जिन्हें लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद बेहद मजबूत है, कोरोना बंदी के बाद देश के हर प्रमुख शहर से पलायन को देखकर, उन्हें खुद को चिकोटी काटनी चाहिए. यह श्रमिक कोरोना से डर कर नहीं, रोजगार गंवाकर रोते हुए घरों को लौटे हैं.
जो यह मानते हैं कि लोग सरकारों में गहरा भरोसा रखते हैं, उन्हें भी खुद को झिंझोड़ना चाहिए. भारत के ताजा इतिहास का यह सबसे बड़ा पलायन ठीक उस दिन शुरू हुआ, जिस दिन लोग ताली-थाली पीट रहे थे, और जब सरकार कोरोना राहत पैकेजों के बीच हजारों लोग अपने घरों की तरफ पैदल चल पडे़ थे.
महामारी रोकने की बंदी के पहले तीन दिन के भीतर ही भारतीय अर्थव्यवस्था की ‘मजबूत’ बुनियाद दरक गई और सिर पर गठरियां रखे, रोता-कलपता विराट अदृश्य भारत, दुनिया के सामने आ गया.
भारत की आर्थिक बुनियाद दरअसल है क्या और क्यों वह एक आपदा भी नहीं झेल सकी?
छठी आर्थिक गणना (2016) बताती है कि—
• भारत में कुल 5.85 करोड़ प्रतिष्ठान हैं जिनमें करीब 78 फीसद गैर कृषि गतिविधियों (प्रशासन, प्रतिरक्षा, घरेलू सहायक आदि शामिल नहीं) में लगे हैं. इनमें 58 फीसद सेवा क्षेत्र में हैं
• करीब 60 फीसद प्रतिष्ठान या तो घर से चलते हैं या उनके पास कोई स्थायी कारोबारी ढांचा नहीं है. इनमें करीब 54 फीसद प्रतिष्ठान के पास कर्मचारी नहीं हैं यानी कि वे स्वरोजगार हैं
• इस अदृश्य अर्थव्यवस्था में प्रति प्रतिष्ठान कर्मचारी संख्या केवल 2.18 है. 1998 से प्रतिष्ठान छोटे होते जा रहे हैं यानी हर कारोबार में कर्मचारियों की संख्या घट रही है और स्वरोजगार बढ़ रहे हैं
• असंगठित क्षेत्र पर श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट (2013-14) बताती है कि गैर कृषि गतिविधियों में लगे 67 फीसद प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों की संख्या छह से कम है, जबकि 82 फीसद के पास कोई रोजगार अनुबंध नहीं है
इस अर्थव्यवस्था को पिछले पांच साल में चौथी बड़ी चोट लगी है. नोटबंदी ने बिजनेस मॉडल तोड़ दिए, जीएसटी ने घुटनों के बल कर दिया, कर्ज और कानूनी पेच (रेरा) ने भवन निर्माण (जीडीपी का 8 फीसद) खत्म कर दिया और अब कोरोना बंदी के बाद इनके पास न पूंजी बची है न दोबारा खड़े होने की ताकत.
पिछले 40 वर्षों में भारत को जिस विराट आंतरिक प्रवास की अदृश्य ताकत ने गढ़ा है वह इन्हीं लाखों छोटे उद्योगों पर केंद्रित है. आर्थिक सर्वेक्षण (2017) के अनुसार, 2011 से 2016 के बीच करीब 90 लाख लोगों ने प्रति वर्ष आंतरिक प्रवास किया है. भारत में करीब 10 करोड़ आंतरिक प्रवासी शहरों में काम कर रहे हैं. अगर ये 10,000 रुपए प्रति माह (न्यूनतम मजदूरी) भी कमाते हैं तो भी यह कमाई करीब 170 अरब डॉलर है. अगर इसमें एक-तिहाई पैसा भी गांवों में जाता है तो यह धन हस्तांतरण जीडीपी का दो फीसद है.
यह अदृश्य बुनियादी अर्थव्यवस्था उद्योग मेलों या प्रधानमंत्री की बैठकों का हिस्सा नहीं होती. मंदी से निबटने की राहत भी सरकारों की दोस्त कंपनियां खा गईं. उलटे नीति निर्माताओं में इन बुनियादी छोटों को लेकर वितृष्णा दिखती है. असंगठित क्षेत्र को वे काले धन की खान मानते हैं, सरकार इन्हें पीटकर बदलना चाहती है. यह पिटाई इन्हें खत्म कर रही है जिसका फायदा बड़ी कंपनियों को है.
कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था की तामीर नए सिरे से करनी होगी.
• भारतीय अर्थव्यवस्था 49 क्लस्टर (उद्योग, नगर, बाजार) में फैली है जो जीडीपी में 70 फीसद का योगदान करते हैं. सियासी चंदे देने वालों की जगह यहां रोजगार देने वालों के लिए नीति बनानी होगी
• छोटे उद्योगों के लिए उत्पाद आरक्षण की वापसी जरूरी है. वह खुदरा सामान तो बना सकते हैं जो हम आयात करते हैं
• बैंकों को छोटे उद्योगों को पूंजी और कर्ज देने के नए उत्पाद विकसित करने होंगे
सरकारों के भव्य वादों के बावजूद वे लाखों लोग कौन थे जो अपने वर्षों पुराने रोजगार छोड़कर अचानक गांवों की ओर चल दिए?
ताजा अध्ययनों (सेंटर फॉर इनफॉर्मल सेक्टर ऐंड लेबर स्टडीज, जेएनएयू) के मुताबिक, रोजगार प्राप्त करीब 46.5 करोड़ लोगों में से करीब 13.6 करोड़ लोगों के पास कोई रोजगार अनुबंध नहीं है. यानी कि इतने तो रोजगारों पर सीधा खतरा है.
ये ही लोग कोरोना बंदी के अपने घरों को चल पड़े हैं. उन्हें कोरोना से मरने का डर भी नहीं था क्योंकि जीवन से जीविका प्यारी होती है. यह पलायन दरअसल सरकारों और व्यवस्था से मोहभंग का सबसे संगठित प्रमाण है. लोग उस गरीबी में वापस लौट रहे हैं जहां से उनका निकलना इस सदी में भारत की सबसे बड़ी सफलता रही थी.
भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद पहले से कमजोर है. कोरोना की विदाई के बाद यह सपाट मैदान हो जाएगी. सीमित साधनों वाले गांव इन प्रवासियों का पेट भी नहीं भर पाएंगे. कोरोना के जाने के बाद अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण करना होगा. अगर आंखें खुल चुकी हों तो यह नया निर्माण नीचे से शुरू होना चाहिए.