आज मैं एनपीए की कहानी सुनाना चाहता हूं......
'' बैंकों की अंडरग्राउंड लूट 2008 से 2014 तक चलती रही. छह साल में अपने चहेते लोगों को खजाना लुटा दिया गया बैकों से. तरीका क्या था कागज देखना कुछ नहीं, टेलीफोन आया, लोन दे दो. लोन चुकाने का समय आया तो नया लोन दे दो. जो गया सो गया, जमा करने के लिए नया लोन दे दो. यही कुचक्र चलता गया और भारत के बैंक एनपीए के जंजाल में फंस गए!
एनपीए बढऩे का एक और कारण! यूपीए सरकार की नीतियों के कारण कैपिटल गुड्स आयात बढ़ा जिसका फाइनेंस बैंक लोन के जरिए किया गया.
(प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए)
यह पहला मौका नहीं था जब प्रधानमंत्री ने बैंक एनपीए को लूट कहा था. फरवरी में भी संसद में उन्होंने कहा था कि नेता, सरकार, बिचौलिए मिलकर कर्ज रिस्ट्रक्चर करते थे. देश लूटा जा रहा था.
प्रधानमंत्री की टिप्पणी, बैंक कर्जों की वह कहानी हरगिज नहीं है जो पिछले चार साल में देश को बार-बार सुनाई गई है कि आर्थिक मंदी की वजह से कंपनियों की परियोजनाएं फंस गईं, जिससे भारतीय बैंक आज 10 लाख करोड़ रु. के एनपीए में दबे हुए कराह रहे हैं.
क्या बैंकों के एनपीए संगठित लूट थे, जो कंपनियों को कर्जों की रिस्ट्रक्चरिंग या लोन पर लोन देकर की गई थी?
क्या आयात के लिए भी कर्ज में घोटाला हुआ?
क्या बकाया बैंक कर्ज आपराधिक गतिविधि का नतीजा हैं, आर्थिक उतार-चढ़ाव का नहीं?
अगर बैंकों के एनपीए यूपीए सरकार के चहेतों के संगठित भ्रष्टाचार की देन हैं तो फिर पिछले चार साल में इन्हें लेकर जो किया गया है, वह हमें दोहरे आश्चर्य से भर देता है.
2014 के बाद बैंकों के एनपीए पर सरकार कुछ इस तरह आगे बढ़ी:
· फंसे हुए कर्जों की पहचान के तरीके और उन्हें एनपीए घोषित करने के पैमाने बदले गए. इनमें वे लोन भी थे जिन्हें 2008 के बाद रिस्ट्ररक्चर (विलंबित भुगतान) किया गया. 2008 के बाद बैंक कर्ज में सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं का है और प्रधानमंत्री ने इसी को बैंकों की लूट कहा है. यानी कि सरकार को पूरी जानकारी मिल गई कि यह कथित लूट किसने और कैसे की?
· बैंकों को इन कर्जों के बदले अपनी पूंजी और मुनाफे से राशि निर्धारित (प्रॉविजनिंग) करनी पड़ी, जिससे सभी बैंकों को 2017-18 में 85,370 करोड़ रु. का घाटा (इससे पिछले साल 473.72 करोड़ रु. का मुनाफा) हुआ. बैंकों के शेयर बुरी तरह पिटे.
· कर्ज उगाही के लिए बैंकों ने दिवालिया कानून की शरण ली. इस प्रक्रिया में बैंकों को बकाया कर्जों का औसतन 60 फीसदी हिस्सा तक गंवाना होगा.
· सरकार ने बैंकों को बजट से पूंजी दी, यानी बैंकों की जो पूंजी ‘यूपीए के चहेते’ उड़ा ले गए थे, उसका एक बड़ा हिस्सा करदाताओं के पैसे से लौटाया गया.
यह सारी कार्रवाई तो कहीं से यह साबित नहीं करती कि बैंक एनपीए, यूपीए के चहेतों की लूट थे!
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल अगस्त में राज्यसभा में बैंकिंग नियमन संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान कहा था, ‘‘औद्योगिक और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में सरकारी बैंक ज्यादा कर्ज देते हैं. वहीं निजी बैंक उपभोक्ता बैंकिंग पर ज्यादा फोकस करते हैं. मैं इसका राजनीतिकरण करना नहीं चाहता—कब दिए, क्यों दिए—ग्लोबल इकोनॉमी बढ़त पर थी. कंपनियों ने अपनी क्षमताएं बढ़ाई. बैंकों ने लोन दिया. बाद में जिंसों की कीमतें गिर गई और कंपनियां फंस गईं.’’
वित्त मंत्री का आकलन तो प्रधानमंत्री से बिल्कुल उलटा है!
प्रधानमंत्री ने जो कहा है और सरकार ने बैकों के डूबे हुए कर्जों का जैसे इलाज किया है, उसके बाद बैंकों के एनपीए का शोरबा जहरीला हो गया है.
पिछले चार साल में सरकार ने इसे कभी लूट माना ही नहीं और न ही आपराधिक कार्रवाई हुई. बैंकरप्टसी कानून सहित जो भी किया जा रहा है वह आर्थिक मुश्किल (वित्त मंत्रालय की सूझ के मुताबिक) का इलाज था.
बैंकों और बजट को एनपीए का नुक्सान उठाना होगा लेकिन अगर यह लूट है तो यूपीए के ‘चहेते कर्जदारों’ के खिलाफ कार्रवाई नजर नहीं आई?
देश को यह बताने में क्या हर्ज है कि बैंकों का कितना एनपीए आर्थिक मंदी की देन है, कितना कर्ज यूपीए के चहेतों की उस लूट का हिस्सा है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री बार-बार करते हैं.
बैंकों से लूटा गया पैसा आम लोगों की बचत है और बैंकों को मिलने वाली सरकारी पूंजी भी करदाताओं की है.
फिर किसे बचाया जा रहा है और क्यों?
ऐसा क्या है जिसकी परदादारी है?