विदेशी मुद्रा सुरक्षा ही हमारी सबसे कमजोर नस है जो बुरी तरह घायल है। इक्यानवे में हम इसी घाट डूबे थे।
भारत
अगर डॉलर छाप सकता या आयात का भुगतान रुपये में हो जाता तो सियासत आर्थिक
चुनौतियों को किसी भाव नहीं गिनती। शुक्र है कि हम गंजों को ऐसे नाखून नहीं मिले।
लेकिन अब तो राजनीति नशा उतरना चाहिए क्यों कि भारत विदेशी मुद्रा संकट से बस कुछ
कदम दूर है और इस आफत को रुपये छापकर या आंकडों के खेल से रोका नहीं जा सकता। देश
के पास महज साढे छह महीने के आयात के लायक विदेशी मुद्रा बची है। विदेशी मुद्रा की
आवक व निकासी का फर्क बताने वाले चालू खाते का घाटा फट पड़ने को है। डॉलर के
मुकाबले रुपया तीखी ढलान पर टिका है, जहां नीचे
गिरावट की गर्त है। दरअसल, भारत अब विदेशी मुद्रा संकट के टाइम बम
पर बैठ गया है और उत्तर कोरिया में चमकती मिसाइलों से लेकर दरकते यूरोजोन और
खाड़ी की चुनौतियों जैसे तमाम पलीते आसपास ही जल रहे हैं।