बहुत पुराने मिस्तरी थे वे. लेकिन खलीफा की दीवारें अक्सर टेढी होती थीं. कोई
टोके तो कहते कि प्लास्टर में ठीक हो जाएगी लेकिन टेढ़ी दीवार प्लास्टर में कहां
छिपती है इसलिए प्लास्टर के बाद खलीफा कहते थे, क्या खूब डिजाइन बनी है.
जीएसटी के विश्वकर्मा एक साल बाद भी यह मानने को तैयार नहीं कि खामियां डिजाइन
नहीं होतीं.
और तर्कों का तो क्या कहना...?
हवाई चप्पल और मर्सिडीज पर एक जैसा टैक्स कैसे लग सकता है?
जवाबी कुतर्क यह हो सकता है कि जब गरीब और अमीर के लिए मोबाइल और इंटरनेट की
दर एक हो सकती है, छोटे-बड़े किसान को
एक ही समर्थन और मूल्य मिलता है तो फिर खपत पर टैक्स में गरीब और अमीर का बंटवारा
क्यों?
फिर भी बेपर की उड़ाते हुए मान लें कि 100 रु. की चप्पल और 50 लाख की मर्सिडीज पर
एक समान दस फीसदी जीएसटी है तो चप्पल 110 रु. की होगी और मर्सिडीज 55 लाख रु. की. जिसे जो चाहिए वह लेगा. इसमें दिक्कत क्या है?
टैक्स दरों की भीड़ के इस वामपंथ की कोई पवित्र आर्थिक वजह नहीं है. बस, लकीर पर फकीर चले जा रहे हैं और दकियानूसी को सुधार बता रहे हैं.
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अगर जूते की दुकान में घुसने
से पहले आपको यह मालूम हो कि हवाई चप्पल से लेकर सबसे महंगे जूते पर टैक्स की दर
एक (जीएसटी के तहत विभिन्न कीमत के जूतों पर अलग-अलग दर है) ही है तो फिर समझदार
ग्राहक जरूरत, क्वालिटी और पैसे की पूरी
कीमत (वैल्यू फॉर मनी) के आधार पर जूता चुनेगा.
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टैक्स वैल्यू एडिशन (उत्पाद
की बेहतरी) पर लगता है न कि कई टैक्स दरों के जरिए खपत के बाजार को अलग-अलग आय
वर्गों के लिए दिया जाए. टैक्स के डंडे से खपत के चुनाव को प्रभावित करने की क्या
तुक है?
लोग क्रमशः बेहतर उत्पादों की तरफ बढ़ते हैं तो वह टैक्स लगाकर महंगे नहीं किए
जाने चाहिए.
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भारतीय बाजार में बिस्कुट, चीज,
चाय,
ब्रेड या जूते आदि की इतनी कम किस्में क्यों हैं? उपभोक्ताओं की बदलती रुचि व आदत के हिसाब से उत्पाद व पैकेजिंग लगातार बदलते
हैं. बहुस्तरीय टैक्स रचनात्मक उत्पादन में बाधा है. टैक्स के झंझट से बचने के लिए
कंपनियां उत्पादों के सीमित संस्करण बनाती हैं.
तो क्या हवाई चप्पल और मर्सिडीज पर एक जैसा टैक्स होना चाहिए?
भई,
हवाई चप्पल पर टैक्स होना ही क्यों चाहिए?
आम खपत की एक सैकड़ा चीजों पर टैक्स की जरूरत ही नहीं है. सब्सिडी लुटाने से तो
यह तरीका ज्यादा बेहतर है कि टैक्स से बढऩे वाली महंगाई को रोका जाए. अगर एक
टैक्स रेट बहुत मुश्किल है तो आम खपत की चीजों को निकालकर बचे हुए उत्पादों को दो
हिस्सों में बांटा जा सकता है और उन पर दो दरें तय कर दी जाएं. लेकिन चार टैक्स
रेट वाला जीएसटी तो बेतुका है.
देश के एक फीसदी उपभोक्ताओं को भी इस जीएसटी में अपनी खरीदारी पर टैक्स की
दरें पता नहीं होंगी. कंपनियां और कारोबारी भी कम हलाकान नहीं हैं लेकिन फिर भी
सरकार ने यह मायावी जीएसटी क्यों रचा?
जानने के लिए जीएसटी की जड़ें खोदनी होंगी.
सन् 2000 में जीएसटी की संकल्पना एक राजकोषीय सुधार के तौर पर हुई थी. सरकारों को
सिकोडऩा,
खर्च में कमी, घाटे पर काबू के साथ
जीएसटी के जरिए टैक्स दरों के जंजाल को काटना था ताकि कर नियमों का पालन और खपत
बढ़े जो बेहतर राजस्व लेकर आएगा.
जीएसटी बना तो सब गड्डमड्ड हो गया.
खर्चखोर सरकारें जीएसटी के जरिए खपत को निचोडऩे के लिए पिल पड़ीं और इस तरह हमें
वह जीएसटी मिला जिससे न लागत कम हुई, न मांग बढ़ी, न कारोबार सहज व पारदर्शी
हुआ और न राजस्व बढ़ा. हालांकि टैक्स चोरी कई गुना बढ़ गई.
फायदा सिर्फ यह हुआ है कि टैक्स दरों
के मकडज़ाल के बाद चार्टर्ड एकाउंटेंट की बन आई. परेशान कारोबारी सरकार को अदालत
में फींच रहे हैं और उलझनों व गफलतों पर टैक्स नौकरशाही मौज कर रही है.
एक साल का हो चुका जीएसटी बिल्कुल अपने पूर्वजों पर गया है. करीब 50 से अधिक उत्पाद और सेवा श्रेणियों (चैप्टर) पर टैक्स की तीन या चार दरें लागू
हैं जैसे प्लास्टिक की बाल्टी और बोतल पर अलग-अलग टैक्स. एक्साइज, वैट,
सर्विस टैक्स में भी ऐसा ही होता था.
असफलता के एक साल बाद जीएसटी पर खिच खिच शुरु
हो गई है. राजस्व उगाहने वालों को लगता है कि जीएसटी की गाड़ी तो शानदार थी, वो सड़क (जीएसटीएन) ने धोखा दे दिया (राजस्व सचिव हसमुख अधिया का ताजा
बयान)
हकीकत यह है जीएसटी की डिजाइन खोटी है. नेटवर्क इस ऊटपटांग जीएसटी से तालमेल की कोशिश
कर रहा था अंतत: असंगत जीएसटी के सामने कंप्यूटर भी हार मान गए. इश्तिहारों
से दरारें नहीं भरतीं. प्रचार के ढोल फट
जाएंगे लेकिन टैक्स दरों की संख्या को कम किए बिना जीएसटी को सुधार बनाना नामुमकिन
है.