मार्च 2015—एक ब्रेकिंग न्यूज कौंधी... भारत के इतिहास की सबसे सफल स्पेक्ट्रम नीलामी! सरकार को मिलेंगे 1.10 लाख करोड़ रु. मंत्रियों के चेहरे टीवी-टीवी घूमने लगे. प्रवक्ता आ डटे. 2जी घोटाले के कथित नुक्सान की भरपाई का उत्सव शुरू हो गया था. (स्पेक्ट्रम—वायरलेस फ्रीक्वेंसी जिस पर मोबाइल चलता है)
मार्च 2018—केंद्रीय मंत्रिमंडल ने तय किया कि टेलीकॉम कंपनियां अब सरकार को दस साल की जगह 16 साल में स्पेक्ट्रम की फीस देंगी. (मार्च 2015 में किसी ने कहा था कि 1.10 लाख करोड़ रु. सरकार को मिल गए हैं) कंपनियां अब अपनी जरूरत से ज्यादा स्पेक्ट्रम भी रख सकेंगी (इसे जमाखोरी भी कह सकते हैं). ऊंची कीमत पर सरकार से स्पेक्ट्रम खरीदने के बाद टेलीकॉम कंपनियां 7.7 लाख करोड़ रु. के कर्ज में दब गई हैं. सरकार की ताजा मेहरबानी से कंपनियों को 550 अरब रु. का फायदा होगा.
हैरत हो रही है न कि 2015 की भव्य सफलता महज तीन साल के भीतर दूरसंचार क्षेत्र की बीमारी और एक रहस्यमय इलाज में कैसे बदल गई ?
2015 से 2108 तक दूरसंचार क्षेत्र में ऐसा बहुत कुछ हुआ है, जिसे समझना उन सबके लिए जरूरी है जिनके हाथ में एक मोबाइल है.
• स्पेक्ट्रम की नीलामी 2जी घोटाले के बाद शुरू हुई. दूरसंचार के धंधे में स्पेक्ट्रम ही कच्चा माल है. 2015 की पहली बोली जोरदार रही, पर 2016 में दूसरी बोली को कंपनियों ने अंगूठा दिखा (5.64 खरब रु. के लक्ष्य के बदले केवल 65,000 करोड़ रु. की बिक्री) दिया.
• स्पेक्ट्रम प्राकृतिक संसाधन है. जिस कंपनी के पास जितना अधिक स्पेक्ट्रम, उसके पास बाजार में उतनी अधिक बढ़त का मौका और निवेशकों की निगाह में ऊंची कीमत. स्पेक्ट्रम की शॉपिंग पर कंपनियों ने अपनी जेब ढीली नहीं की बल्कि इसे दिखाकर बैंकों से कर्ज लिया. जो दो साल में टाइम बम की तरह टिकटिकाने लगा और फिर सरकार की राहत बरस पड़ी.
• इस बीच जिस 2जी घोटाले के कारण यह नीलामी हुई थी वह घोटाला ही अदालत में खेत रहा. सब बरी हो गए.
• महंगे स्पेक्ट्रम का बाजार लगाते हुए सरकार ने और उसे खरीदते हुए कंपनियों ने कहा था कि स्पेक्ट्रम की कमी की वजह से नेटवर्क (कॉल ड्रॉप) बुरी हालत में हैं लेकिन 2015 के बाद से पूरे देश में हर जगह मोबाइल नेटवर्क डिजिटल इंडिया की अंतिम यात्रा निकाल रहे हैं.
• और यह किसने कहा था कि कंपनियों को फ्रीक्वेंसी मिलेंगी तो मोबाइल दरें सस्ती होंगी? नए खिलाड़ी जिओ ने भी पिछले साल दरें बढ़ा दीं.
• 2015 से 2018 के बीच मोबाइल बाजार की प्रतिस्पर्धा तीन कंपनियों—एयर टेल, जिओ, वोडाफोन (आइडिया का विलय)—में सिमट गई. सरकारी बीएसएनएल बीमार है और रिटायर होने वाला है. अब तीन कंपनियों के पास अधिकांश स्पेक्ट्रम है और पूरा बाजार भी. हाल में एयरसेल के दिवालिया होने से करीब 8 करोड़ उपभोक्ता इन्हीं तीन के पास जाएंगे.
हो सकता है कि कोई इसमें घोटाला सूंघने की कोशिश करे लेकिन घोटाले अब हमें विचलित नहीं करते. हमारी सरकारें नीति नपुंसक हो चली हैं.
2014 में सत्ता में आने के बाद सरकार को यह तय करना था कि प्राकृतिक संसाधनों (स्पेक्ट्रम, कोयला, जमीन) को बाजार से बांटने की नीति क्या होगी?
उसके सामने दो विकल्प थे: एक—ऊंची कीमत पर प्राकृतिक संसाधन बेचकर सरकारी राजस्व बढ़ता हुआ दिखाया जाए, जिसके लिए कंपनियां बैंकों से कर्ज (जमाकर्ताओं का पैसा) उठाकर सरकार के खाते में रख देंगी. और कामयाबी का ढोल बज जाएगा.
दूसरा—संसाधनों का सही मूल्यांकन किया जाए. उन्हें सस्ता रखा जाए ताकि उनके इस्तेमाल से निवेश, मांग, नौकरियां और प्रतिस्पर्धा बढ़े और उपभोक्ता के लिए दरें कम रहें.
अपनी दूरदर्शिता पर रीझ रही सरकार चार साल में स्पेक्ट्रम जैसे संसाधनों के आवंटन की स्पष्ट नीति तक नहीं बना पाई. तो किस्सा कोताह यह कि स्पेक्ट्रम की ‘शानदार’ नीलामी के बाद:
• कंपनियों को स्पेक्ट्रम मिल गया, बैंकों से खूब कर्ज मिला और लाइसेंस फीस से छूट भी हासिल हुई. बाजार पर एकाधिकार बोनस में.
• सरकार की कमाई नहीं बढ़ी.
• सरकार की कमाई नहीं बढ़ी.
• बैंक कर्ज देकर फंस गए.
• मोबाइल नेटवर्क बद से बदतर हो गए.
• मोबाइल बाजार में प्रतिस्पर्धा तीन कंपनियों में सिमट गई. ध्यान रहे कि पूरा उदारीकरण उपभोक्ताओं को आजादी देने के लिए हुआ था.
और
भारत की सबसे चमकदार मोबाइल क्रांति में 2015 के बाद से करीब 50,000 नौकरियां जा चुकी हैं. लगभग इतने ही लोग 2018 में बेकार हो जाएंगे.
फिर कहना पड़ेगा कि सरकारों के समाधान समस्या से ज्यादा भयानक होते हैं.