार गैर धात्विक करेंसी शुरू की. खान का आदेश था यह मुद्रा सोने-चांदी जितनी मूल्यवान है. इसे मानो या मरो. यूरोप ने मार्को पोलो को गंभीरता से नहीं लिया लेकिन वक्त ने साबित किया कि मंगोल सुल्तान वक्त से आगे चल रहा था.

Friday, January 1, 2021

तकनीक की तिजोरी

 


लॉकडाउन के साथ ही सुयश की पढ़ाई छूट गई, न स्मार्ट फोन न इंटरनेट.

दिल्ली की दमघोंट सुबहों में घरों में काम करने वाली उसकी मां खांसते हुए बताती है कि साहब के घर पानी ही नहीं, हवा साफ करने की मशीन भी है. काम तलाश रहे सुयश के पिता को यह तो मालूम है कि आने वाले दिनों में कोविड वैक्सीन लगे होने की शर्त पर काम मिलने की नौबत आ सकती है लेकिन यह नहीं मालूम कि वह अपने पूरे परिवार के लिए कोविड वैक्सीन खरीद भी पाएंगे या नहीं.

कोविड के बाद की दुनिया में आपका स्वागत है.

21वीं सदी का तीसरा दशक सबसे पेचीदा उलझन के साथ शुरू हो रहा है. महामारी के बाद की इस दुनिया में तकनीकों की कोई कमी नहीं है. लेकिन बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की होगी जो जिंदगी बचाने या बेहतर बनाने की बुनियादी तकनीकों की कीमत नहीं चुका सकते. जैसे कि भारत में करीब 80 फीसद छात्र लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन कक्षाओं में हिस्सा नहीं (ऑक्सफैम सर्वेक्षण) ले सके.

फार्मास्यूटिकल उद्योग ने एक साल से भी कम समय में वैक्सीन बनाकर अपनी क्षमता साबित कर दी. करोड़ों खुराकें बनने को तैयार हैं. लेकिन बहुत मुमकिन है कि दुनिया की एक बड़ी आबादी शायद कोविड की वैक्सीन हासिल न कर पाए. महंगी तकनीकों और उन्हें खरीदने की क्षमता को लेकर पहले से उलझन में फंसे चिकित्सा क्षेत्र के लिए वैक्सीन तकनीकी नहीं बल्कि आर्थि-सामाजिक चुनौती है. भारत जैसे देशों में जहां सामान्य दवा की लागत भी गरीब कर देती हो वहां करोड़ों लोग वैक्सीन नहीं खरीद पाएंगे और कितनी सरकारें ऐसी होंगी जो बड़ी आबादी को मुफ्त या सस्ती वैक्सीन दे पाएंगी.

वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां पेटेंट के नियमों पर अड़ी हैं. रियायत के लिए डब्ल्यूटीओ में भारत-दक्षिण अफ्रीका का प्रस्ताव गिर गया है. कोवैक्स अलायंस और ऐस्ट्राजेनेका की वैक्सीन के सस्ते होने से उम्मीद है लेकिन प्रॉफिट वैक्सीन बनाम पीपल्स वैक्सीन का विवाद अभी सुलझा नहीं है.

विकासशील देशों को सस्ती वैक्सीन मिलने की उम्मीद कम ही है. सरकारें अगर लागत उठाने लगीं तो बजट ध्वस्त, नया भारी कर्ज और नए टैक्स. ऊपर से अगर इन देशों को वैक्सीन देर से मिली तो अर्थव्यवस्थाओं के उबरने में समय लगेगा.

वैक्सीन का विज्ञान तो जीत गया लेकिन अर्थशास्त्र बुरी तरह फंस गया है. 

आरोग्य सेतु ऐप की विफलता और लॉकडाउन के दौरान बढ़ी अशिक्षा के बीच करीबी रिश्ता है. भारत में अभी भी करीब 60 फीसद फोन स्मार्ट नहीं हैं यानी फीचर फोन हैं. आरोग्य सेतु अपने तमाम विवादों के अलावा इसलिए भी नहीं चल सका कि शहर से गांव गए अधिकांश लोग के पास इस ऐप्लिकेशन को चलाने वाले फोन नहीं थे.

जिस ऑनलाइन शिक्षा को कोविड का वरदान कहा गया उसने 80 फीसद भारतीय छात्रों एक साल पीछे कर दिया, क्योंकि या तो उनके पास स्मार्ट फोन नहीं थे या इंटरनेट. ग्रामीण इलाकों में बमुश्कि 15 फीसद लोगों के पास ही नेट कनेक्टिविटी है. भारत की आधी आबादी के पास इंटरनेट की सुविधा नहीं है. और यदि उन्हें इंटरनेट मिल भी जाए तो केवल 20 फीसद लोग डिजिटल सेवाओं का इस्तेमाल (सांख्यिकी मंत्रालय) कर सकते हैं.

मुसीबत तकनीक की नहीं बल्किउसे खरीदने की क्षमता है. इसलिए दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में एक दिल्ली में अधिकांश आबादी उन लोगों की तुलना में पांच से दस साल कम (न्यूयार्क टाइम्स का अध्ययन) जिएंगे जिनके पास एयर प्यूरीफायर हैं. 

अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष आर्थिक बेहतरी मापने के लिए एक नए सूचकांक का इस्तेमाल कर रहा है जिसे वेलफेयर मेज़र इंडेक्स कहते हैं. उपभोग, खपत, जीवन प्रत्याशा, मनोरंजन और खपत असमानता इसके आधार हैं. 2002 से 2019 के बीच भारत जैसे विकासशील देशों की वेलफेयर ग्रोथ करीब 6 फीसद रही है जो उनके प्रति व्यक्तिवास्तविक जीडीपी से 1.3 फीसद ज्यादा है यानी कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार आया.

कोविड के बाद इस वेलफेयर ग्रोथ में 8 फीसद की गिरावट आएगी. यानी जिंदगी बेहतर करने पर खर्च में कमी होगी. 

चिकित्सा, शिक्षा, पर्यावरण, संचार में तकनीकों की कमी नहीं है लेकिन इन्हें सस्ता करने के लिए बड़ा बाजार चाहिए लेकिन आय कम होने और गरीबी बढ़ने से बाजार सिकुड़ रहा है इसलिए जिंदगी बचाने और बेहतर बनाने की सुविधा बहुतों को मिल नहीं पाएंगी.

यह नई असमानता की शुरुआत है. यहीं नहीं कि कोविड के दौरान कंपनियों की कमाई बढ़ी और रोजगार कम हुए बल्कि अप्रैल से जुलाई के बीच भारत के अरबपतियों की कमाई में 423 अरब डॉलर का इजाफा हो गया.

तकनीकों की कमी नहीं है. अब, सरकार को लोगों की कमाई बढ़ाने के ग्लोबल प्रयास करने होंगे नहीं तो बहुत बड़ी आबादी आर्थिक असमानता की पीठ पर बैठकर तकनीकी असमानता की अंधी सुरंग में उतर जाएगी, जिसके बाद तेज ग्रोथ लंबे वक्त के लिए असंभव हो जाएगी. कोविड के बाद जिन नई तकनीकों में भविष्य देखा जा रहा है वह भविष्य केवल मुट्ठी भर लोगों का हो सकता है.

 

Friday, June 26, 2020

तेरी दोस्ती का सवाल है !


गलवान घाटी के शहीदों को याद करने के बाद ताऊ से रहा नहीं गया. युद्ध संस्मरणों की जीवंत पुस्तक बन चुके ताऊ ने भर्राई आवाज में पूछ ही लिया कि कोई बतावेगा कि चीन ने कब धोखा नहीं दिया, फिर भी वह किस्म-किस्म के सामान लेकर हमारे घर में कैसे घुस गया?

ताऊ के एक सवाल में तीन सवाल छिपे हैं, जिन्हें मसूद अजहर, डोकलाम से लेकर लद्दाख तक चीन के धोखे, निरंतर देखने वाला हर कोई भारतीय पूछना चाहेगा.

पहला सवालः सुरक्षा संबंधी संवेदनीशलता के बावजूद पिछले पांच-छह साल में चीनी टेलीकॉम कंपनियां भारतीय बाजार पर कैसे छा गईं, खासतौर पर उस वक्त बड़े देश चीन की दूरसंचार कंपनियों पर सामूहिक शक कर रहे थे और चीनी 5जी को रोक रहे थे?

दूसरा सवाल: चीन की सरकारी कंपनियां जो चीन की सेना से रिश्ता रखती हैं उन्हें संवेदनशील और रणनीति इलाकों से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश की छूट कैसे मिली? क्यों चाइना स्टेट कंस्ट्रक्शन इंजीनिरिंग कॉर्पोरेशन, चाइना रेलवे कंस्ट्रक्शन, चाइना रोलिंग स्टॉक कॉर्पोरेशन रेलवे, हाइवे और टाउनशि के प्रोजेक्ट में सक्रिय हैं? न्यूक्लियर, बिजली (टर्बाइन, मशीनरी) और प्रतिरक्षा (बुलेट प्रूफ जैकेट का कच्चा माल) में चीन का सीधा दखल भी इसी सवाल का हिस्सा है.

तीसरा सवालः चीन से सामान मंगाना ठीक था लेकिन हम पूंजी क्यों मंगाने लगे? संवेदनशील डिजिटल इकोनॉमी में चीन की दखल कैसे स्वीकार कर ली?

चीन पर स्थायी शक करने वाले भारतीय कूटनीतिक तंत्र की रहनुमाई में ही ड्रैगन का व्यापारी से निवेशक में बदल जाना आश्चर्यजनक है. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले तक दिल्ली के कूटनीति हलकों में यह वकालत करने वाले अक्सर मिल जाते थे कि चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा खासा बड़ा है. यानी चीन को निर्यात कम है और आयात ज्यादा. इसकी भरपाई के लिए चीन को सीधे निवेश की छूट मिलनी चाहि ताकि भारत में तकनीक और पूंजी सके. अलबत्ता भरोसे की कमी के चलते चीन से सीधे निवेश का मौका नहीं मिला.

2014 के बाद निवेश का पैटर्न बताता है कि शायद नई सरकार ने यह सुझाव मान लिया और तमाम शक-शुबहों के बावजूद चीन भारत में निवेशक बन गया. दूरसंचार क्षेत्र इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण है.

आज हर हाथ में चीनी कंपनियों के मोबाइल देखने वाले क्या भरोसा करेंगे कि 2010-2011 में जब कंपनियां नेटवर्क के लिए चीनी उपकरणों निर्भर थीं तब संदेह इतना गहरा था कि भारत ने चीन के दूरसंचार उपकरणों पर प्रतिबंध लगा दिया था?

2014 के बाद अचानक चीनी दूरसंचार उपरकण निर्माता टिड्डी की तरह भारत पर कैसे छा गए? इलेक्ट्राॅनिक्स मैन्युफैक्चरिंग पर पूंजी सब्सिडी (लागत के एक हिस्से की वापसी) और कर रियायत की स्कीमें पहले से थीं लेकिन शायद तत्कालीन सरकार चीन के निवेश को लेकर सहज नहीं थी इसलिए चीनी मोबाइल ब्रांड नहीं सके.
मेक इन इंडिया के बाद यह दरवाजा खुला और शिओमी, ओप्पो, वीवो, वन प्लस आदि प्रमुख ब्रांड की उत्पादन इकाइयों के साथ भारत चीनी मोबाइल के उत्पादन का बड़ा उत्पादन केंद्र बन गया. यह निवेश सरकार की सफलताओं की फेहरिस्त में केवल सबसे ऊपर है बल्किकोविड के बाद इसमें नई रियायतें जोड़ी गई हैं.

सनद रहे कि इसी दौरान (2018) अमेरिका में सरकारी एजेंसियों को हुआवे जेडटीई से किसी तरह की खरीद से रोक दिया गया. अमेरिका के बाद ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन और न्यूजीलैंड ने भी इन कंपनियों से दूरी बनाई लेकि भारत में लोगों के हाथ में ओप्पो-वीवो हैं, नेटवर्क को हुआवे और जेडटीई चला रहे हैं और ऐप्लिकेशन के पीछे अलीबाबा टेनसेंट की पूंजी है.

विदेश व्यापार और निवेश नीति को करीब से देखने वालों के लिए भारत में रणनीतिक तौर पर संवेदनशील कारोबारों में चीन की पूंजी का आना हाल के वर्षों के लिए सबसे बड़ा रहस्य है. पिछली सरकारों के दौरान चीन पर संदेह का आलम यह था कि 2010 में तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने चीन से निवेश तो दूर, आयात तक सीमित करने के लिए प्रमुख मंत्रालयों की कार्यशाला बुलाई थी. कोशि यह थी कि इनके विकल्प तलाशे जा सकें. 

इन सवालों का सीधा जवाब हमें शायद ही मिले कि चीन से रिश्तों में यह करवट, पिछली गुजरात सरकार और चीन के बीच गर्मजोशी की देन थी या पश्चिमी देशों की उपेक्षा के कारण चीन को इतनी जगह दे दी गई या फिर कोई और वजह थी जिसके कारण चीनी कंपनियां भारत में खुलकर धमाचौकड़ी करने लगीं. अलबत्ता हमें इतना जरूर पता है कि 2014 के बाद का समय भारत चीन के कारोबारी रिश्तों का स्वर्ण युग है और इसी की छाया में चीन ने फिर धोखा दिया है. मजबूरी इस हद तक है कि सरकार उसके आर्थिक दखल को सीमित करने का जोखि भी नहीं उठा सकती.

ठीक ही कहा था सुन त्जु ने कि श्रेष्ठ लड़ाके युद्ध से पहले ही जीत जाते हैं.