देश के हर बूथ पर हमारा कार्यकर्ता झंडा लेकर खड़ा रहेगा! हमारे कार्यकर्ता घर-घर तक पहुंचने चाहिए! पानी में आग लगा देने वाली इन राजनैतिक तैयारियों पर न्योछावर होने से पहले सुमेरपुर के ‘प्रधान जी’ से मिलना जरूरी है.
प्रधान जी सिखाते हैं कि जब कोई समाज अपने प्रगति के लक्ष्य बदलता है तो उसे अपनी चिंताओं के आयाम बदल लेने चाहिए अन्यथा बेगानगी अच्छे-खासे समाजों का तिया पांचा कर देती है.
प्रधान जी का काफिला प्रधानमंत्री से कुछ ही छोटा है. उनका पारिवारिक प्रताप पंचायत प्रमुखों से लेकर पन्ना प्रमुखों तक फैला है. मनरेगा से लेकर उज्ज्वला तक हर स्कीम के आंकड़े उनकी ड्योढ़ी का पानी पीकर अंगड़ाई लेते हैं. भाई, भतीजे, नाती, बहुएं, सब कहीं न कहीं किसी न किसी सरकार का हिस्सा हैं. त्योहारों और मुंडन-कनछेदन पर उनका घर सर्वदलीय बैठक जैसा हो जाता है.
प्रधान जी पार्टी का विस्तार हैं.
वे सरकार के जन संपर्क मिशन का शुभंकर हैं.
वे सरकार की सरकार हैं.
प्रधान जी ‘मैक्सिमम गवर्नमेंट’ हैं.
प्रधान जी, दरअसल, ‘वड़ा प्रधान’ की चार साला उम्मीदों का सजीव स्मारक हैं.
2014 में मई में उत्साह से लबरेज नरेंद्र मोदी ने एक ऐसा वादा किया था, जो उनसे पहले की कोई सरकार इतने खम ठोक तरीके से नहीं कर पाई थी. मोदी ने कहा था कि वह सरकार छोटी करेंगे यानी मिनिमम गवर्नमेंट. उनका यह वादा रिझाने लायक था, क्योंकि इसमें उन मुसीबतों का इलाज भी छिपा था, जो 1991 के बाद सुधारों की खुराक से भी दूर नहीं हुईं.
सरकार को सिकोड़कर प्रधानमंत्री मोदी हजार तरह की बर्बादी, सैकड़ों तरीके के भ्रष्टाचार और असंख्य नापाक नेता-अफसर गठजोड़ों को खत्म करने जा रहे थे. वे राजनैतिक भ्रष्टाचार का मर्सिया लिखने की तरफ बढ़ चले थे. लेकिन फिर वक्त ने गिरगिट होना कबूल किया और मोदी सरकार पिछली किसी सरकार से ज्यादा स्कीमें पचाकर बड़ी होती गई. लंबे उदर वाली सरकारें विकास पर बैठ जाती हैं, इसलिए अब विकास महसूस कराने के लिए स्कीमों का प्रचार और ‘प्रधान जी’ का ही एक सहारा हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को फिटनेस का मंत्र दे पाते, इससे पहले भाजपा ने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनने का बीड़ा उठा लिया और फिर वही हुआ जो पिछले 60 साल से होता आया था. पार्टी को बड़ा करने के लिए सरकार को बड़ा करना जरूरी था.
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी कितने सारे कारोबारों में दखल रखती है. साम्यवादियों का यह वीभत्स पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) अब पार्टी के नेताओं और कारोबारियों में फर्क खत्म कर चुका है.
पता नहीं, हम भारतीय कब इस वायरस के शिकार हुए कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को राजनीति में आना चाहिए. लेकिन इस बीमारी का राजनैतिक दलों को लाभ हुआ. उनका संसार बड़ा होता चला गया.
अलबत्ता, गांव से लेकर शहरों तक मेहनती और मेधावी सैकड़ों लोग अपने सबसे उत्पादक वर्षों (25 से 60) को मुट्ठी भर ‘कुर्सी चिपको’ नेताओं की खातिर यूं ही नहीं गंवाने वाले थे, खासतौर जब उन्हें यह मालूम है कि सियासत में ऊपर जाने वाली हर सीढ़ी पर झुंड के झुंड लोग जमा हैं. उन्हें अपने श्रम का वाजिब मूल्य यानी अपने लिए थोड़ी-सी सरकार चाहिए. इसलिए राजनैतिक दलों का सांगठनिक विस्तार, थुलथुली सरकारों का सहोदर हो जाता है.
भारतीय राजनीति एक वीभत्स बिजनेस मॉडल पर आधारित है, प्रधान जी जिसके ब्रांड एंबेसडर हैं. उनके लिए राजनीति ही उनका कारोबार है या फिर राजनीति है इसलिए कारोबार है. जो दल सत्ता में होते हैं, वे संगठन बढ़ाने के लिए सरकार बढ़ाते हैं और फिर सत्ता में बने रहने को लिए संगठन व सरकार को बढ़ाते रहना होता है.
राजनीति में जितने अधिक लोग आएंगे, सरकारें उतनी ही बड़ी होती जाएंगी और भ्रष्टाचार उतना ही जरूरी होगा. भाजपा को पूरे देश में फैलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी छोटी सरकार का आदर्श संभाल नहीं सकते थे, इसलिए उनकी सरकार बड़ी होती गई. आज निचले और मझोले स्तरों पर राजनैतिक भ्रष्टाचार पहले से ज्यादा बजबजा रहा है.
- चार साल में सबसे बड़ी पार्टी सबसे बेशुमार सरकार में तब्दील हो गई है.
- सब्सिडी और स्कीमों की भीड़ पहले से ज्यादा बढ़ गई है. कार्यर्ताओं की कमाई के लिए यह जरूरी है.
- सियासी चंदे पारदर्शी नहीं हुए. बहुराष्ट्रीय कंपनी जैसी पार्टी को चलाने और चुनाव जीतने के लिए अकूत संसाधन चाहिए जो लाभ के अवसर बांटकर ही मिलेगा.
मैदां की हार-जीत तो किस्मत की बात है
टूटी है किसके हाथ में तलवार देखना