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Sunday, September 23, 2018

नई मुख्यधारा!


मानसरोवर में राहुल, इंदौर की बोहरा मस्जिद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुसलमानों के बिना हिंदुत्व की संकल्पना को खारिज करते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत!

राजनीति की षड्यंत्र कथाओं में टूट कर विश्वास करने वाला भी यह मानेगा कि सब कुछ वैसे ही नहीं हो रहा है, जैसे खांचे हम गढ़ कर बैठे थे.

क्या लोकतंत्र के ताप में विचारधाराओं के ध्रुव नरम पड़ रहे हैं? ध्रुव बहेंगे या फिर जम जाएंगे? इस पर फिर कभी लड़ लेंगे. पहले तो इस दृश्य को उन सब लोगों को आंख भर देख लेना चाहिए जो यह मानते हैं, चंद्र टरै सूरज टरै लेकिन राष्ट्रीय स्वयं संघ या कांग्रेस विचारधाराओं का जीवाश्म बन चुके हैं.

विचार और विचारधारा का संघर्ष सबसे दिलचस्प है. विचार स्वतंत्र और नया होता है जो रूढ़ विचारधारा के सामने खड़ा होता है. भारत के लोकतंत्र में एक गहरी अदृश्य आंतरिक जीवनी शक्ति है जो वैचारिक ध्रुवों को नए विचारों से मुठभेड़ के लिए बाध्य  कर रही है. नए विचार इनपुराने ध्रुवों के भीतर से ही निकल रहे हैं

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने बाकायदा तीन दिन का अधिवेशन बुलाकर उन सभी सवालों के जवाब खुद दिए जिनके जवाब तो दूर, उन्हें पूछने का अवसर भी उन्होंने कभी नहीं दिया. संघ के अधिवेशन का मजमून 'भविष्य का भारत' था.

क्या यह भविष्य में प्रासंगिकता की जद्दोजहद है जिसमें विचारधाराएं पुनर्मूल्यांकन कर रही हैं!

''दि हम मुस्लिमों को स्वीकार नहीं करते तो या हिंदुत्व नहीं है हिंदुत्व का अर्थ सर्व-समावेशी भारतीयता है.'' संघ के प्रमुख से यह सुनकर बहुतों को अपने कान साफ करने पड़े होंगे.  

भारत की दक्षिणपंथी राजनीति को जब लंबे संघर्ष के बाद सत्ता मिली तो उसे वह रुढ़िवादी, कट्टर ऊंचाई भा नहीं रही है, जिस पर टिके रहकर ही वह यहां तक आई है. संघ का मुस्लिम समावेशी हिंदुत्व का पक्षधर होना भारतीयता की पुरानी परिभाषाओं में स्वाभाविक है लेकिन जिस भारतीय दक्षिणपंथ को हम जानते हैं और जिसकी कट्टरता के कई आयाम देख चुके हैं उसका यह समावेशी विचार चाहे जितने राजनैतिक मंतव्य समेटे हो लेकिन शुभ और मंगलमय है.

दूसरे ध्रुव यानी कांग्रेस, जिसे हम अब तक जानते रहे हैं उससे भी यह उम्मीद नहीं की गई थी कि उसके नेता उन प्रतीकों को गर्व के साथ अपनाते नजर आएंगे जो धर्मनिरपेक्षता की चिरंतन कांग्रेसी परिभाषा में वर्जित रहे हैं. राहुल गांधी की मंदिर यात्राओं में चाहे जो प्रतीकवाद हो लेकिन कांग्रेस का तरल हिंदुत्व, संघ के समावेशी हिंदुत्व जितना ही ताजा, रोचक और संभावनामय है.

तो क्या भारतीय राजनीति के वैचारिक ध्रुव लोकतंत्र की सर्वसमावेशी अदृश्य शक्ति का संदेश सुन रहे हैं? क्या दोनों ध्रुव यह मान रहे हैं भारत बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों का देश है जो भारत के भविष्य की राजनीति को निर्धारित करेंगे.

क्या संघ को यह समझ में आ गया है कि उनके बहुसंख्यकवाद के भीतर जातियों, भाषा, संबंधों, जीवन पद्धति पर आधारित असंख्य अल्पसंख्यक हैं जिन्हें एक पहचान में समेटना राजनैतिक रूप से असंभव है. और क्या कांग्रेस को यह एहसास हो गया है कि उसकी धर्मनिरपेक्षता, बहुसंख्यक भारतीयता की जड़ों से कटी नहीं होनी चाहिए?

कांग्रेस का तरल हिंदुत्व और संघ का समावेशी हिंदुत्व भारत में एक नई राजनीति मुख्यधारा बनाने की कोशिश है जो अतीत की राजनैतिक मुख्यधाराओं से ज्यादा वृहत और व्यापक हो सकती है! 

लेकिन इससे पहले हमें देखना होगा कि जब कट्टरता सिर उठाएगी तब संघ का उदार हिंदुत्व क्या बोलेगा? चुनावों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति बनी रहेगी या कांग्रेस का अल्पसंख्यकवादी मोह फिर सक्रिय होगा?

अभी हमें यह भी देखना है कि भारत में कट्टरता अन्य द्वीप-अंतरीप (अल्पसंख्यक संगठन) इस नए उदारवाद पर अपनी जिदें छोड़ते हैं या नहीं.
हम इस नए उदारवाद को खारिज कर सकते हैं. हम इनमें चुनावी चालाकियां देख सकते हैं. हम संघ और कांग्रेस के अतीत को कुरेद कर इसे नकली साबित कर सकते हैं. हम इन में षड्यंत्र तलाश सकते हैं.

लेकिन क्या ऐसे निष्कर्ष हमें वहीं सीमित नहीं कर देंगे, संघ और कांग्रेस जहां से आगे बढऩे की कोशिश कर रहे हैं! इस नए उदारवाद पर शक करते हुए हम भारतीय लोकतंत्र की उस महाशक्ति को छोटा नहीं कर रहे होंगे जो सदियों से इस वैविध्यपूर्ण राष्ट्र को संभालती-सहेजती आई है!

भारतीय लोकतंत्र में एक नया वैचारिक महामंथन शुरू हो रहा है. नतीजों का इंतजार करना होगा.


Tuesday, April 21, 2015

कांग्रेस का 'राहुल काल'


अज्ञातवास से लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए सही वक्त पर सही कदम का राजनैतिक मंत्र हमेशा से रॉकेट विज्ञान की तरह अबूझ रहा है.
ह अध्यादेश पूरी तरह बकवास है. इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए!!" सितंबर 2013 को दिल्ली के प्रेस क्लब की प्रेस वार्ता में अचानक पहुंचे राहुल गांधी की यह मुद्रा नई ही नहीं, विस्मयकारी भी थी. संसद में चुप्पी, पार्टी फोरम पर सन्नाटा, और सक्रियता तथा निष्क्रियता के बीच हमेशा असमंजस बनाकर रखने वाले राहुल, अपनी सरकार के एक अध्यादेश को इस अंदाज में कचरे का डिब्बा दिखाएंगे, इसका अनुमान किसी को नहीं था. कांग्रेस की सूरत देखने लायक थी. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि यह अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल रोकने के मकसद से बना था. 10 जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा-8 को अवैध करार देते हुए फैसला सुनाया था कि अगर किसी सांसद या विधायक को अदालत अभियुक्त घोषित कर देती है तो उसकी सदस्यता तत्काल खत्म हो जाएगी. पूरी सियासत बचाव में आगे आ गई. अदालती आदेश पर अमल रोकने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार ने एक अध्यादेश गढ़ा और सर्वदलीय बैठक के हवाले से दावा किया कि सभी दल इस पर सहमत हैं. राजनैतिक सहमतियां प्रत्यक्ष रूप से दिख भी रहीं थीं. अलबत्ता राहुल ने सरकार और पार्टी के नजरिये से अलग जाते हुए सिर्फ यही नहीं कहा कि कांग्रेस और बीजेपी इस पर राजनीति कर रही हैं बल्कि उनकी टिप्पणी थी कि "हमें यह बेवकूफी रोकनी होगी. भ्रष्टाचार से लड़ना है तो छोटे-छोटे समझौते नहीं चलेंगे." बताने की जरूरत नहीं कि राहुल गांधी के विरोध के बाद अध्यादेश कचरे के डिब्बे में चला गया.
इस प्रसंग का जिक्र यहां राहुल गांधी के राजनैतिक साहस या सूझ की याद दिलाने के लिए नहीं हो रहा है. मामला दरअसल इसका उलटा है. राहुल गांधी भारतीय राजनीति में अपने लिए एक नई श्रेणी गढ़ रहे हैं. भारत के लोगों ने साहसी और लंबी लड़ाई लड़ने वाले नेता देखे हैं. बिखरकर फिर खड़ी होने वाली कांग्रेस देखी है. दो सीटों से पूर्ण बहुमत तक पहुंचने वाली संघर्षशील बीजेपी देखी है. बार-बार बनने वाला तीसरा मोर्चा देखा है. सब कुछ गंवाने के बाद दिल्ली की सत्ता हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी देखी है लेकिन राहुल गांधी अनोखे नेता हैं जिन्हें मौके चूकने में महारत हासिल है. राहुल रहस्यमय अज्ञातवास से लौटकर अगले सप्ताह जब कांग्रेस की सियासत में सक्रिय होंगे तो जोखिम उनके लिए नहीं बल्कि पार्टी के लिए है, क्योंकि उसके इस परिवारी नेता के लिए सही वक्त पर सही कदम का राजनैतिक मंत्र, हमेशा से रॉकेट विज्ञान की तरह अबूझ रहा है.
कांग्रेस अगर यह समझने की कोशिश करे कि 2013 में अध्यादेश को कचरे के डिब्बे के सुपुर्द कराने वाली घटना, राहुल की एक छोटी धारदार प्रस्तुति बनकर क्यों रह गई तो उसे शायद अपने इस राजकुमार से बचने में मदद मिलेगी. अपराधी नेताओं को बचाने वाला अध्यादेश उस वक्त की घटना है जब देश में भ्रष्टाचार को लेकर जन और न्यायिक सक्रियता अपने चरम पर थी. इसी दौरान अदालत ने राजनीति में अपराधियों के प्रवेश पर सख्ती की, जिसे रोकने के लिए सभी दल एकजुट हो गए. पारंपरिक सियासत की जमात से राहुल गांधी लीक तोड़कर आगे आए. सत्तारूढ़ दल के सबसे ताकतवर नेता का सरकार के विरोध में आना अप्रत्याशित था, लेकिन इससे भी ज्यादा विस्मयकारी यह था कि राहुल फिर नेपथ्य में गुम हो गए, जबकि यहां से उनकी सियासत का नया रास्ता खुल सकता था.
इस बात से इत्तेफाक करना पड़ेगा कि राहुल गांधी राजनैतिक समझ रखते हैं लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि सियासत और समय के नाजुक रिश्ते की उन्हें कतई समझ नहीं है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जो जनांदोलन अंततः कांग्रेस की शर्मनाक हार और बीजेपी की अभूतपूर्व जीत की वजह बना, वह दरअसल राहुल गांधी के लिए अवसर बन सकता था. लोकपाल बनाने की जवाबदेही केंद्र सरकार की थी. सभी राजनैतिक दल लगभग हाशिये पर थे और एक जनांदोलन सरकार से सीधे बात कर रहा था. इस मौके पर अगर राहुल गांधी ने ठीक वैसे ही तुर्शी दिखाई होती जैसी 2013 के सितंबर में अपराधी नेताओं के बचाव में आ रहे अध्यादेश के खिलाफ थी तो देश की राजनैतिक तस्वीर यकीनन काफी अलग होती. यह अवसर चूकने में राहुल की विशेषज्ञता का ही उदाहरण है कि जिस नए भूमि अधिग्रहण कानून पर उन्होंने अपनी सरकार पर दबाव बनाया था, उसे लेकर जब मोदी सरकार को घेरने का मौका आया तो कांग्रेस राजकुमार किसी अनुष्ठान में लीन हो गए.
ब्रिटेन के महान प्रधानमंत्रियों में एक (1868 से 1894 तक चार बार प्रधानमंत्री) विलियम एवार्ट ग्लैडस्टोन को राजनीति में फिलॉसफी ऑफ राइट टाइमिंग का प्रणेता माना जाता है. प्रसिद्ध लिबरल नेता और अद्भुत वक्ता ग्लैडस्टोन, कंजर्वेटिव नेता बेंजामिन डिजरेली के प्रतिस्पर्धी थे. दुनिया भर के नेताओं ने उनसे यही सीखा है कि सही मौके पर सटीक सियासत सफल बनाती है. अटल बिहारी वाजपेयी, सोनिया गांधी, डेविड कैमरुन, बराक ओबामा से लेकर नरेंद्र मोदी तक सभी राजनैतिक सफलताओं में ग्लैडस्टोन का दर्शन देखा जा सकता है. अलबत्ता राहुल गांधी के राजनैतिक ककहरे की किताब से वह पाठ ही हटा दिया गया था, जो सही मौके पर सटीक सियासत सिखाता है.

पहली बार कांग्रेस महासचिव बनने के बाद राहुल ने दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कहा था कि सफलता मौके पर निर्भर करती है, सफल वही हुए हैं जिन्हें मौके मिले हैं. अलबत्ता राहुल की राजनीति मौका मिलने के बाद भी असफल होने का तरीका सिखाती है. कांग्रेस को राहुल से डरना चाहिए क्योंकि उनका यह राजकुमार मौके चूकने का उस्ताद है और ''राहुल काल'' के दौरान कांग्रेस ने भी सुधरने, बदलने और आगे बढ़ने के तमाम मौके गंवाए हैं. फिर भी अज्ञातवास से लौटे राहुल को कांग्रेस सिर आंखों पर ही बिठाएगी क्योंकि यह पार्टी परिवारवाद के अभिशाप को अपना परम सौभाग्य मानती है. अलबत्ता पार्टी में किसी को राहुल गांधी से यह जरूर पूछना चाहिए कि म्यांमार में विपश्यना के दौरान क्या किसी ने उन्हें गौतम बुद्ध का यह सूत्र बताया था कि ''आपका यह सोचना ही सबसे बड़ी समस्या है कि आपके पास काफी समय है.'' कांग्रेस और राहुल के पास अब सचमुच बिल्कुल समय नहीं है.

Monday, February 3, 2014

चुनावी सियासत के आर्थिक कौतुक

लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है।
भारत की चुनावी राजनीति का शिखर आने से पहले आर्थिक राजनीति की ढलान आ गई है। देश केवल नई सरकार ही नहीं पिछले सुधारों में सुधार और कुछ मौलिक प्रयोगों का इंतजार भी कर रहा था और उम्मीद थी कि ग्रोथ, रोजगार व बेहतर जीवन स्‍तर से जुड़ी नई सूझ, चुनावी विमर्श का हिससा बनेगी लेकिन चुनावी बहसें अंतत: एक तदर्थवादी और दकियानूसी आर्थिक सोच में फंसती जा रही है। भारत में सत्‍ता परिवर्तन पर बड़े दांव लगा रहे ग्‍लोबल निवेशकों को भी यह अंदाज होने लगा है कि यहा के राजनीतिक सूरमा चाहे जितना दहाड़ें लेकिन आर्थिक सुधारों की बात पर  वह चूजों की तरह दुबक जाते हैं। सुधारों की बाहें फटकारने वाली कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी को लेकर प्‍याज और पत्‍थर दोनों ही खा लिये और यह साबित कर दिया सुधारों की बात उसने धोखे से कर दी थी। विदेशी निवेश जैसे मुद्दों पर  भाजपा का अतीत तो वामपं‍थियों जैसा रहा है इसलिए आर्थिक सुधारों पर वह ज्‍यादा ही दब्‍बू व भ्रमित दिख रही है। और चुनावी सियासत के नए सूरमा आम आदमियों के पास तो सुधारों की सोच ही गड्मड्ड है। अधिसंख्‍य भारत जो बदले हुए परिवेश में नई सूझबूझ की बाट जोह रहा था वह इन चुनावों को  भी गंभीर आर्थिक मुद्दों पर करतब व कौतुक के तमाशे में बदलता देख रहा है।
एलपीजी सब्सिडी की ताजी कॉमेडी सबूत है आर्थिक सुधार भारत के लिए अपवाद ही हैं। कांग्रेस ने एलपीजी सब्सिडी की प्रणाली किसी दूरगामी सोच व तैयारी के साथ नहीं बदली थी। वह फैसला तो बीते साल उस वक्‍त हुआ, जब भारत की रेटिंग पर तलवार टंगी थी और सरकार को सुधार करते हुए दिखना था। इसलिए पहले छह और फिर नौ सिलेंडर किये गए। सरकार को उस वक्‍त भी यह नहीं पता था कि सब्सिडी वाले नौ और शेष महंगे सिलेंडरों की यह राशनिंग प्रणाली कैसे लागू होगी और भोजन पकाने के सिर्फ एकमात्र ईंधन पर निर्भर शहरी आबादी इसे कैसे अपनाएगी। वह फैसला तात्‍कालिक सुधारवादी आग्रहों से निकला और बगैर किसी होमवर्क के लागू हो गया। सरकार आधार और डायरेक्‍ट बेनीफिट ट्रांसफर स्‍कीम के जोश में थी इसलिए एक एलपीजी सब्सिडी के एक अधकचरे फैसले को एक पायलट स्‍कीम से जोड़कर उपभोक्‍ताओं की जिंदगी मुश्किल कर दी गई। लोग सब्सिडी पाने के लिए आधार नंबर व बैंक खाते की जुगत में धक्के खाने लगे और गिरते पड़ते जब करीब 20 फीसद एलपीजी उपभोक्‍ताओं ने 291 जिलों में आधार से जुड़े बैंक खाते जुटा लिये तो अचानक राहुल गांधी ने बकवास अध्यादेश की तर्ज पर पूरी स्‍कीम खारिज कर दी। आर्थिक नीतियों के मामले में कांग्रेस अब वहीं खड़ी है जहां वह 2009 के चुनाव के पहले थी।
सुधारों को लेकर कांग्रेस का यह करतब तो दस साल से चल रहा है लेकिन भाजपा में सुधारों की सूझ को लेकर नीम अंधेरा ज्‍यादा चिंतित करता है क्‍यों कि नरेंद्र मोदी के भाषण आर्थिक चुनौतियों की बहस को अक्‍सर अलादीन के चिराग जैसे कौतुक में बदल देते हैं। आर्थिक सुधारों की बहस सब्सिडी, विदेशी निवेश और निजीकरण के इर्द गिर्द घूमती रही है। यह तीन बड़े सुधार एक व्‍यापक पारदर्शिता के ढांचे के भीतर आर्थिक बदलाव बुनियादी रसायन बनाते दिखते हैं। इन चारों मुद्दों पर राजनीतिक सर्वानुमति कभी नहीं बनी । जबकि देशी विदेशी निवेशक भारत की अगली सरकार को इन्‍ही कसौटियों पर कस रहे हैं। सब्सिडी की बहस राजकोष की सेहत सुधारने से लेकर सरकारी भ्रष्‍टाचार तक फैली है। इस बहस में भाजपा का पिछला रिकार्ड कोई उम्‍मीद नहीं जगाता। केंद्र में अपने एकमात्र कार्यकाल में भाजपा ने सब्सिडी को लेकर निष्क्रिय रही जबक यूपीए राज के सब्सिडी सुधारो में भाजपा ने विपक्ष की लीक पीटी क्‍यों कि उसकी राज्‍य सरकारें सब्सिडी के तंत्र को पोस रहीं हैं।
उदारीकरण के पिछले दो दशकों में विदेशी निवेश की बड़ी भूमिका रही है लेकिन यह इस पहलू पर भाजपा का असमंजस ऐतिहासिक है। तभी तो क्‍यों कि राजसथान की नई सरकार ने खुदरा में विदेशी निवेश का फैसला पलट दिया है। विदेशी निवेश खिलाफ भाजपा की आक्रामक स्‍वदेशी मुद्रायें, भारत में निवेश क्रांति लाने के नरेंद्र मोदी के दावों की चुगली खाती हैं। ठीक इसी तरह सरकारी उपक्रमों व सेवाओं के निजीकरण पर भाजपा में सोच का कुहरा, निवेशकों को उलझाता है। पारदर्शिता, आर्थिक विमर्श का नया कोण है। समाजवादी और निजी दोनों तरह की अर्थव्‍यवसथाओं का प्रसाद पा चुके लोग अब भ्रष्‍टाचार के खात्‍मे को तरक्‍की से जोड़ते हैं और आर्थिक सुधारों पर ऐसी बहस की चाहते हैं, जो आम लोगों के अनुभवों से जुड़ी हो और तर्कसंगत अपेक्षायें जगाती है। भाजपा जब इस बहस के बदले बुलेट ट्रेन, नए शहरों व ब्रॉड बैंड नेटवर्क के दावे करती है तो नारेबाजी की गंध पकड़ में आ जाती है।  
देश में आर्थिक तरक्‍की राह में नए पत्थर अड़ गए हैं जिन पर भाषणों के करतब कारगर नहीं होते। जमीन, खदान, स्‍पेक्‍ट्रम जैसे  प्राकृतिक संसाधनों का पारदर्शी आवंटन, सस्‍ता कर्ज, महंगाई में कमी, केंद्र व राज्‍य के बीच इकाईनुमा तालमेल, नियामकों की ताकत, नेताओं के विवेकाधिकारों में कमी, छोटे कारोबार शुरु करने की सुविधा व लागत जैसे जटिल मुद्दे  सुधारों की बहस का नया पहलू हैं जबकि अभी तो केंद्र सरकार के स्‍तर पर सब्सिडी, विदेशी निवेश व निजीकरण की पुरानी बहसें ही हल होनी हैं। राज्‍यो में तो इन बहसों की शुरुआत तक नहीं हुई है। यही वजह है कि चुनाव आते ही सियासी दल की अपनी उस आर्थिक हीनग्रंथि जगा दिया है जो जटिल बहसों से उनकी रक्षा करती है। अभी तक के चुनावी विमर्श बता रहे हैं कि लोकलुभावन नीतियां ही भारत की सियासत का चिरंतन सत्‍य हैं, जिसके सामने कांग्रेस की युवा हुंकार और भाजपा की अनुभवी गर्जना मिमियाने लगती है। सब्सिडी भारत की लोकलुभावन राजनीति का वह किनारा है जहां भाजपा व कांग्रेस की धारायें मिलकर एक हो जाती है और चुनाव के पहले इस धारा में स्‍नान होड़ शुरु हो गई है। ठोस सुधारों के घाट पर कोई नहीं उतरना चाहता।

Monday, April 8, 2013

अवसरों का अपहरण





लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सौ परिवारों के पास

मुख्‍यमंत्री ग्रोथ के मॉडल बेच रहे हैं और देश की ग्रोथ का गर्त में है! रोटी, शिक्षा से लेकर सूचना तक, अधिकार बांटने की झड़ी लगी है लेकिन लोग राजपथ घेर लेते हैं! नरेंद्र मोदी के दिलचस्‍प दंभ और राहुल गांधी की दयनीय दार्शनिकता के बीच खड़ा देश अब एक ऐतिहासिक असमंजस में है। दरअसल, भारतीय लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सैकडा परिवारों के पास। इस नायाब तंत्र के ताने बाने, सभी राजनीतिक दलों को आपस में जोडते हैं अर्थात इस हमाम के आइनों में, सबको सब कुछ दिखता है इसलिए राजनीतिक बहसें खोखली और प्रतीकात्‍मक होती जा रही हैं जबकि लोगों के क्षोभ ठोस होने लगे हैं।
यदि ग्रोथ की संख्‍यायें ही सफलता का मॉडल हैं तो गुजरात ही क्‍यों उडीसा, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़, त्रिपुरा, उत्‍तराखंड, सिक्किम भी कामयाब हैं अलबत्‍ता राज्‍यों के आर्थिक आंकड़ों पर हमेशा से शक रहा है। राष्‍ट्रीय ग्रोथ की समग्र तस्‍वीर का राज्‍यों के विपरीत होना आंकड़ों में  संदेह को पुख्‍ता करता है। दरअसल हर राज्‍य में उद्यमिता कुंठित है, निवेश सीमित है, तरक्‍की के अवसर घटे हैं, रोजगार नदारद है और लोग निराश हैं। ग्रोथ के आंकड़े अगर ठीक भी हों तो भी यह सच सामने नहीं आता कि भारत का आर्थिक लोकतंत्र लगभग विकलांग हो गया है। 
उदारीकरण से सबको समान अवसर मिलने थे लेकिन पिछले एक दशक की प्रगति चार-पांच सौ कंपनियों की ग्रोथ में