जीएसटी और नोटबंदी में इतने गहरे अंतविरोध क्यों हैं ?
सोने की उत्पादक उपयोगिता (डिमेरिट या सिन प्रोडक्ट) नहीं है. सोने पर कम
टैक्स एक भारी सब्सिडी है जो देश के केवल दो फीसदी समृद्ध लोगों को मिलती
है: आर्थिक समीक्षा 2015-16
वित्त मंत्री अरुण जेटली जब आम खपत की चीजों पर भारी टैक्स के बदले सोने पर
तीन फीसदी और हीरे (अनगढ़) पर केवल 0.25 फीसदी जीएसटी लगाने का ऐलान कर रहे थे, तब शायद सबसे ज्यादा असहज
स्थिति में सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मïण्यम रहे होंगे जिन्होंने
बीते साल ही सोने पर नगण्य टैक्स की नीति को सूट-बूट की सरकारों के माफिक कहा था.
वैसे, नोटबंदी के पैरोकारों की जमात, जीएसटी पर सुब्रह्मïण्यम से ज्यादा असमंजस
में है. जीएसटी नोटबंदी के ‘पावन’ उद्देश्यों को सिर के बल खड़ा कर रहा है. नकद से दूर हटती अर्थव्यवस्था
वित्तीय निवेशों (बॉन्ड, बीमा, शेयर, बैंक जमा) के लिए प्रोत्साहन और सोने व जमीन जैसे निवेशों पर सख्ती चाहती
थी ताकि काले धन की खपत के रास्ते बंद हो सकें. लेकिन सोना सरकार का नूरे-नजर है.
अचल संपत्ति जीएसटी से बाहर है और वित्तीय निवेशों पर टैक्स बढ़ गया है.
भारत में अधिकांश निजी संपत्ति भौतिक निवेशों में केंद्रित है. सोना और अचल
संपत्ति इनमें प्रमुख हैं. क्रेडिट सुईस की ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट (2016) बताती है कि भारत में 86 फीसदी निजी संपत्ति सोना
या जमीन में केंद्रित है, वित्तीय निवेश का हिस्सा 15 फीसदी से भी कम है. अमेरिका में लगभग 72, जापान में 53 और ब्रिटेन में 51 फीसदी निजी संपîत्ति शेयर, बैंक बचत, बॉन्ड, बीमा के रूप में हैं.
नोटबंदी का सबसे सार्थक अगला कदम यही होना चाहिए था कि लोगों को सोना और
जमीन में निवेश की आदत छोडऩे और वित्तीय निवेश के लिए प्रेरित किया जाए. सोना और
जमीन हर तरह की कालिख पचा लेते हैं जबकि वित्तीय निवेशों की निगरानी आसान है.
सोने-हीरे पर जीएसटी का पाखंड दूर से चमकता है. गोल्ड क्रोनिज्म और सोना
बेचने-खरीदने वालों की राजनीति इतनी ताकतवर थी कि सोना, हीरा, जेवरों पर केवल तीन फीसदी
जीएसटी लगाया गया. इन महंगी खरीदों को विशेष दर्जा देने के लिए जीएसटी की नई दर भी
ईजाद की गई.
भारत में सोने की 80 फीसदी खपत केवल 20 फीसदी जनता तक केंद्रित है. इनमें बड़े खरीदार आबादी का दो फीसदी हैं यानी
कि कम टैक्स का फायदा केवल दो फीसदी लोगों को मिलेगा.
जानना जरूरी है कि दवा पर सोने से चार गुना या 12 फीसदी और उपभोक्ता सामान
पर छह से नौ गुना ज्यादा जीएसटी लगेगा. हमें भूलना नहीं चाहिए कि 2015 में सरकार गोल्ड
मॉनेटाइजेशन स्कीम लाई थी. तब प्रधानमंत्री ने लोगों से सोने का मोह छोडऩे को कहा
था.
यदि वह आह्वान सही था तो सोने पर अधिकतम जीएसटी लगना चाहिए था ताकि लोग
सोना खरीदने की बजाए गोल्ड बॉन्ड में निवेश करने को प्रेरित होते. अलबत्ता न्यूनतम
टैक्स के साथ जीएसटी ने सोने को निवेश का सबसे आकर्षक विकल्प बना कर नोटबंदी के
संकल्प को सिर के बल खड़ा कर दिया है.
काले धन को खपाने का सबसे बड़ा स्रोत यानी अचल संपत्ति जीएसटी से बाहर है.
अगर जीएसटी वित्तीय पारदर्शिता का सबसे बड़ा अभियान है, तो जमीन-मकान के सौदों के
जीएसटी के दायरे में होना ही चाहिए था.
पूरे देश में अचल संपत्ति रजिस्ट्रेशन और सर्किल दरें एक समान बनाकर रियल
एस्टेट का कॉमन नेशनल मार्केट बनाना जरूरी है. जमीन-मकान की हर खरीद-फरोख्त पर
डिजिटल निगरानी के बिना काले धन के इस्तेमाल पर रोक नामुमकिन है. अचल संपत्ति
प्रत्येक कारोबार में आर्थिक लागत का हिस्सा है, इस पर टैक्स क्रेडिट
क्यों नहीं होना चाहिए?
राज्यों ने राजस्व को सुरक्षित रखने की गरज से अचल संपत्ति को दागी सौदों का बाजार बनाए रखना मुनासिब समझा. असंगति देखिए
कि मकानों की बिक्री पर सर्विस टैक्स है लेकिन जमीन-मकान के सौदे जीएसटी से बाहर
रहेंगे.
जीएसटी में नोटबंदी के शीर्षासन की एक और तस्वीर मिलती है. इस ‘क्रांतिकारी’ सुधार के बाद वित्तीय
सेवाओं पर सर्विस टैक्स 15 से बढ़कर 18 फीसदी हो जाएगा यानी कि वित्तीय निवेश महंगा हो जाएगा. जीएसटी के बाद म्युचुअल
फंड मैनेजमेंट चार्ज बढ़ जाएगा. बीमा पर जीएसटी भारी पड़ेगा. जीएसटी से शेयर
ब्रोकरेज तो महंगा हो ही जाएगा.
नोटबंदी और जीएसटी दोनों एक ही टकसाल से निकले हैं.
लेकिन तय करना मुश्किल है कि नोटबंदी के मकसद ज्यादा पवित्र थे या फिर
जीएसटी के उद्देश्य ज्यादा कीमती हैं?
या फिर सरकार में एक हाथ को दूसरे हाथ का पता ही नहीं है.