इनकम टैक्स का रिटर्न भरने के बाद कागजों को संभालते हुए अनुपम टीवी से
उठती आवाज सुनकर ठहर गए. प्रधानमंत्री ईमानदार
करदाताओं का उत्साह बढ़ा रहे थे.
निजी कंपनी में काम करने वाले अनुपम ने 30 फीसद तनख्वाह गंवाकर, कोविड के बाद किसी तरह नौकरी बचाई
है. लाखों वेतनभोगी करदाताओं की तरह उनकी ईमानदारी पर कोई फूल
नहीं बरसाता लेकिन अनुपम न केवल टैक्स चुकाने में ईमानदार हैं बल्कि अपने कमाई-खर्च का हिसाब-किताब
भी पक्का रखते हैं.
करीब 47 साल के अनुपम टैक्सपेयर्स
के उस सबसे बड़े समुदाय का हिस्सा हैं, कमाई, खर्च या रिटर्न पर जिनका ज्यादातर टैक्स पहले कट (टीडीएस)
जाता है. आयकर विभाग के मुताबिक,
(2019) व्यक्तिगत करदाता हर साल करीब 34 लाख करोड़
रुपए की आय घोषित करते हैं, जिनमें 20 लाख करोड़ रुपए की आय वेतनभोगियों की होती है. 2.33 करोड़ रिटर्न इसी श्रेणी के लोगों
के होते हैं.
प्रधानमंत्री की बात सुनने के बाद अनुपम ने इनकम टैक्स रिटर्न को सामने
रखकर डायरी निकाल ली. वे ईमानदारी का हिसाब लगाकर उस पर गर्व कर लेना चाहते थे.
डायरी के पन्नों पर सबसे पहले चमका वह मोटा टैक्स जो उनकी कंपनी हर महीने, तनख्वाह देने से पहले ही काट लेती है. इसके बाद उनकी गिनती में आया वह टैक्स जो उनके बैंक ने बचत (एफडी) पर ब्याज से काटा.
अनुपम ने बच्ची की पढ़ाई की फीस के लिए पुराना मकान बेचा था, जिसे बैंक कर्ज से खरीदा था. तबादले
के कारण अब वह दूसरे शहर में किराये पर रहे थे. मकान रजिस्ट्री से पहले उन्हें टैक्स जमा करना पड़ा और फिर कैपिटल गेन्स चुकाना पड़ा.
डायरी के अगले पन्नों में यह भी दर्ज था कि उनके पेंशनयाफ्ता बुजुर्ग
माता-पिता ने भी मोटा टैक्स दिया था.
यहां तक आते-आते अनुपम और उनके घर में
कमाने वालों के कुल इनकम टैक्स का आंकड़ा उनके चार महीने के वेतन से ज्यादा हो गया
था.
अनुपम किसी पारंपरिक मध्यवर्गीय की तरह खर्च का हिसाब भी लिखते थे. हाउस टैक्स और
वाटर टैक्स, टोल टैक्स सब वहां दर्ज था. खाने के सामान, दवा, कपड़ों,
फोन-ब्रॉडबैंड के बिल और दूसरी सेवाओं पर खर्च
देखते हुए अनुपम ने जीएसटी का मोटा हिसाब भी लगा लिया.
बीते कई वर्षों से अनुपम के परिवार की आय का करीब 35 से 45 फीसद हिस्सा टैक्स जा रहा
रहा था. ईमानदारी पर गर्व करने के बाद अनुपम सोचने लगे कि इतने
टैक्स के बदले सरकार से क्या मिलता है?
गिनती फिर शुरू हुई. सरकारी शिक्षा या अस्पताल? बच्चे तो निजी स्कूल और कोचिंग में
पढ़ते हैं. इलाज निजी अस्पताल में होता है. हेल्थ बीमा का प्रीमियम भरते हैं, रोजमर्रा के इलाज का
खर्च किसी बीमा से नहीं मिलता. दवाओं पर दबाकर टैक्स लगता है.
इनकम टैक्स रिटर्न बता रहा था कि उन्होंने शिक्षा
और स्वास्थ्य के लिए सेस भी दिया है.
सरकारी परिवहन का इस्तेमाल न के बराबर था. ट्रेन यात्रा गैर सब्सिडी वाले
दर्जों में होती है. कार कर्ज पर ली थी. पेट्रोल पर भारी टैक्स दे रहे हैं, कार के रजिस्ट्रेशन
और सड़क निर्माण का सेस देने के बाद टोल भी भर रहे हैं. बिजली
महंगी होती जाती है. अपार्टमेंट में पावर बैक अप पर दोहरा पैसा
लगता है. बैंक अपनी सेवाओं पर फीस वसूलते हैं. सरकारी भुगतानों में देरी पर पेनाल्टी लगती है और हर बरसात में टूटती सड़कें बताती
हैं कि उनके टैक्स का क्या इस्तेमाल हो रहा है.
अनुपम को याद आया कि जो सरकारी व्यवस्था उनके टैक्स से चलती बताई जाती
है, उससे मुलाकात के तजुर्बे कितने भयानक रहे हैं.
आधार में पता बदलवाने से लेकर बूढे़ पिता के पेंशन दस्तावेजों की सालाना
औपचारिकता तक हर सरकारी सेवा ने उन्हें नोच (रिश्वत) लिया है.
ईमानदार अनुपम ने पानी पीकर पॉजिटिव होने की कोशिश की.
टैक्स गरीबों के काम तो आता होगा? अचानक डायरी का सबसे पीछे वाला पन्ना खुला, जहां प्रवासी
मजदूरों को खाना बांटने का खर्च दर्ज था. अनुपम के टैक्स के बदले
सरकार उन्हें क्या ही दे रही थी लेकिन सड़कों पर मरते प्रवासी मजदूर जिनके पास कुछ
नहीं था उन्हें भी क्या दे रही थी?
काश! अगर वे कंपनी होते तो
घाटे के बदले (वेतन में कटौती) तो टैक्स
से छूट मिल जाती या फिर गरीबों को खाना खिलाने का खर्च जन कल्याण
में दिखाकर टैक्स बचा लेते.
ऐक्ट ऑफ गॉड के तर्क से उन्हें टैक्स चुकाने से छूट क्यों नहीं मिलती? पारदर्शिता केवल क्या आम करदाता के लिए ही है,
सियासी दल कमाई का हिसाब क्यों नहीं देते? सरकार
क्यों नहीं बताती कि वह टैक्स का कैसे इस्तेमाल करती है?
सवालों के तूफान से जूझते हुए अनुपम ने अपनी डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा, “करदाता भारत का स्थायी निम्न वर्ग है. उनसे वसूला जा रहा टैक्स उनकी ईमानदारी पर लगा जुर्माना है.”