दंगों की आग लगाकर पीडि़तों को राजनैतिक स्वादानुसार भूनने के बादअगर वक्त मिले तो विभाजक बहादुरों को भारत में स्वाइन फ्लू केताजा इतिहास पर नजर डालनी चाहिए ताकि हम समझ सकें कि नोवेल कोराना वायरस हमारा क्या हाल कर सकता है जहां स्वास्थ्य ढांचा ब्राजील और वियतनाम से भी पिछड़ा है.
स्वाइन फ्लू इक्कीसवीं सदी की पहली घोषित आधुनिक महामारी थी. भारत में 2009 से 2019 के बीच स्वाइन फ्लू से 10,614 मौतें हो चुकी हैं और 1.37 लाख लोग बीमार हुए. यह तबाही अभी जारी है. स्वास्थ्य विभाग (नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल) का यह आंकड़ा सीमित सूचनाओं पर आधारित है. अधिकांश इलाज तो नीम हकीमों या निजी डॉक्टरों के पास होता है. केवल 2019 में ही स्वाइन फ्लू ने करीब 1,000 जिंदगियां (गुजरात और राजस्थान में सबसे ज्यादा) निगल लीं. हमने टैक्स निचोड़ने वाली सरकारों से कभी नहीं पूछा कि हम इस तरह मर क्योंरहे हैं?
भारत का बीमार स्वास्थ्य ढांचा जब तक जीवन शैली से जुड़े रोगों (डायबिटीज, हाइपरटेंशन, कार्डिएक) के महंगे इलाजों का रास्ता निकाल पाता, तब तक वायरल रोगों ने घाव को खोल कर रख दिया. दुनिया की कथित महाशक्ति मारक रोगों के नए दौर से मुखातिब है, स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में195 देशों में जिसका दर्जा 154वां (लांसेट शोध) है.
वायरल बीमारियों से निबटने में भारत का ताजा तजुर्बा हमें कोरोना वायरसको लेकर इसलिए बहुत ज्यादा डराता है क्योंकि...
• वायरल यानी हवा में तैर कर फैलने वाले इन वायरस से पैदा हुई महामारियों के लिए बेहद सतर्क और चुस्त प्राथमिक स्वास्थ्य ढांचे की जरूरत है.बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं वाले एशियाई देश भी वायरल रोगों के विस्फोट के सामने कमजोर साबित हुए हैं क्योंकि मरीजों की संख्या अचानक बढ़ती है. अमेरिका और यूरोप अपने मजबूत प्राथमिक तंत्र के जरिए फ्लू वैक्सीन के सहारे इनका असर सीमित रखते हैं.
• भारत प्राथमिक सुविधाओं के मामले में पुरातत्व युग में है. स्वाइन फ्लू के सामने मशहूर गुजरात मॉडल बुरी तरह असफल (2010 से 2019 के बीच करीब 2,000 मौतें. 22,000 से अधिक पीडि़त) साबित हुआ. उत्तर प्रदेश जैसे बीमार अस्पतालों वाले राज्य की बात ही दूर है.
• बुनियादी सुविधाओं के मामले में भारत का प्राथमिक स्वास्थ्य तंत्र जच्चा-बच्चा से आगे नहीं बढ़ सका है. वायरल फ्लू श्वसन तंत्र में संक्रमण करते हैं इसलिए जिला स्तरीय अस्पतालों में त्वरित जांच और कृत्रिम श्वसन प्रणालियों की जरूरत होती है. स्वाइन फ्लू से सैकड़ों मौतों के बाद जांच की सुविधाओं पर निगाह गई. इलाज तो अभी भी दूर की कौड़ी है. वैक्सीन महंगीहै और उसका मिलना सहज नहीं है.
• भारत में हर साल करीब 5.5 करोड़ लोग केवल इलाज के कारण गरीब होते हैं (पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया का शोध). इसमें अधिकांश खर्च प्राथमिक इलाज पर होता है.
• दवाओं की लागत लोगों को सबसे ज्यादा गरीब बनाती है. कोरोना वायरसइस लिहाज से दोहरी मार लेकर आने वाला है. दवाएं आमतौर पर महंगी हैं.कोरोना वायरस के बाद चीन से कच्चे माल की आपूर्ति रुकने से उनकी कीमतें और बढ़ेंगी.
भारत की सरकार सेहत पर न केवल दुनिया में सबसे कम (जीडीपी का केवल एक फीसद) खर्च करती है बल्कि वरीयताएं भी अजीबोगरीब हैं. 70 फीसद ग्रामीण आबादी वाले मुल्क में केवल 25,000 प्राइमरी हेल्थ सेंटर और 19,000 अस्तपाल हैं, जानलेवा वायरल बीमारियों से निबटने के लिए हमें जिनकी सबसे ज्यादा जरूरत है. आयुष्मान भारत हमें कोरोना वायरस से शायद ही बचा सके. यह स्कीम अभी, पिछले सरकारी बीमा प्रयोगों की तरह बीमा कंपनियों और निजी अस्पतालों में लूटजोड़ की चपेट में है.
दिल्ली में जब ‘गोली मारो’ की आवाजें लगाई जा रही थीं तब तक कोरोना वायरस भारत पहुंच चुका था लेकिन जैसे हमारी चिंताओं में स्वाइन फ्लू सेमौतें नहीं हैं, ठीक उसी तरह सियासत ने हमें एक दूसरे से लड़ने में लगा दिया, कोरोना से बचाने में नहीं.
1918 के स्पेनिश फ्लू (करीब 14 लाख मौतें) से लेकर स्वाइन फ्लू तक, भारत, वायरल रोगों का सबसे बड़ा शिकार रहा है. लेकिन वायरल रोग के वैक्सीन शोध, जांच तंत्र की वरीयताएं तब आती हैं जब मौतें हमें घेर चुकी होती हैं. निजी अस्तपाल भी महंगे इलाजों के लिए तो तैयार हैं लेकिन इन महामारियों के लिए नहीं.
जल्द ही भारत के विभिन्न शहरों में कोरोना के वायरल बम फटने लगेंगे और तब सरकारें हमें इलाज देने की बजाए यह बताएंगी कि गर्मी बढ़ने से वायरस कमजोर होगा. लेकिन फ्लू के पुराने तजुर्बे बताते हैं कि पुराने तजुर्बे बताते हैं कि तभी तो जो स्वाइन फ्लू दुनिया के देशों से होकर गुजरगया, वह अब भारत की सालाना महामारी है.
कोरोना इसका घातक उत्तराधिकारी हो सकता है.