Showing posts with label 15th finance commission. Show all posts
Showing posts with label 15th finance commission. Show all posts

Friday, March 19, 2021

सबसे बड़ा उलट-फेर

 


भारत में यह फर्क अब खासा महत्वपूर्ण होने वाला है कि आप किस राज्य में रहते हैं और रोजगार का मौका कौन से राज्य में मिलता है. यह बात हरियाणा या झारखंड में राज्य के निवासियों को रोजगार (निर्धारित वेतन सीमा से नीचे) देने की शर्त तक सीमित नहीं है बल्कि रोजगारों और लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी भविष्य में इस तथ्य से तय होगा कि विभि‍न्न राज्य मंदी के बाद आने वाले सबसे बड़े वित्तीय उलट-फेर को कैसे संभाल पाते हैं.

राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में मंदी की बहस से निकलकर अब राज्यों की तरफ देखने की जरूरत है, लॉकडाउन ने जिनकी अर्थव्यवस्थाओं की बुरी गत बना दी है. राज्यों के अपने राजस्व नुक्सान तो अलग हैं, ऊपर से उन्हें जीएसटी के हिस्से में इस वित्त वर्ष में केंद्र से करीब तीन लाख करोड़ रुपए कम मिले. अगले साल भी इतनी ही कमी रहनी है.

 

जोर का झटका

राज्यों की कमाई या राजस्व को बहुत बड़ा झटका लगने वाला है. केंद्र ने राज्य सरकारों को जीएसटी में नुक्सान की भरपाई की जो गारंटी दी है, वह 2023 में खत्म हो जाएगी. 15वें वित्त आयोग ने अपनी ताजा रिपोर्ट में इसे बढ़ाने की कोई सिफारिश नहीं की है. इस गारंटी के खत्म होने से राज्यों के राजस्व का पूरा संतुलन बदल जाएगा और नुक्सान की भरपाई का इंतजाम उन्हें खुद करना होगा.

यही नहीं, वित्त आयोग ने केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी का फॉर्मूला भी बदल दिया है. नई व्यवस्था में जनसंख्या नियंत्रण, स्वास्थ्य व शि‍क्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के पैमाने भी जोड़े गए हैं. इंडिया रेटिंग्स की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय करों में आठ राज्यों (आंध्र, असम, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, ओडिशा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश) का हिस्सा 24 से लेकर 118 (कर्नाटक) फीसद तक घट जाएगा. महाराष्ट्र, गुजरात, अरुणाचल के हिस्से में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो रही है.

केंद्र के टैक्स में सेस और सरचार्ज का हिस्सा बढ़ता जा रहा है, जिनमें राज्यों को हिस्सा नहीं मिलता. केंद्रीय टैक्स राजस्व में इनका हिस्सा 2012 में 10.4 फीसद से बढ़कर 2021 में 19.9 फीसद हो गया है.

वित्त आयोग ने केंद्र से राज्यों को जाने वाले अनुदानों में बढ़ोतरी की सिफारिश की है लेकिन शि‍क्षा, बिजली और खेती के लिए केंद्रीय अनुदान बेहतर प्रदर्शन की शर्त पर मिलेंगे. बेहतर काम के लिए राज्यों को ज्यादा खर्च या निवेश करना होगा जबकि खजाने और ज्यादा खाली हो जाएंगे.

कर्ज का अंबार

कोविड की मंदी ने केवल केंद्र के बजट को ही ध्वस्त कर सरकार को बैंकों व सरकारी संपत्ति‍यों की सेल लगाने पर बाध्य नहीं किया है, राज्यों की हालत और ज्यादा खराब है. मौजूदा वित्त वर्ष में (7 अप्रैल से 16 मार्च तक) 28 राज्य और 2 केंद्र शासित प्रदेश मिलकर बाजार से रिकॉर्ड 8.24 लाख करोड़ रुपए का कर्ज उठा चुके हैं. यह कर्ज पिछले वित्त वर्ष से 31 फीसद ज्यादा है.

मध्य प्रदेश, झारखंड और सिक्किम पिछले साल की तुलना में दोगुने से ज्यादा कर्ज उठा चुके हैं. कर्ज पर ब्याज की दर ज्यादातर राज्यों के लिए 7 फीसद से ऊपर हैं.

जीएसटी में नुक्सान की भरपाई पर केंद्र के इनकार के बाद अगले साल राज्यों को 2.2 लाख करोड़ रु. अति‍रिक्त कर्ज उठाने होंगे. अगले साल राज्यों के कुल कर्ज दस लाख करोड़ रु. से ऊपर निकल सकते हैं.

अगले दो साल में संघीय अर्थव्यवस्था में दो बड़े बदलाव होने हैं:

जीएसटी की क्षतिपूर्ति खत्म होने और केंद्रीय करों के हिस्से में कटौती कई बड़े राज्यों में जिंदगी और कारोबारी लागत बढ़ाएगी. सरकारों को बिजली, रोड ट्रांसपोर्ट, भूमि पंजीकरण की दरें बढ़ानी होंगी, जरूरी खर्चे काटने होंगे और निजीकरण तेज करना होगा.

राज्यों पर कर्ज की देनदारी का नया चक्र शुरू होगा जिसके लिए संसाधन नाकाफी हैं.

नई दुनिया में (अपवादों को छोड़कर) सफलता केवल प्रतिभा या क्षमता से तय नहीं होती है बल्कि‍ इससे बहुत बड़ा फर्क पड़ता है कि वह अमेरिका में पैदा हुआ है या तीसरी दुनिया के किसी देश में. यही वह ओवेरियन लॉटरी (जन्म स्थान का सौभाग्य) है जिसे मशहूर निवेशक वारेन बफे की जीवनी द स्नोबॉल में दिलचस्प ढंग से समझाया गया है. यह सिद्धांत भारत के राज्यों पर भी लागू होने वाला है क्योंकि तेज विकास के पिछले वर्षों में क्षेत्रीय असमानता बढ़ती चली गई है.

डबल इंजन की सरकारों के दावों को चुनावी नमक के साथ निगलना चाहिए क्योंकि कोविड 2016-20 के बीच केवल हरियाणा, कर्नाटक, गुजरात और तेलंगाना की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर रही थी (इंडिया रेटिंग्स रिपोर्ट 2021) बाकी सब के जस के तस रहे.

चिरंतन चुनावी चौकसी से निकल कर केंद्र सरकार को मंदी से उबरने के लिए राज्यों के साथ साझा रणनीति बनानी होगी क्योंकि मंदी के बाद किस राज्य में रहने में फायदा होगा यह डबल इंजन की सरकार से नहीं बल्कि‍ टैक्स, कारोबारी, सुविधाओं जीवन की लागत और स्थानीय अर्थव्यवस्था में मांग पर निर्भर होने वाला है.

Friday, January 31, 2020

29 बजटों का सवाल


 केंद्र सरकार का अकेला बजट मंदी का भाड़ फोड़ सकता होता तो फिर छहशानदारबजटों के बावजूद हम औंधे मुंह धंस गए होते? अथवा टैक्स या कर्ज रियायतों के ताजे पैकेज (ऑटोमोबाइल, हाउसिंग, कॉर्पोरेट के टैक्स में कमी, एनबीएफसी, लघु उद्योग) सिर के बल खड़े हो जाते.

2020-21 का बजट कुछ ऐसी वजहों से संवेदनशील होने वाला है जो अर्थव्यवस्था और सियासत, दोनों के लिए कीमती हैं. बजट जैसे ही संसद की दहलीज पार करेगा, एक बिल्कुल नई जद्दोजहद दिल्ली से निकलकर राज्यों की राजधानियों तक फैल जाएगी. राज्यों में विपक्ष का उभार, मंदी और केंद्र सरकार की राजकोषीय ढलान केंद्र और राज्यों के आर्थिक रिश्तों का नक्शा बदलने जा रही हैं. यह बजट उस नए मानचित्र की भूमिका हो सकता है.

बजट के समानांतर तीन बड़े प्रस्ताव वित्त मंत्रालय और वित्त आयोग के गलियारों में टहल रहे हैं, जो अगर लागू होने की तरफ बढ़ते हैं तो राजकोषीय गणि भी बदल जाएगा और देश की सियासत का समीकरण भी.

केंद्र सरकार राज्यों के केंद्रीय करों के सामूहिक संग्रह में मिलने वाले हिस्से (42 फीसद) को कम करना चाहती है. केंद्र का घाटा संभल नहीं रहा है. तर्क यह होगा कि राज्यों को जीएसटी से होने वाले घाटे की भरपाई की जा रही है.

केंद्रीय करों में राज्यों के हिस्से से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक नया कोष बनाने की तैयारी है. यह कोष भारत की समेकित निधि‍ (कंसॉलिडेटेड फंड) से अलग होगा.

केंद्र प्रायोजित स्कीमों की संख्या में कमी का प्रस्ताव है. इन स्कीमों की संख्या सौ के करीब है. केंद्र-राज्य मिलकर इनका वित्त पोषण करते हैं. इनके विलय और समापन से 20,000 करोड़ रुपए काटे जाएंगे. इससे राज्यों को केंद्र से मिलने वाले संसाधनों में कमी आएगी.

मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार ने शुरुआत योजना आयोग को खत्म करने के साथ की थी जिसका मतलब राज्यों को आजादी और ताकत देना था लेकिन हुआ दरअसल उसका उलटा ही. 2015 में 14वें वित्त आयेाग की सिफारिश मानकर केंद्रीय करों के पूल में राज्यों का हिस्सा 32 से बढ़ाकर 42 फीसद तो कर दिया गया लेकिन इसके बदले

केंद्र से राज्यों को जाने वाले अनुदान संसाधनों में कटौती शुरू हो गई

केंद्र सरकार के कुछ बड़े मिशन राज्यों के गले बांध दिए गए, जिससे राज्यों की अपनी योजनाएं पिछड़ गईं

जीएसटी गया जिससे टैक्स लगाने की राज्यों की ताकत सीमित हो गई

और केंद्र ने सेस यानी उपकर के जरिए टैक्स जुटाना शुरू कर दिया, जिनको राज्यों के साथ बांटा नहीं जाता

2015 के बाद राज्यों ने अपने विकास (पूंजी) खर्च में बढ़ोतरी की जबकि केंद्र का व्यय कम होता गया. 2018 में पूंजी खर्च में राज्यों का हिस्सा 43 फीसद (2010 में 32 फीसद) हो गया है. अलबत्ता जीएसटी के साथ टैक्स लगाने के विकल्प सीमित हो गए लेकिन राजस्व संग्रह गिरने के कारण जीएसटी से नुक्सान की भरपाई (केंद्र से) नहीं हुई इसलिए कर्ज पर निर्भरता बढ़ती चली गई. 2018 में छह बडे़ राज्य कर्ज के खतरनाक बोझ में हैं जबकि करीब 15 राज्य राजकोषीय घाटे की निर्धारित सीमा पार कर चुके हैं. किसान कर्ज माफी और उदय स्कीम के तहत बिजली बोर्ड के घाटे बजट पर लेने से बजटों की हालत और खराब हो चुकी है. नतीजतन केंद्र और राज्यों का साझा राजकोषीय घाटा जीडीपी के अनुपात में दस फीसद पर है.

केंद्र सरकार जब वित्तीय ताकत अपने हाथ में समेट रही थी तब शायद सवाल इसलिए नहीं उठे क्योंकि राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री थे अब जबाकि चार बड़े राज्यों (गुजरात, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और बिहार) को छोड़कर शेष देश में विपक्ष का राज है तो अब राज्य वापस अपनी वित्तीय ताकत पाने की जद्दोजहद शुरू करेंगे. पिछली जीएसटी काउंसिल बैठक में मतविभाजन इसका सबूत है.

2020 के बजट के बाद आर्थि सियासत में एक नई रस्साकशी शुरू होने वाली है जिसमें केंद्र सरकार को यह तय करना होगा कि वह मंदी दूर करने के लिए राज्यों को ताकत देगी या फिर अपनी आर्थिक ताकत बढ़ाने का सिलसिला बनाए रखेगी. यही जद्दोजहद अगले एक साल में केंद्र राज्यों के रिश्तों का नया रसायन बनाएगी.

कभी-कभी कुछ चीजें करीब से देखने पर बहुत बड़ी लगती हैं जैसे कि केंद्र सरकार का बजट जो देश के विराट जीडीपी के ऊंट में मुंह में जीरा है. केंद्र का कुल समग्र खर्च जीडीपी में महज 13 फीसद का हिस्सेदार है लेकिन सुर्खियां ऐसे खाता है मानो यह हर मर्ज की शर्तिया दवा हो, जबकि मंदी से उबरने की राह राज्यों के 29 बजटों से निकलेगी जो केंद्र के साथ मिलकर जीडीपी में 27 फीसद खर्च के हिस्सेदार हैं.

मंदी दूर करने के लिए केंद्र को अपनी ताकत से समझौता करना होगा और सियासत के आग्रह छोड़कर राज्यों को मुहिम की कमान देनी होगी नहीं तो भारत के संघीय ढांचे मे आने वाली दरारें मंदी की सबसे बड़ी ताकत बन जाएंगी.